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________________ 85. द्वषस 71. पच्चीस क्रिया में एक “पाउसिया" क्रिया है | 82. द्वेष मिटाये बिना पाँच व्यक्तियों का लम्बे जो प्रद्वेष रुप होती है। जीव-अजीव पर काल तक (साथ साथ रहना) असंभव है। द्वेष करता है। 83. क्रोध बिगड़ता-बढ़ता उग्र रुप में द्वेष भाव 72. “द्देसवत्तिया” में क्रोध व मान को लिया गया बन जाता है। तथा अहंकार भी द्वेष वृत्ति है, द्वेष का निर्माण क्रोध व मान से होता है। बढ़ाता है। 84. किसी की बुराई में उत्साह से भाग लेना 73. अनन्तानुबंधी द्वेष जो अनन्त जन्म मरण तथा किसी के सद्गुणों को अनमने मन से को बढ़ा सकता है। नरक गति का बंध सुनना, ये दोनों प्रवृतियां द्वेष भाव से भरी करता है। स्थिति यावज्जीवन की होती है। होती है। 74. अप्रत्याख्यानी द्वेष जो बारह मास द्वेष से अन्यों की द्रव्य और भाव से हिंसा स्थितिवाला, तिर्यंच गति देता है। किसी होती है। प्रकार के प्रत्याख्यान की भावना नहीं होने 86. उग्र राग में स्वयं दुःख उठायेगा, परन्तु देता है। जिस पर राग है उसे तो सुख देने की 75. प्रत्याख्यानावरणीय द्वेष, श्रावक वृत्ति नहीं अभिलाषा रहेगी, जब कि उग्र द्वेष में सामने आने देता है। चार मास की स्थिति वाला वाले को जिन्दा ही नहीं रखना चाहता द्वेष मनुष्य गति में ले जाता है। है। हे प्रभु! क्या होती है, राग द्वेष की लीला। 76. सन्ज्वलन का द्वेष, वीतरागी नहीं बनने देता है। संज्वलन द्वेष वाला मोक्ष में नहीं 87. 'राग' तो दूर होने नहीं देता परन्तु द्वेष' तो दूर ही रखना चाहता है, देखना ही जाता, देव गति में जाता है। नहीं चाहता है। 77. जिससे हम द्वेष रखते है, उसके मित्र 88. द्वेष मानो 'बंजर भूमि के समान है, जो पारिवारिक जनों के प्रति भी द्वेष भाव आ अपनी आत्मा में उत्तम गुण रुपी फूल नहीं जाते है। खिलने देता। 78. द्वेष भावों से सुसंस्कारों का वपन नहीं । 89. द्वेष भाव एक “अनादर" व "तिरस्कार" किया जा सकता है। कुसंस्कारों से द्वेष की रुप भाव है, जो कि सज्जनता से दूर मित्रता है। कराता है। 79. द्वेषी जीव उच्च कोटि का चिंतन नहीं कर | 90. सद्गुणों के सौरभ की खुशबु द्वेष में नहीं सकता है। द्वेष से इन्सानियत गिरती है। रहती। 80. अपशब्द, गालियाँ तथा मारपीट व झगड़े 91. द्वेष के कारण एक भाई दूसरे भाई के साथ रहना नहीं चाहता। के रुप में द्वेष का परिणाम देखा जाता है। द्वेष से रात में नींद' नही, दिन में 'चैन' 81. द्वेष में अहितकारी दुःखकारी व नकारात्मक नहीं। शब्द ही निकलते है।
SR No.002325
Book TitleVinay Bodhi Kan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaymuni
PublisherShwetambar Sthanakwasi Jain Sangh
Publication Year2014
Total Pages336
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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