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________________ 229. अठारहवां पाप मिथ्यादर्शनशल्य मां- बाप के समान है। तथा शेष 17 पाप इनकी संतान रुप है। 230. इन 18 पापों के त्याग बिना आत्मा सुखी नहीं बन सकती, सामायिक व चारित्र धर्म में इन्हीं 18 पापों का त्याग किया जाता है, मनुष्य जीवन की मुख्य वैरायटी है, 18 पापों का त्याग। हमें इन 18 पापों से बचना ही चाहिए, यही धर्म का सार है। 231, कर्मों के आने के मार्गो को आश्रव कहते है। 232. कर्मो का उत्पादन कर्म उपार्जन, परिग्रह सहित तथा विषय कषायों को आश्रव कहते है। 233. कर्म बंध! हेतु इति भाव आश्रव । 234. आत्मा रूपी तालाब में कर्म रुपी पानी आने के मार्गो को आश्रव कहते है। 235. प्रमुख रुप से 5 आश्रव यथा 1. मिथ्यात्व 2. अव्रत 3. प्रमाद 4. कषाय 5. योग 236. आश्रव के 5,20,25 व 57 भेद भी माने गये है। 237. हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील व परिग्रह ये दूसरे प्रकार से 5 भेद होते है। 238. पाँच इन्द्रियों व तीन योगों को वश में नहीं रखना ये 8 भेद हुए। 239. भण्डोपकरण अयत्तना से लेवे रखें, ये दो भेद हुए कुल 5+5+8+2=20 सुई कुशाग्रमात्र अयतना से लेवे-रखे। कुल आश्रव के 20 भेद हुए। 240. पुण्य, पाप ये दोनों भेद तत्वार्थ सूत्र में आश्रव में ही लिए गये है। 235 241 पुण्य व पाप दोनों से कर्मों का आना होता ही है। अतएव सात तत्व मानने की परम्परा वा पुण्य व पाप दोनों का आश्रव तत्व में समावेश कर लेते हैं। 242. उत्तराध्ययन सूत्र में 9 (नवतत्व) तत्वों के नाम तथा संवर निर्जरा तत्व की विस्तार से चर्चा की गई है। 243. मन, वचन, काया (सयोगी) की प्रवृति तक श्रव तत्व रहता है परन्तु मुख्य रुपसे 1 से 10 तक ही गुणस्थानों तक आश्रव को गिना जाता है। 244. वीतरागी में (11, 12 व 13वें गुणस्थानों में) कषाय न होने से आश्रव साता वेदनीय का आना व बंध होना मात्र दो समय का माना गया है। 245. आश्रवों को रोकने का काम संवर करता है, जो आश्रव के 20 भेदों को विपरीत रुप करने से वे ही 20 भेद संवर बन जाते है। 246. कषायों की उदयावस्था में आश्रव से आए कर्मो की स्थिति व रस तेज होता है, कषायों का मन्दीकरण ही धर्म का प्रारम्भी करण है। 247. मनुष्य अवस्था में आश्रवों का त्याग या पाप का त्याग रूप संवर तत्व का रसायन सेवन होता है और किसी भी गति में नहीं हो सकता है। 248. सभी जीवों को अपनी आत्मा के समान समझे। अजीवों में उलझो मत. जीवादि पदार्थों में ज्ञाता दृष्टाभाव से वीतरागी देखते है ना? वैसा प्रयोग करें। 249. संवर = आश्रवों के निरोध को संवर कहते हैं।
SR No.002325
Book TitleVinay Bodhi Kan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaymuni
PublisherShwetambar Sthanakwasi Jain Sangh
Publication Year2014
Total Pages336
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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