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________________ 169. क्रोध से विकाश नहीं, विनाश ही होता है। 170. हकीकत क्रोध में जलता हुआ लम्बे काल तक जी नहीं सकता है और छदमस्थ (अपूर्ण) पुरुष क्रोध के बिना भी नहीं रह सकता है। 171. दानावल, वडवानल तथा वैश्वानल से भयानक क्रोध होता है। 172. गुस्से की एक पल को बचा लेता है, संभाल लेता है वही अफसोस से बच जाता है। 173. क्रोध आत्म धर्म से भ्रष्ट करता है, मन से दरिद्री बन जाता है। 1.74. ज्ञानी की आँख खुली रहती है और मुंह बंद रहता है, परन्तु क्रोधी की ज्ञान की आँख तो बंद तो हो जाती है और मुँह खुल जाता है। 175. क्रोध को चंडाल की उपमा दी गई है, जिसके स्पर्श से अपवित्र बन जाता है। 176. क्रोधी दूसरे को तो दुःखी कर सकता है, परन्तु स्वयं तो सुखी नहीं हो सकता है। 177. . क्रोधावस्था में गुप्त बातें भी बोल देता है, जो अनर्थ करा सकती है। 178. अंगारे फेंकने वाले का हाथ पहले जलता है, वैसे ही क्रोधी स्वयं जलता है। 179. क्रोध का निशाना दूसरों पर होता है, परन्तु घायल तो स्वयं होता ही है। 180. क्रोध 'दुष्ट ज्वर है, वह चैतन्य की स्वस्थता का नाश करता है। 181. काला सर्प के समान क्रोध कोबरा है। 182. क्रोध में आँखें यज्ञ रुण्ड की लालधूम अग्नि समान हो जाती है। - 183. दांत चिम्पाजी के जैसे कचकच होने लगते है। 115 184. हथोड़े के समान हाथ कठोर हो जाते है। 185. शरीर में कंपन शुरु हो जाता है। 186. आँखों की पापण (भापण ) भ्रमरों पर मानो कानखजुरे चिपक गए है। होंठ धुजने लगते है। 187. 188. जीवों के प्रति दुर्भाव तथा अप्रियता पैदा होती है। 189. विरोधियों से बार बार लड़ने की इच्छा (जुनुन) होती 190. क्रोध कीर्ति के कलश को गिरा देता है। अपयश फैलाता है। 191. सिंह के क्रोध से भी मानव का क्रोध अति दुःखदाई है। शेर चौथी नरक तक जा सकता है, जबकि मानव सातवी नरक में जा सकता है। 192. बिच्छु का जहर अर्द्ध भरत प्रमाण, मेंढ़क का जहर भरत क्षेत्र प्रमाण, तथा सर्प का जहर जंबू द्वीप प्रमाण फैल सकता है परन्तु मानव के शरीर में रहा जहर ढ़ाई द्वीप प्रमाण क्षेत्र में फैल सकता है। 193. क्रोध एक प्रकार का ज्वाला मुखी है। 194. क्रोध के दावानल को क्षमा ही शांत कर सकती है। 195. मेतारज मुनि, गज सुखमाल मुनि, अंति सुकुमार मुनि तथा खंदक मुनि के 500 शिष्यों की "उत्कृष्ट क्षमा” वंदनीय पूजनीय है। 196. परिग्रह पर मूर्च्छा घटाने से क्रोध घटता है। 197. “मित्ति मे सव्व भूएसु” के जाप करने से क्रोध घटता है।
SR No.002325
Book TitleVinay Bodhi Kan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaymuni
PublisherShwetambar Sthanakwasi Jain Sangh
Publication Year2014
Total Pages336
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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