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________________ है। 389. मन वचन और काया की दुष्ट प्रवृतियों का | 396. 9 कोटि का अर्थ क्या है? तीन करण तीन स्वीकृत नियम पर्यन्त त्याग करके मन से योग से पापों का त्याग नव कोटि कहलाता दुष्ट चिन्तन, वचन से दुष्ट वचन तथा काया से हिंसा नहीं करने की प्रतिज्ञा ही सामायिक 397. श्रावक की सामायिक में पापों का त्याग छ कोटि से इस प्रकार भंग बनते है - करूँ नही 390. अपनी आत्मा पूर्व में पाप व्यापार में थी, मन से, करूँ नहीं वचन से, करूँ नहीं काया उसका प्रतिक्रमण प्रायश्चित करके पाप को से, कराऊँ नही मन से, कराऊँ नहीं वचन वोसिराता हूँ तथा संयम व सदाचार को से, कराऊँ नहीं काया से। धारण करता हूँ, यही दो घड़ी का आचार 398. “ईमानदारी” ही व्रतों के प्रति निष्ठा बढ़ाती ही “सामायिक" प्रतिज्ञा पाठ है। “वचन है और आराधक बनाती है। अपनों से निष्ठा बद्धता को तोड़ना नहीं चाहिए।" कभी न तोड़े। 391. सामायिक का आदर्श मात्र “वेश-बदलना 399. भंते शब्द से भगवान (गुरु) को विनम्रता से ही नहीं" जीवन में चंचलता आदि घटनी निवेदन किया जाता है। ही चाहिए। 400. भंते-भगवान-वीतरागी जागृति ही है, “मुझे 392. खेद है, विडम्बना है कि “नित्य सामायिक भी पूर्ण तथा जागृति व निष्ठा से सामायिक करने वाले और नहीं करने वालों दोनों करनी है" ऐसा सोचें। का बाह्याचार, कषायों, क्लेशों, आरोपों, प्रतिआरोपों और अण बनावों से खदबदता 401. सावद्य (सावय) अर्थात निन्दनीय, निन्दा है तो सही मायने में सामायिक का असर के योग्य कर्म। अतः जो कार्य निन्दनीय भीतर अन्तरंग में नहीं हुआ समझना है, उसका ही तो सामायिक में त्याग किया चाहिये। युवा वर्ग ऐसे धर्म से धार्मिक नही जाता है। वर्जने योग्य कार्यों को सावध बनते है। आचरण का ही भारी प्रभाव पड़ता कहते है। 402. निन्दनीय कर्मो की प्रवृतियों के हटने से मन 393. “सामायिक" अर्थात दो घड़ी तक समस्त में निर्मलता पवित्रता बढ़ती है। प्रथम पांच जीवों से मैत्री सम्बन्ध हो जायें। “मैत्री ही आश्रव निन्दनीय माने गए हैं। साधना का प्रथम द्वार है।" 403. सावद्य योगों का त्याग “पुण्यानुबंधी पुण्य" 394. “पूणिया" श्रावक जैसी शुद्ध सामायिक वाले का बंध कराता है। (सकषाय अवस्था तक) आज विरले ही मिलते है। परिग्रह - वृद्धि 404. “सामायिक' एक प्रकार का "अभयदान" से विकल्प संकल्प बढ़ते है। श्रमण भ. ही है। महावीर प्रभु ने पूणिया श्रावक की प्रशंसा 405. दस लाख गायों का प्रति मास-मास दान की थी। (सामायिक का मूल्य) देवे, उससे भी “संयम" को ऊँचा बताया 395. सर्व विरत सामायिक 9 कोटि से होती है, है। सम-भाव लावो। (नमिराजर्षि ने इन्द्र को जब कि देश विरती सामायिक छ: कोटि से कहा था) होती है।
SR No.002325
Book TitleVinay Bodhi Kan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaymuni
PublisherShwetambar Sthanakwasi Jain Sangh
Publication Year2014
Total Pages336
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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