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सम्यक्त्व और ग्रन्विमेद की प्रक्रिया
मिथ्यात्व की
तीन स्थिति
* अंतरकरण के अंतर्मुहूर्त अंतिम छ आवलिका या जघन्य से एक समय बाकी रहने से किसी मंद परिणामी जीव को अनन्तानुबंधी का उदय होने से सास्वादन गुणस्थान दूसरा प्राप्त करके अन्तर करण के बाद मिध्यात्व पामे ।
अंतर करण काल में अंतर स्थितिगत दलिकों को ऊपर और
नीचे की स्थिति में डालकर संपूर्ण खाली करें
संख्यात
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भा
ग
चित्रांकन सम्पूर्णा आदि ऊटी
अनिवृत्ति करण का संख्यातवा भाग
विशुद्ध यथा
प्रवृत्ति करण
६ आवालिका
* अंतरकरण क्रिया काल
अध्यवसायको प्रतिसमय अनंत गुण विशुद्धि
अनिवृत्ति करण में प्रवेश
अपूर्व करण मे प्रवेश
भव्य जीव का चरमावर्त में प्रवेश
तीव्र संवेग निर्वेदसे ग्रन्थिभेद
ग्रन्थी
संसार के सुख प्र तीव्र राग
१) समकित मोहनीय
— शुद्ध-पुंज
* नदी घोल पाषाण न्याय से अनंत बार वथा प्रवृत्ति करण के द्वारा आयुष्य बिना सात कर्मों की स्थिति एक कोड़ा कोड़ी सागरोपम में पल्योपम के असंख्यात भाग न्युन करे अर्थात् अतः कोड़ा कोड़ी सागर प्रमाण स्थिति बनाता है।
त
र
उत्किरण
प्रक्रिया
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पू.
र्व
निबीड़ रागद्वेष की मूढ-घन-दुर्भेद्य ग्रन्थी
तथा भव परिणति परिपाक ! दोष टले वली दृष्टि :
१) मिश्र मोहनीय - अर्द्ध-शुद्ध
* अंतर क्रिया के बाद
मिथ्यात्व की
प्रथम स्थिति
Q
* गाढ़ मिथ्यात्व के योग से जीव का संसार में परिभ्रमण
* ८४ लाख योनि में, * १४ राज लोक में, * ४ गति में
* अनंत जन्म मरण की परंपरा
शुद्ध पुज ३) मिथ्यात्व मोहनीय
* त्रिपुंजी करण प्रक्रिया प्रारंभ काल * अपूर्व आत्मानंद की अनुभूति
उपशम सम्यक्त्व की प्राप्ति
के साथ कोई जीव को की स्पर्शना होती है
एक साथ प्रवेशक जीवों की समान अध्यवसाय अनिवृत्ति
अपूर्व स्थितिबंध
२. अपूर्व रस बंध
3.
अपूर्व स्थिति बंध
४. अपूर्व गुण श्रेणि
(१) अंतरकरण के बाद जीव को निर्मल परिणाम में शुद्ध पुंज के उदय
से क्षायोपशमिक समकित की प्राप्ति गुणस्थानक चौथा
२) कोई जीव को मध्यस्थ परिणाम होने पर मिश्रमोहनीय के अर्थ शुद्ध पुंज के उदय से मिश्र गुणस्थानकतीसरे की प्राप्ति
अर्थ पुद्गल परावर्तन काल से अधिक संसार भ्रमण नहीं
देश
(३) कोई जाँव के कलुषित परिणाम से अशुद्ध पुंज के उदय से मिध्यात्व की प्राप्ति गुणस्थान दूसरा की प्राप्ति
* देश विरति ५ गुण * सर्व विरति ६ गुण * अप्रमत ७ गुण
भली, प्राप्ति प्रवचन- वाक ।
* यथा प्रवृति करण से भव्य- अभव्य दुर्भव्य जीवों कर्म
की लघुता से अनंतीवार ग्रन्थि देश तक आकर अपूर्व करण की विशुद्धि की अभाव से वापिस लौटते है।
शिविराचार्य प.पू. श्री विनय मुनिजी म.सा. "खीचन" का चातुर्मास सन् 2006 मणिबेन कीर्तिलाल मेहता आराधना भवन, कोयम्बतुर
संसार के दुःख प्रति
उग्रद्वेष
गाड़ मिध्यात्व के उदय में ७० कोड़ा कोड़ी मिथ्यात्व की स्थिति बार-बार बांधे, भविष्य में मात्र दो बार उत्कृष्ट स्थिति बांधे, वह द्विबंधक, एक बार बांधे, वह सुकृत बंधक, उत्कृष्ट स्थिति नबंधे तो अपूर्णबंधक।
आद्य संग्रह सृष्टि श्री सुत्र विनय स्वाध्याय मंडल, दिल्ली संपर्क: ०११-२२५८४५२७