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________________ 373. महापुरुषों का स्मरण हमारे हृदय को पवित्र | सिद्धि प्रभु नहीं देते, भक्त स्वयं ग्रहण बनाता है, तेज बुखार में बर्फ की पट्टी (प्राप्त) करता है। समान शीतलता देने वाले तीर्थंकरो के नाम 381. अरिहन्त परमात्मा का ही बताया हुआ मार्ग स्मरण होते हैं। उपकारी को कभी न भूलो। होने से, (उन्ही से प्राप्त हुआ) अहम् को 374. “देहरी दीपक न्याय" की तरह अन्दर व तोड़ने व पीछे परम्परा में "विनम्रता” बनी बाहर दोनों प्रकाशमान करते है। 'धर्मी' स्वयं रहे यही भाव है। “विनय समाधि" धर्म का तथा 'पर' का कल्याण करता है। देता है। 375. जैसी “श्रद्धा” होती है जैसा विश्वास रहा 382. जैसे व्यवहार में शीशु को चलना, बोलना होता है, वह वैसा ही बनता है। पुद्गल आदि क्रियाएं माता सीखाती है फिर भी स्वभाव से टूटते ही हैं, जीव विभावों से बड़ा होने के बाद भी उपकार तो माता सम्बन्ध तोड़ते हैं। पिता का मानता ही है ना? अपनों को 376. वीरों के नाम से वीरता जागती है, कायरों कभी न भूलों। के नाम से कायरता जागती है। “यशस्वी 383. श्री कृष्ण महाराज, अर्जुन की तरफ से का साथ छोड़ना" आत्महत्या से भी भयंकर सारथि बने, परन्तु युद्ध तो अर्जुन ने ही किया था, अध्यात्म रण क्षेत्र में भी मार्ग 377. मन एक स्वच्छ कैमरा है, जैसी वस्तु या दर्शन अरिहन्तो का मिलेगा, परन्तु साधना व्यक्ति की ओर अभिमुख होगा ठीक उसी के शस्त्र तो हमें ही उठाने होंगे, कषाय - का आकार अपने में धारण करलेगा। कसाई, वासनाओं से तो अर्जुन की तरह हमें ही साध्वी या साधु भगवान जिसका नाम लेंगे लड़ना होगा। हे वीर! जागे रह!!! 'हमारे भीतर वैसी ही आकृति बनेगी, 384. 'महिया' का पाठान्तर “मइआ" भी मिलता महापुरुषों का नाम लेते ही महामंगल दिव्य रुप आकार हमारे सामने आयेगा। (प्रवृति) 385. चतर्विशति स्तव जिन मद्रा या योग मद्रा में 378. जैन धर्म की प्रार्थना का आदर्श यह है कि पढ़ना चाहिये। अस्त व्यस्त दशा में पढ़ने अपने आत्म निर्माण की सुन्दर कामना से स्तुति का आनन्द रस नहीं मिलता है। करें। सद्गुणों को प्राप्त करने की भावना सुखासन व विनम्रता के भावों से बैठे। भाएँ। 386. “अप्पाणं वोसिरामि” पाप व्यापार से आत्मा 379. जैन धर्म में भगवंत स्मरण केवल श्रद्धा के को अलग करता है। बल को जागृत करने के लिए ही है। उमंग बिना जीवन निःसार होता है। 387. आत्म भूमि में सामायिक का बीजारोपण प्रतिज्ञापाठ “करेमि भंते” के सूत्र द्वारा किया 380. “सिद्धा सिद्धिं मम दिसन्तु” इस पर अलग जाता है। अलग चिन्तन रखे गए है, प्रभु तो वीतरागी कुछ नहीं किसी का करते है, परन्तु आलम्बन | 388. सामायिक अर्थात पाप व्यापार-त्याग रुप लेकर भक्त तो सब कुछ कर सकता है, है, प्रत्याख्यान स्वरुप है।
SR No.002325
Book TitleVinay Bodhi Kan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaymuni
PublisherShwetambar Sthanakwasi Jain Sangh
Publication Year2014
Total Pages336
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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