SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 187
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ घरं । जत्थेव गंतुमिच्छेजा तत्थ कुव्वेज्ज सासयं ।। | डाला जाने वाला घी है, कर्म है ईंधन है, संयम मार्ग में बनाए हुए घर, सदा शंका युक्त अस्थिर होते योग शान्ति पाठ है, ऋषियों को यही होम करना है, एक दिन अवश्य छोड़ दिए जाते है । जहाँ जाकर चाहिए, मैं यही होम करता हूँ। स्थिर निवास करना हो (सिद्ध गति) वहीं के लिए 13) सव्वं सुचिण्णं सफलं णराणं, कडाण कम्माणं सदाकाल स्थिर शाश्वत गृह बनाना ण मोक्खअत्थि। चाहिए। सर्व शुभ कर्म सफल होते है, कर्मो का भुगतान 10) तिण्णो हु सि अण्णवं महं, किं पुण चिट्ठसि किए बिना आत्मा को मोक्ष नहीं होता। ण तस्स तीरमागओ दुक्खं विभयंति णाइओ। अमितुर पारं गमितए, समयं गोयम! मा पमायए ।। मृत्यु के मुख में गए हुए जीवों की उसके सम्बंधी हे गौतम! मनुष्य जन्म, जिणवाणी श्रवण, श्रद्धा व रक्षा नहीं करते, परलोक में जीव कर्म साथी के संग संयम प्राप्त करकें तुमने बहुत सारा संसार सागर अकेला ही दुःख पाता है । पार कर लिया है। अब किनारे पर आकर क्यों रूके हो? पार जाने की शीघ्रता करो, इसमें समय मात्र 14) वेया अहीया न हवंति ताणं । पढ़े हुए वेद भी प्रमाद न करो। भोजन कराए ब्राह्मण, जन्मे हुए पुत्र, आत्मा की रक्षा नहीं करते । खण मित्त, सुक्खा बहुकाल 11) समुद्दगंभीर समा दुरासया, अचक्किया केणइ दुक्खा,... || विषय भोग क्षण मात्र सुख देते है, दुप्पहंसया । बहुत काल दुख देते है, मोक्ष से विपरीत है, अनर्थो सुयस्स पुण्णा विउलस्स ताइणो, खवित्तु कम्म की खान है । जाजा वच्चई रयणी... ।। बीती हुई गइ मुत्तमं गया।। रात्रियाँ लौटकर नहीं आती । धर्म करनेवालों की श्रुत ज्ञान से पूर्ण आत्माएँ, समुद्र के समान गंभीर रात्रियाँ सफल जाती है, अधर्म करने वालों की होकर, जिन्हें कोई भी देव मानव धर्म श्रद्धा से रात्रियाँ निष्फल जाती है । तप में तपना चाहिए। विचलित न कर सके, सभी 6 काय जीवों की यतना 15) असिप्पजीवी अगिहे अमित्ते, जिइंदिए सब्बाओ पालकर अपने सर्व कर्म क्षय करके उत्तम गति (सिद्ध विप्पमुक्के । गति) को गए । इसलिए सूत्र का स्वाध्याय करके उत्तम आत्मार्थ की गवेषणा करनी चाहिए, जिससे अणुक्कसाई लहु अप्प भक्खी, चिच्चा गिह एगचरे स्व पर की सिद्धि हो । स भिक्खु । 12) तवो जोई जीवो जोइठाणे, जोगा सुया सरीरं जो गृह त्याग कर फिर गृह मित्रों में आसक्त नहीं कारिसंगं । होता, शिल्प आदि सर्व संसारी कलाओं से रहित रहता है दूसरों को भी नहीं सिखाता है, सभी कम्मेहा संजम जोग संती, होमं हुणामि इसिणं आत्म कैद योग्य से मुक्त रहता है, इन्द्रिय विजेता, पसत्य।। कषाय विजेता, सादा अल्प व रूक्ष आहारी होकर ब्राह्मणो के द्वारा पूछे जाने पर हरिकेशी मुनि जी ने | एकत्व भाव में लीन रहता है वह भिक्खु होता है । कहा तपज्योति है, जीव ज्योति स्थान है; मन 16) देव दाणव गंधवा, जक्खरक्खस किण्णरा । वचन काय योग कड़छी है, शरीर तप की अग्नि में म | बंभयारि णमंसंति, दुक्कर जे करंति तं ।।
SR No.002325
Book TitleVinay Bodhi Kan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaymuni
PublisherShwetambar Sthanakwasi Jain Sangh
Publication Year2014
Total Pages336
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy