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________________ 88. मोक्ष मार्ग की आराधना को छोड़ने का | 96. सरागी देवों के भक्तों से दूर रहे, जब प्रमुख कारण है: मिथ्यात्व का उदय। जो तक सरागी देव व वीतरागी देवों के गुणों को झूठमें विश्वास कराता है, इन्द्रिय सुखों को न समझलें तथा अपनी समकित मजबूत न ही सच्चा सुख मानता है, पुण्य पाप नहीं करले, तब तक अवश्य बचें। मानता। 97. जीव मात्र का तिरस्कार करना नहीं कल्पता 89. सरागी देवों (अव्रती) की सेवा पूजा तथा है, इसका आशय यह तो नहीं कि अव्रती निरंतर उनके नाम की माला-जाप आदि देवों की भक्ति सेवा में लग जाये। करना, ये श्रावकाचार में नही माना है। | 98. यह विड्रंबना ही है कि वीतरागी अरिहंतो 90. अव्रती देवों की तरफ झुकाव होने पर, की जिनवाणी मिलने के बाद भी हम अव्रतियों हमारा अरिहंत देवों की तरफ ध्यान छूट की भक्ति आदि में रस लेते है। जाता है, संवर निर्जरा तप आदि मोक्ष | 99. पुद्गल जड़ होते हुए भी, चेतन को, अपने मार्ग की प्रवृतियाँ बंद हो जाती है या रुक प्रभाव से ज्ञानादि गुणों को विकार ग्रस्त जाती है। कर देता है। 91. अरिहंत देव की बजाय हमारा चित्त उनकी | 100. कर्म विकार का सबसे भयानक रुप मिथ्यात्व तरफ जाते रहने से, हमारी मोक्ष मार्ग से है, जो आत्मा को संसार में ही भटकाता गति हट जाती है, हम मात्र चमत्कार जैसी है मोक्ष की ओर नहीं जाने देता। छोटी-छोटी घटनाओं में उलझ जाते है, | 101. “स्वयं जीव की अस्वीकृति" ही मिथ्यात्व हम जितने बुरे नहीं बनते है, उससे भी की शुरुआत होती है। ज्यादा हमें विधर्मी लोगों की संगत, सही 102. जीव, धर्म, साधु, मोक्ष मार्ग व मुक्त मोक्ष मार्ग से दूर करवा देती है। जीव ये पांचो एक दूसरे से जुड़े हुवे है। 92. अरिहंतो महदेवो ... के पाठ की मान्यता एक के भी नहीं मानने पर पांचो मिथ्यात्व या अंतरंग श्रद्धा ही सम्यक्तवी की पहिचान का सेवन करते है, अतः मिथ्यात्व तोडने का उपाय करें। पांचो को स्वीकार करने से 93. आरम्भ-समारम्भ की प्रवृतियां संवर में नहीं मिथ्यात्व जायेगा। आती है। 103. अनंतानुबंधी कषाय से 'मिथ्यात्व' का गाढ़ा 94. पुदगल और जीव का संबंध अनादिकाल संबंध होता है। से चला आ रहा है। 104. अनंतानुबंधी कषाय के हटने से ही “मिथ्यात्व 95. सृष्टि के समस्त जीवों की रक्षा का संकल्प की समाप्ति” संभव होती है। अहिंसा आदि महाव्रतों के कारण ही अर्जुन | 105. अनंतानुबंधी कषाय मिथ्यात्व को और मजबूत अणगार को मोक्ष पहुँचाया था, मुदगर पाणी करता है, परिभ्रमण में साथ रहता है। के सहयोग से तो वो इन्सान से हैवान | 106. मिथ्यात्व पर ही सारे के सारे आठ कर्म (हत्यारा) बन गया था। टिके है।
SR No.002325
Book TitleVinay Bodhi Kan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaymuni
PublisherShwetambar Sthanakwasi Jain Sangh
Publication Year2014
Total Pages336
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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