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195. सामायिक का क्षेत्र ढाई द्वीप प्रमाण माना | 204. संज्ञी, मनुष्य जन्म व 15 कर्म भूमि क्षेत्रमें
गया है, सर्व लोक में भी कभी कभी होती है जिनशासन की छाया में “सामायिक की (केवली समुद्घात की अपेक्षा)
आराधना" करना यही तो वे श्रेष्ठ कार्य कर 196. श्रुत व देश विरति = सामायिक असंख्य
रहे है। करने योग्य को करे, यही तो भवों में बारबार आ सकती है।
समझदारी है। 197. “चारित्र" सामायिक मात्र आठ भवों में ही
205. नमस्कार शब्द में मेरे से आप उत्कृष्ट है, आती है। (संयम)
गुणों में बड़े है, मैं आप से गुणों में अनुत्कृष्ट
(न्यून) हूँ, गुणों में हीन हूँ। 198. सामायिक के अन्य नाम भी कहे गये है 1. सम्यगदर्शन, 2. शोधि, 3. सभाव, 4.
| 206. यहाँ पर हीन या दासवृत्ति मनोवृत्ति नहीं दर्शन, 5. अवि पर्यय, 7. सुदृष्टि। समता
समझ कर पवित्र एवम् गुणात्मक संबंध मय परिणिति सामायिक होती है।
मानना चाहिये, जैसे गुरु-शिष्य, पिता
पुत्र। 199. सामायिक के सांगोपांग वर्णन को 'निरुक्ति'
207. नमस्कार एक प्रमोद भाव है। प्रमोद भावना कहते है।
का अभ्यास करने से सद्गुणों की प्राप्ति 200. सामायिक की आराधना श्रेष्ठ' नर ही कर
होती है तथा ईर्ष्यालुता डाह और मत्सर सकते हैं।
आदि दुर्गुणों का समूलता से नाश होता है। 201. सामायिक एक परम पवित्र अनुष्ठान है, जिसे
208. पाँच पद हमारे लिए आलम्बन आदर्श व तीर्थंकरो ने सेवन किया, गणधरों ने, 14
लक्ष्य रुप है। पूर्व धारियों ने, आगे बढ़ाया। अतः सामायिक के 2 घड़ी पवित्र काल को आलस्य प्रमाद
209. अरिहंत बने बिना सिद्ध नहीं बना जा सकता अशुभरुप निंदनीय प्रवृत्तियों में नहीं लगाना
(सिद्ध अर्थात् पूर्ण) चाहिये। उत्तम काम देर न करें। 210. अरिहंत आदि महापुरुषों का नाम लेने से 202. सामायिक की शक्ति आत्मा को भगवन्त -
पाप-मूल से उसी प्रकार दूर हो जाते है, परमात्मा रुप में निर्मलीकरण - उज्जवल
जिस प्रकार प्रातः काल सूर्योदय होने पर करती है, सर्व दोषों को दूर करने की राम
चोर भाग जाते है। बाण औषधि है - सामायिका
211. अन्य मत मतान्तरों में व्यक्ति को महत्व 203. कैवल्य ज्ञान, मनःपर्यय ज्ञान, विपुलमति
दिया जाता है, परन्तु “नमस्कार सूत्र" में ऋजुमति-मनः पर्यय ज्ञान, परम अवधि
किसी भी व्यक्ति के नाम को महत्व नहीं ज्ञान, 14 पूर्वो का ज्ञान, 13 पूर्व, 12 पूर्व
दिया गया है। “गुणेहि-साहु” गुण से साधु 11 पूर्व तथा दस पूर्व का ज्ञान ये कुल 9
माना गया है। प्रकार के ज्ञान नियमा चारित्र में ही होते है। 212. अहिंसा-सत्य आदि आध्यात्मिक गुणों का चारित्र से आत्मशुद्धता व ज्ञानोपलब्धि विकास ही गुण पूजा का कारण है। दुर्गुण होती है।
'स्व-पर' दोनों को दःखी करते है।