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________________ 11 तक और 12, 13,14 वे गुणस्थान | 54) 7 वीं नरक के अपर्याप्त नियमा मिथ्यादृष्टि वाले भी भाव साधु हैं, नियमा उसी भव में ही होते हैं तथा मरते वक्त पर्याप्त भी। मोक्ष जायेंगे) 55) 1 से 6 नरक के अपर्याप्त में सम्यक और 44) 563 भेदों मे से 192 भेद नहीं मरने वाले मिथ्या दोनों दृष्टि वाले हो सकते हैं । है । (99 देव, 7 नरक, 86 युगलिया, (56 56) 1 से 7 नरक के पर्याप्त में तीनों दृष्टि के हो अन्तरद्वीप, 30 अकर्म भूमि) के अपर्याप्त)। सकते है। तेउकाय, वायुकाय वाले जीव मरकर सम्यग दृष्टि नहीं बन सकते हैं। अगले भव में बन 57) 56 अन्तरद्वीप मरकर वैमानिक देव नहीं बन सकते है। सकते हैं। 46) 5 अनुत्तर विमान वाले देव में जाने वाले 58) चर ज्योतिषी अढ़ाई द्वीप में और अचर नियमा भाव साधु होते ही हैं। अढ़ाई द्वीप के बाहर होते हैं । 47) नपुंसक वेद तीन गति में ही मिलते हैं. देव | 59) नो गर्भज-औदारिक, मन वाले नहीं होते गति को छोड़कर । युगलिया मरकर देव ही है । गर्भज में मन वाले ही होते हैं (वैक्रिय में बनते है, इसलिए वे नपुंसक में नही जाते नहीं) 64 देवता के ऊपरवाले जीव मरकर सन्नी 48) स्त्री वेद तीन गति में मिलते है, नरक गति ही बनते हैं (64 देवता = 25 भवनपति, को छोड़कर। 26 वाणव्यन्तर, 10 ज्योतिषी, प्रथम किल्विषि, पहला दूजा देवलोक) 49) पुरुष वेद तीन गति में मिलते है । नरक गति को छोड़कर । गणधर की आगति :- केवली के समान 108, 50) नोगर्भज : बिना गर्भ से पैदा होने वाले गति मोक्ष । जीव । 62) 1 से 4 नारकी से निकले हुए जीव को नोगर्भ में 351 जीव : 198 देव + 14 केवल ज्ञान हो सकता है। नारकी+38 तिर्यंच+101 सम्मूर्छिम मनुष्य | 63) 1 से 5 वी नारकी से निकले हुए जीव को . = 351 भेद मनःपर्यय ज्ञान हो सकता है । 51) गर्भज = जो गर्भ से पैदा हो । 64) 1 से 7 वी नारकी से निकले हुए जीव को गर्भज मे 212 जीव =101 गर्भज मनुष्य अवधिज्ञान हो सकता है। पर्याप्त +5 सन्नी तिर्यंच पंचेन्द्रिय, के पर्याप्त मन वाला जीव ही ज्यादा पाप कर सकता और अपर्याप्त । है। कायायोग से अगर कर्म बंधे तो 1 सागरोपम, 52) श्रावक, युगलिया और 5 वे आरे में जन्मा दो योग से 1000 सागरोपम, और तीन योग हुआ साधु नियमा देवगति में ही जाते है । से 70 कोड़ा कोड़ी सागरोपम । तीर्थंकर और केवली मरकर नियमा मोक्ष ही | 66) चूहा - दूसरी नारकी तक ही जा सकता है, जाते हैं। चिड़िया - तीसरी नारकी तक, शेर, गाय 53)
SR No.002325
Book TitleVinay Bodhi Kan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaymuni
PublisherShwetambar Sthanakwasi Jain Sangh
Publication Year2014
Total Pages336
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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