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________________ 59. गृहस्थी के जीवन में 'ममता' न हो तो | 70. लौकिक पर्वो में कर्म बंध होता है, परन्तु संस्कारो का रोपण नहीं किया जा सकता ये पज्जुषण पर्व (लोकोत्तर) आत्मा में लगे । और 'समता' नही रही तो निकट भविष्य कर्मो की निर्जरा कराता है, कर्म कर्दम की में जल्दी ही महाभारत हो जायेगा। विशुद्धि कराता है। 60. पूर्व भवों के संस्कार (अनेक जन्मों के) | 71. द्वेष भावना दूर करने से दृष्टि “अमृतमय" अच्छे बुरे सब जीव के साथ ही आते है, होती है। भारी कर्मी-जीव को उपदेश जल्दी नहीं | 72. एक क्षमा गुण हजारो गुणों को खींच लाता लगता है। 61. 18 युवा कुमारों को एक उपदेश से सुसंस्कार | 73. क्रोध से तिरस्कार और मान से अहंकार जगे थे। उत्पन्न होता है। 62. “वसुधैव कुटुम्बकं” सारी पृथ्वी के जीवों 74. जड़ की मुर्छा धर्म में सबसे बड़ी बाधा को एक कुटुम्ब रुप समझने वालों की कितनी उदात भावना है। 75. संज्ञा से ऊपर उठे बिना उत्कृष्ट आराधना 63. पांचो पदों की प्राप्ति 18 पापों के त्याग से नहीं हो सकती। ही पैदा होती है। 76. धर्म के प्रति श्रद्धा अटल होनी चाहिए। 64. मंत्रवाद की तरफ जाना अर्थात पुरुषार्थ | 77. विश्वास के बिना गृहस्थावास भी नहीं चलता। कमजोर है। 78. जब तक द्वेष नहीं जायेगा, तब तक धर्म क्रोध, मान, द्वेष को दूर करना ही पर्युषण आत्मा में नहीं आयेगा। बदले का फल का प्रथम संदेश है। स्वयं की दुर्गति होती है। 66. अंतगढ़ सूत्र के रचनाकर (गूंथन कर्ता) आर्य 79. माँ का भार हल्का करे, वही सपूत, जो. सुधर्मास्वामी थे। अंग सूत्रों को गणधर भगवंत भार बढ़ाए वो कपूत । गूंथते है। 80. दुःख जितना दुःखी नहीं करता, उतना 67. द्वेष के परिणामों में अनन्त उपकारी गुरुदेव उसका चिंतन ही दुःखी कर देता है। शास्त्र भी दोषी दिखेंगे। द्वेष रुपी चश्में में नम्बर में “दुःख का भय” माना है। गलत होते है। 81. जीव मात्र का तिरस्कार नहीं करना चाहिए। 68. पज्जुषण पर्व जोड़ने का काम करता है। 82. जैन दर्शन भाव प्रधान है न कि भव प्रधान। कभी भी तोड़ो मत। 83. जैन धर्म गुण प्रधान है, संख्या प्रधान नहीं। 69. मोह व अज्ञानता से हुई भूलों द्वेष भावों को मिटाना ही सच्चा पर्व मनाना है। जीव मात्र 84. तिरस्कार, पुरस्कार से वांचित करता है। क्षमा का अधिकारी है। 85. ऐसा मत सोचो कि चित्त चिंताओं से भरे। 208
SR No.002325
Book TitleVinay Bodhi Kan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaymuni
PublisherShwetambar Sthanakwasi Jain Sangh
Publication Year2014
Total Pages336
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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