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________________ 40. मेरी जीवों से (आत्माओं) मैत्री (हितकारी | 54. आठ आत्माओं मे से कषाय-आत्मा ही रुप) है। ऐसा श्रेष्ठ सूत्र मिलने के बाद भी संसार परिभ्रमण का मूल कारण माना है। हमारी आज की दशा भी हमारी ही आत्मा कषाय को सूत्रो में ‘अग्नि के समान माना के विभाव ने बिगाड़ रखी है। है। श्रुतज्ञान, शील सदाचार व तप रुपी पानी से ही अग्नि को शांत किया जा सकता 41. दस लाख मनुष्यों को संग्राम में अकेले जीता जा सकता है, (अकेले से) परन्तु है, न अपनी आत्मा पर कषाय करें न अन्यो स्वयं की आत्मा को जीतना (कषायों को) पर कषाय करें। ही परम जय है। 55. आत्मा का ‘पाप - त्याग' तरफ झुकाव 42. आत्मा का दमन (पाप से पीछे हटना) अर्थात जड़ता की पकड़ से बाहर आना। करना चाहिए। 56. आत्मा का पाप तरफ झुकाव अर्थात जड़ता में रुचि होगी। 43. आत्म दमन करना महा मुश्किल है। 44. आत्म-दमन से जीव इस लोक - परलोक 57. आत्मा के विकास क्रम की भूमिका गुणस्थानों से जानी जा सकती है। में आत्मा सुखी बनता है। 45. अन्यों के द्वारा दमन (पीड़ा बंधन दबाव) 58. आत्मा की उच्चतम अवस्था सिद्ध व अरिहंत पर्याय में ही होती है। झेलने की अपेक्षा तप संयम के द्वारा आत्मा का दमन करना श्रेष्ठ होता है। 59. आत्मा का उत्थान व पतन 'मोहनीय' कर्म 46. आत्मा ही आत्मा का मित्र है। के आधार पर ही होता है। 47. दुष्प्रवृति में लगी आत्मा शत्रु मानी गई है। | 60. आत्मा अरुपी होते हुए भी ‘रुपी' शरीर में बंधी है या रहती है। शरीर से आत्मा बंधन 48. मोक्ष मार्ग में लगी आत्मा मित्र मानी गई व मुक्ति दोनों में सहयोग ले सकती है। 61. उत्तम, पवित्र निर्मल व अनावी आत्मा को 49. आठ कर्मो का बंध व क्षय का कर्ता आत्मा 'आत्म गुप्त' कहा है। को माना गया है। 62. भावना और योग से आत्मा शुद्ध होती है। 50. दुःख व सुख का कर्ता व भोक्ता आत्मा को ही माना गया है। 63. सदैव आत्मा तो आत्मा ही रहेगी परन्तु इस आत्मा को पुनः मानव जन्म मिलना 51. आत्मा को वैतरणी नदी व कूट शाल्मली महा दुर्लभ है, अत एव इस मानव जन्म वृक्ष के समान माना है। को पाप त्याग (संवर संयम) में अधिक से 52. आत्मा को कामधेनु (देवलोक की गाय) माना अधिक जोड़ना चाहिए। 64. आत्मा का एक उत्तम गुण है संवेदना, बिना -53. आत्मा को ही नंदनवन (आनन्ददेने वाला) | “संवेदना" का व्यवहार लूखा हो जाता है। माना है। है।
SR No.002325
Book TitleVinay Bodhi Kan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaymuni
PublisherShwetambar Sthanakwasi Jain Sangh
Publication Year2014
Total Pages336
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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