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________________ 26. 27. 30. 28. नमस्कार मानवीय जीवन का एक सेतु है। 29. जीवन को दुःखी नहीं बनाना तो नमस्कार करो। 31. 32. नमस्कार नहीं करने से (बड़ो को) आसातना नामक दोष लगता है। आसातना का पाप आत्मा को दुर्लभ बोधि तक बना सकता है। 34. मन की कठोरता को तोड़ने में नमस्कार उत्तम साधन है। तीर्थंकर पद प्राप्ति के 20 बोलों में एक बोल "विनय” बताया है बिना नमस्कार से विनय को प्राप्त नहीं किया जा सकता 'गुण है। नमस्कार करने से सामने वाले व्यक्ति के हृदय में हमारी योग्य छबि बढ़ती है। 33. विनयवान को देवलोक में भी उत्तम पदवी मिलती है। गुणों को प्राप्त करने की पात्रता बनती है - नमस्कार से। 35. छोटे बड़े का भेद नमस्कार से ही पता लगता है। 36. “ णमो” शब्द महत्वपूर्ण होने से ही ये ( नमस्कार सूत्र में ) “पाँच" बार आया है। 37. विनयवान से सभी प्रेरणा लेते है। 38. विनयवान के पास सभी बैठना व सुनना पसन्द करते है। 39. विनय के सात (7) भेद शास्त्र में बताये है 1) ज्ञान 2 ) दर्शन 3 ) चारित्र 4 ) मन 5) वचन 6) काया और 7 वाँ लोकोपचार विनय । 40. जैन धर्म विनय मूल धर्म माना गया है। ज्ञाता धर्म कथा सूत्र के अनुसार “जितना 41. 170 42. जितना पाप का त्याग जीव करता है, वह सभी विनय में ही आता है।” 43. उपरोक्त समाधि व श्रुत दोनों ही निर्जरा प्रधान है। शास्त्र दसवैकालिक में "विनय समाधि” नामक अध्ययन है, उत्तराध्ययन शास्त्र के प्रथम अध्ययन का नाम भी विनयश्रुत बताया है। 44. वृक्ष के मूल जड़ के समान मोक्ष का मूल विनय है। 45. शुभ कार्यों के करने से पहले बड़ों का विनय करना ही चाहिये, ताकि विघ्नों से बचाव होता रहे। 47. 46. बड़ो को नमस्कार (विनय) करने से शाता पँहुचती है तथा स्वयं को भी सुख की अनुभूति होती है। 48. 49. 50. 51. नमस्कार करने से अभिमान के भाव घटते हैं व विनय के पज्जवों (पर्यायों) में वृद्धि होती है। विनम्रता मानव की प्रथम 'पहचान' है। गुणवान बनने का प्रथम गुण “नमस्कार” है। शिक्षा का विरोधी 'अभिमान' है। शिक्षा को प्राप्त करने में 5 दोषों में प्रथम दोष- दुर्गुण घमण्ड (मद) को ही माना है। 52. नमे सो आम्बा आमली, नमे सो दाड़म दाख। एरण्ड बेचारा क्या नमे, जिसकी ओछी साख। 54. 53. जिस घरमें प्रणाम, वहाँ सदा रहेगा नाम। . जो नहीं करता प्रणाम उसका कैसे रहेगा नाम ?
SR No.002325
Book TitleVinay Bodhi Kan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaymuni
PublisherShwetambar Sthanakwasi Jain Sangh
Publication Year2014
Total Pages336
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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