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________________ 246. जैन शास्त्रों में साधु को धर्म देव कहा है, | 254. इच्छा कारेणं के पाठ को आलोचना सूत्र धर्म करता है, धर्म देता है वह देव है। कहते है, जिन जिन जीवों की विराधना की । 247. वंदामि = महत्वपूर्ण क्रिया होने से दो बार है, उसकी आलोचना की जाती है। बुरे वंदामि आया है। कर्मो की ही तो आलोचना की जाती है ना??? 248. क्षमा आदि दस धर्म, अहिंसा आदि पाँच महाव्रत ये कुल 15 गुणों को धारण करने 255. इच्छाकारेणं "स्व"इच्छा पूर्वक अपने दुष्कृत्यों वाला मानव, क्या महामानव रुप में देव की आलोचना करना चाहता हूँ। बिना दबाव नहीं कहलायेगा? अवश्य कहलायेगा। से अर्ज करता है। 249. अन्तरंग आत्मशत्रुओं को जीतने की साधना | 256. संदिसह = आज्ञा दीजिए। भगवं - हे भगवन्। में लगा धर्म-देव ही है। धर्म देता है, वही इरियावहियं = आने जाने से चलने रुप सच्चा धर्म देव' होता है। क्रिया का। 250. चेइयं = चैत्य शब्द के अनेकानेक अर्थ होते 257. पडिक्कमामि = ये छोटा प्रतिक्रमण है, मैं है, चैत्य का अर्थ ज्ञान करने में कोई विवाद प्रतिक्रमण करना चाहता हूँ। अतिक्रमण का नहीं है अर्थात् आप ज्ञानवंत हो। मुझे भी ही प्रतिक्रमण होता है। ज्ञानी बना दें। 258. सामायिक लेने से पूर्व, पूर्व में कोई की गई, 251. आचार्य अभय सूरिदेव ने स्थानांग टीका में सामायिक के बाद से लगाकर अभी तक मेरे कहा कि जिनके देखने से चित्त में आल्हाद द्वारा जो भी इरियावहियं हुई अर्थात अधर्मा उत्पन्न होता है। यह ठीक ही अर्थ है कि चरण जो मेरे द्वारा किया गया है, उन सामान्य भक्त जन अपने गुरु के दर्शन सबका प्रतिक्रमण करना चाहता हूँ। करके आल्हादित होते ही हैं। 259. जैसे रोटी खाई = भोजन में ली गई सभी 252. वंदन करने से नीच गोत्र का क्षय, ऊँच वस्तुएँ पानी से पापड़ तक सभी का समावेश गोत्र का बंध सौभाग्य की प्राप्ति तथा उनकी होता है। वैसे ही मन-वचन-काया की अशुभ(गुरु की) बात को सहर्ष स्वीकार (बिना हिंसादि सावद्य योगों का मेरे द्वारा सेवन अनाकानी) कर लेता है तथा दाक्षिण्य भाव हुआ था, उन सबकी मैं आलोचना करता अथवा चतुराई, श्रेष्ठ सभ्यता को प्राप्त कर लेता है। नमे सो आम्बा आम्बली नमे सो 260. “इच्छं” = गुरु मुख से निकला शब्द मानो दाड़म दाख। एरण्ड बेचारा क्या नमे जिसकी कह रहा है। यथा सुख इच्छायां, अहा ओछी साख || सुहम देवाणुप्पिया। बिना प्रेशर (दबाव) का 253. मत्थए - मस्तक अर्थात् गुरु वंदन करते ही जीवन, जीवन है। समय गुरुश्री के चरणों में मस्तक झुकाकर 261. “पडिक्कमिउं" = निवृत होने की, अथवा वंदन करता है। शरीर के अवयवों में मस्तक छोड़ने की प्रतिक्रमण करने की भावना रखता को सर्वोच्च अंग माना गया है। “सिरसा- हूँ। आभ्यन्तर भावों से “प्रक्षालन" पापों को वंदे धो देता है।
SR No.002325
Book TitleVinay Bodhi Kan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaymuni
PublisherShwetambar Sthanakwasi Jain Sangh
Publication Year2014
Total Pages336
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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