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65. सम्यक्त्वी आत्मा के पाँच लक्षणों में से एक ज्ञाता दृष्टा हूँ। राग द्वेष करना मेरा स्वभाव
अनुकम्पा गुण दुःखी जीवों के प्रति संवेदन नहीं है समस्त पर-भावों से अलग हो जाना भाव है।
ही मोक्ष है, संवर - निर्जरा से आत्मा कर्मो 66. आत्मा के क्रुरता-कठोरता आदि दोषों को
से रहित होती है, ये अन्तर आत्मा के अनुकंपा - दया भाव ही दूर (क्षय) कर
भाव होते है। सकती है।
70. मुक्त आत्मा - सभी बंधनो, कर्मों, राग67. आत्माओं का वर्गीकरण गुण और दोष के
द्वेष रहित तथा परमाणु मात्र दोष भी जिनमें आधार पर -
नहीं होता है। ज्ञाता-दृष्टा, (सर्वज्ञ) सर्वदर्शी
वीतरागी अशरीरी होते है। A) मिथ्या दृष्टि आत्माएँ अनन्तानंत होती
71. सम्यक दर्शनी आत्मा - "तत्वार्थ श्रद्धानं B) अविरति सम्यक दृष्टि आत्माएं असंख्यात
समयक् दर्शन" तत्वों के यथार्थ भावों पर होती है।
श्रद्धा होना ही सम्यक दर्शन है। C) श्रावक श्राविकाएँ भी असंख्यात होती
72. वह ज्ञान सम्यक ज्ञान नहीं, जिसमें सम्यक्
दर्शन न हो। अर्थात सम्यक् दर्शन में ही
ज्ञान आत्मा रहती है। बिना सम्यक ज्ञान D) प्रमत्त संयत्ती व अप्रमत्त संयत्ती आत्माए जघन्य दो हजार करोड़ उत्कृष्ट नव हजार
से चारित्र गुण की प्राप्ति नहीं होती है। ये
तीन रत्न हैकरोड़ होती है। E) सयोगी केवलज्ञानी आत्माएँ जघन्य दो
सम्यक् ज्ञान, सम्यक् दर्शन, सम्यक चारित्र। करोड़ उत्कृष्ट नव करोड़ होती है।
3. नास्तिक आत्मा व आस्तिक आत्मा ये दो F) सिद्ध भगवान अनंतानंत होते है।
प्रकार आत्मा के होते है। G) सिद्ध भगवान से निगोद के जीव | 74. आत्मा मोहनीय कर्म को क्षय करने के बाद अनंतगुणा अधिक होते है।
पुनः संसार में उत्पन्न नहीं होती है। ' H) मनुष्य की आत्मा ही सर्वगुण सम्पन्न | 75. जिस प्रकार अग्नि में जला बीज पुनः बनती है।
अंकुरित नहीं होता है उसी प्रकार कर्म रुप 68. मिथ्यात्व ग्रस्त आत्मा : भोग भोगने के
(मोहनीय) बीज के जल जाने से आत्मा लिए ही मिले है - “ओ भव मीठो परभव पुनः जन्म नहीं लेती है। कुण दीठो।" हाथ में आए को छोड़ना 76. आत्मा की उच्चतम पराकाष्ठा ‘मुक्ति' है। मूर्खता है, पर लोक व पुण्य - पाप स्वर्ग जो आत्मा एक बार मुक्त हो जाती है वो नरक को नहीं मानता है उपरोक्त विचार पुनः अवतार नहीं लेती है। मिथ्यात्वी आत्मा के है।
77. जैन दर्शन 'अवतारवाद' को नहीं मानता 69. मुमुक्षु आत्मा - मैं चेतन स्वरुप हूँ, मैं | है। उत्तारवाद को मानता है।