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________________ 116. आर्त ध्यान, रौद्र ध्यान, से बचना ही भाव सदा ममात्मा विद्धातुदेव! अर्थात मैत्री सभी सामायिक है। जीवों से, गुणीयों पर प्रमोद, दुःखियों पर 117. आर्त ध्यान = आर्त यानि पीड़ा बाधा, क्लेश, करुणा तथा विपरीत आचरण करने वालों दुःख का होना। पर माध्यस्थ भावनाएँ, हे देव हमें देवें। 118. मन में दुःख आदि आने के 4 कारण 1. 127. सभी जीवों से मैत्री पैदा हो, ऐसा गृहस्थ अनिष्ट संयोजन, 2. इष्ट वियोजन, 3. की सामायिक में भाव आना मुश्किल होता प्रतिकूल वेदना जनित (रोग) 4. निदान है। कोशिश से सफलता मिलती है। जनित। ज्ञान से मन को शांत किया जाता 128. गुण अच्छे लगेंगे तो ही गुणधारी गुणवानों है। कुध्यान छोड़ना ही ‘सामायिक' है। के प्रति प्रमोद भाव होगा। 119. रौद्र = रुद्र यानि क्रूर - भयंकर और कठोर 129. उपरोक्त चार भावनाओं में रहकर ही जीव . परिणामों में रहना। शांत रह सकता है। हे जीव! तू शांत रह!!! 120. रौद्र ध्यान के चार प्रकार :- 1. हिंसानन्द 130. अतः ऐसा काम' (कार्य) कर कि 'काम' ( 2. मृषानंद 3. चौर्यानंद 4. परिग्रहानंद या इच्छा, वासना) का ही अन्त हो जाय, वो संरक्षणानंद। 'काम' (कार्य) सामायिक ही कर सकती है। 121. आर्त ध्यान में विचारों में भय, शोक, शंका, | 131. प्रमाण के अंश को नय कहते है, सामायिक प्रमाद, कलह, चित्तभ्रम - व विषय भोगों की सात नयों के आधार पर विवेचना की इच्छा होती रहती है। कीजिए? . 122. रौद्र ध्यान के विचारों में दुष्टता, क्रुरता, | 132. नैगम नय के अनुसार सामायिक करने जा वंचकता, निर्दयता से भरे परिणामों में भोएँ रहा हूँ, तो सामायिक शुरु हो गई, मानना। चढ़ाए, लाल आँखे किये, राक्षसी रुप में संकल्प से ही शुरुआत हो जाती है। रहता है। सामायिक अर्थात् कठोरता का 133. संग्रह नय के अनुसार सामायिक आदि त्याग। उपकरणों के साथ हो तो सामायिक कहना। 123. अत्यधिक आर्त ध्यान से तिर्यञ्च गति व (सामग्री के आधार पर) अत्यधिक रौद्र ध्यान से नरक गति में जीव 134. व्यवहार नय के अनुसार करेमि भंते का जाता है। पाठ व वस्त्रादि वेश परिवर्तन हो तो सामायिक 124. आर्त (ध्यान) रौद्र (ध्यान) के विचारों में कहना। सामायिक की क्या भाव शुद्धि हो सकती 135. उपरोक्त तीनों नयों को द्रव्यार्थिक नय कहा है? नहीं। गया है, उसमें द्रव्य (बाह्य) की प्रधानता है। 125. सामायिक का प्राण ‘समभाव' ही है। 136. ऋजु सूत्र नय के अनुसार “सामायिक में 126. सत्वैषु मैत्री गुणीषु प्रमोदं, क्लिष्टेषु जीवेषु शुभभाव व समभावों की वृद्धि होतो सामायिक कृपा पर त्वम्, माध्यस्थ भाव विपरीत वृतौ, | कहना"।
SR No.002325
Book TitleVinay Bodhi Kan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaymuni
PublisherShwetambar Sthanakwasi Jain Sangh
Publication Year2014
Total Pages336
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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