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96. हे आत्मा ! तुझे आत्म कल्याण के सहयोगी
साधन मिले है जैसे 1) मनुष्य गति 2) त्रस काया 3) पंचेन्द्रिय जाति 4) पाँच इन्द्रियें परिपूर्ण 5 ) 6 पर्याप्ति 6 ) दस प्राण 7) तीन शरीर 8) नवयोग तथा 9 ) चार उपयोग, इनको संवर - निर्जरा मे लगाना सीख गया तो समझ लें तेरी गति सुधर जायेगी । आत्मा भटकेगी नहीं।
97. हे आत्मन! ये पारिवारिकजनों का साथ भी अस्थाई है, तू मरण भी प्राप्त करेगा ना ? सोच ! मृत्यु के समय धन साथ जायेगा क्या ? नहीं! धर्म साथ जायेगा क्या? हाँ। 98. हे आत्मन। तेरा रूप-यौवन, उम्र सभी बुल बुले - इन्द्रधनुष व बिजली की चमक के समान है। क्षणिक सुखों में मत डूब।
99. आरंभ से ही दुःख का जन्म होता है (आत्मा दुःखी बनती है)
100. हे आत्मा! “अय सन्धीति अदक्खु" हे बुद्धिमान ! आज कर्म निर्जरा करने का सुन्दर अवसर है।
101. जो पाप से मौन (त्याग) होते है, वे ही मुनि आत्मा कहलाते है।
102. जिस आत्मा में जिनवाणी में कोई शंका आदि हो तो सोचे कि "तमेव सच्चं णीसंकं जं जिणेहि पवेइयं” तीर्थंकर परमात्मा ने जो कहा वही सत्य है - निशंक है।
103. एक बार अन्तरात्मा को बेचने के बाद किसी भी किंमत पर खरीदी नहीं जा सकती
है।
104. मनुष्य जीवन में प्रथम पाठ सीखना। “प्रामाणिकता”, नहीं तो सब व्यर्थ है।
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105. धीरे बोलो, धीमे बोलो, व थोड़ा बोलो आत्म शांति बढ़ेगी।
106. जिस आत्मा को क्रोध बार बार आता है, उसको, फिर कोई दूसरे शत्रु की जरुरत नहीं है।
107. आत्मा के कल्याण हेतु इन चार को करो
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1) इन्द्रिय दमन 2) कषाय शमन 3) विषयों का वमन 4) गुरुदेव को नमन ।
108. मन वचन व काया को पवित्र रखना ही धर्म की नींव है। मन के विचारों को और स्वप्नों को काबू रखने वालों को धन्य-धन्य है। उनको लाख-लाख प्रणाम करता हूं। अंत में तीन शिक्षाप्रद तीन अमूल्य बोलः 1. प्रातः काल ब्रह्ममुहुर्त में सोना नहीं। 2. माता-पिता व बड़ों को प्रतिदिन प्रणाम
करना।
3. क्रोध का प्रसंग आने पर शांति धारण करना।
मित्र-आत्मा की कभी पीछे से बुराई नहीं करता है, जीवन भर मित्रता निभाना जानता है।
अच्छी अच्छी घटनाओं को याद रखिए । बुरी-बुरी घटनाओं को भूल जाइए । ।
एक आत्मा के साथ अनंत आत्मा रह सकती है, जैसे सिद्ध। फिर क्यों हम 'जड़' के पीछे भाग रहे है। ?? जड़ की तृष्णा से आत्मा दिग्भ्रमित हो जायेगी, उससे पहले “चैतन्य - राज” को हम संभाल लेवे।