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78. शरीरधारी आत्मा को इन्द्रिये प्राप्त होती है | 87. आत्मा के परिभ्रमण का कारण कर्म है जो
उन इन्द्रियों से शब्द-रुप आदि का बोध 'आत्मा' में विश्वास करते हैं, वे आत्मवादी होता है। शब्दादि सब पुद्गल होते हैं।
कहलाते है। 79. आत्मा की निकृष्ट पर्याय निगोद' में रहती | 88. प्रत्येक प्राणी का सुख व दुःख ‘अपना
है। आत्मा निगोद में अनंतकाल रही है। अपना' है यह जानकर आत्म दृष्टा बनें। 80. हे आत्मा! तू अनन्तों के साथ अनंत काल | 89. सभी बलो में सबसे बड़ा बल है 'आत्मबल'। रहा था, आज मानव योनि श्रेष्ठ भव को
90. 'धुणेकम्मसरीरगं' हमें आत्म कल्याण हेतु प्राप्त कर के भी परिवार समाज घर में 5
कार्मण शरीर (कर्मो के भण्डार को धुनना या 7 के साथ रहना भी कितना मुश्किल
चाहिए। राग-द्वेष से ही कर्म का बंध होता होता जा रहा है। हे जीव! तू सोच। अनंत
है।) राग-द्वेष जितना-जितना घटेगा, जीवों के साथ अनंतकाल कैसे बिताया होगा?
उतना-उतना आत्मा का कल्याण होगा। आत्मा को नुकसान पहुँचाने वाले पाँच दाने,
91. प्रभु महावीर ने आत्म कल्याण हेतु धर्म के
दो-प्रकार बताए है-1) अणगार 2) आगार। जिस तरह अनाज का एक दाना या बीज जो पेट में गया हुआ यदि सड़ने लगता है 92. अणगार धर्म - जीवन पर्यन्त गृह को त्याग तो बीमारी को ही देगा ना? उसी प्रकार कर 18 पापों का त्याग कर, 5 समिति, 3 आत्मा में ये 5 दाने दुःख ही देते है यथा गुप्ति व 5 महाव्रतों को धारण करते हुए 1) सुख में लीन 2) दुःख में दीन 3) पाप जीना। ये प्रथम श्रेष्ठ मार्ग है। में प्रवीण 4) धर्म में क्षीण 5) बुद्धि में
93. आगार धर्म = घर में रहते हुए शक्ति का हीन।
गोपन न करते हुए 12 व्रतों का पालन 82. पर्युषण पर्व में संवत्सरी आत्मिक पर्व है। करते रहना तथा संयमियों के माता पिता
"टूटे हुए दिलों व मनों को जोड़ने" का के बिरुद को निभाना, तीन मनोरथों का दिन है, अध्यात्म व आत्मा दोनों जुड़े चिंतन करना व अन्त में संलेखना सहित होते हैं।
पंडित मरण प्राप्त करना। 83. आचारांग सूत्र में कहा है कि आत्मा का | 94. चार गति में जाने के 16 कारणो में से दश छेदन-भेदन दहन व हनन नहीं होता है।
का वर्जन करना तथा छह का सेवन करना। 84. मुक्त आत्मा वर्णादि 20 बोल रहित होती (यथा 1) सरलता 2) नम्रता 3) दया भाव
4) घमण्ड व ईर्ष्या नहीं करना 5) संयम 85. मुक्त आत्मा को तर्को से नहीं समझा जा
धारण करना 6) देश संयम धारण करना।) सकता है, न बुद्धि ग्रहण कर सकती है। | 95. हे आत्मन! तू समाज - परिवार में ईर्ष्या86. मुक्त आत्मा न शरीर धारी है, न पुनर्जन्मा
द्वेष मत रख। नहीं तो बैर की परम्परा बढ़
जाएगी। - है, न स्त्री न पुरुष व नपुंसक है।