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92. द्वेष की परिणिति में बुराई व दोषारोपण की | 99. बड़ों से छीनकर, धमकाकर, दबाव प्रवृति दिनों-दिन बढ़ती ही रहती है।
डालकर और बिना निरपेक्षता से गुटबंदी
में पड़कर स्वयं अपना व संघ का विनाश 93. द्वेष व द्वेषियों का समुह घर में हो, समाज
ही करेगा। (मुखिया) में हो संघ में हो या गच्छ/समुदाय में हो परस्पर वैर वैमनस्य की अपूर्व वृद्धि | 100. “सव्व भूयप्प-अप्प भूयस्स” द्वेष भाव को करवायेगा। फिर संघटन के टुकड़े मिटाना घटाना है तो सभी जीवों को अपनी करवायेगा तथा अंत में महाभारत आत्मा के समान देखना चाहिये। इसे करवाकर बे मौत (सद्गुणों की)
सीखीये। मरवायेगा।
101. “परपरस्पर - द्वेष वृति” बहरा बना देती 94. द्वेष के मूल में एक कारण यह भी है कि जब
है। द्वेषी सामने वाले की बात को सत्य किसी एक व्यक्ति पर अंधा राग' हो जाता
__होने पर भी सुनता नहीं है। है तो उसके सारे विरोधियों पर भी भयानक
102. द्वेषी व्यक्ति प्रतिपक्षी की अधिक से द्वेष' पैदा हो जाता है । दोनों तरफ द्वेष
अधिक बुराईयों का प्रचार करेगा, बे की प्रवृति से संगठन अंदर ही अंदर घुन
पेन्दे की बाते करेगा। लग, गलता जाता है। पतन तरफ बढ़ता जाता है।
103. बढ़ता हुआ द्वेष 'झूठा कलंक' भी 95. किसी की उन्नति को देखकर भी द्वेषी को
लगाता है। अच्छी नहीं लगती, वह सदैव ईर्ष्या ग्रस्त 104. 'राग' में एक दूसरे की बातें सुनना तो रहता है।
होता है, हितकारी शिक्षा भी दी जाती है
परन्तु द्वेष मे तो हितकारी शिक्षा सुनने को 96. द्वेषी, ईर्ष्यालु - झूठ - कपट के प्रपंच में
भी तैयार नहीं होता है। पड़कर अन्य जीवों को पुरस्कृत करने पुरस्कार की बजाय तिरस्कृत करता रहता 105. द्वेष की प्रवृति आगामी जन्मो में वैर की
गाठे बनकर उभरती है। 97. द्वेषी कभी 'निरपेक्ष दृष्टि' धारण नहीं कर 106. द्वेष की प्रवृति को शास्त्रकारों ने आसुरी सकता है।
प्रवृति मानी है। 98. संघ या गच्छ का मुखिया, जो द्वेष | 107. मनुष्य जाति का स्वभाव 'आसुरी' नही
वृति रखता हो तो महामोहनीय कर्म है। मन से किसी का बुरा सोचना द्वेष' भाव का बंध होता है वह 'दुर्लभ बोधि' ही है। बनेगा। निरपेक्षता के अभाव में ही ऐसा
108. विद्यमान सद्गुणों का विनाश द्वेष भावों होता है।
से होता है।