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________________ 173) दूसरों पर नहीं तपना, दुनिया का सब से | 185) सासु गरम, बहु नरम | घर में रहेगी बड़ा तप है। शरम | सासु नरम, बहु गरम । घर में 174) अपनी भूल को स्वीकारना, मोक्ष मार्ग का रहेगा धरम | सासु-बहु नरम | घर में हैं प्रथम पगथिया है। शुभ धर्म | सासु गरम बहु गरम । उसके 175) रंगीन मकान रहते हुए भी, मन गमगीन घर के फूटे कर्म ।। (उदास) है, क्यों कि मनुष्य की समझ संगीन 186) दुःख जितना दुःख नहीं देता, उससे भी नहीं है। भयंकर दुःख आने का भय दुःख ज्यादा दान करने के लिए इन्कम बढ़ाने की जरुरत देता है। नहीं हैं, अपना खर्च कम करने की जरुरत 187) हँसना मत यदि दुःख में हो पड़ोसी, बारी आएगी तेरी भी। 177) जैन धर्म की कितनी उन्नति हुई? इसका 188) अंगूर मीठा तो होता है, किन्तु वह नही जो चिन्तन करने की बजाय, आपने जैन धर्म पडोसी के बाग में लगता है (ईष्या)। का पालन करने में कितनी प्रगति की है, इसका चिन्तन करो। 189) बुद्धिमता बुजुर्ग का आभूषण है, और नम्रता जवानों का। 178) हवा जब चलती है तो पत्ते टूट जाते हैं,धर्म ध्यान करते हैं तो कर्म टूट जाते हैं। 190) तुम धर्मी बनो परन्तु सबको खराब समझने 179) हम दूसरों को मूर्ख समझते हैं, दूसरे भी के लिए नहीं, इस बात को हमेशा याद रखना। (हमको) समझते हैं वही, जो हम (उनको) समझते हैं। 191) समझौता ! एक अच्छा छाता भले बन 180) उपर से गिरा आदमी उठ सकता है, नजरों सकता है, परन्तु छत नहीं बन सकता हैं। से गिरा आदमी नहीं उठ सकता हैं। 192) जीवन में सबसे अधिक कमजोर (पस्त) 181) धर्म की सबसे बड़ी प्रभावना क्या है ? करने वाली चीज है, निष्ठावान न होना । अपने जीवन को धर्ममय बनाना, जीवन 193) तुम्हारे पास जो चीज (वस्तु) नहीं है,उसे को सुधारना। भूल जाने का नाम ही सुख है। 182) कमजोर इन्सान कभी सच्चाई का साथ 194) एक न एक दिन तो बिगड़ेगा सारा नही दे सकता, और कायर कभी उसूलों संतुलन? उम्र तो घटती रही, और को निभा नहीं सकता। ख्वाहिशें बढ़ती रहीं। 183) अगर हम समाधान का हिस्सा नहीं हैं, तो 195) चौदह आदमी साथ रह सकते है, अगर हम ही समस्या हैं। प्रेम होवे तो, चार आदमी साथ नहीं रह 184) मौत की गाड़ी बिना सिग्नल के आयेगी। सकते अगर वहम होवे तो। . 1) किसी का मत बिगाडो 2) किसी से मत बिगड़ो 196) सन्त दुःखो से नहीं डरते है, परन्तु दोषों 3) किसी पर मत बिगड़ो। से डरते हैं।
SR No.002325
Book TitleVinay Bodhi Kan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaymuni
PublisherShwetambar Sthanakwasi Jain Sangh
Publication Year2014
Total Pages336
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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