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________________ 435. सामायिक के बीज बोने के बाद पुनः भक्ति योग स्वरूप नमोत्थुणं का पाठ किया जाता है। 436. जो जो गुण तीर्थंकरो ने “सामायिक की साधना” से ही प्राप्त किए। वे ही गुण साधक के समझ में आवे, अतः गुणगान गुणों का करना है। 437. तीर्थंकर स्तुति के साथ-साथ नमोत्थुणं, में वीतराग प्रभु के अनुपम गुणों का मंगल गान किया गया है। 438. भक्ति और भावों से एक-एक गुण पर चिन्तन करें तो इसी में ही बहुत कुछ प्राप्त हो जायेगा। 439. गुणाः “पूजा स्थानं गुणि षु न चलिंग न च वयं” अर्थात गुण ही पूजा का कारण है, वेश या आयु नहीं। 440. पुरुषोत्तम अर्थात उत्तम श्रेष्ठ ! बाह्य व आभ्यन्तर दोनों से उत्तम होते है। 441. पुरुष सिंह अर्थात यहाँ भगवान को सिंह की उपमा देना, वीरता और पराक्रम से ही है, उपमा एक देशीय होती है। 442. मनुष्यों के दो प्रकार 1. कुत्ते के समान लाठी को पकड़ते है जब कि दूसरे सिंह के समान, लाठी मारने वाले को पकड़ते है। मूल शत्रु को पकड़ते है, तीर्थंकर प्रभु भी आत्म शत्रुओं (अज्ञान - मोह) को जीतते है । मेरा कोई दुश्मन नहीं है। 443. तीर्थंकर अन्य जीवों को शत्रु ही नहीं समझते है, परन्तु आभ्यन्तर अज्ञान मोह रुपी शत्रुओं पर स्वयं अपनी शक्ति एवम् साधना से विजय प्राप्त करते है। 269 444. पुरुषवर पुन्डरीक अर्थात् श्वेत कमल की उपमा तीर्थंकर को दी गई है, सौन्दर्य रुपी गुणों एवम् सुगन्ध रुपी यशोकीर्ति तीनों लोकों में फैली हुई है। - 445. कषाय भाव नहीं होने से श्वेत कमल की उपमा दी गई है। - 446. गन्ध हस्ती सिंह की उपमा वीरता, पुन्डरीक कमल की उपमा सुगंध से दी गई है, जबकि वीरता एवं सुगंध ये दोनों उपमाएं मिश्रित रुप से गन्ध हस्ती पर लागू होती है। - 447. तीर्थंकर को गंध हस्ती समान कहने का आशयतीर्थंकर की उपस्थिति मात्र से “पाखण्ड मत”, रोग, वैर विरोध अतिवृष्टि, अनावृष्टि आदि छिन्न भिन्न हो जाते है। 448. लोक प्रदीप समान अर्थात मिथ्यात्व रुपी घोर घनी भूत अंधकार को नष्ट कर सन्मार्ग का पथ केवलज्ञान से दिखाते है। 449. दस लाख योद्धाओं को जितनी सरलता से जीता जा सकता है विषय विकारों से भरे काषायिक कुसंस्कारों को जीतना उतना ही महा मुश्किल कार्य है। 450. (अतएव )! अरिहंत ही श्रेष्ठ होते है, जिन्होंने आत्म शत्रुओं पर विजय प्राप्त करली। अपने ही शत्रु भीतर रहे होते है। 451. भगवान शब्द के छह अर्थ आचार्य हरिभद्रसूरि ने दिए है 1. ऐश्वर्य - प्रताप 2. वीर्य शक्ति या उत्साह 3. यश - कीर्ति 4. श्री शोभा -
SR No.002325
Book TitleVinay Bodhi Kan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaymuni
PublisherShwetambar Sthanakwasi Jain Sangh
Publication Year2014
Total Pages336
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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