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________________ 229. नमो लोए सव्व साहूणं के सव्व शब्द में गुणों प्रभु के पास गये थे, ये बहुमान है। सांसारिक के आधारित गुरु वन्दन करके अपनी खोटी कार्यो को गौण करना। पकड़ की ग्रन्थी को खोल देवें। 237. वर्तमान में सांसारिक कार्यक्रमों मशगुल व 230. तिक्खुतो = तीन बार “आयाहिणं पयाहिणं" प्रमोद व बहुमान भावों की कमी से संतो के ये करना, (to do)नमस्कार वंदन करने के योग-पधारने का सुनकर भी प्रवचन आदि रुप है, फिलहाल बोलने की परम्परा चल में आने का कोई भाव नहीं होता है, तो रही है। चिन्तनीय विषय है। सम्मान - बहुमान कमजोर है। 231. गुरु वंदन भावों से भरा करने से हमारी | 238. आलस्य में पड़े रहना और कहना कि ये वृतियों में कोमलता मृदुता आदि गुणों की काम, वो काम था समझना चाहिये कि प्राप्ति करने की भावना बनती है, गुरु शिष्य धर्म का अपमान कर रहा है। को गुरु व भगवान बनने का रास्ता बताते 239. कल्लाणं = प्रातः काल जिन का नाम लिया जाय वो कल्याण है, क्षेम कुशल 232. वंदामि = गुणगान स्तुति करना, जो गुरु कल्याण कहलाता है। गुणगान नहीं करता है, वह वचन का चोर 240. आरोग्य निरोगता - स्वस्थता देते है। प्रातः है, पापों में वचन का प्रयोग तो करता ही काल गुरुदेवश्री का नाम लेना भी कल्याण रुप ही है। 233. जो गुणानुरागी नहीं होता, वह कभी भी 241. मंगलं जो पापों को क्षय करे, आनन्द देवे, गुणों की प्रशंसा नहीं करता है। गुणों की ऐसे गुरु मंगल कारी होते है। गुरु दीपक - प्रशंसा अवश्य ही करनी चाहिए। गुरु चानणा गुरु बिन ... 234. नमसामि = अर्थात् काया से नमस्कार करना, 242. जिसके द्वारा साधक के हित की प्राप्ति हो, पूजा का अर्थ प्रतिष्ठा है, उत्तम पुरुष को आत्मा शोभायमान हो वह मंगल है, पाप सर्व श्रेष्ठ रुप मानना, सद्गुरु को सर्वश्रेष्ठ को गलावे वो मंगल होता है। (मं पाप, माने बिना उनके उपदेश को आत्म सात् गलगलना) करना बड़ा ही मुश्किल है। जीवन का आधार 243. जिस मंगल से साधक ‘पूज्य' होता है। गुरु होता है। मंगति दूरं दुष्टमनेन अस्याद् वा इति मंगलं। 235. सत्कार = मन से आदर करना, सत्पुरुष दुर्भाग्य, दुर्दैव आदि संकट दूर होते है। मानना, श्रद्धा व आदर के अमृत से अन्दर 244. द्रव्य मंगलों की प्रवंचना में न पड़कर गुरुदेव को भरकर गद गद हो जाइए। रुप अध्यात्म मंगल की उपासना करनी 236. सम्माणेमि = बहुमान करना। भरत चक्रवर्ती चाहिये। ने भगवान आदिनाथ को कैवल्य प्राप्ति, 245. देवयं = देव तथा देवता, आत्म स्वरुप से पत्र रत्न वचक्ररत्न के पैदा होने के समाचारों को सुनकर भी प्रथम आराध्य आदिनाथ चमकते है, वे देव होते है। दिव्य-द्युति परिपूर्ण होते है।
SR No.002325
Book TitleVinay Bodhi Kan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaymuni
PublisherShwetambar Sthanakwasi Jain Sangh
Publication Year2014
Total Pages336
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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