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________________ 1) 2) 3) 4) 5) 7) अमृत-झरना वही धर्म करो, जिससे कर्मो की निर्जरा होती हो तथा शुभ भाव आते हैं । विनय को तप व पुण्य भी कहा गया है । जहाँ चारित्र को विनय भाव सहित वंदन है, वहाँ तप है । बिना धर्म के जागता हुआ मनुष्य भी सुप्त है। जिस आत्मा ने पापों का त्याग करने का कर्म शुरु कर दिया है, वही जागृत है । जब जीव के पुण्य का उदय व श्रेष्ठ पुरुषार्थ प्रकट होता है, तभी वो धर्म की ओर बढ़ता है, उसे धर्म अच्छा लगता है । आत्मा ही कर्म करती है और आत्मा ही भोगती है, जिसने जैसे कर्म किए है, उसे वैसा ही फल भुगतना पड़ता है । पुण्य और धर्म का सही स्वरुप समझना चाहिए क्योंकि पुण्य से धर्म के साधन मिल सकते है, लेकिन सम्यक् पुरुषार्थ द्वारा धर्म धारण करना पड़ता है । जो साधु-साध्वी पैसे का लेन-देन करते हैं, वे खुद भी डूबेंगे और औरों को भी साथ में डूबावेंगे । संघ सूरज के समान होता है, जो अंधकार को मिटाता है। रात में जो नक्षत्र चमकते हैं। वे सूर्योदय के साथ ही लुप्त हो जाते हैं, प्रभावहीन हो जाते हैं, वैसे ही अन्य मान्यताओं के लोग वीतराग वाणी को मानने वाले संघ के आगे प्रभावहीन हो जाते हैं । 10) जिस व्यक्ति को ईश्वर के प्रति श्रद्धा होती है, गलत कार्य करने से पूर्व अपने विवेक का प्रयोग करता है । 119 11) इस सृष्टि में मानव ही पुरुषार्थ कर स्वयं को उबार सकता है। आध्यात्मिक एवं लौकिक दोनों दृष्टि से ऊपर उठने के लिए पुरुषार्थ की ही आवश्यकता होती है । 12) ईर्ष्या हमारी नकारात्मक विचार धारा का परिणाम है। इसके चलते व्यक्ति के मन में सदैव गलत व तर्कहीन विचार ही आते हैं, एवं वह सदा तनावग्रस्त ही रहता है। उसकी सारी ऊर्जा गलत कार्य में ही नष्ट हो जाती है और वह पतन का शिकार हो जाता है । सच्चा यज्ञ वही होता है जिसमें हम अपने विकार व वासनाओं को तप व त्याग की अग्नि में भस्मीभूत कर देते हैं । 13) 15) 14) जंगल में रहने से या चर्म पर बैठने मात्र से कोई मुनि या तपस्वी नहीं बन जाता है, बल्कि समता, ब्रह्मचर्य, ज्ञान आराधना व तप साधना से ही कोई सच्चा मुनि बनता है । जिस तरह सूर्य का प्रकाश सभी के लिए समान रूप से कल्याणकारी है, उसी तरह जिनवाणी भी सभी के लिए हितकार है । 16) क्रोध, कपट, लोभ, मोह, माया की परतें आत्मा को परमात्मा बनने से रोकती है । जिस वक्त यह परतें हट जायेंगी तब नर को नारायण बनने में देर नहीं लगेगी । 17 ) धर्म स्थान पावन, शुद्ध और शांत होते हैं, ऐसे में हम इन धर्म स्थानों मे सांसारिक कार्य, विवाह, मुंडन, बर्थडे व खानपान आदि कार्यक्रम आयोजित कर उनकी पवित्रता भंग कर देते हैं। इससे वहां के परमाणु इतने शुद्ध नहीं रह जाते है, जितने कि शुद्ध धर्म स्थान आराधना के लिए जरुरी होते हैं, यही कारण है कि हमारा मन धर्मस्थान में आकर भी धर्म में लगता नहीं है ।
SR No.002325
Book TitleVinay Bodhi Kan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaymuni
PublisherShwetambar Sthanakwasi Jain Sangh
Publication Year2014
Total Pages336
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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