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________________ पच्चीस-क्रिया ) | 13) प्रातीत्यिकी : जीव और अजीव व रुप बाह्य वस्तु के आश्रय से उत्पन्न राग-द्वेष से लगने क्रिया से कर्मों का बंध होता है। कर्म बन्ध वाली क्रिया । की कारण क्रियाएँ पच्चीस प्रकार की है । इनका सामन्तोपनिपातिकी : जीव और अजीव वर्णन स्थानांग सूत्र स्थान 2/3,2 तथा 5/3,2 में वस्तुओं के संग्रह करने पर, प्रशंसा करने है। से हर्षित होना और उनकी निन्दा से दुःखी कायिकी: शरीर आदि प्रमत्त योगों के व्यापार होने से लगने वाली क्रिया । से होने वाली हलन चलनादि क्रिया । स्वहस्तिकी : अपने हाथ से मारने पीटने अधिकरणिकी : चाकू छुरी, तलवार, कुदाल आदि से लगने वाली क्रिया । आदि शस्त्रों से होने वाली क्रिया । 16) नैसृष्टिकी : किसी वस्तु को फेंकने से लगने प्राद्वेषिकी : द्वेष ईर्ष्या, मत्सरता से होनी वाली क्रिया । वाली या लगने वाली क्रिया । 17) आज्ञापनिकी : दूसरों को आज्ञा देने से पारितापनिकी : किसी को मार-पीट अथवा लगने वाली क्रिया । कठोर वचन कहकर दुःख पहुँचाने से होने वाली क्रिया । वैदारणिकी : चीरने फाड़ने, खोटे विचार से लगने वाली क्रिया । प्राणातिपातिकी : प्राणों का नाश करने से लगने वाली क्रिया । अनाभोग प्रत्यया क्रिया : अनजाने में लगने आरम्मिकी : छः कायों के जीवों का आरम्भ वाली क्रिया । करने से लगने वाली क्रिया । अनवकांक्षा प्रत्ययाः हिताहित की उपेक्षा से परिग्रहिकी : कुटुम्ब परिवार, दास, दासी लगने वाली क्रिया । धन धान्य आदि के प्रति ममत्व भाव के 21) प्रेम प्रत्यया : राग से लगने वाली क्रिया अपनाने से लगने वाली क्रिया । (माया और लोभ से) माया प्रत्यया क्रिया : छल, कपट से लगने द्वेष प्रत्यया : क्रोध और मान से लगने वाली क्रिया । वाली क्रिया । अप्रत्याख्यान प्रत्यया : पच्छक्खाण नहीं करने से लगने वाली क्रिया । प्रयोगिकी: मन वचन काया का दुरुपयोग करने से लगने वाली क्रिया । 10) मिथ्यादर्शन प्रत्यया : कुदेव, कुगुरू, कुधर्म पर श्रद्धा रखने से लगने वाली क्रिया । | 24) सामुदायिनिकी : बहुत से लोग मिल कर 11) दृष्टिजाः देखने पर राग द्वेष आदि करने से एक साथ अच्छा बुरा देखने-करने वाली से लगने वाली क्रिया ।। लगने वाली क्रिया । ईर्यापथिकी : कषाय रहित जीवों को योग 12) स्पर्शजा : स्पर्श से राग द्वेष आदि करने से मात्र से लगने वाली क्रिया । । लगने वाली क्रिया । 19)
SR No.002325
Book TitleVinay Bodhi Kan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaymuni
PublisherShwetambar Sthanakwasi Jain Sangh
Publication Year2014
Total Pages336
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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