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137. शब्द नय के अनुसार मोहनीय का उदय | 146. शब्दों से सामायिक का आनन्द नहीं मिलता
नहीं है, तो सामायिक कहना (राग द्वेष का है, सच्चा आनंद तो सामायिक करने पर उदय न हो)
ही मिलता है, जैसे मिश्री खाने से मीठा 138. समभिरुढ़नय के अनुसार मोह अज्ञान
रस मिलता है, मिश्री की बातों से नहीं। अदर्शन (निद्रादि) और विघ्नादि हट गये | 147. 'सामायिक' के मूल्य की तुलना तीन लोकों हो तो सामायिक कहना।
की सारी सम्पदा से भी नहीं हो सकती है। 139. एवंभूत (शुद्ध) नय के अनुसार अयोगी अलेशी
सामायिक तीन लोक की सारभूत है। अशरीरी व सिद्धावस्था हो तो सामायिक
148. जिस प्रकार प्रतिदिन निद्रा के में 5-6 घण्टे कहना।
व्यर्थ बेकार मानते हो क्या? नहीं। उसी
प्रकार “सामायिक योग" दो घड़ी का आत्मा 140. उपरोक्त चार नयों को दृष्टि से निश्चयात्मक
के लिए पाप से विश्राम है। सामायिक भावों पर मानता है। पर्यायार्थिक नय 4 (चार) है।
149. संसार का काम करते-करते, हे! आत्मा तुझे
अनंत काल बीत गया, परन्तु कोई भी आत्मा 141. तीर्थंकर परमात्मा भी इन्ही दिशाओं में
काम पूरा नहीं कर सका, तो तूं क्या कर विराजते है। इन्द्र (पूर्व) व सोम (उत्तर) ये
सकेगा? नहीं। देव इन दिशाओं (क्षेत्र) के मालिक होते है।
150. “आत्मा ही सामायिक" ये अवस्था सिद्ध 142. प्राकृत (अर्ध मागधी) में सामायिक अनुष्ठान
पद में होती है। के सभी मूल पाठों ने समस्त जैनों को एक
151. आगार व अणगार ये दो प्रकार की सामायिक सूत्र में जोड़ रखा है। अर्थ तो सीखना ही
शास्त्रों में मानी है। होगा (श्वेताम्बर परम्परा में)
152. आवश्यक के छह भेदों की सुरक्षा-संरक्षण 143. टीकाकार - चूर्णीकार व भाष्यकारों ने “करेमि
और शुद्धिकरण का आधार तो सामायिक भंते" पाठ को तीन बार बोलने की ही
आवश्यक ही है। प्रेरणा दी है, ताला बंद यानि पाप बंद करने का पाठ है, ताला भी दो या तीन बार बंद | 153. समय की नियमितता का मन पर करते समय देखा जाता है। 'करेमि भन्ते'
मनोवैज्ञानिक प्रभाव पड़ता ही है, अतएव पाप बन्द करने का पाठ माना है।
नियमित समय पर सामायिक करनी चाहिये।
जो समय की कीमत समझता है, वही 144. श्रावक को सामायिक में “धर्म ध्यान" पर
ज्ञानी होता है। विशेष ध्यान देना चाहिये। अनित्य, एकत्व,
154. उच्छृखल मन को यों ही खुला छोड़ देने अशरण व संसार इन भावनाओं पर चिन्तन
पर अधिक उच्छंखल बन जाता है। मन को करावें।
ज्ञान ही समझा सकता है। 145. सम्पूर्ण द्वादशांगी का मूल “सामायिक" को ही माना है।
| 155. ब्रह्म मुहूर्त काल में जागकर प्रथम धर्म का