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64) लोक का अन्त है, निगोद जीवों का नहीं
अन्त :
लोक असंख्यात प्रदेशी है । जिसका अन्त है, परन्तु एक निगोद (सुई के नोक जितना हिस्सा भी नहीं) में, इतने जीव है कि एक एक जीव को लोक के एक-एक आकाश पर रखे तो अनंत लोक चाहिए अर्थात् निगोद के जीवो का अन्त नहीं, अतः अनंत है ।
जीवाभिगम सूत्र
66 ) द्वीप व समुद्र कितने है ?
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प्रथम द्वीप, जंबू द्वीप, उसके आगे चूड़ी के आकार का समुन्दर फिर द्वीप, इस तरह कुल असंख्यात द्वीप व असंख्यात समुन्दर है । प्रथम द्वीप जंबूद्वीप, अन्तिम द्वीप है स्वयं भूरमण द्वीप । प्रथम समुन्दर है लवण समुन्दर, जब कि अन्तिम समुन्दर का नाम है, स्वयं भूरमण समुन्दर ।
जीवाभिगम सूत्र
67) मस्तक का करते हैं चूरा ।
नहीं कर सकते मोह चूरा | जो करते है मोह का चूरा ।
वे ही होते जगत के शूरा || प्रथम सौधर्म देव लोक का इन्द्र - शक्रेन्द्र, अनेक दैविक शक्तियों का धारी होता है। किसी व्यक्ति के मस्तक को काट दे, चूरा चूरा कर दे और पुनः मस्तक बना कर वापिस लगा दे, उस व्यक्ति को किंचित मात्र भी खेद न पहुँचे कि मेरा छेदन भेदन भी हुआ था । ऐसी शक्ति और अनेक शक्तिओं का धारक चारित्र को ग्रहण नहीं कर सकता है। मोह कर्म को क्षय करने की देव में भी क्षमता नहीं है। है तो एक मनुष्य में । उठाले लाभ..... भग श. 14 उ० 8
68) मनुष्यों में क्या, देवों मे भी संघर्ष है ? मनुष्य- मनुष्य, पशु-पशु, नैरयिक-नैरयिक, ये तो आपस में संघर्ष करते है, परन्तु अथाह
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भौतिकता से संपन्न देव भी परस्पर संघर्ष करते हैं । भवनपति हल्के देव, वैमानिक ऊँचे देव माने गये है । देवों और असुरों में भी संघर्ष होता है, वैमानिक यदि पत्थर के कभी हाथ लगावे मानो शिलागिरि हो, पत्र के भी हाथ स्पर्श मानो तलवार चलाई हो, देवों के स्पर्श से ही वे पुद्गल शस्त्र बन जाते है ।
भग. श. 18 उ. 7
69) साता से असाता के उदय में सिद्ध बने अधिक ?
संसार में (जीव) साता वेदनीय भोगते है । हर समय 16 ढ़ेर जितने तो साता भोगते है, 240 देर जितने असाता अर्थात् साता से असाता 15 गुना अधिक जीव हर समय भोगते है । 14 वें गुणस्थान के अन्तिम समय में असाता का उदय अधिक जीवों को होता है । असाता वाले जीव ही ज्यादा है, प्रति 16 वां जीव (एक ही) साता भोगता है । और पंद्रह जीव असाता वेदते है, सर्वज्ञो का कथन कितना सत्य है, जिधर देखो उधर असाता ही तो ज्यादा नजर आ रही है ।
पनवणा सूत्र पद 3 70) सर्व जीव हमारे रिश्तेदार रह चुके हैं क्या ?
हाँ ! हमारी आत्मा ने सर्व जीवों के साथ एक बार अनेकबार, जितने संसार में रिश्ते नाते हैं, वे सभी बनाये हैं। ऐसा कोई यहाँ जीव नहीं, जो हमारा अपना न हो ।
जब सब से ही रिश्ता है, फिर संसार में कलह क्यों ?
71) गंभीरता से अल्प पुण्य क्षय
भगवती सूत्र
वाणव्यंतर देव जितना पुण्य सौ वर्ष में खर्च करता है, उतना ही पुण्य अनुत्तर विमान वासी देव पाँच लाख वर्ष में खर्च करता है। कुतुहल