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________________ धर्म रूपी उद्यान में निरंतर लीन रहने से ब्रह्मचर्य | जीव स्वयं ही अपने सुख और दुःख का कर्ता है, की समाधि होती है । जो दुष्कर है, उस ब्रह्मचर्य | अन्य और कोई नहीं। सन्मार्ग में स्थित अपनी आत्मा समाधि को प्राप्त मुनियों को देव दानव गंधर्व यक्ष | ही अपनी मित्र है, उन्मार्ग में स्थित आत्मा ही राक्षस किन्नर भी नमस्कार करते है । अपनी शत्रु हैं। 17) जे केइ उ पब्बइए नियंठे, धम्मं सुणिता विण 21) अकुक्कुओ तत्थ अहियासएज्जा, रयाई ओववण्णे। खेवेज्ज पुरेकडाई ॥ सुदुल्लहं लहिउं बोहिलामं, विहरेज्ज पच्छा य परीसहों को शान्त भाव से सहन करके पूर्व कृत जहासुहं तु ॥ कर्मो को क्षय करके समुद्र पाल मुनि सूर्य समान विनय उत्पन्न करने वाले निपँथ धर्म को सुनकर, प्रकाशमान हो गए। दुर्लभ बोधिलाभ को प्राप्त कर, दीक्षित होने वाले 22) उग्गं तवं चरित्ताणं, जाया दोण्णि वि मुनि, पश्चात् में आगम भगवान से विमुख होकर केवली । सवं कम्मं खवित्ताणं, सिद्धिं पत्ता अणुत्तरं ।। अपनी सुख साता के लिए ही अपनी इच्छानुसार उग्र तप का आचरण करके राजीमती और रथनेमि कार्य करने लग जाते है, वे पाप श्रमण कहलाते हैं दोनों केवली हो गए व सर्व कर्म खपाकर अणुत्तर । सूव्रती मुनियों में सूव्रती होकर पूजनीय होने की सिद्धि गति को प्राप्त हुए। अपेक्षा विष के समान निम्न व निन्दित होते है व अपना संसार घटाने की अपेक्षा और बढ़ा लेते है। 23) मणो साहसिओ भीमो, दुट्ठसो परिधावई । तं सम्मं तु णिगिण्हामि, धम्मं सिक्खाइ कंथगं ।। 18) अमओ पत्थिवा तुब्मं, अभयदाया भवाहि य । गौतम स्वामीजी ने केशी जी से कहा - मन दुष्टता अणिच्चे जीवलोगमि, किं हिंसाए पसज्जसी ॥ पूर्वक इधर उधर भागने वाला साहसी भीम अश्व है निर्दोष हिरणों की हिंसा करके, मुझको भय मानते | श्रुत शील तप आदि धर्म की उत्तम शिक्षाओं की हुए राजन! तुमको अभयदान है, तुम भी सबको लगाम से मैं इसे वश में रखता हूँ। अभय दो । सर्व राज्य, जीवन और रूप छोड़कर तुमको एकदिन अवश्य ही परलोक जाना है, फिर 24) एयाओ अह समिईओं, समासेण वियाहिया। तुम इस अनित्य, परिवर्तनशील विनाशशील राज्य दुवालसंगं जिणक्खायं, मायं जत्थ उ पवयणं ।। व हिंसा में क्यों आसक्त हो रहे हो ? द्वादशांग रूप सर्व समिति गुप्ति (मन गुप्ति आदि) 19) जम्मं दुक्खं जरा दुक्खं, रोगा य मरणाणि यं । इन ओट में समाया हुआ है। अहो! दुक्खो हु संसारो, जत्थ कीसति जंतुणो।। 25) ण वि मुंडिएण समणो, ण ओंकारेण बंभणो । जन्म का दुःख, बुढ़ापे का दुःख, रोगों व मरण के ण मुनि रण्णवासेणं, कुसचीरेण ण तावसो || मुंडित होने से कोई श्रमण नहीं होता, ओंकार जपने आश्चर्य है! दुःखकारी संसार में जीव कितना क्लेश से कोई ब्राह्मण नहीं होता, जंगल में रहने से कोई पाते है। मुनि नहीं होता, वृक्षों की छाल पहन लेने से कोई 20) अप्पा कता विकता य, दुहाण य सुहाण य । तापस नहीं होता। अप्पा मित्तममित्तं च, दुपट्ठिय सुपट्टिओ ।। समयाए समणो होई, बंभचेरेण बंभणो। दुःख
SR No.002325
Book TitleVinay Bodhi Kan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaymuni
PublisherShwetambar Sthanakwasi Jain Sangh
Publication Year2014
Total Pages336
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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