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341. पाप कर्ता जब शुद्ध हृदय से प्रायश्चित कर | 348. शल्यों का त्याग और पाप कर्मो का नाश
लेता है, अपने अपराध का उचित दण्ड ले | कायोत्सर्ग से होता है। लेता है, तो लोगों का मानस भी बदल जाता
349. कायोत्सर्ग = काय के व्यापारों का त्याग है। वे प्रेम व गौरव की दृष्टि से देखते है।
निश्चल होता है, शरीर की अशक्य परिहार 342. सुव्रती बनने की प्राथमिकता शल्य रहित क्रियायें रहती है, शरीर के प्रति ममत्व भाव होना।
टुटता है, दृढ़ता बढ़ती है। 343. “शल्य ते ऽ नेन इतिशल्य" जिसके द्वारा 350. कायोत्सर्ग में आगार 12 प्रकार दिए है
अन्तर में पीड़ा-सालती रहती है, कसकती उसके सिवाय भी “एवमाइएहिं आगारेहिं" रहती है, बल व आरोग्य की हानि होती
अन्य कोई कारण हो। है, जैसे तीर भाला आदि। भाव-शल्य दुःख
351. कायोत्सर्ग पारने से पहले णमो अरिहंताणं की मात्रा को बढ़ा देता है।
बोले यह संकेत है कि जैन धर्म में अरिहन्त 344. जिस प्रकार कांटा तीर आदि शरीर में चुभ परमात्मा को विशिष्ट स्थान प्राप्त है।
जाने पर पीड़ा होती रहती है। चैन नहीं अरिहन्त ही अरि (शत्रु) को दूर करते हैं। पड़ता है। उसी प्रकार अध्यात्म क्षेत्र में
352. आचार्य हेमचन्द्र ने योग शास्त्र में अभग्गो 'माया' आदि शल्य अन्तर्हृदय में घस जाते
और अविराहिओ का अर्थ किया है “अभग्न" हैं तो साधक की आत्मा को शान्ति नहीं
का अर्थ पूर्णतः नष्ट न होना, “अविराहित मिलने देते हैं, हर समय व्याकुल-बैचेन
देशतः" (अंश रुप नष्ट न होना) किए रहते हैं। किसी को प्रताड़ना देना,शल्य
353. गृहस्थ जीवन और संयम जीवन दोनों में से कम नहीं है।
बार बार कायोत्सर्ग करने का अभ्यास करना 345: अहिंसा सत्य आदि “आध्यात्मिक स्वास्थ्य"
चाहिये। है, वह 'शल्य' के द्वारा चौपट हो जाता है,
354. काउस्सग की क्रिया से जीवन में होने वाली साधक आध्यात्मिक दृष्टि से बीमार हो जाता है। अन्दर में हए रोग शल्य से भी
भूलों का परिमार्जन तथा विशुद्धि करण, भयानक दुःख देते है।
परिशोधन होता है। 346. शल्य तीन 1. माया शल्य | निदान शल्य 355. बिना मन से लापरवाही से व अजागृति (भोग आदि को चाहना धर्माचरण के बदले
से किया गया 'काऊस्सग' उतना लाभ में) 3. मिथ्या दर्शन शल्य (असत्य का नहीं देगा | कितना भी बड़ा श्रावक या आग्रही होना)। द्रव्य-शल्य शरीर को दुःख साधु पद हो, बिना जागृति (नींद आती देते है, जबकि भाव-शल्य मन के अन्दर में
है) न तिरेगा न तारेगा। “संवत्सरी - दुःख देते है।
काउस्सग" में जो सोता है, झोका खाता 347. “उत्तरीकरणेणं" के पाठ का सार यह है कि
है? क्या होगा? गच्छ को डुबायेगा। आत्मा की स्वस्थता हेतु प्रायश्चित भाव शुद्धि
356. सर्व प्रथम आलोचना सूत्र से प्रतिक्रमण के बिना नहीं हो सकता है भाव शुद्धि हेतु
करके आत्मशुद्धि की विधि बतलायी गई, शल्य का त्याग जरुरी है।
माहिया