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________________ 123) धर्म की गारण्टी : जिन्दगी भर आँख में | 134) अरे भाई ! राम नहीं रामायण में । विकार ना होने देवे । श्री कृष्ण नहीं गीता में । 124) विषय कषाय में लगा हुआ मन संसार बढ़ाता महावीर नहीं भगवती में। है, भगवान को सौंपा हुआ मन भगवान ये सभी महापुरुष तो तेरे भीतर में ही है। बनाता है। 135) जीवन में पात्रता हो तो, गुरुदेव का दण्ड 125) सदा याद रखने योग्य : जीवन में आनेवाले भी केवल ज्ञान दे सकता है, और यदि प्रत्येक दुःख, पाप का नाश करता है, शर्त पात्रता नही हो तो गुरुदेव का वरद हस्त है कि जो समता से भोगे तो। भी संक्लेश (दुःख) का कारण बनता है | 126) शुभ मार्ग में खर्ची पूंजी ही, तुम्हारी पूंजी | 136) कुटुम्बी जनों के साथ झूठ बोलने वाला हे , शेष सभी पूंजी के तो तुम सिर्फ चौकीदार मानव भगवान के पास सत्य बोलेगा, (रक्षक) हो। शक्यता कम है। 127) जीवन जीना और जीवन कैसे जीना? | 137) जो दूसरों को सुखी रुप में नहीं देख सकता दोनों में बड़ा अन्तर है, जीते है सभी परन्तु, | है, वह दूसरों को कभी सुखी नहीं बना उत्तम जीवन जीते हैं महापुरुष । सकता हैं। 128) परिवर्तन संसार का नियम है, जो आज | 138) इतने बड़े न बनो कि छोटो से बात भी तुम्हारा है, कल किसी दूसरे का था, व | न कर सको। आने वाला कल में किसी और का होगा। 139) किसी को मैं कैसा लगता हूँ? 129) ईर्ष्या की ये विशेषता है कि दूसरे को जलावे किसीको मैं वैसा लगता हूँ? या न जलावे परन्तु ईर्ष्या स्वयं का हृदय सदा चिन्तन करते रहना ! जलाकर खाक (राख) कर डालती हैं। मैं प्रभु को कैसा लगता हूँ ? 130) सौन्दर्य जितना वस्तु में है, उससे ज्यादा 140) घर से निकलना ये त्याग है, परन्तु आत्मा मानव की दृष्टिमें हैं, अतः दृष्टि निर्मल में से घर का निकलना, वैराग है । बनावो। 141) संबंध बनाने व टिकाने में वर्षों लग जाते हैं, 131) भूल बताने वाले को फूल के समान समझें, परन्तु बिगाड़ने में कुछ देर ही लगती है । वही धर्म होता है। 142) सर्जन हमेशा समय मांगता है, परन्तु 132) पत्थर घड़ने पर मूर्ति बनती है, विसर्जन पल भर में हो सकता है । सोना घड़ने पर आभूषण बनता है, मिट्टी घड़ने पर आकार बनता है, 143) एक का भोग लेवे वह "कैन्सर", अनेक का मानव घड़ने पर भगवान बनता है। भोग लेवे वह "क्रोध"I (Anger-ऐंगर) 133) उत्तम मानव बनने में पाँच तत्वों का समावेश | 144) इस संसार में भाई धोखा नहीं देता है, होता है, 1) पूर्व संस्कार 2) माता-पिता परन्तु पाप धोखा देता है, पार्टनर धोखा 3) मित्र 4) संयोग 5) सन्त नहीं देता है, परन्तु अपना पाप धोखा देता है।
SR No.002325
Book TitleVinay Bodhi Kan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaymuni
PublisherShwetambar Sthanakwasi Jain Sangh
Publication Year2014
Total Pages336
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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