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-The TFIC Team.
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सामायिक-सूत्र
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सन्मति आगम-साहित्य रत्नमाला का प्रथम रत्न :
सामायिक-सूत्र
[ प्रवचन, मूल, अर्थ एवं विवेचने सहित !
लेखक: उपाध्याय अमरमुनि
प्रकाशक .
सन्मति ज्ञानपीठ, आगरा
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पुस्तक : सामायिक सूत्र
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लेखक
उपाध्याय मुनि श्री अमरचन्द्रजी महाराज
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ग्रन्तर्दर्शन
प० बेचरवासजी दोशी
तृतीय सशोधित एव परिवद्धित संस्करण दीपावली, १९६६
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मूल्य पाँच रुपये मात्र
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प्रकाशक
सन्मति ज्ञानपीठ, लोहामंडी, आगरा- २
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मुद्रक
प्रेम इलैक्ट्रिक प्रेस, आगरा - २
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प्रकाशकीय
धर्म यदि जीवन का ग्राधार है तो व्रत उसकी आधारशिला है । धार्मिक जागरण, उसमे श्रद्धा, निष्ठा एव भक्ति भाव ही हमारे अदर आध्यात्मिकता का विकास कर, हममे देवोपम जीवन का पर्याय बनाता है, तो व्रत हमे आत्मशुद्धि, आन्तरिक सौम्यता, ऋजुता, विनयिता एव 'आत्मवत् सर्वभूतेषु' की भावभूमि तैयार करता है ।
प्राणिमात्र मे समता का आधार ही सामायिक व्रत का अर्थ है । सामायिक, जितना ग्रतर की शुद्धता, समता एव सहजता पर बल देता है, बाह्य का उतना विधान नही करता । हाँ बाह्य का विधान उतनी ही दूर तक करता है, जैसे कि दरिया के उस पार जाने के लिए नौका का विधान आवश्यक होता है ।
प्रस्तुत पुस्तक सामायिक सूत्र धर्म एव व्रत की इसी मूल भावना पर भाष्य के साथ-साथ मौलिक विवेचन एव चितन प्रस्तुत करती है । धर्म एव व्रतो पर आज अनेकानेक पुस्तके देखने को मिलती हैं किन्तु हमारा उद्देश्य मात्र धर्म के नाम पर धर्म की पुस्तकें आँख मूँद कर छापने का नही है, बल्कि धर्मप्रेमी श्रद्धालु सज्जनो को धर्मं व व्रतो के सूत्रो का सरल भाषा मे स्पष्ट एव चितनपूर्ण भाष्य प्रस्तुत करने के साथ ही उन्हे धर्म व व्रतो की मूल बातो से अवगत करना है, जो उन्हे वास्तविकता का समुचित ज्ञान कराता है ।
सामायिक - सूत्र, हमारा इस दिशा मे सफल प्रयास है, यह बात इससे स्वय सिद्ध हो जाती है कि प्रस्तुत संस्करण इस पुस्तक का तृतीय सस्करण है । इस सस्करण मे जैसा कि मैंने बहुत पूर्व सोचा या कि हम धर्मप्रेमी सज्जनो को सामायिक की मूल बातो के मौलिक
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एव तात्त्विक विवेचन से अवगत कराए, हमारी कल्पना साकार हो चुकी है। श्रद्धय कविश्री उपाध्याय अमरचद्रजी महाराज की कृपा एव आशीर्वाद के अर्घ्यस्वरूप हम सुधी पाठको के समक्ष, सामायिकसूत्र का यह तृतीय सशोधित एव परिवद्धित सस्करण प्रस्तुत करते अपार गौरव की अनुभूति कर रहे है । इसमे कवि श्रीजी की व्रत एवं धर्मपरक नितान्त मौलिक एव तात्त्विक चितना को सर्वसाधारण के व्यवहारयोग्य सरल एव बोधगम्य भाषा-शैली मे संजोया गया है ।
हमे विश्वास है, धर्मप्रेमी सज्जन, पूर्व की भाँति इस सस्करण को भी हृदय से अपनाएँगे तथा अपना अमूल्य सुझाव देकर हमे इस दिशा मे बल प्रदान करेंगे । सामायिक सबके लिए मगलमय हो !
मंत्री,
सन्मति ज्ञानपीठ, आगरा
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अन्तर्दर्शन
उपाध्याय कविरत्न श्री अमरचन्द्रजी द्वारा लिखित सामायिक सूत्र में सम्पूर्ण पढ गया हूँ । इसमे मूल पाठ तथा उसका संस्कृतानुवाद ( संस्कृत शब्दच्छाया) दोनो ही है । मूल पाठ के प्रत्येक शब्द का हिन्दी मे अर्थ तो है ही, साथ ही प्रत्येक सूत्र के अन्त मे उसका अखंड संस्कृत भावार्थ भी दिया गया है । और भी, कविरत्न जी ने हिन्दी - विवेचन के रूप मे सप्रमाण युगोपयोगी तथा जीवन-स्पर्शी शास्त्रीय चर्चाप्रो एवं विवेचनाओ से इसे अध्ययनशील हृदयो के लिए प्रत्यत ही उपयोगी रूप दिया है। संप्रदाय के सीमित क्षेत्र के बीच रहते हुए भी कविरत्नजी की विवेचना प्राय साम्प्रदायिक भावना से शून्य है, व्यापक है । तुलनात्मक पद्धति का अनुसरण कर उन्होने इस ओर एक नया प्रकाश दिया है । इस प्रकार तुलनात्मक पद्धति तथा व्यापक भाव की दृष्टि का अनुसरण देखकर मुझे सविशेष प्रमोद होता है ।
कविरत्न जी का जैन - जगत् मे साधुत्व के नाते एक विशेष स्थान है । फिर भी उन्होने विनयशील स्वभाव, विद्यानुशीलन की प्रवृत्ति, विवेक दृष्टि और साम्प्रदायिक विचारो के सहारे अपनेआप को और भी ऊपर उठाया है । मेरा और उनका अध्यापकअध्येता का घनिष्ठ सम्बन्ध रहा है, प्रत जितना में स्वय उन्हे नजदीक से समझ पाया हूँ, उतना ही यदि उनके अनुयायी भी अपने गुरु कविरत्न जी को समझने की चेष्टा करे, तो निश्चय ही वे अपना और अपनी सम्प्रदाय का श्र ेय-साधन करने मे एक सफल पार्ट अदा करेंगे ।
प्रत्येक प्राणी मे स्वरक्षण-वृत्ति का भाव जन्म से होता है। इस स्वरक्षण - वृत्ति को सर्वरक्षण-वृत्ति में बदल देना हो सामायिक का प्रधान
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उद्देश्य है। मानव की दृष्टि सर्वप्रथम अपनी ही देह, इन्द्रियाँ और भोग-विलास तक पहुँचती है, फलत उसकी रक्षा के लिए वह सारे कार्य-अकार्य करने को तैयार रहता है। जब वह आगे बढकर पारिवारिक चेतना प्राप्त करता है, तब उसकी वह रक्षणवृत्ति विकसित होकर परिवार की सीमा मे पहुँच जाती है। परन्तु, सामायिक का दूरगामी आदर्श हमे बताता है कि स्वरक्षण वृत्ति के विकास का महत्त्व केवल अपनी देह और परिवार तक ही सीमित नही, वह तो विश्वव्यापी है । वह शाति परिषद् (पीस कान्फ्रेस) की तरह केवल विचारमात्र मे नही, अपितु व्यवहार मे प्राणि-मात्र की रक्षा-वृत्ति मे है । विश्व-रक्षण का भाव रखने वाला और उसी के अनुसार कार्य करने वाला मानव ही सच्ची सामायिक करता है। फिर भले ही वह श्रावक हो या और कोई गृहस्थ हो, किंवा सन्यस्त साधु हो। किसी भी सप्रदाय-मत का अथवा देश का क्यो न हो और किसी भी विधि-परपरा से सम्बन्ध रखने वाला क्यो न हो । विभिन्न जातियाँ, विभिन्न भाषाएं और विभिन्न विधियाँ सामायिक मे अन्तर नही डाल सकती, रुकावट पैदा नही कर सकती। जहाँ समभाव है, विश्वरक्षणवृत्ति है और उसका आचरण है, वही सामायिक है। बाह्य भेद गौण है, मुख्य नही।
प्राणि-मात्र को आत्मवत् समझते हुए सब व्यवहार चलाने का ही नाम सामायिक है-सम+पाय+इक-सामायिक । समसमभाव, सर्वत्र आत्मवत् प्रवृत्ति, आय लाभ, जिस प्रवृत्ति से समता की, समभाव की प्राप्ति हो, वही सामायिक है।
जैन शास्त्र मे सामायिक के दो भेद बताए गए है-एक द्रव्यसामायिक, दूसरी भाव-सामायिक । समभाव की प्राप्ति, समभाव का अनुभव और फिर समभाव का प्रत्यक्ष आचरण-भाव सामायिक है। ऐसे भाव-सामायिक की प्राप्ति के लिए जो बाह्य साधन और अतरग-साधन जुटाए जाते हैं, उसे द्रव्य-सामायिक कहते हैं। जो द्रव्यसामायिक हमे भाव-सामायिक के समीप न पहुंचा सके, वह द्रव्यसामायिक नही, किन्तु अन्ध-सामायिक है, मिथ्या सामायिक है, यदि और उग्न भाषा मे कह दूं, तो छल-सामायिक है।
हम अपने नित्य प्रति के जीवन मे भाव-सामायिक का प्रयोग करें, यही द्रव्य-सामायिक का प्रधान उद्देश्य है। हम घर मे हो, दुकान मे
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हो, कोर्ट-कचहरी मे हो, किसी भी व्यावहारिक कार्य मे और कही भी क्यो न हो, सर्वत्र और सभी समय सामायिक की मौलिक भावना के अनुसार हमारा सब लौकिक व्यवहार चलना चाहिए । उपाश्रय या स्थानक मे, "सावज्ज जोग पच्चक्खामि"-'पाप-युक्त प्रवृत्तियो का त्याग करता हूँ'-सामायिक के रूप मे ली गई उक्त प्रतिज्ञा की सार्थकता वस्तुत आर्थिक, राजनीतिक और घरेलू व्यवहारो मे ही सामने आ सकती है । दृढ निश्चय के साथ जीवन मे सर्वत्र सामायिक-प्रयोग की भावना अपनाने के लिए ही तो हम प्रतिदिन उपाश्रयादिक पवित्र स्थानो मे देवगुरु के समक्ष, “सावज्ज जोग पच्चक्खामि" की उद्घोषणा करते है, सामायिक का पुन -पुन अभ्यास करते है। जब हम अभ्यास करते-करते जीवन के सब व्यवहारो मे सामायिक का प्रयोग करना सीख जाएं और इस क्रिया मे भली-भांति समर्थ हो जायें, तभी हमारा द्रव्य सामायिक के रूप मे किया हुआ नित्यप्रति का अभ्यास सफल हो सकता है और तभी हम सच्चे सामायिक का परिणाम प्रत्यक्ष रूप मे देख सकते है, अनुभव कर सकते हैं। ____ जो भाई यह कहते है कि उपाश्रय और स्थानक मे तो सामायिक करना शक्य है, परन्तु सर्वत्र और सभी समय सामायिक कैसे निभ सकती है ? उनसे मैं कहूँगा कि जब आप दुकान पर हो तो ग्राहक को अपने सगे भाई को तरह समझ, फलत उससे किसी भी रूप मे छल का व्यवहार नहो करें, तोलमाप में ठगाई नही करें, वह जैसा सौदा मागता है वैसा ही सौदा यदि दुकान मे हो, तो उचित मूल्यो मे दें। यदि सौदा खराब हो, बिगडा हुआ हो, तो स्पष्ट इन्कार कर दें, तो इस सत्य व्यवहारमय दुकानदारी का नाम भी सामायिक होगा। निश्चय ही आप उस समय बिना मुख-वस्त्रिका और राजोहरण के, बिना आसन और माला के होते हैं, परन्तु समभाव मे रहकर सयत वाणी बोलते हुए भगवान् महावीर की बताई हुई सच्ची सामायिकविधि का पालन अवश्य कर लेते है।
इसी प्रकार, आप घर के व्यवहार मे भी समझ सकते है । यदि आप घर मे माता, पिता, भाई, बहिन, बहू, बेटे और बेटी इत्यादि सभी स्वजनो के साथ आत्मवत् व्यवहार करने मे सदा जागरूक है। कभी अज्ञान, मोह या लोभ के कारण उत्पात खडे होने की सभावना हो, तो आप समभाव से अपना कर्तव्य सोचते है। किसी भी प्रकार का
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क्ष ब्ध वातावरण हो, अपने विवेक को जागत रखते है, तो यह भी सच्ची सामायिक होगी। इसी तरह लेन-देन, खेती के कामो और मजदूरो आदि की समस्या भी सुलझाई जा सकती है। साहूकार, कृषक और किसी भी श्रमजीवी का झगडा, आप समभाव-रूप सामायिक के सतत अभ्यास और विवेक के द्वारा प्रेम-पूर्वक सुलझा सकेंगे।
एक बात और । सच्ची सामायिक का फल वैभव-प्राप्ति नही है, भोग-प्राप्ति नही है, पुत्र और राज्य-प्राप्ति भी नही है। सामायिक का फल तो सर्वत्र समभाव की प्राप्ति, समभाव का अनुभव, प्राणिमात्र मे समभाव की प्रवृत्ति, मानव-समाज मे सुख-शाति का विस्तार, अशाति का नाश और कलह-प्रपंच का त्याग है । यही सामायिक का लक्ष्य है और यही सामायिक का उद्देश्य है।
सामायिक समभाव की अपेक्षा रखता है। वह मुख-वस्त्रिका, रजोहरण और प्रासन आदि की तथा मन्दिर आदि की अपेक्षा नही रखता । उक्त सब चीजो को समभाव के अभ्यास का साधन कहा जा सकता है। परन्तु यदि वे चीजें समभाव के अभ्यास मे हमे उपयोगी नही हो सकी, तो परिग्रहमात्र है, आडम्बरमात्र हैं । सामायिक करते हुए हमे लोभ, क्रोध, मोह, अज्ञान, दुराग्रह, अन्ध-श्रद्धा तथा साम्प्रदायिक द्वष को त्यागने का अभ्यास करना चाहिए। अन्य सम्प्रदायो के साथ समभाव से वर्ताव करना तथा उनके विचारो को सरल भाव से समझना, सामायिक के साधक का यह आवश्यक कर्तव्य है। उक्त बातो पर कविश्री जी ने अपने विवेचन मे विस्तार के साथ बहुत अच्छे ढंग से प्रकाश डाला है। ___कभी-कभी हम धार्मिक क्रिया-काडो और विधि-विधानो को प्रपचसिद्धि का निमित्त भी बना लेते है, धर्म के नाम पर खुल्लम-खुल्ला अधर्म का प्राचरण करने लगते हैं। ऐसा इसलिए होता है कि हम उन विधानो का हृदय एव भाव ठीक तरह समझ नही पाते। आज के धर्म और सम्प्रदायो के अधिकतर अनुयायियो का प्रत्यक्ष आचरण तथा धर्म-विधान इसकी साक्षी दे रहा है ।
दूसरी, फूट की मनोवृत्ति है-धार्मिक फूट की मनोवृत्ति को ही हम लेंगे । हमारे पूर्वजो ने, सुधारको ने समय-समय पर युगानुकूल उचित परिप्कार और क्राति की भावना से प्रेरित होकर प्राचीन
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जीर्ण-शीर्ण धार्मिक क्रिया-कलापो मे थोडा सा नया हेर-फेर क्या किया — हमने उसे फूट का प्रमाण ही मान लिया — भेदभाव का श्रादर्श सिद्धान्त ही समझ लिया । जैन समाज का श्वेताम्बर और दिगम्बर संप्रदाय तथा श्वेताम्बर सप्रदाय मे भी, मूर्तिपूजक, स्थानक - वासी आदि के भेद और दिगम्बर सप्रदाय मे भी तारण पथ तथा तेरह पथ आदि की विभिन्नता इसी मनोवृत्ति के प्रतीक है। फूट का रोग फैल रहा है, धर्म के नाम पर निन्दनीय प्रवृत्तियाँ चल रही है, सर्वत्र एक भयंकर अराजकता फैली हुई है ।
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समाज मे दो श्रेणी के मनुष्य होते है, एक पडित वर्ग के लोग, जिनकी आजीविका एव प्रतिष्ठा शास्त्रो पर चलती है । पडित वर्ग मे कुछ तो वस्तुत निस्पृह, त्यागी, स्व-पर श्रेय के साधक, समभावी होते हैं और कुछ इसके विपरीत सर्वथा स्वार्थजीवी, दुराग्रही और प्रतिष्ठा प्रिय । दूसरी श्रेणी गतानुगतिक, परपरा प्रिय, रूढवादी श्रज्ञानियो की होती है । और कहना नही होगा कि पडित वर्ग मे अधिकता प्राय उन्ही लोगो की होती है, जो स्वार्थजीवी और दुराग्रही, प्रतिष्ठा प्रिय होते है । समाज पर प्रभाव भी उन्ही का रहता है। फल यह होता है कि जनता को वास्तविक सत्य की प्रेरणा नही मिल पाती । इसके विपरीत, एक-दूसरे को झूठा आदि कठोर शब्दो से सम्बोधित कर घोर हिंसा की, पारस्परिक द्वेष की प्रेरणा ही प्राप्त होती है । शुद्ध धर्माचरण का प्रतिबिंब हमारे व्यवहारो मे श्राए तो कैसे ? हम तो पाखडाचरण, साप्रदायिक द्वेष के भक्त बन जाते हैं, व्यवहाराचरण को धर्माचरण से सर्वथा अलग मान लेते हैं । हमारे साम्प्रदायिक हठ का राग हमे दबा लेता है । सप्रदाय के कर्णधार हमे सत्य की ओर नही ले जाते, प्रत्युत भ्राति मे डाल देते हैं । धर्म के नाम पर आज जो हो रहा है, वह सत्य की असाधारण विडम्बना नही तो और क्या है ?
धार्मिक मनुष्य के लिए धर्माचरण केवल कुछ प्रचलित क्रियाकाण्डो की परपरा तक ही सीमित नही है, वस्तुतः प्रत्येक धर्माचरण का प्रतिबिम्ब हमारे नित्यप्रति के व्यवहाराचरण मे उतरना चाहिए । सक्षेप मे कहे, तो शुद्ध और सत्य व्यवहार का नाम ही तो धर्म है। जब हम व्यवहाराचरण को धर्माचरण से सर्वथा अलग वस्तु समझते हैं, तब बडी गडबडी पैदा हो जाती है और सबका सब साम्प्रदायिक
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कर्मकाण्ड एक पाखड बन कर रह जाता है । यदि शुद्ध व्यवहार को ही धर्माचरण समझे, तो फिर अनेक मत-मतान्तरो के होने पर भी किसी प्रकार की हानि को सभावना नही है । धर्म और मत- पथ कितने ही क्यो न हो, यदि वे सत्य के उपासक है, पारस्परिक अखड सौहार्द के स्थापक है, आध्यात्मिक जीवन को स्पर्श करने वाले है, तो समाज का कल्यारण ही करते है । परन्तु, जब मुमुक्षा कम हो जाती है, साधना - वृत्ति शिथिल पड जातीं है और केवल पूर्वजो का राग अथवा अपने हठ का राग बलवान् बन जाता है तब संप्रदाय पुराने विधि-विधानो की कुछ की कुछ व्याख्या करने लगते है और जनता को - भ्रान्ति मे डाल देते है । ऐसी दशा मे गतानुगतिक साधारण जनता सत्य के तट पर न पहुँच कर क्रियाकाण्ड के विकट भँवर मे ही चक्कर काटने लगती हैं ।
जवतक साधारण जनता मे प्रचुर प्रजान है, विवेक-शक्ति का अभाव है, तबतक किसी भी कर्मकाण्ड से उसको लाभ की अपेक्षा हानि ही अधिक होती है । धार्मिक कर्मकाण्ड मे हानि नही है, जनता का स्वयं का अज्ञान या उपदेशको द्वारा दिया गया मिथ्या उपदेश ही हानि का कारण है । सक्षेप में, हमारे कहने का भाव यह है कि यदि धार्मिक क्रियाकाड के द्वारा जनता को वस्तुत लाभ पहुँचाना ग्रभीष्ट हो, तो धार्मिक कर्मकाण्ड मे परिवर्तन करने की अपेक्षा, तद्गत प्रज्ञानता को ही दूर करने का प्रयत्न करना चाहिए। मै आज के जन हितैषी प्राचार्यो से प्रार्थना करूंगा कि वे मुमुक्षु जनता को धार्मिक कर्मकाण्डो की पृष्ठभूमि मे रहने वाले सत्य का प्रकाश दे और निष्प्राण क्रियाकाण्ड मे प्रारण डालने का प्रयत्न करें। हमारे प्राचीन धर्मग्रन्थों मे इसीलिए कहा है
"जो वर्ग धर्मगुरु या धर्मप्रज्ञापक का पद धारण करता है, उसको गंभीर भाव से अन्तर्मुख होकर शास्त्रो का अध्ययन मनन और परिशीलन करना चाहिए। मात्र शास्त्रीय सिद्धातों के ऊपर राग-दृष्टि रखने से उनका ज्ञान नही हो सकता । यदि ज्ञान हो भी जाए, तो ऐसा ज्ञान शास्त्रो के प्रज्ञापन मे निश्चित और प्रामाणिक नही हो सकता ।"
"जिस धर्मगुरु की प्रसिद्धि बहुश्रुत के रूप मे जनता मे होती है, जिसका लोग श्रादर करते है, जिसकी शिष्य परम्परा विस्तृत है, यदि उसकी शास्त्रीय ज्ञान की प्ररूपणा निश्चित नही है, तो वह जिस
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· १३ :
धर्म का प्राचार्य है, उसी धर्म का शत्रु होता है । अर्थात् ऐसा धर्मगुरु । धर्मशत्रु का काम करता है।" ___ "द्रव्य, क्षेत्र, काल,भाव, पर्याय, देश, सयोग और भेद इत्यादि को लक्ष्य मे रखकर ही शास्त्रो का विवेचन करना चाहिए । अधिकारी जिज्ञासु का ख्याल किए बिना ही किया गया धर्म-विवेचन, वक्ता और श्रोता दोनो का ही अहित करता है।"
धर्म-साधना के लिए बाह्य साधनो का त्याग कर देना ही कोई साधना नही है । साधन से त्याग से ही विकारी मनोवृत्ति का अन्त नही हो जाता । कल्पना कीजिए, एक आदमी कलम से अश्लील शब्द लिखता है। उसे कोई धर्मोपदेशक यह कहे कि कलम से अश्लील शब्द लिखे जाते है, अत कलम को फेक दो, तो क्या होगा? वह कलम फेक देगा, और कलम से अश्लील शब्द लिखना बन्द हो जायगा, परन्तु फिर पेन्सिल से लिखने लगेगा। वह भी छ डा दी जायगी, तो खडिया या कोयले से लिखेगा। यदि उसे भी अधर्म कह कर फिकवा देंगे, तो नख-रेखायो मे अश्लीलता अकित करने की भावना जोर पकडेगी । इस प्रकार साधन के फेकने अथवा बदलने से मानव कभी भी अश्लील प्रवृत्ति का परित्याग नही कर सकता। वह साधन बदलता चला जायगा, परन्तु भावना को नही बदलेगा । अतएव धर्मोपदेशक गुरु को विचार करना चाहिए कि अश्लील प्रवृत्ति का मूल कहाँ है ? उसका मूल साधन मे नही, अज्ञान मे है, और, अज्ञान का मूल कहाँ है ? अज्ञान का मूल अशुद्ध सकल्प मे मिलेगा। ऐसी स्थिति मे अश्लील प्रवृत्ति को रोकने के लिए हमारे हृदय मे जो अशुद्ध सकल्प है, उसका परिहार आवश्यक है। उदाहरण के लिए, अश्लील-लेखन कोही लीजिए। अश्लील-लेखन को रोकने लिए कलम फिकवा देना आवश्यक नही है। आवश्यक है मनुष्य के मन मे रहने वाले अशुद्ध सकल्पो का त्याग, बुरे भावो का त्याग । अस्तु, अशुद्ध सकल्पो के त्याग पर ही जोर देना चाहिए, और बताना चाहिए कि अशुद्ध सकल्प ही अधर्म है, पाप है, हिंसा है। जबतक मन मे से यह विष न निकलेगा, तबतक केवल साधनो को छोड देने अथवा साधनो मे परिवर्तन कर लेने भर से किसी प्रकार भी शुद्धि होना सभव नही । जो समाज केवल वाद्य साधनो पर ही धर्मभाव प्रतिष्ठित करता है, अन्तर्जगत् मे उतर कर अशुद्ध सकल्पो
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का बहिष्कार नही करता, वह क्रिया जड हो जाता है । अशुद्ध सकल्पो के त्याग मे ही शुद्ध व्यवहार, शुद्ध आचरण और शुद्ध धर्म-प्रवृत्ति सभव है, अन्यथा नही ।
उपर्युक्त सभी बातो पर कविरत्नजी ने सम्यक् रूप से विवेचना प्रस्तुत की है । इस ओर उनका यह प्रयास सर्वथा स्तुत्य कहा जायगा । कम से-कम मैं तो इस पर अधिक प्रसन्न हूँ और प्रस्तुत प्रकाशन को एक श्रेष्ठ अनुष्ठान मानता हूँ । सर्वसाधारण मे धर्म की वास्तविक साधना के प्रचार के लिए, यह जो मगल प्रयत्न किया गया है, उसके लिए कविश्री जी को भूरि-भूरि धन्यवाद ।
मेरा विश्वास है, प्रस्तुत सामायिक सूत्र के अध्ययन से जैनसमाज मे सर्व-धर्म समभाव की अभिवृद्धि होगी और भाई-भाई के समान जैन - सप्रदायो मे उचित सद्भाव एवं प्रेम का प्रचार होगा । इतना ही नही, जैन संघ को हानि पहुँचाने वाली उलझने भी दूर होगी ।
कविरत्नजी दीर्घजीवी बनकर समाज को यथावसर ऐसे अनेक ग्रन्थ प्रदान करे और अपनी प्रतिभा का अधिकाधिक योग्य परिचय दे, यह मेरी मंगल कामना है ।
१२ ब, भारतीय निवास सोसाइटी अहमदाबाद (गुजरात)
- बेचरदास दोशी
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अनुक्रमणिका
१-१३२
प्रवचन १ विश्व क्या है ? २. चैतन्य ३. मनुष्य और मनुष्यत्व
मनुष्यत्व का विकास ५ सामायिक एक विश्लेषण ६ सामायिक द्रव्य और भाव ७ सामायिक की शुद्धि ८ सामायिक के दोष ६. अठारह पाप १०. सामायिक के अधिकारी ११. सामायिक का महत्त्व १२ सामायिक का मूल्य १३. सामायिक मे दुर्ध्यान विवर्जन १४ शुभ भावना
आत्मा ही सामायिक है १६ साधु और श्रावक की सामायिक १७ सामायिक के छह आवश्यक १८ सामायिक कब करनी चाहिए ? १६ अासन कैसा? २० पूर्व और उत्तर दिशा ही क्यो ? २१ प्राकृत भाषा मे ही क्यो ? २२ दो घड़ी ही क्यो
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१६
१०३ १०६
११२ १३३-२८७
१३५
१६१
१७१
२३ वैदिक सन्ध्या और सामायिक २४ प्रतिज्ञा पाठ कितनी बार ? २५ सामायिक मे ध्यान
सामायिक सूत्र १ नमस्कार-सूत्र २ सम्यक्त्व-सूत्र
गुरु-गुण-स्मरण-सूत्र
गुरु-वन्दन-सूत्र ५ पालोचना-सूत्र ६ कायोत्सर्ग-सूत्र ७ आगार-सूत्र ८ चतुर्विशतिस्तव-सूत्र
प्रतिज्ञा-सूत्र
प्रणिपात-सूत्र ११ समाप्ति-सूत्र
परिशिष्ट १ विधि २. सस्कृतच्छायानुवाद ३ सामायिक-सूत्र पद्यानुवाद
aur 9a
१८५ १६० २०६ २१४
२२६
२४७ २८२
-
२८६-३०४
२६१
२६४
३०१
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विश्व क्या है ?
प्रिय सज्जनो | यह जो कुछ भी विश्व प्रपच प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष रूप मे आपके सामने है, यह क्या है ? कभी एकान्त मे बैठकर इस सम्बन्ध मे कुछ सोचा- विचारा भी है या नही ? उत्तर स्पष्ट है- 'नहीं' | आज का मनुष्य कितना भूला हुआ प्राणी है कि वह जिस ससार मे रहता सहता है, अनादिकाल से जहाँ जन्म-मरण की अनन्त कडियो का जोड-तोड लगाता आया है, उसी के सम्बन्ध मे नही जानता कि वह वस्तुत क्या है ?
१
ग्राज के भोग-विलासी मनुष्यों का इस प्रश्न की ओर, भले ही लक्ष्य न गया हो, परन्तु हमारे प्राचीन तत्त्वज्ञानी महापुरुषो ने इस सम्बन्ध मे बडी ही महत्त्वपूर्ण गवेषणा की है। भारत के बडे-बडे दार्शनिको ने ससार की इस रहस्यपूर्ण गुत्थी को सुलझाने के प्रति स्तुत्य प्रयत्न किए है और वे अपने प्रयत्नो मे बहुत कुछ सफल भी हुए है ।
जैन दृष्टि
*
परन्तु, प्राज तक की जितनी भी ससार के सम्बन्ध मे दार्शनिक विचारधाराएँ उपलब्ध हुई है, उनमे यदि कोई सबसे अधिक स्पष्ट, सुसगत एव तर्कपूर्ण स्पष्ट विचारधारा है, तो वह केवल ज्ञान एव केवल दर्शन के धर्ता, सर्वज्ञ, सर्वदर्शी जैन तीर्थङ्करो की है । भगवान् ऋषभदेव आदि सभी तीर्थङ्करो का कहना है कि "यह विश्व चैतन्य और जड रूप से उभयात्मक है, अनादि है, अनन्त है । न कभी बना है और न कभी नष्ट होगा। पर्याय की दृष्टि से प्राकार-प्रकार का,
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सामायिक प्रवचन
रूप का परिवर्तन होता रहता है, परन्तु मूल-स्थिति का कभी भी सर्वथा नाश नही होता है । मूल-स्थिति का अर्थ 'द्रव्य' है।"१
चैतन्याद्वैत
चैतन्याद्वैतवादी वेदान्त के कथनानुसार-"विश्व केवल चैतन्यमय ही है।" यह जैन धर्म को स्वीकार नही। यदि जगत् की उत्पत्ति से पहले केवल एक परब्रह्म चैतन्य ही था, जड अर्थात् प्रकृति नामक कोई दूसरी वस्तु थी ही नही, तो फिर यह नानाप्रपचरूप जगत कहाँ से आगया ? शुद्व ब्रह्म मे तो किसी भी प्रकार का विकार नही आना चाहिए ? यदि माया के कारण विकार आ गया है, तो वह माया क्या है ? सत् या असत् ? यदि सत् है, अस्तित्वरूप है तो अद्वैतवाद-एकत्ववाद कहाँ रहा ? ब्रह्म और माया, द्वैत न हो गया ? यदि असत् है, नास्तित्वरूप है तो वह शश-शृङ्ग अथवा आकाश-पुष्प के समान अभाव-स्वरूप ही होनी चाहिए। फलत वह शुद्ध परब्रह्म को विकृत कैसे कर सकती है ? जो वस्तु ही नही, अस्तित्वरूप ही नहीं, वह क्रियाशील कैसे ? कर्त्ता तो वही बनेगा, जो भावस्वरूप होगा, क्रियाशील होगा। यह एक ऐसी प्रश्नावली है, जिसका वेदान्त के पास कोई उत्तर नहीं ।
जड़ाद्वैत
अव रहा जडाद्वैतवादी चार्वाक अर्थात् नास्तिकवादी विचार, जो यह कहता है कि "ससार केवल प्रकृति-स्वरूप ही है, जडरूप ही है, उसमे आत्मा अर्थात् चैतन्य नाम का कोई दूसरा पदार्थ किसी भी रूप मे नही है।"
जैन धर्म का इसके प्रति भी तर्क है कि "यदि केवल प्रकृति ही है, प्रात्मा है ही नहीं, तो फिर कोई सुखी, कोई दुखी, कोई क्षमाशील, कोई त्यागी, कोई भोगी, यह विचित्रता क्यो ? जड प्रकृति को तो सदा एक जैसा रहना चाहिए । दूसरे, प्रकृति तो जड है, उसमे भले-बुरे का ज्ञान कहाँ ? कभी किसी जड ईट या पत्थर
१ भगवनी मून, शतक • उद्देशक १
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विश्व क्या है ?
आदि को तो ये सङ्कल्प नही हए ? एक नन्हे-से कीड़े मे भी सकल्प शक्ति है। वह जरा-सा छेडने पर झटपट सिकुडता है और आत्मरक्षा के लिए प्रयत्न करता है, परन्तु ईट या पत्थर को कितना ही पीटिए, उनकी ओर से किसी भी तरह की चेतना का प्रदर्शन नही होगा।" चार्वाक उक्त प्रश्नो के समक्ष मौन है।
अतएव सक्षेप मे यह सिद्ध हो जाता है कि यह अनादि ससार, चैतन्य और जड उभयरूप है, एकरूप नही। जैन तीर्थकरो का कथन इस सम्बन्ध मे पूर्णतया सौ टची सोने के समान निर्मल और सत्य है। : : *
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चैतन्य
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प्रस्तुत प्रसग चैतन्य अर्थात् आत्मा के सम्बन्ध मे ही कुछ कहने का है, अत पाठको की जानकारी के लिए इसी दिशा मे कुछ पक्तियाँ लिखी जा रही है । दार्शनिक क्षेत्र मे आत्मा का विषय बहुत ही गहन एव जटिल माना जाता है, अत एक स्वतन्त्र पुस्तक के द्वारा ही इस पर विस्तार के साथ प्रकाश डाला जा सकता है। परन्तु, समयाभाव के कारण, अधिक विस्तार मे न जाकर, सक्षेप मे, मात्र स्वरूप-परिचय कराना ही यहाँ हमारा लक्ष्य है।
आत्मा क्या है, इस सम्बन्ध मे भिन्न-भिन्न दर्शनो की भिन्न-भिन्न धारणाएं है। किसी भी वस्तु को नाममात्र से मान लेना कि वह है, यह एक चीज है, और वह किस प्रकार से है, किस रूप से है, यह दूसरी चीज है। अत आत्मा के अस्तित्व को स्वीकार करने वाले दर्शनो का भी, आत्मा के स्वरूप के सम्बन्ध मे परस्पर मतैक्य नहीं है। कोई कुछ कहता है और कोई कुछ । सव के सव परस्पर विरोधी लक्ष्यो की ओर दौड रहे है ।
सांख्यदर्शन
सांस्य दर्शन यात्मा को कूटस्थ-नित्य मानता है। वह कहता है कि "अात्मा सदाकाल कूटस्थ-एकरूप रहता है। उसमे किसी भी प्रकार का परिवर्तन-हेरफेर नहीं होता। प्रत्यक्षत जो ये सुख, दुख आदि के परिवर्तन यात्मा में दिखलाई देते है, सब प्रकृति के धर्म है, यात्मा के नहीं।
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चैतन्य
अस्तु, साख्य-मत मे आत्मा अकर्ता है। अर्थात् वह किसी भी प्रकार के कर्म का कर्ता नही है। करने वाली प्रकृति है। प्रकृति के दृश्य आत्मा देखती है, अत वह केवल द्रष्टा है। साख्य-सिद्धान्त का यही सूत्र है।
प्रकृते क्रियमाणानि, गुण कर्माणि सर्वश । अहकार-विमूढात्मा, कर्ताहमिति मन्यते । -गीता, ३।२७
वेदान्तदर्शन
वेदात्त भी आत्मा को कूटस्थ-नित्य मानता है। परन्तु, उसके मत मे ब्रह्मरूप आत्मा एक ही है, साख्य के समान अनेक नही । प्रत्यक्ष मे जो नानात्व दिखलाई देता है, वह माया-जन्य है, आत्मा का अपना नही। परब्रह्म के साथ ज्योही माया का स्पर्श हुआ, वह एक से अनेक हो गया, ससार बन गया। पहले, ऐसा कुछ नही था। वेदान्त जहाँ अात्मा को एक मानता है, वहाँ सर्वव्यापी भी मानता है। अखिल ब्रह्माण्ड मे एक ही आत्मा का पसारा है, आत्मा के अतिरिक्त और कुछ है ही नही । वेदान्त के आदर्श-सूत्र है
सर्व खल्विद ब्रह्म। –छादोग्यउपनिषद् ३।१४।१ एकमेवाद्वितीयम् । -छा० उ०६।२।१
वैशेषिकदर्शन
वैशेषिक आत्मा तो अनेक मानते है, पर मानते है सर्वव्यापी। उनका कहना है कि "आत्मा एकान्त नित्य है। वह किसी भी परिवर्तन के चक्र मे नही आती। जो सुख-दुख आदि के रूप में परिवर्तन नजर आता है, वह आत्मा के गुणो मे है, स्वय आत्मा मे नही । ज्ञान आदि आत्मा के गुण अवश्य है, पर, वे आत्मा को तग करने वाले हैं, ससार मे फँसाने वाले है। जब तक ये नष्ट नही हो जाते, तब तक आत्मा का मोक्ष नही हो सकता। इसका अर्थ यह हुआ कि स्वरूपत आत्मा 'जड' है। आत्मा से भिन्न पदार्थ के रूप मे माने जाने वाले ज्ञान-गुण के सम्बन्ध से आत्मा मे चेतना है, स्वत नही।"
बौद्धदर्शन
बौद्ध आत्मा को एकान्त क्षणिक मानते है। उनका अभिप्राय
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मामायिक प्रवचन
यह है कि प्रत्येक ग्रात्मा क्षरण-क्षरण मे नष्ट होती रहती है और उस से नवीन-नवीन आत्मा उत्पन्न होती रहती है । यह ग्रात्मानो का जन्म-मरण - रूप प्रवाह अनादि काल से चला रहा है । जव आध्यात्मिक साधना के द्वारा आत्मा को समूल नष्ट कर दिया जाए, वर्तमान आत्मा नष्ट होकर ग्रागे नवीन ग्रात्मा उत्पन्न ही न हो, तब उसकी मोक्ष होती है, दुखो से छुटकारा मिलता है । न रहेगी आत्मा चोर न रहेगे उससे होने वाले सुख-दुख | न रहेगा वाँस और न बजेगी बाँसुरी ।
६
श्रार्यसमाज
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ग्राजक्ल के प्रचलित पथो मे ग्रार्यसमाजी श्रात्मा को सर्वथा अल्पज्ञ मानते है । उनके सिद्धान्तानुसार ग्रात्मा न कभी सर्वज्ञ होती है और न वह कर्म - बन्धन से छुटकारा पाकर कभी मोक्ष ही प्राप्त कर सकती है । जव शुभ कर्म होता है तो मरने के बाद कुछ दिन मोक्ष मे आनन्द का भोग प्राप्त होता है । और जव शुभ कर्म होता है, तो इधर उधर की दुर्गतियो मे दुख का भोग प्राप्त होता है । ग्रात्मा अनन्तकाल तक यो ही ऊपर-नीचे भटकती रहेगी । सदा के लिए ग्रजर, अमर, अखण्ड शान्ति कभी नही मिलेगी ।
देवसमाज
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देवसमाजी ग्रात्मा को प्रकृति-जन्य जड पदार्थ मानते है, स्वतन्त्र चैतन्य नही । वे कहते है कि "ग्रात्मा भौतिक है, त वह एक दिन उत्पन्न होती है और नष्ट भी हो जाती है, ग्रात्मा अजर, अमर, सदाकाल स्थायी नही है । जव आत्मा ही नही है, तो फिर मोक्ष का प्रश्न ही कहाँ रहा ?" प्राध्यात्मिक साधना का चरम लक्ष्य, आर्यसमाज के समान देवसमाज के ध्यान मे भी नही है ।
जैन दर्शन का समाधान
आत्मा परिणामी नित्य है
भारत के उक्त विभिन्न दर्शनो मे से जैन दर्शन ग्रात्मा के सम्बन्ध मे एक पृथक् ही धारणा रखता है, जो पूर्णतया स्पष्ट एव ग्रसदिग्ध है । जैन धर्म का कहना है कि "ग्रात्मा परिरणामी -- परिवर्तनशील
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चैतन्य
नित्य है , कूटस्थ-एकरस नित्य नहीं। यदि वह साख्य की मान्यता के अनुसार कूटस्थ नित्य होता, तो फिर नरक, देव, मनुष्य आदि नाना गतियो मे कैसे घूमता ? कभी क्रोधी और कभी शान्त कैसे होता ? कभी सुखी और कभी दुखी कैसे बनता ? कूटस्थ को तो सदा काल एक जैसा रहना चाहिए | कूटस्थ मे परिवर्तन कैसा? यदि यह कहा जाए कि ये सुख, दुख, ज्ञान, ग्रादि सब प्रकृति के धर्म है, आत्मा के नही, तो यह भी मिथ्या है। क्योकि, ये वस्तुत प्रकृति के धर्म होते, तब तो आत्मा के निकल जाने के बाद, जड प्रकृति-रूप से अवस्थित मृतक शरीर मे भी होने चाहिए थे, पर उसमे होते नही। क्या कभी किसी ने सजीव शरीर के समान, निर्जीव हड्डी और मास को भी दुख से घबराते और सुख से हर्षित होते देखा है ? अत सिद्ध है कि आत्मा परिणामशील नित्य है । साख्य के अनुसार कूटस्थ नित्य नही । परिणामी नित्य से यह अभिप्राय है कि प्रात्मा कर्मानुसार नरक, तिर्यच आदि मे तथा सुख-दुख रूप मे बदलती भी रहती है और फिर भी आत्मतत्त्वरूप मे स्थिर, नित्य रहती है। आत्मा का कभी नाश नही होता । सुवर्णककरण आदि गहनो के रूप मे बदलता रहता है, साथ ही सुवर्ण-रूप से ध्रुव भी रहता है। इसी प्रकार आत्मा भी।”
आत्मा अनन्त है
वेदान्त के अनुसार प्रात्मा एक और सर्वव्यापी भी नही । यदि ऐसा होता, तो जिनदास, कृष्णदास, रामदास आदि सब व्यक्तियो को एक समान ही सुख-दुख होना चाहिए था। क्योकि जब आत्मा एक ही है, और वह सर्वव्यापी भी है , फिर प्रत्येक व्यक्ति अलगअलग सुख-दुख का अनुभव क्यो करे ? कोई धर्मात्मा और कोई पापात्मा क्यो बने ? दूसरा दोष यह है कि सर्वव्यापी मानने से परलोक भी घटित नही हो सकता। क्योकि जब यात्मा आकाश के समान सर्वव्यापी है, फलत कही आती-जाती ही नही , तब फिर नरक स्वर्ग आदि विभिन्न स्थानो मे जाकर पुनर्जन्म कैसे लेगी? सर्वव्यापी को कर्मबन्धन भी नही हो सकता | क्या कभी सर्वव्यापी आकाश भी किसी बन्धन मे आता है ? और जव बन्धन ही नही तो फिर मोक्ष कहाँ रहा?
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सामायिक प्रवचन
ज्ञान प्रात्मा का गुण है
"आत्मा का ज्ञान-गुण स्वाभाविक नही है", वैशेषिक दर्शन का उक्त कथन भी अभ्रान्त नही है। प्रकृति और चैतन्य दोनो मे विभेद की रेखा खीचने वाला प्रात्मा का यदि कोई विशेष लक्षण है, तो वह एक ज्ञान ही है। आत्मा का कितना ही क्यो न पतन हो जाए, वह वनस्पति आदि स्थावर जीवो की अतीव निम्न स्थिति तक क्यो न पहुँच पाए, फिर भी उसकी ज्ञानस्वरूप चेतना पूर्णतया नष्ट नही हो पाती। अज्ञान का पर्दा कितना ही घनीभूत क्यो न हो, ज्ञान का क्षीण प्रकाश, फिर भी अन्दर मे चमकता ही रहता है। सघन बादलो के द्वारा ढंक जाने पर भी क्या कभी सूर्य के प्रकाश का दिवस-सूचक स्वरूप नष्ट हुआ है ? कभी नही। और ज्ञान के नष्ट होने पर ही मुक्ति होगी, यह कहना तो और भी अटपटा है | आत्मा का जब ज्ञान-गुण ही नष्ट हो गया, तब फिर शेष मे क्या स्वरूप बच रहेगा ? तेजोहीन अग्नि, अग्नि नही, राख हो जाती है। गुणी का अस्तित्व अपने निजी गुणो के अस्तित्व पर ही आश्रित है। क्या कभी बिना गुण का भी कोई गुणी होता है ? कभी नहीं। ज्ञान आत्मा का एक विशिष्ट गुण है, अत वह कभी नष्ट नही हो सकता । आत्मा के साथ सदैव अविच्छिन्न रूप से रहता है। भगवान महावीर तो आत्मा और ज्ञान मे अभेद सम्बन्ध मानते है और यहाँ तक कहते हैं कि 'जो ज्ञाता है, वह आत्मा है और जो आत्मा है वह ज्ञाता है।
जे विन्नाया से आया, जे पाया से विन्नाया। जेण वियाणइ से आया ।
--आचाराग ११५५ प्रात्मा निरन्वय क्षणिक नहीं
"अात्मा क्षण-क्षण मे उत्पन्न एव साथ ही नष्ट होती रहती है", बौद्ध धर्म का यह सिद्धान्त भी अनुभव एव तर्क की कसौटी पर खरा नही उतरता। क्षणभगुर का अर्थ तो यह हुआ कि "मैने पुस्तक लिखने का सकल्प किया, तव अन्य प्रात्मा थी, लिखने लगा, तव अन्य प्रात्मा थी, अव लिखते समय अन्य प्रात्मा है और पूर्ण लिखने के वाद जव पुस्तक समाप्त होगी, तव अन्य ही कोई अात्मा उत्पन्न हो जायेगी। यह सिद्धान्त प्रत्यक्षत सर्वथा वाधित है। क्योकि, मुझे
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चैतन्य
सकल्पकर्त्ता के रूप मे निरन्तर एक ही प्रकार का सकल्प है कि “मैं ही सकल्प करनेवाला हूँ, मैं ही लिखनेवाला हूँ और मैं ही पूर्ण करूँगा ।" यदि आत्मा उत्तरोत्तर अलग-अलग है, तो सकल्प आदि मे विभिन्नता क्यो नही ? दूसरी बात यह है कि आत्मा को निरन्वय क्षणिक मानने से कर्म और कर्म फल का एकाधिकरण रूप सम्बन्ध भी अच्छी तरह नही घट सकता । एक आदमी चोरी करता है और उसे दण्ड मिलता है । परन्तु, बौद्ध के विचार से आत्मा बदल गयी । अत चोरी की किसी ने और दण्ड मिला किसी दूसरे को । भला, यह भी कोई न्याय है ? चोर करनेवाली आत्मा का कृत-कर्म निष्फल गया और उधर चोरी न करनेवाली दूसरी आत्मा को बिना कर्म के व्यर्थ ही दण्ड भोगना पडा ।
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श्रात्मा सर्वज्ञ और मुक्त हो सकती है
of
" श्रात्मा कभी सर्वज्ञ नही हो सकती, मोक्ष नही पा सकती", यह आर्य समाज का कथन भी उचित नही । हमे अल्पज्ञ ही रहना है, ससार मे ही भटकना है, तो फिर भला यम, नियम एव तपश्चरण आदि की साधना का क्या अर्थ ? धर्म साधना आत्मा के सद्गुणो का विकास करने के लिए ही तो है । और, जब गुणो के विकसित होते - होते आत्मा पूर्ण विकास के पद पर पहुँच जाती है, तो वह सर्वज्ञ हो जाती है, अन्त मे वह सब कर्म बन्धनो को काटकर मोक्ष पद प्राप्त कर लेती है - सिद्ध, बुद्ध, मुक्त हो जाती है । मोक्ष प्राप्त करने के वाद, फिर कभी भी उसे ससार मे भटकना नही पडता । जिस प्रकार जला हुग्रा बीज फिर कभी उत्पन्न नही होता, उसी प्रकार तपश्चररण श्रादि की आध्यात्मिक अग्नि से जला हुना कर्म - बीज भी फिर कभी जन्म-मरण का विष - श्रकुर उत्पन्न नही कर सकता ।
जहा दड्ढा बीयारण रण जायति पुरणकुरा । कम्मबीएस दड्ढेसु न जायति भवकुरा ॥
- दशा श्रुतस्कन्ध ५।१५
जिस प्रकार दूध मे से निकालकर अलग किया हुआ मक्खन, पुन अपने स्वरूप को तज कर दूध-रूप हो जाए, यह असम्भव है, ठीक उसी प्रकार कर्म से अलग होकर सर्वथा शुद्ध हुई आत्मा, पुन
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सामायिक प्रवचन
श्रावद्ध नही हो सकती, कर्म-जन्य सुख-दुख नही भोग सकती। बिना कारण के कभी भी कार्य नही होता यह न्यायशास्त्र का ध्र व सिद्धान्त है। जब मोक्ष मे ससार के कारण कर्म ही नहीं रहे, तो फिर ससार मे पुनरागमनरूप उसका कार्य कैस हो सकता है ?
प्रात्मा पचभूतात्मक नहीं है
'अात्मा पॉच भूतो की बनी हुई है और एक दिन वह नष्ट हो जाएगी'—यह देव समाज आदि नास्तिको का कथन भी सर्वथा असत्य है । भौतिक पदार्थो से आत्मा की विभिन्नता स्वय सिद्ध है। किसी भी भौतिक पदार्थ मे चेतना का अस्तित्व नही पाया जाता। और इधर प्रत्येक प्रात्मा मे थोडी या बहुत चेतना अवश्य होती है । अत लक्षण-भेद से पदार्थ-भेद का सिद्धान्त सर्वमान्य होने के कारण जड प्रकृति से चैतन्य प्रात्मा का पृथक्त्व युक्तिसगत है। पृथ्वी, जल, तेज, वायु, आकाश--इन पाँच जड भूतो के सम्मिश्रण से चैतन्य आत्मा कैसे उत्पन्न हो सकती है ? जड के सयोग से तो जड की ही उत्पत्ति हो सकती है, चैतन्य की नहीं। कारण के अनुरूप ही तो कार्य होता है। और उत्पन्न भी वही चीज होती है, जो पहले न हो । किन्तु, अात्मा सदा से है और सदा रहेगी। जव एक शरीर क्षीण हो जाता है और तज्जन्म-सम्बन्धी कर्म भोग लिया जाता है, तब आत्मा नवीन कर्मानुसार दूसरा शरीर धारण कर लेती है। गरीर-परिवर्तन का यह अर्थ नही कि शरीर के साथ आत्मा भी नष्ट हो जाती है। अमूर्त आकाश के समान अमूर्त प्रात्मा भी न कभी वनती है, न विगडती है। वह अनादि है और अनन्त है, फलत. अखण्ड है, अच्छेद्य है, अभेद्य है।
आत्मा अमूर्त-अरूपी है
प्रात्मा अरूपी है, उसका कोई रूप-रग नही । आत्मा मे स्पर्श रस, गन्ध आदि किसी भी तरह नही हो सकते क्योकि वे सब जड पूदगल-प्रकृति के धर्म है, आत्मा के नही।
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चैतन्य
आत्मा अतीन्द्रिय है
आत्मा इन्द्रिय, वाणी, बुद्धि और मन से अगोचर हैसव्वे सरा नियति तवका तत्थ न विज्जइ ।*
-आचाराग ११५।६ आत्मा स्वपर-प्रकाशक है
अस्तु, पात्मा के वास्तविक स्वरूप को जानने की शक्ति एकमात्र आत्मा मे ही है, अन्य किसी भी भौतिक साधन मे नही । जिस प्रकार स्व-पर प्रकाशक दीपक को देखने के लिए दूसरे किसी साधन की आवश्यकता नही होती, अपने उज्ज्वल प्रकाश से ही वह स्वय प्रतिभासित हो जाता है, ठीक इसी प्रकार स्व-पर प्रकाशक प्रात्मा को देखने के लिए भी किसी दूसरे भौतिक प्रकाश की आवश्यकता नही । अन्तर मे रमा हुया ज्ञान-प्रकाश ही, जिसमे से वह प्रस्फुरित हो रहा है, उस अनन्त तेजोमय आत्मा को भी देख लेता है। आत्मा की सिद्धि के लिए स्वानुभूति ही सबसे बड़ा प्रमाण है। अतएव आत्मा के सम्बन्ध मे कहा जाता है कि 'मै' क्यो हूँ, चूंकि 'मैं' हूँ।
प्रात्मा सर्वव्यापी नहीं
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आत्मा सर्वव्यापी नहीं, बल्कि शरीर-प्रमाण होती है। छोटे शरीर मे छोटी और बडे शरीर मे बडी हो जाती है। छोटी वय के बालक मे आत्मा छोटी होती है, और उत्तरोत्तर ज्यो-ज्यो शरीर वढता जाता है, त्यो त्यो आत्मा का भी विस्तार होता जाता है। आत्मा मे सकोच-विस्तार का गुण प्रकाश के समान है। एक विशाल कमरे मे रखे हुए दीपक का प्रकाश बडा होता है, परन्तु यदि आप उसे उठाकर एक छोटे-से घडे मे रख दे, तो उसका प्रकाश उतने मे ही सीमित हो जाएगा। यह सिद्धान्त अनुभव-सिद्ध भी है कि शरीर मे जहाँ कही भी चोट लगती है, सर्वत्र दुख का अनुभव होता है।
* तुलना कीजिए-न तत्र चक्षुर्गच्छति, न वाग् गच्छति, नो मन ।।
-केन उपनिपद्, खण्ड १, कण्डिका ३ ।
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सामायिक प्रवचन
शरीर से बाहर किसी भी चीज को तोडिए, कोई दुख नही होगा। शरीर से बाहर आत्मा हो, तभी तो दुख होगा न ? अत सिद्ध है कि आत्मा सर्वव्यापी न होकर शरीर-प्रमाण ही है।
___ आत्मा के स्वरूप के सम्बन्ध मे सक्षिप्त पद्धति अपनाते हुए भी काफी विस्तार के साथ लिखा गया है। इतना लिखना आवश्यक भी था। यदि आत्मा का उचित अस्तित्व ही निश्चित न हो, तो फिर आप जानते है, धर्म, अधर्म की चर्चा का मूल्य ही क्या रह जाता है ? धर्म का विशाल महल आत्मा की बुनियाद पर ही खडा है। * * *
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मनुष्य और मनुष्यत्व
आत्मा अपनी स्वरूप स्थितिरूप स्वाभाविक परिणति से तो शुद्ध है, निर्मल है, विकार रहित है, परन्तु कषाय-मूलक वैभाविक परिणति के कारण वह अनादिकाल से कर्म-बन्धन मे जकडी हुई है । जैन दर्शन का कहना है कि " कषाय- जन्य कर्म अपने एक-एक व्यक्ति की अपेक्षा आदि है और अनादिकाल से चले आनेवाले प्रवाह की अपेक्षा अनादि है । यह सबका अनुभव है कि प्रारणी सोते-जागते, उठतेबैठते, चलते-फिरते किसी न किसी तरह की कषाय-मूलक हलचल किया ही करता है । और यह हलचल ही कर्मबन्ध की जड है | त सिद्ध है कि कर्म, व्यक्तिश अर्थात् किसी एक कर्म की अपेक्षा से आदि वाले हैं, परन्तु कर्म-रूप प्रवाह से — परम्परा से अनादि हैं । भूतकाल की अनन्त गहराई मे पहुँच जाने के बाद भी, ऐसा कोई प्रसग नही मिलता, जबकि आत्मा पहले सर्वथा शुद्ध रही हो, और बाद मे कर्म - स्पर्श के कारण अशुद्ध बन गई हो । यदि कर्म-प्रवाह को आदिमान् माना जाए, तो प्रश्न होता है कि विशुद्ध आत्मा पर बिना कारण अचानक ही कर्म-मल लग जाने का क्या कारण है ? बिना कारण के तो कार्य नही होता । और, यदि सर्वथा शुद्ध आत्मा भी, बिना कारण के यो ही व्यर्थ लिप्त हो जाती है, तो फिर तप-जप आदि की अनेकानेक कठोर साधनाओ के बाद मुक्त हुए जीव भी पुन कर्म मे लिप्त हो जाएँगे । इस दशा मे, मुक्ति को एक प्रकार से सोया हुआ ससार ही कहना चाहिए । सोते रहे तब तक तो ग्रानन्द श्रीर जगे तो फिर वही हाय-हाय । मोक्ष मे कुछ काल तक आनन्द मे रहना और फिर वही कर्म चक्र की पीडा सहना 1
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सामायिक प्रवचन
मनुष्य जीवन देव दुर्लभ है
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हाँ, तो आत्मा, कर्म-मल से लिप्त होने के कारण अनादिकाल से ससार-चक्र मे घूम रही है, त्रस और स्थावर की चौरासी लाख योनियो मे भ्रमण कर रही है । कभी नरक मे गयी, तो कभी तिर्यच मे, नाना गतियो मे, नाना रूप धारण कर, घूमते-घामते ग्रनन्तकाल हो चुका है, परन्तु दुख से छुटकारा नही मिला । दुख से छुटकारा पाने का एकमात्र साधन मनुष्य जन्म है । आत्मा का जब कभी अनन्त पुण्योदय होता है, तब कही मानव जन्म की प्राप्ति होती है। भारतीय धर्मशास्त्रो मे मनुष्य-जन्म की बडी महिमा गाई गई है। कहा जाता है कि देवता भी मानव जन्म की प्राप्ति के लिए तडपते है । भगवान महावीर ने अपने धर्म-प्रवचनो मे अनेक बार मनुष्य जन्म की दुर्लभता का वर्णन किया है
- उत्तराध्ययन ३७
“कम्मारण तु पहाणाए, आरणपुव्वी कयाइ उ । जीवा सोहिमगुपत्ता, आययन्ति मरणस्य || " अनेकानेक योनियो मे भयकर दुख भोगते-भोगते जब कभी शुभ कर्म क्षीण होते है, और आत्मा शुद्ध-निर्मल होती है, तब वह मनुष्यत्व को प्राप्त करती है ।
मोक्ष प्राप्ति के चार कारण दुर्लभ बताते हुए भी, भगवान महावीर ने, अपने पावापुरी के अन्तिम प्रवचन मे, मनुष्यत्व को ही सबसे पहले गिना है। वहाँ बतलाया है कि "मनुष्यत्व, शास्त्र - श्रवरण, श्रद्धा और सदाचार के पालन मे प्रयत्नशीलता - ये चार साधन जीव को प्राप्त होने अत्यन्त कठिन है । "
चत्तारि परमगाणि, दुल्लहाणीह जतुरगो । माणुसत्त सुई सद्धा, सजमम्मि य वीरिय ॥
- उत्तराध्ययन ३।१
क्या सचमुच ही मनुष्य जन्म इतना दुर्लभ है ? क्या मनुष्य से बढ़कर अन्य कोई जीवन नही ? इसमे तो कोई सन्देह नही कि मानव भव प्रतीव दुर्लभ वस्तु है । परन्तु, धर्म-शास्त्रकारो का आशय, इसके पीछे कुछ और ही रहा हुआ प्रतीत होता है । वे दुर्लभता का भार, मनुष्य शरीर पर न डाल कर, मनुष्यत्व पर डालते हैं । बात वस्तुत है भी ठीक | मनुष्य शरीर के पा लेने भर से तो कुछ नही हो
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मनुप्य और मनुष्यत्व
१५ जाता। हम एक दो बार क्या, अनन्त बार मनुष्य बन चुके है-लम्बे-चौडे सुन्दर, सुरूप, बलवान | पर लाभ कुछ नही हुआ। कभी-कभी तो लाभ की अपेक्षा हानि ही अधिक उठानी पड़ी है। मनुष्य तो चोर भी है, जो निर्दयता के साथ दूसरो का धन चुरा लेता है । मनुष्य तो कसाई भी है, जो प्रतिदिन निरीह पशुओ का खून बहा कर प्रसन्न होता है । मनुष्य तो साम्राज्यवादी राजा लोग भी है, जिनकी राज्यतृष्णा के कारण लाखो मनुष्य बात-की-बात मे रणचण्डी की भेट हो जाते है । मनुष्य तो वेश्या भी है, जो रूप के बाजार मे बैठकर चन्द चॉदी के टुकडो के लिए अपना जीवन बिगाडती है और देश की उठती हुई तरुणाई को भी मिट्टी में मिला देती है। आप कहेगे, ये मनुष्य नही, राक्षस है । हाँ, तो मनुष्य-शरीर बेकार है, कुछ अर्थ नही । हम इतनी बार मनुष्य बन चुके है, जिसकी कोई गिनती नहीं। एक आचार्य अपनी कविता की भाषा मे कहते हैं कि
"हम इतनी वार मनुष्य-शरीर धारण कर चुके है कि यदि उनके रक्त को एकत्र किया जाए, तो असख्य समुद्र भर जाएँ, मास को एकत्र किया जाए, तो चाँद और सूरज भी दव जाएं, हड्डियो को एकत्र किया जाए, तो असख्य मेरु पर्वत खडे हो जाएं।" ।
मनुष्यता की आवश्यकता
भाव यह है कि मनुष्य शरीर इतना दुर्लभ नही, जितनी कि मनुष्यता दुर्लभ है। हम जो अभी ससार-सागर मे गोते खा रहे हैं, इसका अर्थ यही है कि हम मनुष्य तो बने , पर दुर्भाग्य से मनुष्यत्व नही पा सके, जिसके बिना किया-कराया सब धूल मे मिल गया, काता-पीजा फिर से कपास हो गया ।
__मनुष्यता कैसे मिल सकती है ? यह एक प्रश्न है, जिस पर सब-के-सब धर्मशास्त्र एक स्वर से पुकार रहे है। मनुष्य जीवन के दो पहलू है—एक अन्दर की ओर झांकना, दूसरा बाहर की ओर झाँकना । जो जीवन बाहर की ओर झाँकता रहता है, ससार की मोह-माया के अन्दर उलझा रहता है, अपने आत्मतत्त्व को भूल कर केवल देह का ही पुजारी बना रहता है, वह मनुष्य-भव मे मनुष्यता के दर्शन नही कर सकता ।
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सामायिक प्रवचन
मनुष्य का समग्र जीवन इस देह-रूपी घर की सेवा करने मे ही बीत जाता है। यह देह आत्मा के साथ आजकल अधिक-से-अधिक पचास, सौ या सवा सौ वर्ष के लगभग ही रहता है। परन्तु, इतने समय तक मनुष्य करता क्या है ? दिन-रात इस शरीर-रूपी मिट्टी के घरौदे की परिचर्या ही मे लगा रहता है, दूसरे आत्म-कल्याणकारी
आवश्यक कर्तव्यो का तो उसे भान ही नही रहता। देह को खाने के लिए कुछ अन्न चाहिए, लेकिन प्रात काल से लेकर अर्धरात्रि तक तेली के बैल की तरह आँखे बन्द किए, तन-तोड परिश्रम करता है। देह को ढॉपने के लिए कुछ वस्त्र चाहिए, किन्तु सुन्दर-से-सुन्दर वस्त्र पाने के लिए वह व्याकुल हो जाता है। देह के रहने के लिए एक साधारण-सा घर चाहिए, पर कितने ही क्यो न अत्याचार करने पडे, गरीबो के गले काटने पडे, येन केन प्रकारेण वह सुन्दर भवन बनाने के लिए जुट जाता है। साराश यह है कि देह-रूपी घर की सेवा करने मे, उसे अच्छे-से-अच्छा खिलाने-पिलाने मे, मनुष्य अपना अनमोल नर-जन्म नष्ट कर डालता है। घर की सार सँभाल रखना, उसकी रक्षा करना, यह घरवाले का आवश्यक कर्तव्य है, परन्तु यह तो नही होना चाहिए कि घर के पीछे घरवाला अपने आपको ही भुला डाले, वरबाद कर डाले । भला, जो शरीर अन्त मे पचाससौ वर्ष के बाद एक दिन अवश्य ही अपने को छोडने वाला है, उसकी इतनी गुलामी क्यो ? आश्चर्य होता है, मनुष्य की इस मूर्खता पर | जो शरीर-रूपी घर मे रहता है, जो शरीर-रूपी घर का स्वामी है, जो शरीर से पहले भी था, अब भी है और आगे भी रहेगा, उस अजर, अमर, अनन्त शक्तिशाली आत्मा की कुछ भी सार-सँभाल नही करता। बहुत-सी बार तो उसे, देह के अन्दर कौन रह रहा है, इतना भी भान नही रहता । अत शरीर को ही 'मैं' कहने लग जाता है। देह के जन्म को अपना जन्म, देह के बुढापे को अपना बुढापा, देह की आधि-व्याधि को अपनी प्राधि-व्याधि, देह की मृत्यु को अपनी मृत्यु समझ बैठता है, और काल्पनिक विभीषिकामो के कारण रोनेधोने लगता है। शास्त्रकार इस प्रकार के भौतिक विचार रखने वाले देहात्मवादी को बहिरात्मा या मिथ्यादृष्टि कहते है । मिथ्या सकल्प, मनुष्य को अपने वास्तविक अन्तर्जगत की ओर अर्थात चैतन्य की ओर झाँकने नहीं देते, हमेशा वाह्य जगत् के भौतिक भोग-विलास की ओर ही, उसे उलझाये रखते हैं। केवल वाह्य जगत् का द्रष्टा
सपना जात शरीर को हार कौन रह रहा
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मनुष्य और मनुष्यत्व
मनुष्य, प्राकृति-मात्र से मनुष्य है, परन्तु उसमे मोक्ष-साधक मनुष्यत्व नही।
आत्मदर्शन
मनुष्य-जीवन का दूसरा पहलू अन्दर की ओर झांकना है। अन्दर की ओर झाँकने का अर्थ यह है कि मनुष्य देह और आत्मा को पृथक्-पृथक् वस्तु समझता है, जड जगत् की अपेक्षा चैतन्य को अधिक महत्त्व देता है, और भोग-विलास की ओर से आँखे बन्द करके अन्तर् मे रमे हुए आत्मतत्त्व को देखने का प्रयत्न करता है। शास्त्र मे उक्त जीवन को अन्तरात्मा या सम्यग्दृष्टि का नाम दिया गया है। मनुष्य के जीवन मे मनुष्यत्व की भूमिका यही से शुरू होती है। अधोमुखी जीवन को ऊर्ध्वमुखी बनाने वाला सम्यग्दर्शन के अतिरिक्त और कौन है ? यही वह भूमिका है, जहाँ अनादिकाल के अज्ञानअन्धकाराच्छन्न जीवन मे सर्वप्रथम सत्य की सुनहली किरण प्रस्फुटित होती है।
पाठको ने समझ लिया होगा कि मनुष्य और मनुष्यत्व मे क्या अन्तर है ? मनुष्यशरीर का होना दुर्लभ है, या मनुष्यत्व का होना ? सम्यग्दर्शन मनुष्यत्व की पहली सीढी है। इस पर चढने के लिए अपने-आपको कितना बदलना होता है, यह अभी ऊपर की पक्तियो मे लिख आया हूँ। वकील, बैरिस्टर, जज या डाक्टर ग्रादि की अनेक कठिन से कठिन परीक्षाओ में तो प्रतिवर्ष हजारो, लाखो व्यक्ति उत्तीर्ण होते है, परन्तु मनुष्यत्व की परीक्षा मे, समग्र जीवन काल मे भी, उत्तीर्ण होने वाले कितने मनुष्य हैं ? मनुष्यत्व की सच्ची शिक्षा देने वाले स्कूल, कालेज, विद्यामन्दिर तथा पाठ्यपुस्तके आदि भी कहाँ है ? मनुष्याकृति मे घूमते-फिरते करोडो मनुष्य दृष्टि-गोचर होते है, परन्तु प्राकृति के अनुरूप हृदय वाले एव मनुष्यता की सुगन्ध से हर क्षण सुगन्धित जीवन रखने वाले मनुष्य गिनती के ही होगे। मनुष्यत्व से रहित मनुष्य-जीवन, पशु पक्षियो से भी गया-गुजरा होता है । अज्ञानी पशु तो घी, दूध तथा भारवहन आदि सेवारो के द्वारा मानवसमाज का थोडा-बहुत उपकार करते भी रहते हैं, परन्तु मनुष्यताशून्य मनुष्य तो अन्याय एव अत्याचार का चक्र चलाकर स्वर्गोपम दिव्य ससार को सहसा नरक का नमूना बना डालता है । अस्तु, धन्य है वे
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सामायिक-प्रवचन
प्रात्माएँ, जो सत्यासत्य का विवेक प्राप्त कर अपने जीवन मे मनुष्यता का विकास करते है जो कर्म-बन्धनो को काट कर पूर्ण प्राध्यात्मिक स्वतन्त्रता स्वय प्राप्त करते है और दूसरो को भी प्राप्त कराते है, जो हमेशा करुणा की अमृत-धारा से परिप्लावित रहते है, और समय पाने पर ससार की भलाई के लिए अपना तन-मन-धन आदि सर्वस्व निछावर कर डालते है, अतएव उनका जीवन यत्र-तत्र-सर्वत्र उन्नत-ही उन्नत होता जाता है, पतन का कही नाम ही नहीं मिलता।
हाँ, तो जैन-धर्म मनुष्य-शरीर की महिमा नही गाता है, वह महिमा गाता है, मनुष्यत्व की। भगवान महावीर ने अपने अन्तिम प्रवचन मे यही कहा है
"मारणम्स खु मुदुल्लह ।" -उत्तराध्ययन २०१११ अर्थात् 'मनुष्यो । मनुष्य होना बडा कठिन है। भगवान् की वाणी का प्राशय यही है कि मनुष्य का शरीर तो कठिन नही, वह तो अनन्त वार मिला है और मिल जाएगा, परन्तु आत्मा में मनुष्यता का प्राप्त होना ही दुर्लभ है। भगवान ने अपने जीवन-काल मे भारतीय जनता के इसी सुप्त मनुष्यत्व को जगाने का प्रयत्न किया था। उनके सभी प्रवचन मनुष्यता की ज्योति से जगमगा रहे है। अव आप यह देखिए कि भगवान मनुष्यत्व के विकास का किस प्रकार वर्णन करते है। . * :
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४
मनुष्यत्व का विकास
जैन धर्म के अनुसार मनुष्यत्व की भूमिका चतुर्थ गुणस्थान अर्थात् सम्यग्दर्शन से प्रारम्भ होती है । सम्यग्दर्शन का अर्थ है'सत्य के प्रति दृढ निष्ठ ।' हाँ, तो सम्यग्दर्शन मानव-जीवन की बहुत बडी विभूति है, बहुत बडी श्राध्यात्मिक उत्क्रान्ति है | अनादि काल से अज्ञान-अन्धकार मे पडे हुए मानव को सन्य सूर्य का प्रकाश मिल जाना कुछ कम महत्व की चीज नही है । परन्तु मनुष्यता के पूर्ण विकास के लिए इतना ही पर्याप्त नही है । ग्रकेला सम्यग्दर्शन तथा सम्यगदर्शन का सहचारी सम्यग्ज्ञान - सत्य की अनुभूति, ग्रात्मा को मोक्ष पद नही दिला सकते, कर्मों के बन्धन से पूर्णतया नही छडा सकते । मोक्ष प्राप्त करने के लिए केवल सत्य का ज्ञान अथवा सत्य का विश्वास कर लेना ही पर्याप्त नही है, इसके साथ सत्य के सम्यग् आचरण की भी बडी भारी आवश्यकता है ।
जैन-धर्म का ध्रुव सिद्धान्त है
ना किरियाहि मोक्खो
ज्ञान और क्रिया
*
-- विशेपा० भा० गा० ३
अर्थात् ज्ञान और क्रिया दोनो मिलकर ही ग्रात्मा को मोक्ष-पद का अधिकारी बनाते है । भारतीय दर्शनो मे न्याय, साख्य, वेदान्त आदि कितने ही दर्शन केवल ज्ञान - मात्र से मोक्ष मानते है, जबकि
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सामायिक प्रवचन
मीमासक आदि दर्शन केवल आचार --- क्रियाकाण्ड से ही मोक्ष स्वीकार करते है । परन्तु जैनधर्म ज्ञान और क्रिया दोनो के सयोग से मोक्ष मानता है, किसी एक से नही । यह प्रसिद्ध बात है कि रथ के दो चक्रो मे से यदि एक चक्र न हो तो रथ की गति नही हो सकती। और एक चक्र छोटा हो तब भी रथ की गति भली-भाँति नही हो सकती । एक पाँख से कोई भी पक्षी प्रकाश मे नही उड़ सकता है। भगवान् महावीर ने स्पष्ट बतलाया है कि 'यदि तुम्हे मोक्ष की सुदूर भूमिका तक पहुँचना है, तो अपने जीवनरथ मे ज्ञान और सदाचरण - रूप दोनो ही चक्र लगाने होगे । केवल लगाने ही नही, दोनो चक्रो मे से किसी एक को मुख्य या गौरण बना कर भी काम नही चल सकेगा, ज्ञान और प्राचरण दोनो को ठीक बराबर सुदृढ रखना होगा । ज्ञान और क्रिया की दोनो पाँखो के बल पर ही, यह आत्म-पक्षी, निश्रयस की ओर ऊर्ध्वगमन कर सकता है ।"
२०
जीवन के चार प्रकार
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स्थानाग - सूत्र ( ४ ) मे प्रभु महावीर ने चार प्रकार के मानवजीवन बतलाए हैं
(१) एक मानव - जीवन वह है जो सदाचार के स्वरूप को तो पहचानता है, परन्तु सदाचार का आचरण नही करता ।
(२) दूसरा वह है, जो सदाचार का आचरण तो अवश्य करता है, परन्तु सदाचार का स्वरूप भली-भाँति नही जानता । आँखे बन्द किए गति करता है ।
(३) तीसरा वह व्यक्ति है, जो सदाचार के रूप को यथार्थ रूप से जानता भी है और तदनुसार आचरण भी करता है ।
(४) चौथी श्र ेणी का वह जीवन है, जो न तो सदाचार का स्वरूप ही जानता है और न सदाचार का कभी आचरण ही करता है । वह लौकिक भाषा मे अन्धा भी है, और पद-हीन पगु भी ।
उक्त चार विकल्पो मे से केवल तीसरा विकल्प ही, जो सदाचार को जानने और ग्राचरण करने रूप है, मोक्ष की साधना को सफल बनाने वाला है । ग्राध्यात्मिक जीवन यात्रा के लिए ज्ञान के नेत्र और आचरण के पैर प्रतीव श्रावश्यक है ।
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मनुष्यत्व का विकास
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सर्व और देश चारित्र
जैनदर्शन की परिभाषा मे आचरण को 'चारित्र' कहते है। चारित्र का अर्थ है-सयम, वासनाप्रो का-भोगविलासो का त्याग, इन्द्रियो का निग्रह, अशुभ से निवृत्ति, और शुभ मे-शुद्ध मे प्रवृत्ति ।
चारित्र के मुख्यतया दो भेद माने गए है-'सर्व' और 'देश' । अर्थात् पूर्ण रूप से त्याग-वृत्ति सर्व-चारित्र है और अल्पाश मे अर्थात् अपूर्ण-रूप से त्याग-वृत्ति, देश-चारित्र है। सर्वांश मे त्याग महाव्रत-रूप होता है-अर्थात् हिंसा, असत्य, चौर्य, मैथुन और परिग्रह का सर्वथा प्रत्याख्यान साधुओं के लिए होता है। और, अल्पाश मे अमुक सीमा तक हिंसा आदि का त्याग गृहस्थ के लिए माना गया है।
प्रस्तुत प्रसग मे मुनि-धर्म का वर्णन करना हमे अभीष्ट नही है। अत सर्व-चारित्र का वर्णन न करके देश-चारित्र का यानी गृहस्थ-धर्म का ही हम वर्णन करेंगे। भूमिका की दृष्टि से भी गृहस्थ-धर्म का वर्णन प्रथम अपेक्षित है। गृहस्थ, जैनतत्वज्ञान मे वरिणत गुणस्थानो के अनुसार आत्मविकास की पचम भूमिका पर है, और मुनि छठी भूमिका पर।
विकास की प्रथम श्रेणी : श्रावकधर्म
जैनागमो मे गृहस्थ अर्थात् श्रावक के बारह व्रतो का वर्णन किया गया है। उनमे पाँच अरणवत होते है। 'अण' का अर्थ 'छोटा' होता है, और व्रत का अर्थ 'प्रतिज्ञा' है। साधुओं के महाव्रतो की अपेक्षा गृहस्थो के हिंसा आदि के त्याग की प्रतिज्ञा मर्यादित होती है, अत वह 'अरण व्रत' है। तीन गुण-व्रत होते है। गुण का अर्थ हैविशेषता । अस्तु, जो नियम पाँच अरण-व्रतो मे विशेषता उत्पन्न करते है, अरण-व्रतो के पालन मे उपकारक एव सहायक होते हैं, वे 'गुणव्रत' कहलाते हैं। चार शिक्षा व्रत है। शिक्षा का अर्थ शिक्षण अर्थात् अभ्यास है। जिनके द्वारा धर्म की शिक्षा ली जाय, धर्म का अभ्यास किया जाय, वे प्रतिदिन अभ्यास करने के योग्य नियम 'शिक्षा-व्रत' कहे जाते है।
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सामायिक-प्रवचन
पाँच प्रणवत
(१) स्थूल प्राणातिपात विरमण-विना किसी अपराध के व्यर्थ ही जीवो को मारने के विचार से, प्राण-नाश करने के सकल्प से मारने का त्याग । मारने में किसी प्राणी का नाश या कष्ट देना भी सम्मिलित है। इतना ही नहीं, अपने आश्रित पशुओ तथा मनुष्यो को भूखा-प्यासा रखना, उनसे उनकी अपनी शक्ति से अधिक अनुचित श्रम लेना, किसी के प्रति दुर्भावना, डाह आदि रखना भी हिंसा ही है । अपराध करने वालो की दण्डस्वरूप हिंसा का और पृथ्वी, जल आदि स्थावर-जीवो की सूक्ष्म हिंसा का त्याग गृहस्थ जीवन मे अशक्य है।
(२) स्थूल मृषावाद विरमण-सामाजिक दृष्टि से निन्दनीय एव दूसरे जीवो को किसी भी प्रकार के कष्ट पहुँचाने वाले झूठ का त्याग । झूठी गवाही, भूठी दस्तावेज, किसी के गुप्त मर्म का प्रकाशन, झूठी सलाह, फूट डलवाना एव वर कन्या-सम्बन्धी और भूमिसम्बन्धी मिथ्या भाषण आदि गृहस्थ के लिए अत्यधिक निषिद्ध माना गया है।
(३) स्थूल अदत्तादान विरमण-मोटी चोरी का त्याग । चोरी करने के सकल्प से किसी की विना आज्ञा चीज उठा लेना, चोरी है। इसमे किसी के घर मे सैध लगाना, दूसरी ताली लगाकर ताला खोल लेना, धरोहर मार लेना, चोर की चुराई हुई चीजे ले लेना, राष्ट्र द्वारा लगाई हुई चुगी तथा कर आदि न देना, नाप-तोल मे कम अधिक करना, असली वस्तु के स्थान पर नकली वस्तु दे देना आदि सम्मिलित है।
(४) स्यूल मैथुन विरमरण-अपनी विवाहिता स्त्री को छोडकर अन्य किसी भी स्त्री से अनुचित सम्बन्ध न करना, मैथुन त्याग है। ग्त्री के लिए भी अपने विवाहित पति को छोडकर अन्य पुरुषो से अनुचित सम्बन्ध के त्याग करने का विधान है। अपनी स्त्री या अपने पति में भी अनियमित ससर्ग रखना, काम-भोग की तीव्र अभिलाषा रखना, अनुचित कामोद्दीपक शृङ्गार करना आदि भी गृहस्थ ब्रह्मचारी के लिए दूपण माने गये है।
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मनुष्यत्व का विकास
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(५) स्थूल परिग्रह विरमरण ( इच्छापरिमाण ) - गृहस्थ से धन का पूर्ण त्याग नही हो सकता । अत गृहस्थ को चाहिए कि वह धन, धान्य, सोना, चादी, घर, खेत, पशु आदि जितने भी पदार्थ है, अपनी आवश्यकतानुसार उनकी एक निश्चित मर्यादा कर ले । आवश्यकता से अधिक सग्रह करना पाप है । व्यापार आदि मे यदि निश्चित मर्यादा से कुछ अधिक धन प्राप्त हो जाए तो उसको जनसेवा एव परोपकार मे खर्च कर देना चाहिए ।
तीन गुण व्रत
د
(१) दिग्वत - पूर्व, पश्चिम ग्रादि दिशाओ मे दूर तक जाने का परिमाण करना ग्रर्थात् प्रमुक दिशा मे अमुक प्रदेश तक इतनी दूर तक जाना, ग्रागे नही । यह व्रत मनुष्य की लोभ-वृत्ति पर अकुश रखता है, हिंसा आदि से बचाता है । मनुष्य व्यापार आदि के लिए दूर देशो मे जाता है, तो वहाँ की प्रजा का शोषण करता है । जिस किसी भी उपाय से धन कमाना ही जब मुख्य हो जाता है, तो एक प्रकार से लूटने की मनोवृत्ति पैदा हो जाती है । अतएव जैन धर्म का सूक्ष्म प्रचार-शास्त्र इस प्रकार की मनोवृत्ति मे भी पाप देखता है । वस्तुत पाप है भी । शोषरण से बढकर और क्या पाप होगा ? आज के युग मे यह पाप बहुत बढ़ चला है । दिग्वत ही इस पाप से बचा सकता है । एकमात्र शोषण की भावना से न विदेशो मे अपना माल भेजना चाहिए, और न विदेश का माल अपने देश मे लाना चाहिए ।
(२) भोगोपभोग परिमारण व्रत - जरूरत से ज्यादा भोगोपभोग सम्वन्धी चीजे काम मे न लाने का नियम करना ही प्रस्तुत व्रत का अभिप्राय है । भोग का अर्थ एक ही बार काम मे आने वाली वस्तु से है । जैसे - अन्न, जल, विलेपन श्रादि । उपभोग का अर्थ बार-वार काम मे आने वाली वस्तु से है । जैसे मकान, वस्त्र, आदि । इस प्रकार अन्न, वस्त्र आदि भोग-विलास की वस्तुओ का ग्रावश्यकता अनुसार परिमाण करना चाहिए । साधक के लिए जीवन को भोग के क्षेत्र मे सिमटा हुआ रखना अतीव आवश्यक है । अनियत्रित जीवन पशु-जीवन होता है ।
ग्राभूषरण
के
(३) अनर्थदण्ड - विरमरण व्रत - विना किसी प्रयोजन के व्यर्थ ही पापाचरण करना, अनर्थं दण्ड है | श्रावक के लिए इस प्रकार ग्रशिष्ट
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सामायिक-प्रवचन
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Mr आवश्यक ना, गन्दा दण्ड में सा
नवाले सिनेमा
भाषण आदि का तथा किसी को चिढाने आदि व्यर्थ का चेष्टाओ का त्याग करना आवश्यक है। कामवासना को उद्दीप्त करनेवाले सिनेमा देखना, गन्दे उपन्यास पढना, गन्दा मजाक करना, व्यर्थ ही शस्त्रादि का संग्रह कर रखना आदि भी अनर्थ-दण्ड मे सम्मिलित है।
चार शिक्षा व्रत
मह कर रखना अान्दा मजाक करना
(१) सामायिक व्रत-दो घडी तक हिंसा, असत्य अादि के रूप मे पापकारी व्यापारो का परित्याग कर समभाव मे रहना सामायिक है। राग-द्वेप बढाने वाली प्रवृत्तियो का त्याग कर मोह-माया के दु सकल्पो को हटाना, सामायिक का मुख्य उद्देश्य है ।
(२) देशावकाशिक व्रत-जीवन-भर के लिए स्वीकृत दिशा परिमाण मे से तथा भोगोपभोग परिमाण मे से और भी प्रतिदिन देशान्तर गमनादि एव भोगोपभोग की सीमा कम करते रहना, देशावका शिक व्रत है । देशावकाशिक व्रत का उद्देश्य जीवन को नित्य-प्रति इधर-उधर गमनादि की एव भोगोपभोग की आसक्ति-रूप पाप-क्रियायो से वचाकर रखना है।
(३) पौषध व्रत-एक दिन और एक रात के लिए अब्रह्मचर्य, पुप्पमाला आदि सचित्त, शरीरशृङ्गार, शस्त्र-धारण आदि सासारिक पाप-युक्त प्रवृत्तियो को छोड कर, एकात स्थान मे साधुवृत्ति के समान धर्म-क्रिया मे प्रारूढ रहना, पौषध व्रत है। यह धर्म-साधना निराहार भी होती है, और शक्ति न हो, तो अल्प प्राशुक भोजन के द्वारा भी की जा सकती है। परिस्थिति के अनुसार एक अहोरात्र से कम समय मे भी हो सकती है।
(४) अतिथि विभाग प्रत-साधु, श्रावक आदि योग्य सदाचारी साधको को शुद्ध आहार आदि का उचित दान करना ही प्रस्तुत व्रत का स्वरूप है। सग्रह ही जीवन का उद्देश्य नही है। सग्रह के बाद यथावर अतिथि की सेवा करना भी मनुष्य का महान् कर्तव्य है। अतिथि-मविभाग का एक लघु रूप, हर किसी अभावग्रस्त गरीव की अनुकम्पा-बुद्धि से योग्य सेवा करना भी है, यह ध्यान मे रहना चाहिए।
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मनुष्यत्व का विकास
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विकास की दूसरी श्रेणी : साधुवर्ग
मनुष्यता के विकास की यह प्रथम श्रेणी पूर्ण होती है। दूसरी श्रेणी साधु-जीवन की है। साधु जीवन की श्रेणी, छठे गुणस्थान से प्रारम्भ होकर तेरहवे गुणस्थान मे केवल-ज्ञान प्राप्त करने पर अन्त मे चौदहवे गुणस्थान मे पूर्ण होती है। चौदहवे गुणस्थान की भूमिका तय करने के बाद कर्म-मल का प्रत्येक दाग साफ हो जाता है, आत्मा पूर्णतया शुद्ध, स्वच्छ एव स्व-स्वरूप मे स्थित हो जाता है , फलत सदाकाल के लिए कर्मबन्धन से सर्वथा मुक्त होकर, जन्म-जरा, मरण आदि के दु खो से पूर्णतया छटकारा पाकर मोक्षदशा को प्राप्त हो जाता है, परम-उत्कृष्ट आत्मा परमात्मा बन जाता है।
सामायिक का स्वरूप
हमारे पाठक अधिकाश अभी गृहस्थ है, अत उनके समक्ष हमने साधु-जीवन की भूमिका की बात न करके पहले उनकी ही भूमिका का स्वरूप रखा है। आपने देख लिया है कि गृहस्थ-धर्म के बारह व्रत है। सभी व्रत अपनी-अपनी मर्यादा मे उत्कृष्ट है। परन्तु, यह स्पष्ट है कि नौवे सामायिक व्रत का महत्व सबसे महान् माना गया है। सामायिक का अर्थ 'सम-भाव' है। अत सिद्ध है कि जब तक हृदय मे 'सम-भाव' न हो, राग-द्वष की परिणति कम न हो, तव तक उग्र-तप एव जप आदि की साधना कितनी ही क्यो न की जाए, उससे आत्म-शुद्धि नही हो सकती। वस्तुत समस्त व्रतो मे सामायिक ही मोक्ष का प्रधान अग है । अहिंसा आदि ग्यारह व्रत इसी समभाव के द्वारा जीवित रहते है। वस्तुत अहिंसा आदि सभी व्रत सामायिक स्वरूप ही है। गृहस्थ-जीवन मे प्रति-दिन अभ्यास की दृष्टि से दो घडी तक यह सामायिक व्रत किया जाता है। आगे चलकर मुनिजीवन मे यह यावज्जीवन के लिए धारण कर लिया जाता है। अत पचम गुणस्थान से लेकर चौदहवे गुरणस्थान तक एकमात्र सामायिक व्रत की ही साधना की जाती है। मोक्ष-अवस्था मे, जबकि माधना समाप्त होती है, समभाव पूर्ण हो जाता है। और, इस समभाव के पूर्ण हो जाने का नाम ही मोक्ष है। यही कारण है कि प्रत्येक
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सामायिक-प्रवचन
तीर्थंकर मुनि-दीक्षा लेते समय सर्वप्रथम सामायिक साधना की प्रतिज्ञा ग्रहण करते है।
और, केवलज्ञान प्राप्त हो जाने के बाद प्रत्येक तीर्थंकर सर्वप्रथम जनता को इसी महान् व्रत का उपदेश करते है
सामाइयाइया वा वयजीवारिणकाय भावरणा पढम । एसो धम्मोवामो जिणेहिं सब्बेहि उवइहो ।
-आवश्यक-नियुक्ति २७१ सामायिक को चौदह पूर्व का सारभूत ( पिंड ) बतलाते हुए प्राचार्य जिनभद्र गणि क्षमाश्रमण कहते है-~"सामाइय सखेवो चोद्दसपुत्वत्थ पिंडो ति"
-विशे० भा० गा० २७६६ जैन जगत् के ज्योतिर्धर विद्वान् श्री यशोविजयजी सामायिक को सपूर्ण द्वादशागरूप जिनवाणी का रहस्य बताते हुए यही बात इस प्रकार कहते हैं"सकलद्वादशाङ्गोपनिषद्भूतसामायिकमूत्रवत्"
-तत्त्वार्थ-टीका, प्रथम अध्याय अस्तु, मनुष्यता के पूर्ण विकास के लिए सामायिक एक सर्वोच्च साधन है । अत हम पाठको के समक्ष प्रस्तुत सामायिक के शुद्ध स्वरूप का विवेचन प्रस्तुत कर रहे है। * * *
सामाइयभावपरिणइ भावाओ जीव एव सामाइय ।
-प्रा०नि० २६३६ सामायिक क्या है ? आत्मा की स्वभाव-परिणति ! इस दृष्टि से आत्मा (जीव) ही सामायिक है। * . .
राज्य में अकरणिज्ज पावसम्म ति कट्ट मामाइय चरित्त पटिवज्जइ ।
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सामायिक : एक विश्लेषण
सामायिक का शब्दार्थ
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सामायिक शब्द का अर्थ बडा ही विलक्षण है । व्याकरण के नियमानुसार प्रत्येक शब्द का भाव उसी मे अन्तर्निहित रहता है । अतएव सामायिक शब्द का गंभीर एव उदार भाव भी उसी शब्द मे छपा हुआ है । हमारे प्राचीन जैनाचार्य हरिभद्र, मलयगिरि आदि ने भिन्न-भिन्न व्युत्पत्तियो के द्वारा, वह भाव, सक्षेप मे इस भाँति प्रकट किया है
(१) समो - रागद्वेषयोरपान्तरालवर्ती मध्यस्थ, इरण गतौ, अयन थ्यो गमननित्यर्थ, समस्य प्रय समाय -- समीभूतस्य सतो मोक्षाध्वनि प्रवृत्ति, समाय एव सामायिकम् । १
रागद्व ेष मे मध्यस्थ रहना 'सम' है, सम ——— ग्रर्थात् माध्यथ्यभावयुक्त साधक की मोक्षाभिमुखी प्रवृत्ति सामायिक है ।"
(२) " समानि - ज्ञानदर्शनचारित्राणि तेषु अयन गमन समाय', स एव सामायिकम्" मोक्ष मार्ग के साधन ज्ञान, दर्शन और
१ आवश्यक मलयगिरीवृत्ति, गा० ८५४ ।
२ तुलना कीजिए विशेषावश्यक भाप्य की गाथाओ से
रागद्दोसविरहिओ समो त्ति अयरण अयो त्ति गमरण ति । समगमरण ति समाओ स एव सामाइय नाम ||३४७७ ॥
३ अहवा समाइ सम्मत्त - नारण चरणाइ तेसु तेहि वा । अयण अओ समाओ स एव
सामाइय नाम ।। ३४७६ ॥
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सामायिक प्रवचन
चारित्र 'सम' कहलाते है, उनमे श्रयन यानी प्रवृत्ति करना सामायिक है ।
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(३) 'सर्व जीवेषु मंत्री साम, साम्नो प्राय = लाभ सामाय, स एव सामायिकम् । सब जीवो पर मैत्रीभाव रखने को 'साम' कहते है, त साम का लाभ जिससे हो, वह सामायिक है ।
सावद्य
(४) 'सम सावद्ययो गपरिहार निरवद्योगानुष्ठानरूपजीव - परिणामः तस्य श्राय =लाभ. समाय., स एव सामाधिकम् । योग अर्थात् पापकार्यो का परित्याग और निरवद्ययोग अर्थात् हिसा, दया समता ग्रादि कार्यो का आचरण, ये दो जीवात्मा के शुद्ध स्वभाव 'सम' कहलाते हैं । उक्त 'सम' की जिसके द्वारा प्राप्ति हो, वह सामायिक है ।
(५) 'सम्यक् शब्दार्थ समशब्द सम्यगयन वर्तनम् समयः स एव सामायिकम् ।" 'सम' शब्द का अर्थ अच्छा है और अयन का अर्थ ग्राचरण है । ग्रस्तु, श्रेष्ठ आचरण का नाम भी सामायिक है ।
(६) 'समये कर्त्तव्यम् सामायिकम् । ग्रहिंसा आदि की जो उत्कृष्ट साधना समय पर की जाती है, वह सामायिक है । उचित समय पर करने योग्य आवश्यक कर्तव्य को सामायिक कहते है । यह अन्तिम व्युत्पत्ति हमे सामायिक के लिए नित्यप्रति कर्तव्य की भावना प्रदान करती है ।
ऊपर शब्द - शास्त्र के अनुसार भिन्न-भिन्न व्युत्पत्तियो के द्वारा भिन्न-भिन्न अर्थ प्रकट किए गए है, परन्तु जरा सूक्ष्मदृष्टि से ग्रवलोकन करेगे, तो मालूम होगा कि सभी व्युपत्तियो का भाव एक ही है, और वह है 'समता ।' श्रतएव एक शब्द मे कहना चाहे, तो 'समता' का नाम सामायिक है । राग-द्व ेष के प्रसगो मे विषम न होना, ग्रपने ग्रात्म-स्वभाव मे 'सम' रहना ही, सच्चा सामायिक व्रत है ।
१ अहवा साम मित्ती तत्थ ओ तेण वत्ति सामाओ ।
अहवा सामस्साओ लाओ सामाइय नाम ।। ३४८१ ।। गुरणारणलाभो त्ति जो समाओ मो ||३४८०॥ मामाइयमुभय विद्धि भावाओ ।
अहवा सम्मस्साओ लाभो सामाइय होइ || ३४८२ ॥
२ अहवा समस्स आओ ३ सम्ममओ वा समओ
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सामायिक एक विश्लेपण
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सामायिक का रूढार्थ
शब्दार्थ के अतिरिक्त शब्द का रूढ अर्थ भी हुआ करता है। वर्तमान में प्रचलित प्रत्येक धार्मिक-क्रिया का जो रूढार्थ है, वह ऊपर से तो बहुत सक्षिप्त, सीमित एव स्थूल मालूम होता है, परन्तु उसमे रहा हुआ आशय, हेतु या रहस्य बहुत ही गभीर, विस्तृत एव विचारपूर्वक मनन करने योग्य होता है।
सामायिक की क्रिया, जो एक बहुत ही पवित्र एव विशुद्ध क्रिया है, उसका रूढार्थ यह है कि- 'एकान्त स्थान मे शुद्ध प्रासन बिछाकर शुद्ध वस्त्र अर्थात् अल्प हिंसा से बना हुआ, सादा ( रगबिरगा, भडकीला नही ) खादी आदि का वस्त्र-परिधान कर, दो घडी तक 'करेमि भते' के पाठ से सावध व्यापारो का परित्याग कर, सासारिक झझटो से अलग होकर, अपनी योग्यता के अनुसार अध्ययन, चिंतन, ध्यान, जप, धर्म-कथा आदि करना सामायिक है।'
क्या ही अच्छा हो, शब्दार्थ रूढार्थ से और रूढार्थ शब्दार्थ से मिल जाय | सोने मे सुगन्ध हो जाय ।
सामायिक का लक्षण
समता सर्वभूतेषु, सयम शुभ-भावना ।
आर्तरौद्र-परित्यागस्तद्धि सामायिक व्रतम् ।। 'सब जीवो पर समता-समभाव रखना, पाँच इन्द्रियो का सयम-नियत्रण करना, अन्तर्ह दय मे शुभ भावना-शुभ सकल्प रखना, आर्त-रौद्र दुानो का त्याग कर धर्मध्यान का चिन्तन करना सामायिक व्रत है।'
ऊपर के श्लोक मे सामायिक का पूर्ण लक्षण वर्णन किया गया है। यदि अधिक दौड-धूप मे न पडकर, मात्र प्रस्तुत श्लोक पर ही लक्ष्य रक्खा जाए और तदनुसार जीवन बनाया जाए, तो सामायिक-व्रत की आराधना सफल हो सकती है।
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सामायिक-प्रवचन
प्राचार्य हरिभद्र पचाशक मे लिखते हैसमभावो सामाइय,
तण-कचण सत्त मित्त विसओ त्ति । गिरभिस्सग चित्त ,
उचिय पवित्तिप्पहाण च ।।११।५।। चाहे तिनका हो, चाहे सोना, चाहे शत्रु हो, चाहे मित्र, सर्वत्र अपने मन को राग-द्वेष की आसक्ति से रहित रखना तथा पाप-रहित उचित धार्मिक प्रवृत्ति करना, सामायिक है , क्योकि 'समभाव' ही तो सामायिक है। . : *
सावद्यकर्ममुक्तस्य दुर्व्यानरहितस्य च । समभावो मुहूर्ततद्-व्रत सामायिकाह्वयम् ।
-धर्म० अधि० ३७ आर्त रौद्र आदि दुर्ध्यानो से रहित तथा सावध कर्म से मुक्त होकर मुहुर्त भर तक जो समभाव की आराधना की जाती है वह सामायिक व्रत कहलाता है। * .
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सामायिक : द्रव्य और भाव
जैन-धर्म मे प्रत्येक वस्तु का द्रव्य और भाव की दृष्टि से बहुत गंभीर विचार किया जाता है । अतएव सामायिक के लिए भी प्रश्न होता है कि द्रव्य सामायिक और भाव सामायिक का स्वरूप क्या है
६
द्रव्य सामायिक
*
द्रव्य का अभिप्राय यहाँ ऊपर के विधि-विधानो तथा साधनो से है । अत सामायिक के लिए ग्रासन - बिछाना, रजोहरण या पूजणी रखना, मुखवस्त्रिका' बाधना, गृहस्थ वेष के कपडे उतारना, फेरना आदि द्रव्य सामायिक है । द्रव्य सामायिक का वर्णन द्रव्य-शुद्धि, क्षेत्र -शुद्धि आदि के वर्णन मे अच्छी तरह किया जाने वाला है ।
माला
भाव सामायिक
+
भाव का अभिप्राय यहाँ अन्तर्हृदय के भावो और विचारो से है । अर्थात् राग-द्वेष से रहित होने के भाव रखना, राग-द्वेष से रहित
१ श्वेताम्बर सप्रदाय के दो भाग है— स्थानकवासी और मूर्तिपूजक । स्थानकवासी समाज मे मुख पर मुखवस्त्रिका बाघने की परंपरा है, और मूर्तिपूजक समाज मे मुखवस्त्रिका को हाथ मे रखने की प्रथा हैं । हा, बोलते समय यतना के लिए मुख पर लगाने का भी है । दिगम्बर जैन परम्परा मे तो आजकल सामायिक की प्रथा ही नही । गलत
विधान उनके यहाँ
है । उनके यहाँ सामायिक के लिए एक पाठ बोला जाता है और मुखवस्त्रिका | का कोई विधान नही है ।
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सामायिक प्रवचन
समता
सामायिक का मुख्य लक्षण 'समता' है ।' समता का अर्थ है - मन की स्थिरता, रागद्वेष का उपशमन समभाव, एकीभाव, सुख-दुख मे निश्चलता इत्यादि । समता, ग्रात्मा का स्वरूप है, और विषमता पर स्वरूप, यानी कर्मो का स्वरूप । अतएव समता का फलितार्थ यह हुआ कि कर्म-निमित्त से होने वाले राग यादि विषम भावो की ओर से आत्मा को हटाकर स्व-स्वरूप मे रमरण करना ही 'समता' है ।
उक्त 'समता' लक्षरण ही सामायिक का एक ऐसा लक्षण है, जिसमे दूसरे सब लक्षणो का समावेश हो जाता है । जिस प्रकार पुष्प का सार गन्ध है, दुग्ध का सार घृत है, तिल का सार तेल है, इसी प्रकार जिन-प्रवचन का सार 'समता' है । यदि साधक होकर भी समता की उपासना न कर सका, तो फिर कुछ भी नही । जो साधक भोग-विलास की लालसा मे अपनेपन का भान खो बैठता है, माया की छाया मे पागल हो जाता है, दूसरो की उन्नति देखकर डाह से जल-भुन जाता है, मान-सम्मान की गन्ध से गुदगुदा जाता है, जरा से अपमान से तिलमिला उठता है, हमेशा वैर, विरोध, दभ, विश्वासघात आदि दुर्गुणो के जाल में उलझा रहता है, वह समता के प्रादर्श को किसी भी प्रकार नही पा सकता । कपडे उतार डाले, ग्रासन बिछाकर बैठ गये, मुखवस्त्रिका बाध ली, एक दो स्तोत्र के पाठ पढ लिए, इसका नाम सामायिक नही है । ग्रन्थकार कहते है - " साधना करते-करते ग्रनन्त जन्म बीत गए, मुखवस्त्रिका के हिमालय जितने ढेर लगा दिए, फिर भी ग्रात्मा का कुछ कल्याण नही हुआ ।" क्यो नही हुआ ? समता के बिना सामायिक निष्प्राण जो है ।
सच्चे साधक का स्वरूप कुछ और ही होता है । वह समता के गम्भीर सागर मे इतना गहरा उतर जाता है कि विषमता की ज्वालाएँ उसके पास तक नही फटक सकती। कोई निन्दा करे या प्रशसा, गाली दे या धन्यवाद, ताडन - तर्जन करे या सत्कार, परन्तु
१ सामाइयति समभावलक्खरण ।
- विशेषा० भा० गा० ६०५
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अपने मन मे किसी भी प्रकार का विषम-भाव न लावे, रागद्वेष न
होने दे, किसी को प्रिय प्रिय न माने, हृदय मे हर्ष -शोक न होने दे । अनुकूल और प्रतिकूल दोनो ही स्थितियो को समान माने, दुख से छटने के लिए या सुख प्राप्त करने के लिए किसी भी प्रकार का अनुचित प्रयत्न न करे, सकट ग्रा पडने पर अपने मन मे यह विचार करे कि "ये पौद्गलिक सयोग-वियोग श्रात्मा से भिन्न है । इन सयोग - वियोगो से न तो ग्रात्मा का हित ही हो सकता है, और न ग्रहित ही ।"
जो साधक उक्त पद्धति से समभाव मे स्थिर रहता है, दो घडी के लिए जीवन-मरण तक की समस्याओं से अलग हो जाता है, वही साधक समता का सफल उपासक होता है, उसी की सामायिक विशुद्धता की ओर अग्रसर होती है ।
प्राचीन ग्रागम अनुयोगद्वार - सूत्र मे तथा प्राचार्य भद्रबाहु कृत आवश्यक नियुक्ति मे 'समभाव' रूप सामायिक का क्या ही सुन्दर वर्णन किया गया है
जो समो सव्वभूएसु, तसेसु थावरे य । तस्स सामाइय होइ, इइ केवलि - भासिय ॥ १
- जो साधक त्रस - स्थावर - रूप सभी जीवो पर समभाव रखता है उसी की सामायिक शुद्ध होती है - ऐसा केवली भगवान् ने कहा है ।
१
- श्राव० नि० ॥७६६||
जस्स सामाणिओ अप्पा, सजमे नियमे तवे । तस्स सामाइय होइ, इइ केवलि - भासिय ॥
- जिसकी ग्रात्मा सयम मे, तप मे, नियम मे सलग्न हो जाती है, उसी की सामायिक शुद्ध होती है — ऐसा केवली भगवान् ने
कहा है ।
(क) अनुयोग द्वार १२८ (ख) नियमसार
१२६
- आव० नि० ॥७६८||
(क) अनुयोग द्वार १२७ (ख) नियममार १२७
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सामायिक-प्रवचन
होने के लिए प्रयत्न करना, यथाशक्ति राग -द्वप से रहित होते जाना, भाव सामायिक है। उक्त भाव को जरा दूसरे शब्दो मे कहे, तो यो कह सकते है कि बाह्य दृष्टि का त्याग कर अन्तई प्टि के द्वारा प्रात्मनिरीक्षण मे मन को जोडना, विषमभाव वा त्यागकर समभाव मे स्थिर होना, पौद्गलिक पदार्थो का यथार्थ स्वरूप समझ कर उनसे ममत्व हटाना एव अात्मस्वरूप मे रमण करना 'भाव सामायिक' है।
द्रव्य और भाव का सामंजस्य
ऊपर द्रव्य और भाव का जो स्वरूप व्यक्त किया गया है, वह काफी ध्यान देने योग्य है । आजकल की जनता, द्रव्य तक पहुँच कर ही थक कर बैठ जाती है, भाव तक पहुँचने का प्रयत्न नही करती । यह माना कि द्रव्य भी एक महत्वपूर्ण साधना है, परन्तु अन्ततोगत्वा उसका सार भाव के द्वारा ही तो अभिव्यक्त होता है | भाव-शून्य द्रव्य, केवल मिट्टी के ऊपर स्पये की छाप है। अत वह साधारण बालको मे रुपया कहला कर भी बाजार मे कीमत नही पा सकता । द्रव्य-शून्य भाव, रुपये की छाप से रहित केवल चादी है। अत वह कीमत तो रखती है, परन्तु रुपये की तरह सर्वत्र निराबाध गति नही पा सकती। चादी भी हो और रुपये की छाप भी हो, तब जो चमत्कार आता है, वही चमत्कार द्रव्य और भाव के मेल से साधना मे पैदा हो जाता है। अत द्रव्य के साथ-साथ भाव का भी विकास करना चाहिए, ताकि आध्यात्मिक जीवन भली-भाति उन्नत बन सके, मोक्ष की ओर गति-प्रगति कर सके।
बहुत से सज्जन कहते हैं कि भाव सामायिक का पूर्णतया पालन तो सर्वथा पूर्णवीतराग गुणस्थानो मे ही हो सकता है, पहले नहीं । पहले तो राग-द्वष के विकल्प उठते रहते ही है, क्रोध, मान, माया, लोभ का प्रभाव बहता ही रहता है। पूर्ण वीतराग जीवन्मुक्त आत्मा से नीचे की श्रेणी के आत्मा, भाव सामायिक की ऊ ची चट्टान पर हरगिज नही पहुँच सकते । अत जबकि भावरूप शुद्ध सामायिक हम कर ही नहीं सकते, तो फिर द्रव्य सामायिक भी क्यो करे ? उससे हमे क्या लाभ ?
उक्त विचार के समाधान मे कहना है कि द्रव्य, भाव का
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सामायिक द्रव्य और भाव
साधन है । यदि द्रव्य के साथ भाव का ठीक-ठीक सामजस्य न भी बैठ सके, तो भी कोई आपत्ति नही । अभ्यास चालू रखना चाहिए । शुद्ध करने वाले किसी दिन शुद्ध भी करने के योग्य हो जायेगे । परन्तु, जो बिलकुल ही नही करने वाले है, वे क्यो कर ग्रागे बढ सकेगे ? उन्हे तो कोरा ही रहना पडेगा न ? जो अस्पष्ट बोलते है, वे बालक एक दिन स्पष्ट भी बोल सकेंगे, पर जन्म के मूक क्या करेगे ?
सामायिक शिक्षा व्रत है
*
भगवान् महावीर का प्रादर्श तो 'कडेमारणे कडे' का है । जो मनुष्य साधना के क्षेत्र मे चल पडा है, भले वह थोडा ही चला हो, परन्तु चलने वाला यात्री ही समझा जाता है। जो यात्री हजार मील लंबी यात्रा करने को चला हो, किन्तु अभी गाव के बाहर ही पहुँचा हो, फिर भी उसकी यात्रा का मार्ग तो कम हुआ ? इसी प्रकार पूर्ण सामायिक करने की वृत्ति से यदि थोडा-सा भी प्रयत्न किया जाए, तब भी वह सामायिक के छोटे-से-छोट अश को अवश्य प्राप्त कर लेता है । ग्राज थोडा तो कल और अधिक । वू द-बू द से सागर भरता है !
सामायिक शिक्षा व्रत है । आचार्य माणिक्यशेखरसूरी ने कहा हैशिक्षा नाम पुन पुनरभ्यास ।
- ग्राव० निर्यु ० भा० ३ पृ० १८ १ धर्माचरण के पुन पुन अभ्यास को शिक्षा कहा जाता है । उक्त कथन से सिद्ध हो जाता है कि सामायिक व्रत एक बार ही पूर्णतया अपनाया नही जा सकता । सामायिक की पूर्णता के लिए नित्य प्रति दिन का अभ्यास आवश्यक है । अभ्यास की शक्ति महान् है | बालक प्रारम्भ मे ही वर्णमाला के अक्षरो पर अधिकार नही कर सकता । वह पहले, अष्टावक्र की भाति, टेढे-मेढे, मोटे-पतले अक्षर बनाता है । सौन्दर्य की दृष्टि से सर्वथा हताश हो जाता है । परन्तु ज्यो ही वह ग्रागे वढता है, अभ्यास मे प्रगति करता है तो बहुत सुन्दर लेखक बन जाता है । लक्ष्य-वेध करने वाला पहले १ जैन ग्रन्थमाला गोपीपुरा, सूरत से प्रकाशित, विक्रमाब्द २००५ ।
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सामायिक-प्रवचन
ठीक तौर से लक्ष्य नही वेध सकता, आगा-पीछा-तिरछा हो जाता है, परन्तु निरन्तर के अभ्यास से हाथ स्थिर होता है, दृष्टि चौकस होती है, और एक दिन का अनाडी निशानेबाज अचूक शब्द-वेधी तक बन जाता है। यह ठीक है कि सामायिक की साधना बडी कठिन साधना है, सहज ही यह सफल नही हो सकती। परतु अभ्यास करिए, आगे बढिए, आपको साधना का उज्ज्वल प्रकाश एक-न-एक-दिन अवश्य जगमगाता नजर आएगा। एक दिन का साधना-भ्रष्ट मरोचि तपस्वी, कुछ जन्मो के बाद भगवान महावीर के रूप मे हिमालय-जैसा महान्, अटल, अचल, साधक बनता है और समभाव के क्षेत्र मे एक महान् उच्च आदर्श उपस्थित करता है ।। **
।
सामाइयमाहु तस्स ज जो अप्पारणभए रण दसए ।
-सूत्र० ११२।१७ जो अपनी आत्मा को भय से मुक्त अर्थात् निर्भयभाव मे स्थापित करता है, वही सामायिक की साधना कर सकता है।
स्थापितको मपनी महत्मा को भय से सावन कति नियभाव में
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सामायिक की शुद्धि
ससार मे काम करने का महत्त्व उतना नहीं है, जितना कि काम को ठीक ढग से करने का महत्त्व है। यह न मालूम करो कि काम कितना किया ? बल्कि यह मालूम करो कि काम कैसा किया ? काम अधिक भी किया, परन्तु वह सुन्दर ढग से, जैसा चाहिए था वैसा न किया, तो एक तरह से कुछ भी न किया ।
सामायिक के सम्बन्ध मे यही बात है। सामायिक-साधना की महत्ता, मात्र जैसे-तैसे साधना का काल पूरा कर देना, एक सामायिक की बजाय चार-पाँच सामायिक कर लेना ही नही है। सामायिक की महत्ता इसमे है कि आपको सामायिक करते देखकर दर्शको के हृदय मे भी सामायिक के प्रति आदर्श श्रद्धा जागृत हो , वे लोग भी सामायिक करने के लिए उद्यत हो। यापका अपना आत्म-कल्याण तो होना ही चाहिए। वह क्रिया जो अपने और दूसरो के हृदय मे कोई खास रसानुभूति न पैदा कर सके, वह साधना ही क्या ? वस्तुत जीवित साधना ही साधना है, मृत-साधना का कोई मूल्य नही है ।
चार प्रकार की शुद्धि
सामायिक करने के लिए सबसे पहले भूमिका की शुद्धि होना आवश्यक है। यदि भूमि शुद्ध होती है, तो उसमे बोया हुआ वीज भी फलदायक होता है । इसके विपरीत, यदि भूमि शुद्ध नही है, तो उसमे बोया हुआ बीज भी सुन्दर और सुस्वादु फल कैसे दे सकता है ? अस्तु, सामायिक के लिए भूमिका-स्वरूप
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सामायिक-प्रवचन
चार प्रकार की शुद्धि आवश्यक है--द्रव्य-शुद्धि, क्षेत्र-शुद्धि, काल-शुद्धि और भाव-शुद्धि । उक्त चार शुद्धियो के साथ की हुई सामायिक ही पूर्ण फलदायिनी होती है, अन्यथा नही । सक्षेप मे चारो तरह की शुद्धि की व्याख्या इस प्रकार है
(१) द्रव्य-शुद्धि-सामायिक के लिए जो भी आसन, वस्त्र, रजोहरण या पूजणी, माला, मुखवस्त्रिका, पुस्तक आदि द्रव्यसाधन आवश्यक है, उनका अल्पारभ, अहिसक एव उपयोगी होना आवश्यक है। रजोहरण आदि उपकरण, जीवो की यतना (रक्षा) के उद्देश्य से ही रखे जाते हैं, इसलिए उपकरण ऐसे होने चाहिए, जिनके उत्पादन मे अधिक हिंसा न हुई हो, जो सौन्दर्य की बुद्धि से न रक्खे गये हो, सयम की अभिवृद्धि में सहायक हो, जिनके द्वारा जीवो की भली-भांति यतना हो सकती हो।
कितने ही लोग सामायिक मे कोमल रोये वाले गुदगुदे आसन रखते है, अथवा सुन्दरता के लिए रग-बिरगे, फूलदार, आसन बना लेते है, परन्तु, इस प्रकार के आसनो की भली भाति प्रतिलेखना नहीं हो सकती। अत आसन ऐसा होना चाहिए, जो रोये वाला न हो, रग-बिरगा न हो, भडकीला न हो, मिट्टी से भरा हुआ न हो, किन्तु स्वच्छ हो, साफ हो, श्वेत हो, सादा हो, जहा तक हो सके खादी का हो ।
रजोहरण या पूजणी भी योग्य होनी चाहिए, जिससे भलीभाति जीवो की रक्षा की जा सके। कुछ लोग ऐसी पू जरिणयाँ रखते हैं, जो रेशम की बनी हुई होती है, जो मात्र शोभा-शृङ्गार के काम की चीज है, सुविधा-पूर्वक पूजने की नही । पू जने का क्या काम, प्रत्युत साधक उलटा और ममता के पाश मे बँध जाता है | वह पू जनी को सदा अधर-अधर रखता है, मलिनता के भय से जरा भी उपयोग मे नही लाता।
- सादगी और स्वच्छता
मुखवत्रिका की स्वच्छता पर भी अधिक ध्यान देने की आवश्यकता है। अाजकल के सज्जन मुखवस्त्रिका इतनी गदी, मलिन, एव वेडील रखते है कि जिससे जनता घृणा करने
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सामायिक की शुद्रि
लग जाती है। धर्म तो उपकरण की शुद्धता मे है, उसका ठीक ढग से उपयोग करने मे है, उसे गदा एव बीभत्स रखने मे नही । कुछ बहने मुखवस्त्रिका को गहना ही बना कर रख देती है, गोटा लगाती हैं, सलमे से सजाती है, मोती जडती है, परन्तु ऐसा करना सामायिक के शान्त एव ममताशून्य वातावरण को कलुषित करना है। अत मुखवस्त्रिका का सादा और स्वच्छ होना आवश्यक है।
वस्त्रो का शुद्ध होना भी आवश्यक है। इस शुद्धता का अर्थ इतना ही है कि वस्त्र गदे न हो, दूसरो को घृणा उत्पन्न करने वाले न हो, चटकीले-भडकीले न हो, रग विरगे न हो, किन्तु स्वच्छ हो, साफ हो, सादे हो।
माला भी कीमती न होकर सूत की या और कोई साधारण श्रेणी की हो, बहुमूल्य मोती आदि की माला ममता बढाने वाली होती है। कभी-कभी ऐसी माला अहकार आदि की अनुचित भावना को भी भडका देती है। सूत आदि की माला भी स्वच्छ हो, गदी न हो।
पुस्तके भी ऐसी हो, जो भाव और भापा की दृष्टि से महत्वपूर्ण हो, आत्मज्योति को जागृत करने वाली हो, हृदय में से काम, क्रोध, मद, लोभ ग्रादि की वासना क्षीण करने वाली हो, जिनसे किसी प्रकार का विकार एव साम्प्रदायिक विद्वप अादि न पैदा होता हो।
सामायिक मे आभूषण आदि धारण करना भी ठीक नही है। जो गहने निकाले जा सकते हो, उन्हे अलग करके ही सामायिक करना ठीक है । अन्यथा ममता का पाश सदा लगा ही रहेगा, हृदय शान्त नही हो सकेगा। वस्त्र भी धोती और चादर आदि के अतिरिक्त और न होने चाहिए। सामायिक त्याग का क्षेत्र है। अत उसमे त्याग का ही प्रतीक होना अत्यावश्यक है।
सामायिक-कालीन वेश-भूषा
यद्यपि सामायिक मे 'सावज्ज जोग पच्चक्खामि'--'सावद्य यानी पाप-व्यापारो का परित्याग करता हूँ', उक्त प्रतिज्ञावाक्य मे
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सामायिक-प्रवचन
पाप-कार्यो के त्याग का ही उल्लेख है, वस्त्र आदि के त्याग का नही । परन्तु, हमारी प्राचीन परपरा इसी प्रकार की है कि अनुपयुक्त अलकार तथा गृहस्थवेषोचित पगडी, कुरता आदि वस्त्रो का त्याग करना ही चाहिए, ताकि ससारी दशा से साधना-दशा की पृथक्ता मालूम हो, और मनोविज्ञान की दृष्टि से धर्म-क्रिया का वातावरण अपने-आपको भी अनुभव हो, तथा दूसरो की दृष्टि मे भी सामायिक की महत्ता प्रतिभासित हो।
कुछ सज्जनो का कहना है कि 'सामायिक मे कपडे उतारने की कोई आवश्यकता नही, क्योकि सामायिक के पाठ मे ऐसा कोई विधान नहीं है।' यह ठीक है कि पाठ में विधान नही है । परन्तु, सव विधान पाठ मे ही हो, यह तो कोई नियम नही । कुछ अन्य पाठो पर भी दृष्टि डालनी होती है, कुछ परपरा की प्राचीनता भी देखनी होती है। उपासकदशाग-सूत्र मे कुण्डकोलिक श्रावक के अध्ययन मे वर्णन आया है कि "उसने नाम-मुद्रिका और उतरीय अलग पृथ्वी-शिला पट्ट पर रखकर भगवान् महावीर के पास स्वीकृत धर्म-प्रज्ञप्ति स्वीकार की ।"१ यह धर्म-प्रज्ञप्ति सामायिक के सिवा और कोई नही हो सकती। नाम-मुद्रिका और उत्तरीय उतारने का क्या प्रयोजन ? स्पष्ट ही उक्त पाठ सामायिक की ओर सकेत करता है। इसके अतिरिक्त, कपडे उतारने की परपरा भी बहुत प्राचीन है। इसके लिए प्राचार्य हरिभद्र तथा अभयदेव आदि के ग्रन्थो का अवलोकन करना चाहिए। प्राचार्य हरिभद्र रिण का पाठ उद्धृत करते हुए कहते है
_ 'मामाइय कुणतो मउड अवणेति, कुडलारिण, रणाममुद, पुप्फतबोलपावरगमादी वोमिरति ।' ~~-यावश्यक-वृद्वृत्ति प्रत्याभ्यान ६ अध्ययन
प्राचार्य अभयदेव कहते है
'म च किल सामायिक कुर्वन् कुडले, नाममुद्रा चापनयति , पाप-नाम्यूलप्रावरादिक च व्युत्सृजतीत्येष विधि सामायिकस्य ।'
-पचाशक-विवरण १ १ नाममुग उनरिग्जग च पुटवीमिलापट्टए ठवेड, ठवे इत्ता, समगम्म भगवग्रो महावीरम्न अतिय धम्मपत्ति उवमपज्जिनाग विहरति ।
--उपामकदशाग, अध्ययन ६
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सामायिक की शुद्धि
उपर्युक्त प्रमाणो से स्पष्ट है कि हमारी प्राचीन परपरा, आज की नही, प्रत्युत हरिभद्र के समय से करीब बारह सौ वर्ष तो पुरानी है ही । हरिभद्र ने भी अपने समय मे चली आई प्राचीन परपरा का ही उल्लेख किया है, नवीन का नही। अतएव गृहस्थवेशोचित वस्त्र उतारना ही ठीक है। प्राचीनकाल मे केवल धोती और दुपट्टा, ये दो ही वस्त्र धारण किये जाते थे, अत अर्वाचीन पगडी, कोट, कुरता, पजामा आदि उतार कर सामायिक करने से हमारा ध्यान अपनी प्राचीन संस्कृति की ओर भी उन्मुख होता है।
यह वस्त्र और गहना आदि का त्याग पुरुष-वर्ग के लिए ही विहित है। स्त्री-जाति के लिए ऐसा कोई विधान नही है। स्त्री की मर्यादा वस्त्र उतारने की स्थिति मे नही है। अतएव वे वस्त्र पहने हुए ही सामायिक करे, तो कोई दोष नही है। जिन-शासन-का प्राण ही अनेकान्त है। प्रत्येक विधि-विधान द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव, व्यक्ति आदि को लक्ष्य मे रखकर अनेक रूप माना गया है।
हा, तो द्रव्य-शुद्धि पर अधिक बल देने का भाव यह है कि अच्छे-बुरे पुद्गलो का मन पर असर होता है। बाहर का वातावरण अन्दर के वातावरण को कुछ न कुछ प्रभाव मे लेता ही है। अत मन मे अच्छे विचार एव सात्विक भाव स्फुरित करने के लिए ऊपर की द्रव्य-शुद्धि साधारण साधक के लिए आवश्यक है। हालाकि निश्चय की दृष्टि से यह ऊपर का परिवर्तन कोई आवश्यक नही। निश्चय दृष्टि का साधक हर कही और हर किसी रूप मे अपनी साधना कर सकता है । बाह्य वातावरण, उसे जरा भी क्षुब्ध नही कर सकता। वह नरक-जैसे वातावरण मे भी स्वर्गीय वातावरण का अनुभव कर सकता है। उसका उच्च-जीवन किसी भी विधान के अथवा वातावरण के बन्धन मे ही नहीं रहता। परन्तु, जब साधक इतना दृढ एव स्थिर हो, तभी न ? जब तक साधक पर बाहर के वातावरण का कुछ भी असर पड़ता है, तब तक वह जैसे चाहे वैसे ही अपनी साधना नही चाल रख सकता। उसे शास्त्रीय विधि-विधानो के पथ पर चलना ही आवश्यक है।
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सामायिक प्रवचन
(२) क्षेत्र - शुद्धि-क्षेत्र से मतलब उस स्थान से है, जहा साधक सामायिक करने के लिए बैठता है । क्षेत्र शुद्धि का अभिप्राय यह है कि सामायिक करने का स्थान भी शुद्ध होना चाहिए । जिन स्थानो पर बैठने से विचारधारा टूटती हो, चित्त मे चचलता प्राती हो, अधिक स्त्री-पुरुष या पशु आदि का ग्रावागमन अथवा निवास हो, लडके और लडकिया कोलाहल करते हो- खेलते हो, विपय विकार उत्पन्न करने वाले शब्द कान मे पडते हो, इधर-उधर दृष्टिपात करने से विकार पैदा होता हो, अथवा कोई क्लेश उत्पन्न होने की सम्भावना हो, ऐसे स्थानो पर बैठकर सामायिक करना ठीक नही है । ग्रात्मा को उच्च दशा मे पहुँचाने के लिए, ग्रन्तहृदय मे समभाव की पुष्टि करने के लिए क्षेत्र-शुद्धि सामायिक का एक अत्यावश्यक अंग है । प्रत सामायिक करने के लिए वही स्थान उपयुक्त हो सकता है, जहा चित्त स्थिर रह सके, आत्मचिन्तन किया जा सके, और गुरुजनो के ससर्ग से यथोचित ज्ञान - वृद्धि भी हो सके ।
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सामायिक के योग्य स्थान
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जहा तक हो सके, घर की अपेक्षा उपाश्रय मे सामायिक करने का ध्यान रखना चाहिए । एक तो उपाश्रय का वातावरण गृहस्थी की झझटो से बिलकुल अलग होता है । दूसरे, सहधर्मी भाइयो के परिचय से अपनी जैनसस्कृति की महत्ता का ज्ञान भी होता है । उपाश्रय, ज्ञान के आदान-प्रदान का सुन्दर साधन है । उपाश्रय का शाब्दिक अर्थ भी सामायिक के लिए अधिक उपयुक्त है । उपाश्रय शब्द की व्युत्पत्ति इस प्रकार की जाती है | उप= उत्कृष्ट, ग्राश्रय= स्थान | अर्थात् मनुष्यो के लिए अपने घर यदि स्थान केवल ग्राश्रय है, जबकि उपाश्रय इहलोक तथा परलोक दोनो प्रकार के जीवन को उन्नत बनाने वाला होने से एव धर्मसाधना के लिए उपयुक्त स्थान होने से उत्कृष्ट ग्राश्रय है ।'
दूसरी व्युत्पत्ति है— 'उप = उपलक्षरण से आश्रय = स्थान ।' अर्थात् निश्चयदृष्टि से प्रतिमा के लिए वास्तविक ग्राश्रयआधार वह स्वय ही है, और कोई नही । उक्त ग्रात्म-स्वरूप ग्राश्रय की प्राप्ति, आश्रय की प्राप्ति,
परन्तु
व्यावहारिक दृष्टि से
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सामायिक की शुद्धि
धर्म-स्थान मे ही घटित हो सकती है, अत धर्म-स्थान उपाश्रय कहलाता है । तीसरी व्युत्पत्ति है- 'उप = समीप मे ग्राश्रय= स्थान ।' अर्थात् जहा आत्मा अपने विशुद्ध भावो के पास पहुँच कर प्रश्रय ले, वह स्थान । भाव यह है कि उपाश्रय मे बाहर की सासारिक गडबड कम होती है, चारो ओर की प्रकृति शात होती है, एकमात्र धार्मिक वातावरण की महिमा ही सम्मुख रहती है, ग्रत सर्वथा एकान्त, निरामय, निरुपद्रव एव कायिक, वाचिक, मानसिक क्षोभ से रहित उपाश्रय सामायिक के लिए उपयुक्त माना गया है । यदि घर मे भी ऐसा ही कोई एकान्त स्थान हो, तो वहा पर भी सामायिक की जा सकती है । शास्त्रकार का अभिप्राय शान्त और एकान्त स्थान से है, फिर वह कही भी मिले ।
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(३) काल-शुद्धि - काल का अर्थ समय है, अत योग्य समय का विचार रखकर जो सामायिक की जाती है, वही सामायिक निर्विघ्न तथा शुद्ध होती है । बहुत से सज्जन समय की उचितता अथवा अनुचितता का विल्कुल विचार नही करते । यो ही जब जी चाहा, तभी प्रयोग्य समय पर सामायिक करने बैठ जाते हैं । फल यह होता है कि सामायिक मे मन शान्त नही रहता, अनेक प्रकार के सकल्प-विकल्पो का प्रवाह मस्तिष्क मे तूफान खडा कर देता है । फलत सामायिक की साधना गुड-गोबर हो जाती है ।
सेवा महान् धर्म है
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आजकल एक बुरी धारणा चल रही है । यदि घर मे कभी कोई बीमार हो, और दूसरा कोई सेवा करने वाला न हो, तब भी बीमार की सेवा को छोड कर लोग सामायिक करने बैठ जाते है । यह प्रथा उचित नही है । इस प्रकार सामायिक का महत्व घटता है, दूसरो पर बुरी छाप पडती है । वह काल सेवा का है, सामायिक का नही । शास्त्रकार कहते है -
'काले काल समायरे'
- दशवैकालिक ५।२।४
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सामायिक प्रवचन
जिस कार्य का जो समय हो, उस समय वही कार्य करना चाहिए । यह कहाँ का धर्म है कि घर मे बीमार कराहता रहे और तुम उधर सामायिक मे स्तोत्रो की झडिया लगाते रहो भगवान् महावीर ने तो साधुओ के प्रति भी यहा तक कहा है कि 'यदि कोई समर्थ साधु, वीमार साधु को छोड़ कर अन्य किसी कार्य मे लग जाए, वीमार की उचित सार-सँभाल न करे, तो उसको गुरु चौमासी का प्रायश्चित आता है
" जे भिक्खू गिलाण सोच्चा गच्चा न गवेसइ, न गवेसत वा साइज्जइ ग्रावज्जइ चउम्मासिय परिहारठारण रणग्वाइय । "
- निशीथ १०1३७
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ऊपर के विवेचन से स्पष्ट हो जाता है कि जब साधु के लिए भी यह कठोर अनुशासन है, तो फिर गृहस्थ के लिए तो कहना ही क्या ? उसके ऊपर तो घर गृहस्थी का, परिवार की सेवा का इतना विशाल उत्तरदायित्व है कि वह उससे किसी भी दशा मे मुक्त नही हो सकता । अत काल - शुद्धि के सम्बन्ध मे यह भी ध्यान रखना चाहिए कि बीमार को छोड कर सामायिक करना ठीक नही । हाँ, यदि सामायिक प्रतिदिन करने का का नियम ले रखा हो, तो रोगी के लिए दूसरी व्यवस्था करके अवश्य ही नियम का पालन करना चाहिए ।
(४) भाव -शुद्धि - भाव -शुद्धि से अभिप्राय है -- मन, वचन और शरीर की शुद्धि । मन, वचन और शरीर की शुद्धि का ग्रर्थ है -- इनकी एकाग्रता । जब तक मन, वचन और शरीर की एकाग्रता न हो, चचलता न रुके, तब तक दूसरा बाह्य विधिविधान जीवन मे उत्क्रान्ति नहीं ला सकता । जीवन उन्नत तभी होता है, जव कि साधक मन, वचन, शरीर की एकाग्रता भग करने वाले, ग्रन्तरात्मा मे मलिनता पैदा करने वाले दोषो को त्याग दे । मन, वचन, शरीर की शुद्धि का प्रकार यो है -
(१) मन -शुद्धि - मन की गति बडी विचित्र है । एक प्रकार मे जीवन का सारा भार ही मन के ऊपर पडा हुआ है । ग्राचार्य कहते हैं'मन एव मनुष्याणा कारण बन्धमोक्षयो ।'
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- मैत्रायणी श्रारण्यक ६ । ३४-११
'मन ही मनुष्यो के बन्ध और मोक्ष का कारण है ।'
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सामायिक की शुद्धि
वास्तव मे यह बात है भी ठीक | मन का काम विचार करना है, फलत श्राकर्षरण - विकर्षण, कार्याकार्य, स्थिति-स्थापकता यदि सब कुछ, विचारशक्ति पर ही निर्भर है। और तो क्या, हमारा सारा जीवन ही विचार है। विचार ही हमारा जन्म है, मृत्यु है, उत्थान है, पतन है, स्वर्ग है, नरक है, सब कुछ है । विचारो का वेग ग्रन्य सव वेगो की अपेक्षा अधिक तीव्रगतिमान् होता है । आजकल के विज्ञान का मत है कि प्रकाश की गति एक सेकण्ड मे १,८०,००० मील है, विद्युत् की गति २,८८,००० मील है, जब कि विचारो की गति २२,६५,१२० मील है । उक्त कथन से अनुमान लगाया जा सकता है कि मनोगत विचारो का प्रवाह कितना महान् है ?
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विचारशक्ति के दो रूप
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विचार-शक्ति के मुख्यतया दो भेद है— कल्पना - शक्ति और तर्क शक्ति । कत्पना-शक्ति का उपयोग करने से मन मे अनेक प्रकार के सकल्प - विकल्प उठने लगते है, मन चचल और वेगवान् हो जाता है, किसी भी प्रकार की व्यवस्था नही रहती । इन्द्रियो पर, जिनका राजा मन है, जिन पर वह शासन करता है, स्वयं अपना नियत्रण कायम नही रख सकता । जब मन चचल हो उठता है, तो कर्मो का प्रवाह चारो ओर से अन्तरात्मा की ओर उमड पडता है, हजारो वर्षो के लिए अन्तस्तल मे गहरी मलिनता पैठ जाती है । मन की दूसरी शक्ति तर्क - शक्ति है, जिसका उपयोग करने से कल्पना शक्ति पर नियत्रण स्थापित होता है, विचारो को व्यवस्थित बनाकर असत्सकल्पो का पथ छोडा जाता है, और सत्सकल्पो का पथ अपनाया जाता है । तर्क-शक्ति के द्वारा पवित्र हुई मनोभूमि मे ज्ञान एव क्रियारूपी अमृतजल से सिंचन पाकर समभाव-रूपी कल्पवृक्ष बहुत शीघ्र फलशाली हो जाता है । राग, द्व ेष, भय, शोक, मोह, माया आदि का अन्धकार कल्पना का अन्धकार है, और वह, तर्क - शक्ति का सूर्य उदय होते ही, तथा अहिंसा, दया, सत्य-सयम, शील, सन्तोष आदि की उज्ज्वल किरणे प्रस्फुरित होते ही अपने आप ध्वस्त, विध्वस्त हो जाता है
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सामायिक-प्रवचन
मन का नियत्रण
प्रश्न हो सकता है कि मन को नियत्रण मे कैसे किया जाय ? मन को एक बार ही नियत्रण मे ले लेना बडी कठिन वात है । मन तो पवन से भी सूक्ष्म है। वह प्रसन्नचन्द्र राजर्षि जैसे महात्माओ को भी अन्तर्मुहुर्त जितने अल्प समय मे सातवी नरक के द्वार तक पहुंचा देता है और फिर कुछ क्षणो मे ही वापस लौटकर केवलज्ञान, केवलदर्शन के द्वार पर भी खडा कर देता है। तभी तो कहा है
'मनोविजेता जगतोविजेता' -मन को जीतने वाला, जगत का जीतने वाला है।
मनुष्य की सकल्प शक्ति अपरपार है, वह चाहे तो मन पर अपना अखण्ड शासन चला सकता है। इसके लिए जप करना, ध्यान करना, सत्साहित्य का अवलोकन करना आवश्यक है ।
(२) वचन-शुद्धि-मन एक गुप्त एव परोक्ष शक्ति है । अत वहा प्रत्यक्ष कुछ करना, कठिन-सा है। परन्तु, वचनशक्ति तो प्रकट है, उस पर तो प्रत्यक्ष नियत्रण का अकुश लगाया जा सकता है। प्रथम तो सामायिक करते समय वचन को गुप्त ही रखना चाहिए। यदि इतना न हो सके, तो कम-से-कम वचन समिति का पालन तो करना ही चाहिए। इसके लिए यह ध्यान मे रखना चाहिए कि साधक सामायिक-व्रत मे कर्कश, कठोर, और दूसरे के कार्य मे विघ्न डालने वाला वचन न बोले। सावध अर्थात जिससे किसी जीव की हिंसा हो, ऐसा, सदोप वचन भी न बोले। क्रोध, मान माया एव लोभ के वश मे होकर वचन बोलना भी निषिद्ध है। किसी की चापलूसी के लिए भटैती करना, दीन वचन बोलना, विपरीत या अतिशयोक्ति मे वोलना भी ठीक नही। सत्य भी ऐसा नही वोलना चाहिए जो दूसरे का अपमान करने वाला हो । वचन अन्तरग दुनिया का प्रतिविम्ब है । अत मनुप्य को हर समय, विशेषकर सामायिक के समय वडी सावधानी से वाणी का प्रयोग करना चाहिए। पहले
१-लेखक की 'महामत्र-नवकार' नामक प्रसिद्ध पुस्तक मे इस विपय पर अच्छा प्रकाश डाला गया है।
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मामायिक की शुद्धि
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हिताहित परिणाम का विचार करो और फिर बोलो-इस सुनहले सिद्धान्त को भूलना, अपनी मनुष्यता को भूलना है।
(३) काय-शुद्धि-कायशुद्धि का यह अर्थ नही कि शरीर को साफ-सुथरा, सजा-वजा कर रखना चाहिए। यह ठीक है कि शरीर को गदा न रक्खा जाए, स्वच्छ रक्खा जाए, क्योकि गदा शरीर मानसिक-शान्ति को ठीक नही रहने देता, धर्म की भी हीलना करता है। परन्तु, यहाँ काय-शुद्धि से हमारा अभिप्राय कायिक सयम से है। आन्तरिक प्राचार का भार मन पर है और बाह्य प्राचार का भार शरीर पर है। जो मनुष्य उठने मे, बैठने मे, खडा होने मे, हाथ-पैर आदि को इधर-उधर हिलाने डुलाने मे विवेक से काम लेता है, असभ्यता नहीं दिखलाता है, किसी भी जीव को पीडा नही पहुचाता है , वही काय-शुद्धि का सच्चा उपासक होता है। जब तक हमारा वाह्य कायिक आचार शुद्ध एव अनुकरणीय नही होगा , तब तक दूसरे अनुकरणप्रिय साधको पर हम अपना क्या धार्मिक' प्रभाव डाल सकते हैं ? हमारे मे आन्तरिक शुद्धि है या नहीं, इस प्रश्न का उत्तर जनता को हमारे वाह्य-याचरण पर से ही तो मिलेगा ? आन्तरिक शुद्धि की आधार भूमि. बाह्य ही तो है न ? इसलिए सामायिक मे अान्तरिक भाव शुद्धि के साथ बाह्याचार-शुद्धि की भी आवश्यकता है। **...
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सामायिक के दोष
शास्त्रकारो ने सामायिक के समय मे मन, वचन और शरीर को सयम से रखना बताया है। परन्तु, मन बडा चचल है, वह स्थिर नही रहता। आकाश से पाताल तक के अनेकानेक झूठे सच्चे घाट-कुघाट घडता ही रहता है। अतएव अविवेक, अहकार आदि मन के दोषो से वचना, साधारण बात नही है। इसी प्रकार भूल, विस्मृति असावधानता आदि के कारण वचन और शरीर की शुद्धि मे भी दूषण लग जाते है। सामायिक को दूषित करने वाले तथा सामायिक के महत्व को घटाने वाले मन-वचन-शरीर सम्बन्धी, स्थूल रूप से, बत्तीस दोप होते है। सामायिक करने से पहले साधक को दश मन के, दश वचन के और बारह काय के, इस प्रकार कुल बत्तीस दोषो को जानना आवश्यक है, ताकि यथावसर दोषो से बचा जा सके और सामायिक की पवित्र साधना को सुरक्षित रक्खा जा सके।
मन के दस दोष
अविवेक जसो कित्ती, लाभत्थी गव्व-भय-नियारणत्थी।
ससय रोस प्रविणो, अवहुमारणए दोसा भारिणयव्वा ।।
(१) अविवेक-सामायिक करते समय किसी प्रकार का विवेक न रखना, किसी भी कार्य के औचित्य-अनौचित्य का अथवा समयअसमय का ध्यान न रखना, 'अविवेक' है।
(२) यश-कीति-सामायिक करने से मुझे यश प्राप्त होगा, समाज में मेरा आदर-सत्कार वढेगा, लोग मुझे धर्मात्मा कहेगे , इस
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मामायिक के दोप
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प्रकार यश-कीति की कामना से प्रेरित होकर सामायिक करना 'यश कीति' दोष है।
(३) लाभार्य-धन श्रादि के लाभ की इच्छा से सामायिक करना 'लाभार्थ' दोष है। सामायिक करने से व्यापार मे अच्छा लाभ रहेगा, व्याधि नष्ट हो जायेगी. इत्यादि विचार लाभार्थ दोष के अतर्गत है।
(४) गर्व-मैं बहुत सामायिक करने वाला हूँ, मेरे बराबर कौन सामायिक कर सकता है ? अथवा मै बडा कुलीन हूँ, धर्मात्मा हूँ, इत्यादि गर्व करना गर्द' दोप है।
(५) भय-मैं अपनी जाति मे ऊँचे घराने का व्यक्ति होकर भी यदि सामायिक न करूं तो लोग क्या कहेगे ? इस प्रकार लोक-निन्दा से डरकर सामायिक करना 'भय' दोप है। अथवा किसी अपराध के कारण मिलने वाले राजदण्ड से एव लेनदार आदि से बचने के लिए सामायिक करके बैठ जाना भी 'भय' दोष है।
(६) निदान–सामायिक का कोई भौतिक फल चाहना 'निदान' दोष है । जरा और स्पष्ट रूप से कहे, तो यो कह सकते है कि सामायिक करने वाला यदि अमुक पदार्थ या ससारी सुख के लिए सामायिक का फल बेच डाले, तो वहाँ 'निदान' दोप होता है।
(७) सशय—मैं जो सामायिक करता हूँ, उसका फल मुझे मिलेगा या नही ? सामायिक करते-करते इतने दिन हो गये, फिर भी कुछ फल नही मिला, इत्यादि सामायिक के फल के सम्बन्ध मे सशय रखना 'सशय' दोप है ।
(८) रोष—सामायिक मे क्रोध, मान, माया, लोभ करना, 'रोष' दोष है। मुख्यरूप मे लड-झगड कर या रूठ कर सामायिक करना 'रोष' दोष माना जाता है।
(६) अविनय-सामायिक के प्रति आदरभाव न रखना, अथवा सामायिक मे देव, गुरु, धर्म का अविनय करना 'अविनय' दोष है।
(१०) अवहुमान-अतरग भक्तिभावजनित उत्साह के बिना
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सामायिक प्रवचन
अनादर पूर्वक सामायिक करना, किसी के दबाव या किसी की प्रेरणा से बेगार समझते हुए सामायिक करना 'श्रबहुमान' दोष है ।
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वचन के दस दोष
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कुवयण सहसाकारे, सच्छद सखेय कलह च । विगहा विहासोऽमुद्ध, निरवेक्खो मुरणमुरगा दस दोसा ॥
(१) कुवचन - सामायिक मे कुत्सित, गदे वचन बोलना 'कुवचन' दोष है |
(२) सहसाकार - विना विचारे सहसा हानिकर, असत्य वचन बोलना 'सहसाकार' दोष है ।
(३) स्वच्छन्द - सामायिक मे काम वृद्धि करने वाले, गदे गीत गाना 'स्वच्छन्द' दोष है | गदी बाते करना भी इसमे सम्मिलित है ।
(४) सक्षेप - सामायिक के पाठ को सक्षेप मे बोल जाना, यथार्थ रूप मे न पढना 'संक्षेप' दोष है ।
(५) कलह - सामायिक में कलह पैदा करने वाले वचन बोलना, 'कलह ' दोष है ।
(६) विकथा - बिना किसी अच्छे उद्देश्य के व्यर्थ ही मनोरजन की दृष्टि से स्त्री - कथा, भक्त-कथा, राज कथा, देश - कथा आदि करने लग जाना 'विकथा' दोष है ।
(७) हास्य -- सामायिक मे हँसना, कौतूहल करना एव व्यगपूर्ण शब्द बोलना 'हास्य' दोप है ।
(८) अशुद्ध-सामायिक का पाठ जल्दी-जल्दी शुद्धि का ध्यान रखे विना बोलना या अशुद्ध बोलना 'अशुद्ध' दोष है ।
(E) निरपेक्ष- सामायिक में सिद्धान्त की उपेक्षा करके वचन बोलना अथवा विना सावधानी के वचन बोलना 'निरपेक्ष' दोष है ।
(१०) मुन्मन - सामायिक के पाठ आदि का स्पष्ट उच्चाररण न करना, किन्तु गुनगुनाते हुए वोलना 'मुन्मन' दोष है ।
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सामायिक के दोप
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काय के बारह दोष
कुपासण चलासण चला दिट्ठी,
सावज्जकिरियाऽऽलवणा-कु चरण पसारण । आलस-मोडन-मल-विमासण,
निदा वेयावच्चत्ति वारस कायदोसा ॥ (१) कुप्रासन-सामायिक मे पैर-पर-पैर चढाकर अभिमान से बैठना अथवा गुरू महाराज आदि के समक्ष अविनय के ग्रासन से बैठना, 'कुप्रासन' दोष है।
(२) चलासन-चल आसन से बैठकर सामायिक करना, अर्थात् स्थिर आसन से न बैठकर बार-बार आसन बदलते रहना 'चलासन' दोष है।
(३) चल दृष्टि-अपनी दृष्टि को स्थिर न रखना, बार-बार कभी इधर तो कभी उधर देखना 'चल दृष्टि' दोप है।
(४) सावध क्रिया-शरीर से स्वय सावद्य-पाप-युक्त क्रिया करना, या दूसरो को करने के लिए सकेत करना, तथा घर की रखवाली वगैरह करना, 'सावध क्रिया' दोष है।
(५) पालवन-बिना किसी रोग आदि कारण के दीवार आदि का सहारा लेकर बैठना, 'पालबन' दोष है।
(६) श्राकुञ्चन-प्रसारण-विना किसी विशेष प्रयोजन के हाथ-पैरो को सिकोडना और फैलाना 'आकुञ्चन-प्रसारण' दोष है।
(७) प्रालस्य-सामायिक मे बैठे हुए आलस्य करना, अगडाई लेना 'पालस्य' दोष है।
(८) मोडन—सामायिक मे बैठे हुए हाथ-पैर की ऊँगलियाँ चटकाना 'मोडन' दोप है।
(९) मल-सामायिक करते समय शरीर पर से मैल उतारना 'मल' दोप है।
(१०) विमासन-गाल पर हाथ रखकर शोक-ग्रस्त की तरह बैठना अथवा विना पूजे शरीर खुजलाना या रात्रि मे इधरउधर-आना-जाना 'विमासन' दोष है।
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अठारह पाप
सामायिक के पाठ मे जहाँ 'सावज्ज जोग पच्चक्खामि' अश आता है, वहाँ 'सावज्ज' का अर्थ सावध है, अवद्य अर्थात् पाप-उससे सहित । भाव यह है कि सामायिक मे उन सब कार्यो का त्याग करना होता है, जिनके करने से पाप-कर्म का बन्ध होता है, प्रात्मा मे पाप का स्रोत आता है।
शास्त्रकारो ने पाप की व्याख्या करते हुए, अठारह प्रकार के सासारिक कार्यो मे पाप बताया है। उन अठारहो मे से कोई भी कार्य करने पर पाप-कर्म का बन्ध होकर आत्मा भारी हो जाती है। और, जो आत्मा कर्मो के बोझ से भारी हो जाती है, वह कदापि समभाव को, आध्यात्मिक अभ्युदय को प्राप्त नही कर सकती। उसका पतन होना अनिवार्य है। सक्षेप मे अठारह पापो की व्याख्या इस प्रकार है
(१) प्राणातिपात-हिंसा करना । जीव यद्यपि नित्य है, अत वह न कभी मरता है और न मरेगा, अतएव जीव-हिंसा का अर्थ यह है कि जीव ने अपने लिए जो मन, वचन, शरीर एव इन्द्रिय आदि प्राणरूप सामग्री एकत्रित की है, उसको नष्ट करना, क्षति पहुँचाना, हिंसा है। प्राचार्य उमास्वाति ने कहा है____ 'प्रमत्तयोगात् प्राणव्यपरोपण हिंसा' –तत्त्वार्थ-सूत्र, ७८
- अर्थात् क्रोध, मान, माया, लोभ आदि किसी भी प्रमत्तयोग से, किसी भी प्राणी के प्राणो को, किसी भी प्रकार का प्राघात पहुंचाना 'हिंसा' है।
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सामायिक प्रवचन
(२) मृषावाद - झूठ बोलना । जो बात जिस रूप मे हो, उसको उसी रूप मे न कहकर विपरीत रूप से कहना, वास्तविकता को छिपाना 'मृपावाद' है । किसी भी अनपढ या नासमझ व्यक्ति को नीचा दिखाने की दृष्टि से, उसे अनपढ या बेवकूफ आदि कहना तथा क्रोध, ग्रहकार, भय, लोभ आदि के वश बोला गया सत्य वचन भी 'मृषावाद' है ।
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(५) श्रदत्तादान - चोरी करना । जो पदार्थ अपना नही, किन्तु दूसरे का है, उसको मालिक की आज्ञा के बिना छिपाकर गुप्त रीति से ग्रहण करना 'ग्रदत्तादान' है । केवल छिपाकर चुराना ही नही, प्रत्युत दूसरे के अधिकार की वस्तु पर जवरदस्ती अपना अधिकार जमा लेना भी 'प्रदत्तादान' है '
(४) मैथुन - व्यभिचार सेवन करना । मोह - दशा से विकल होकर स्त्री का पुरुष पर या पुरुष का रत्री पर आसक्त होना, वेद-कर्मजन्य शृगार-सम्बन्धी चेष्टा करना, मानसिक, वाचिक और कायिक किसी भी काम विकार मे प्रवृत्त होना 'मैथुन' है । कामवासना मनुष्य की सबसे बडी दुर्बलता है । इसके कारण अच्छा से अच्छा मनुष्य भी, चाहे जैसा भी प्रकृत्य कार्य सहसा कर डालता है, आत्मभाव को भूल जाता है । एक प्रकार से मैथुन पापो का राजा है ।
(५) परिग्रह - ममता-बुद्धि के कारण वस्तुओ का अनुचित संग्रह करना या ग्रावश्यकता से अधिक संग्रह करना 'परिग्रह' है । वस्तु छोटी हो या बडी, जड हो या चेतन, चाहे जो भी हो, उसमे आसक्त हो जाना, उसको प्राप्त करने की लगन मे विवेक को खो बैठना 'परिग्रह' है । परिग्रह की वास्तविक परिभाषा मूर्च्छा है । अतएव वस्तु हो या न हो, परन्तु यदि मन मे तत्सम्बन्धी मूर्च्छा-ग्रासक्ति हो, तो वह सब परिग्रह ही माना जाता है ।
(६) क्रोध - किसी कारण से अथवा बिना कारण ही अपने आप को तथा दूसरो को क्षुब्ध करना 'क्रोध' है । जव क्रोध होता है तव ज्ञान - वश कुछ भी हिताहित नही सूझता है । क्रोध, कलह का मूल है ।
(७) मान -- दूसरो को तुच्छ तथा स्वय को महान् समझना 'मान' है । अभिमानी व्यक्ति प्रवेश मे ग्राकर कभी-कभी ऐसे असभ्य
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अठारह पाप
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शब्दो का प्रयोग कर डालता है, जिन्हे सुनकर दूसरे को बहुत दुख होता है, और दूसरे के हृदय मे प्रतिहिंसा की भावना जागृत हो जाती है।
(८) माया-अपने स्वार्थ के लिए दूसरो को ठगने या धोका देने की जो चेष्टा की जाती है, उसे 'माया' कहते है। माया के कारण दूसरे प्राणी को कष्ट मे पडना पडता है, अत 'माया' भयकर पाप है।
____(6) लोभ-हृदय मे किसी भी भौतिक पदार्थ की अत्यधिक चाह रखने का नाम 'लोभ' है। लोभ ऐसा दुर्गुण है कि जिसके कारण सभी पापो का आचरण किया जा सकता है। दशवैकालिकसूत्र ८।३८ मे क्रोध, मान और माया से तो एक-एक सद्गुण का ही नाश बतलाया गया है, परन्तु लोभ को सभी सद्गुणो का नाश करने वाला बतलाया गया है-लोभी सव्वविरणासपो ।
(१०) राग-किसी भी पदार्थ के प्रति मोहरूप-आसक्तिरूप आकर्षण होने का नाम 'राग' है । अथवा पौद्गलिक-सुख की अभिलाषा को भी राग कहते है। वास्तव मे कोई भी भौतिक वस्तु आत्मा की अपनी नहीं है, हम तो मात्र प्रात्मा है और ज्ञानादि गुण ही केवल अपने है । परन्तु, जब हम किसी बाह्य वस्तु को अपनी
और मात्र अपनी ही मान लेते है, तब उस वस्तु के प्रति राग होता है । और जहाँ राग है, वहाँ सभी अनर्थ सभव है।
(११) द्वष-अपनी प्रकृति के प्रतिकूल कटु बात सुनकर या कोई कार्य देखकर जल उठना, 'दुष' है। द्वेष होने पर मनुष्य अधा हो जाता है । अत वह जिस पदार्थ या प्राणी को अपने लिए बुरा समझता है, झटपट उसका नाश करने के लिए तैयार हो जाता है, अपने विचारो का उचित सन्तुलन खो बैठता है।
(१२)कलह-किसी भी अप्रशस्त सयोग के मिलने पर कुढ कर लोगो से वाग्युद्ध करने लगना 'कलह' है। कलह से अपनी आत्मा को भी परिताप होता है, और दूसरो को भी । कलह करने वाला व्यक्ति, कही भी शाति नही पा सकता।
(१३) अभ्याख्यान-किसी भी मनुष्य पर कल्पित बहाना लेकर झूठा दोषारोपण करना, मिथ्या कलक लगाना 'अभ्याख्यान' है।
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सामायिक प्रवचन
(१४) पैशुन्य-किसी भी मनुष्य के सम्बन्ध मे चुगली खाना, इधर की बात उधर लगाना, नारदवृत्ति अपनाना 'पैशुन्य है।।
(१५) पर-परिवाद-किसी की उन्नति न देख सकने के कारण उसकी झूठी-सच्ची निन्दा करना, उसे वदनाम करना 'पर-परिवाद' है। पर-परिवाद के मूल मे डाह का विष-अकुर छुपा हुआ रहता है।
(१६) रति-अति-अपने वास्तविक आत्मस्वरूप को भूल कर जब मनुष्य पर-भाव मे फँसता है, विपय भोगो मे आनन्द मानता है, तव वह अनुकूल वस्तु की प्राप्ति से हर्ष तथा प्रतिकूल वस्तु की प्राप्ति से दु ख अनुभव करता है, इसका नाम 'रति-अरति' है। रति-अरति के चगुल में फंसा रहने वाला व्यक्ति वीतराग भावना से सर्वथा पराड मुख हो जाता है ।
(१७) माया-मृषा--कपट-सहित भूठ बोलना । अर्थात् इस तरह चालाकी से बाते करना या ऐसा लाग-लपेट का व्यवहार करना कि जो प्रकट मे तो सत्य दिखाई दे, परन्तु, वास्तव मे झूठ हो । जिस सत्याभास-रूप असत्य को सुनकर दूसरा व्यक्ति उसे सत्य मान ले तथा नाराज न हो, वह 'माया-मृषा' है। आजकल जिसे पॉलिसी कहते है, वही शास्त्रीय परिभाषा मे 'माया-मृषा' है। यह पाप असत्य से भी भयकर होता है। आज के युग मे इस पाप ने इतने पॉव पसारे है कि कुछ कह नहीं सकते ।
(१८) मिथ्यादर्शन शल्य-तत्त्व मे अतत्त्व-बुद्धि और अतत्त्व मे तत्त्व-बुद्धि रखना, जैसे कि देव को कुदेव और कुदेव को देव, गुरु को कुगुरु और कुगुरु को गुरु, धर्म को अधर्म और अधर्म को धर्म, जीव को जड और जड को जीव मानना 'मिथ्यादर्शन शल्य' है। मिथ्यात्व समस्त पापो का मूल है । आध्यात्मिक प्रगति के लिए मिथ्यात्त्व के विष-वृक्ष का उन्मूलन करना अतीव आवश्यक है।
__ ऊपर अठारह पापो का उल्लेख मात्र स्थूल दृष्टि से किया गया है । सूक्ष्म दृष्टि से तो पापो का वन इतना विकट एव गहन है कि इसकी गणना ही नही हो सकती । मन की वह प्रत्येक तरग, जो आत्माभिमुख न होकर विषयाभिमुख हो, ऊर्ध्वमुखी
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अठारह पाप
न होकर अधोमुखी हो, जीवन को हल्का न बनाकर दुर्भावनायो से भारी बनानेवाली हो, वह सब पाप है । पाप हमारी आत्मा को दूपित करता है, गदा बनाता है, अशान्त करता है, अत त्याज्य है। ___पापो का सामायिक मे त्याग करने का यह मतलब नही कि सामायिक मे तो पाप करने नही, परन्तु सामायिक के बाद खुले हृदय से पाप करने लग जायँ । सामायिक के बाद भी पापो से बचने का पूर्ण प्रयत्न करना चाहिए । साधना का अर्थ क्षणिक नहीं है। वह तो जीवन के हर क्षेत्र मे, हर काल मे सतत चालू रहनी चाहिए। जीवन के प्रति जितना अधिक जागरण, उतनी ही जीवन की पवित्रता । किसी भी दशा मे विवेक का पथ न
भूलो ।
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सामायिक के अधिकारी
साधना तभी फलवती होती है, जबकि उसका अधिकारी योग्य हो । अनधिकारी के पास जाकर अच्छी से अच्छी साधना भी निस्तेज हो जाती है, वह अधिक तो क्या, एक इच भी आध्यात्मिक जीवन का विकास नही कर पाती ।
१०
आजकल सामायिक की साधना क्यो नही सफल हो रही है ? वह पहले सा तेज सामायिक मे क्यो न रहा, जो क्षण भर मे ही साधक को आध्यात्मिक - सुमेरु के उच्च शिखर पर पहुँच देता था ? बात यह है कि आज के अधिकारी योग्य नही रहे है । ग्राजकल बहुत से लोग तो यह समझ बैठे है कि "हम संसार के व्यवहार मे भले ही चाहे जो करे, हिंसा, झूठ, चोरी, दभ, व्यभिचार आदि पाप-कार्य का कितना ही क्यो न आचरण करे, परन्तु सामायिक करते ही सब-के-सब पाप नष्ट होजाते हैं और हम झटपट मोक्ष के अधिकारी बन जाते हैं । ससार का प्रत्येक व्यवहार पाप पूर्ण है, अत यहाँ पाप किए बिना काम ही नही चल सकता । "
उक्त धारणा वाले सज्जन केवल कृत पापो से छुटकारा पाने के लिए ही सामायिक करते है, किन्तु कभी भी पाप कार्य के त्याग को आवश्यक नही समझते । इस प्रकार के धर्मध्वजी भक्तो के लिए ज्ञानियो का कथन है कि "जो लोग पाप-कर्म का त्याग न करके सामायिक के द्वारा केवल पापकर्म के फल से बचना चाहते है, वे लोग वास्तव मे सामायिक नही करते, किन्तु धर्म के नाम पर दभ करते है ।"
सर्वथा सत्य एव भ्रात कल्पनाओ के फेर मे पडा हुआ
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सामायिक के अधिकारी
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मनुष्य, धर्मक्रिया नहीं करता, परन्तु धर्मक्रिया का अपमान करता है, पाप-कर्म की ओर से सर्वथा निर्भय होकर बार-बार पाप-क्रिया का आचरण करता है । समझता है कि कोई हर्ज नही, सामायिक करके सब पाप धो डालूगा । वह अधिकाधिक ढीठ बनता जाता है।
सद्गुरणों की साधना
अतएव साधक का कर्तव्य है कि वह मात्र सामायिक के समय मे ही नहीं, किन्तु सासारिक व्यवहार के समय मे भी अपने आपको अच्छी तरह सावधान रक्खे, पापकर्मो की ओर अधिक आकर्षण न रक्खे । यद्यपि ससार मे रहते हुए हिंसा, झूठ आदि का सर्वथा त्याग होना अशक्य है, फिर भी सामायिक करने वाले श्रावक का यही लक्ष्य होना चाहिए कि "मै अन्य समय मे भी हिंसा, झूठ आदि से जितना भी बच सकू, उतना ही अच्छा है । जो दुष्कर्म आत्मा मे विषम भाव उत्पन्न करते है, दूसरो के लिए गदा वातावरण पैदा करते हैं, यहाँ अपयश करते हैं और अन्त मे परलोक भी बिगाडते है, उनको त्यागकर ही यदि सामायिक होगी, तो वह सफल होगी, अन्यथा नही । रोग दूर करने के लिए केवल औषधि खा लेना ही पर्याप्त नहीं है, बल्कि उसके अनुकूल पथ्य-उचित आहार विहार भी रखना होता है। सामायिक पापनाश की अवश्य ही अमोघ औषधि है, परन्तु इसके सेवन के साथ-साथ तदनुकूल न्याय नीति से पुरुषार्थ करना, वैर-विरोध आदि मन के विकारो को शान्त रखना, कर्मोदय से प्राप्त अपनी खराब स्थिति में भी प्रसन्न रहना-अधीर न होना, दूसरे की निन्दा या अपमान नही करना, सब जीवो को अपनी आत्मा के समान प्रिय समझना, क्रोध या दभ से किसी को जरा भी पीडा न पहुँचाना, दीन दुखी को देख कर हृदय का पिघल जाना, यथाशक्य सहायता पहुँचाना, अपने साथी की उन्नति देखकर हर्ष से गद्गद हो उठना, इत्यादि सुन्दर-से-सुन्दर पथ्य का आचरण करना भी अत्यावश्यक है।" प्राचार्य हरिभद्र ने धर्म-सिद्धि की पहचान बताते हुए ठीक ही कहा है
औदार्य दाक्षिण्य, पापजुगुप्साऽथ निर्मलो बोध । लिङ्गानि धर्मसिद्ध प्रायेण जन-प्रियत्व च ।।
-~षोडशक, ४१२
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सामायिक प्रवचन
सामायिक से पहले अच्छा आचरण बनाना-यह अपनी मतिकल्पना नही है, इसके लिए पागम-प्रमाण भी उपलब्ध है। गृहस्थ-धर्म के बारह ब्रतो मे आप देख सकते है, सामायिक का स्थान नौवाँ है । सामायिक के पहले के आठ व्रत साधक की सासारिक वासनाप्रो के क्षेत्र को सीमित बनाने के लिए एव सामायिक करने की योग्यता पैदा करने के लिए है । अतएव जो साधक सामायिक से पहले के अहिंसा आदि आठ व्रतो को भली-भाँति स्वीकार करते हैं, उनकी सासारिक वासनाएँ सीमित हो जाती है और हृदय मे आध्यात्मिक शान्ति के सुगन्धित पुष्प खिलने लगते है । यह ही नही, उसके अन्तर्जगत् मे यथावसर कर्तव्य और अकर्तव्य का सुमधुर विवेक भी जागृत हो जाता है। जो मनुष्य चूल्हे पर चढी हुई कढाई मे के दूध को शान्त रखना चाहता है, उसके लिए यह आवश्यक होगा कि वह कढाई के नीचे से जलती हुई आग को अलग कर दे। आग को तो अलग न करना, केवल ऊपर से दूध मे पानी के छीटे दे-देकर उसे शात करना, किसी भी दशा मे सफल नही होता । छल, कपट अभिमान, अत्याचार आदि दुर्गुणो की आग जब तक साधक के मन मे जलती रहेगी, तब तक सामायिक के छीटे कभी भी उसके अन्तर्ह दय मे स्थायी शान्ति नही ला सकेगे ।
उक्त विवेचन को लबा करने का हमारा अभिप्राय सामायिक के अधिकारी का स्वरूप बताना था । सक्षेप मे पाठक समझ गए होगे कि सामायिक के अधिकारी का क्या कुछ कर्त्तव्य है ? उसे ससारव्यवहार मे कितना प्रामाणिक होना चाहिए ।
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सामायिक का महत्त्व
सामायिक मोक्ष प्राप्ति का प्रमुख श्रग है । देखिए, जब तक हृदय मे समभाव का उदय न होगा, तब तक किसी भी दशा मे मोक्ष नही प्राप्त हो सकता । सामायिक मे समभाव, समता मुख्य है । और, समता क्या है ? 'ग्रात्मस्थिरता ।" और आत्मस्थिरता अर्थात् ग्रात्म भाव मे रहना ही चारित्र है । ग्रात्मभाव मे स्थिर होने वाले चारित्र से ही मोक्ष मिलती है, यह जैन-तत्त्वज्ञान का प्रत्येक अभ्यासी जानता है । इतना ही नही, समता यानी ग्रात्मस्थिरता-रूप चारित्र तो सिद्धो मे भी होता है । सिद्धो मे स्थूल क्रियाकाण्ड रूप चारित्र नही होता, परन्तु श्रात्मस्थिरतारूप निश्चय चारित्र तो वहाँ पर भी ग्राम सम्मत है | चारित्र ग्रात्मविकास - रूप एक गुरण है, अत उसके अभाव में सिद्धत्त्व सिवा शून्य के और कुछ नही रहेगा
११
' चारित्र स्थिरतारूप, प्रत सिद्ध ष्वपीष्यते ।'
- यशोविजय, ज्ञानसार ३१८
हाँ तो पाठक समझ गए होगे कि सामायिक का कितना अधिक महत्त्व है ? सामायिक के बिना मोक्ष नही मिलती, और तो और, सिद्ध अवस्था मे भी सामायिक का होना ग्रावश्यक है । ग्रतएव आचार्य हरिभद्र 'अष्टक प्रकरण' ग्रन्थ मे कहते है
सामायिक च मोक्षाग, पर सर्वज्ञ- भाषितम् । वासी-चन्दन- कल्पानामुक्तमेतन्महात्मनाम् ||२१
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सामायिक-प्रवचन
--जिस प्रकार चन्दन अपने काटनेवाले कुल्हाडे को भी सुगन्ध अर्पण करता है, उसी प्रकार विरोधी के प्रति भी जो समभाव की सुगन्ध अर्पण करने रूप महापुरुषो की सामायिक है, वह मोक्ष का सर्वोत्कृष्ट अग है, ऐसा सर्वज प्रभु ने कहा है।
सामायिक एक पाप-रहित साधना है। इस साधना मे जरा-सा भी पाप का अश नहीं होता। पाप क्यो नही होता? इसका उत्तर यह है कि सामायिक के काल में चित्तवृत्ति शात रहती है, अत नवीन कर्मो का वन्ध नही होता। सामायिक करते समय किसी का भी अनिष्ट-चिन्तन नही किया जाता, प्रत्युत सब जीवो के श्रेय के लिए विश्वकल्याण की भावना भावित की जाती है, फलत आत्मस्वभाव मे रमण करते-करते साधक अध्यात्म-विकास की उच्च श्रेणियो पर चढता हुआ आत्म-निरीक्षण करने लग जाता है, तथा अशुद्ध व्यवहार, अशुद्ध उच्चार, अशुद्ध विचार के प्रति पश्चात्ताप करता है, उनका त्याग करता है, अट्ठारह पापो से अलग होकर
आत्म-जागृति के क्षेत्र में पवित्र ध्यान के द्वारा कर्मों की निर्जरा करता है। उक्त वर्णन से सिद्ध हो जाता है कि सामायिक कितनी पाप-रहित पवित्र क्रिया है । अतएव प्राचार्य हरिभद्र ने अप्टक प्रकरण में कहा है
निरवद्यमिद जय-मेकान्तेनैव तत्त्वत ।
कुशलाशयरूपत्वात्सर्वयोग-विशुद्धित ॥२६।२ -सामायिक कुशल-शुद्ध आशयरूप है, इसमे मन, वचन और शरीर-रूप सव योगो की विशुद्धि हो जाती है, अत परमार्थ दृष्टि से सामायिक एकान्त निरवद्य अर्थात् पापरहित है।
प्राचार्य हरिभद्र ने सामायिक के फल का निर्देश करते हुए अप्टक प्रकरण मे पुन कहा है कि सामायिक की निर्मल साधना से केवल ज्ञान प्राप्त होता है
मामायिक-विद्वान्मा, सर्वथा घातिकर्मण ।
क्षयात्कैवलमाप्नोति, लोकालोकप्रकाशकम् ॥ ३०॥१॥ मामायिक मे विशुद्ध हुया प्रात्मा ज्ञानावरण आदि
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सामायिक का महत्त्व
घातिकर्मों का सर्वथा अर्थात् पूर्णरूप से नाश कर लोकालोकप्रकाशक केवलज्ञान प्राप्त कर लेता है ।
दिवसे दिवसे लक्ख, देइ सुवण्णस्स खडिय एगो, एगो पुण सामाइय, करेइ न पहुप्पए तस्स ।
- एक आदमी प्रतिदिन लाख स्वर्ण मुद्राओ का दान करता है और दूसरा आदमी मात्र दो घडी की सामायिक करता है, तो वह स्वर्ण मुद्राओ का दान करनेवाला व्यक्ति, सामायिक करनेवाले की समानता प्राप्त नही कर सकता ।
तिव्वतव तवमाणे, ज नवि निट्टवइ जम्मकोडीहि । त समभाविप्रचित्तो, खवेइ कम्म खणद्वेण ॥
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- करोडो जन्म तक निरन्तर उग्र तपश्चरण करने वाला साधक जिन कर्मों को नष्ट नहीं कर सकता, उनको समभावपूर्वक सामायिक करने वाला साधक मात्र ग्राधे ही क्षरण मे नष्ट कर डालता है ।
जे केवि गया मोक्ख, जेवि य गच्छति जे गमिस्सति । सामाइय, - पभावेण
सव्वे
व्व ॥
- जो भी साधक प्रतीत काल से मोक्ष गए हैं, वर्तमान मे जा रहे है, और भविष्य मे जायँगे, यह सब सामायिक का ही प्रभाव है ।
कि तिव्वेण तवेरण, किं च जवेण किं चरित्तरेण । समयाइ विण मुक्खो, न हु हूओ कहवि न हु होइ ॥
- चाहे कोई कितना ही तीव्र तप तपे, जप जपे अथवा मुनि वेष धारण कर स्थूल क्रियाकाण्ड - रूप चरित्र पाले, परन्तु समताभाव-रूप सामायिक के बिना न कभी किसी को अतीत में मोक्ष हुई है और न भविष्य मे कभी किसी को होगी ।
सामायिक समता का क्षीर समुद्र है, जो इसमे स्नान कर लेता है, वह साधारण श्रावक भी साधु के समान हो जाता है | श्रावक साधु के समान हो जाता है, यह कोई अतिशयोक्ति नही है, कारण कि साधु मे जो क्षमा, वैराग्य वृत्ति, उदासीनता, स्त्री, पुत्र, धन आदि की ममता
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सामायिक प्रवचन
का त्याग, ब्रह्मचर्य यादि महान् गुण होने चाहिए, उनकी छाया सामायिक करते समय श्रावक के ग्रन्तस्तल मे भी प्रतिभासित हो जाती है । ग्राचार्य भद्रवाहु स्वामी कहते हैं.
-
६४
सामाग्रम्म उकए,
समरणो इव सावश्रो हवड जम्हा ।
एएण कारण,
वहुमो सामाइय
कुज्जा ॥
- श्रावश्यक-निर्युक्ति ८०२
भी
- सामायिक व्रत भली-भाँति ग्रहरण कर लेने पर श्रावक साधु जैसा हो जाता है, ग्रत प्राध्यात्मिक उच्च दशा को पाने के लिए अधिक से अधिक सामायिक करना चाहिए।
सामाइय-वय-जुत्तो,
जाव मणो होड नियमसजुत्तो ।
छिन्नइ ग्रमुह् कम्म,
सामाइय जत्तिया वारा ॥
- चचल मन को नियत्रण में रखते हुए जब तक सामायिकव्रत की ग्रखण्डधारा चालू रहती है, तब तक अशुभ कर्म वरावर क्षीण होते रहते हैं ।
पाठक सामायिक का महत्त्व अच्छी तरह समझ गए होगे । सामायिक की साधना मे सलग्न होना वडा ही कठिन है, परन्तु जत्र वह सलग्न हो जाता है, तब फिर वेडा पार है । ग्राचार्यो का कहना है कि देवता भी अपने हृदय मे सामायिक व्रत स्वीकार करने की तीव्र अभिलापा रखते हैं, और भावना भाते है कि 'यदि एक मुहूर्तभर के लिए भी सामायिक व्रत प्राप्त हो सके, तो यह मेरा देव जन्म सफल हो जाए
"
वेद है कि देवता भावना भाते हुए भी सामायिक व्रत प्राप्त नही कर सकते | चारित्र मोह के उदय के कारण सयम का पथ न कभी देवताओ ने अपनाया है, और न अपना सकेंगे । जैन शास्त्र की दृष्टि से देवनाग्रो की ग्रपेक्षा मानव ग्रविक ग्राध्यात्मिक भावना का
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सामायिक का महत्त्व
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प्रतिनिधि है । अतएव सामायिक प्राप्त करने का श्रेय देवताओ को न मिलकर मनुष्यो को मिला है । प्रत आप अपने अधिकार का उपयोग कीजिए, हजार काम छोडकर सामायिक की श्राराधना कीजिए । भौतिक दृष्टि से देवताओ की दुनिया कितनी ही अच्छी हो, परन्तु आध्यात्मिक दुनिया मे तो ग्राप ही देवताओ के शिरोमणि है । क्या आप अपने इस महान अधिकार को यो ही व्यर्थ खो देगे ? क्या ग्राप सामायिक की आराधना कर स्व-पर कल्याण का मार्ग प्रशस्त न करेंगे ? अवश्य करेंगे ।
ملو در
सामायिकव्रतस्थस्य गृहिरणोऽपि स्थिरात्मन । चन्द्रावतसकस्येव क्षीयते कर्मसचितम् ॥
— योगा० ३१८३
सामायिक की साधना मे लीन, स्थिरमनयुक्त गृहस्थ साधक भी राजपि चन्द्रावतसक की भाँति पूर्वसचित कर्मों को नष्ट कर डालता है ।
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सामायिक का मूल्य
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___ सामायिक का क्या मूल्य है ? यह प्रश्न गभीर है। इसका उत्तर भी उतना ही गभीर एव रहस्यपूर्ण है। सामायिक का एक-मात्र मूल्य मोक्ष है। मोक्ष के अतिरिक्त, और कुछ भी नहीं। कुछ लोग सामायिक के द्वारा भौतिक धन, जन, प्रतिष्ठा एव स्वर्गादि का सुख चाहते है, परन्तु यह वडी भूल है। यदि आज का भद्र साधक सामायिक का फल सासारिक सम्पदा के रूप मे ही चाहता रहा, तो वह उस महान आध्यात्मिक लाभ से सर्वथा वचित ही रहेगा, जिसके सामने ससार की समस्त सम्पदाएं तुच्छ है, नगण्य है, हेय है। सामायिक के वास्तविक फल की तुलना मे सासारिक सम्पदा किस प्रकार तुच्छ है, यह बताने के लिए भगवान् महावीर के समय की एक घटना ही पर्याप्त है।
एक समय मगधसम्राट श्रेणिक ने श्रमण भगवान महावीर से अपने भावी जीवन के सम्बन्ध मे पूछा कि 'मैं मर कर कहाँ जाऊंगा ?"
भगवान् ने कहा-पहली नरक मे। श्रोणिक ने कहा-आपका भक्त और नरक मे ? आश्चर्य है ।
भगवान् ने कहा-राजन् । किये हुए कर्मो का फल तो भोगना ही पडता है, इसमे आश्चर्य क्या ? राजा श्रोणिक ने नरक से बचने का उपाय बडे ही अाग्रह से पूछा तो भगवान् ने चार उपाय वताए, जिनमे से किसी एक भी उपाय का अवलवन करने से नरक से वचा जा सकता था। उनमे एक उपाय, उस समय के सुप्रसिद्ध साधक पूनिया धावक की सामायिक का खरीदना भी था।
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सामायिक का मूल्य
महाराजा श्रोणिक पूनिया के पास पहुँचे और बोले कि “सेठ । तुम मुझ से इच्छानुसार धन ले लो और उसके बदले मे मुझे अपनी एक सामायिक दे दो, मैं नरक से बच जाऊँगा।" राजा के उक्त कथन के उत्तर में पूनिया श्रावक ने कहा कि "महाराज । मैं नही जानता, सामायिक का क्या मूल्य है ? अतएव जिन्होने आपको मेरी सामायिक लेना बताया है, आप उन्ही से सामायिक का मूल्य भी जान लीजिए।"
राजा श्रोणिक फिर भगवान् महावीर की सेवा मे उपस्थित हुआ। भगवान् के चरणो मे निवेदन किया कि "भगवन | पूनिया श्रावक के पास मैं गया था। वह सामायिक देने को तैयार है, परन्तु उसे पता नही कि सामायिक का क्या मूल्य है ? अत भगवन् । आप कृपा कर के सामायिक का मूल्य वता दीजिए। ___ भगवान् ने कहा--राजन् । तुम्हारे पास क्या इतना सोना और जवाहरात है कि जिसकी थैलियो का ढेर सूर्य और चाँद को छु जाए? कल्पना करो कि इतना धन तुम्हारे पास हो, तो भी वह सामायिक की दलाली के लिए भी पर्याप्त नही होगा। फिर सामायिक का मूल्य तो कहाँ से दोगे ?" भगवान का यह कथन सुनकर राजा श्रेणिक चुप हो गया।
उपर्युक्त घटना बता रही है कि सामायिक के वास्तविक फल के समाने ससार की समस्त भौतिक सम्पदाएँ तुच्छ है, फिर वे कितनी ही और कैसी भी क्यो न हो । सामायिक के द्वारा सासारिक फल को चाहना ऐसा ही है, जैसे चिन्तामणि देकर बदले मे कोयला चाहना । वस्तुत सामायिक तो अभय की साधना है, समत्त्व की साधना है, भौतिक धन सम्पत्ति आदि के द्वारा उसका मूल्य कैसे आका जा सकता है। * . *
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सामायिक में दुर्ध्यान विवर्जन
सामायिक मे समभाव की उपासना की जाती है। समभाव का अर्थ राग-द्वेष का परित्याग है। सामायिक शब्द का विवेचन करते हुए कहा है कि-"सामाइयं नाम सावज्जजोगपरिवज्जरणं निरवज्जजोग-पडिसेवण च।"
--आवश्यक-अवचूरि पीछे वता चुके है कि सामायिक का अर्थ है- 'सावध अर्थात् पापजनक कर्मो का त्याग करना और निरवद्य अर्थात् पाप-रहित कार्यों का स्वीकार करना।" पाप-जनक दो ही ध्यान शास्त्रकारो ने बतलाए हैआर्त और रौद्र । अतएव सामायिक का लक्षण करते हुए कहा भी है
"समता सर्वभूतेषु सयम शुभभावना ।
आर्त-रोद्र-परित्यागस्तद्धि, सामायिक व्रतम् ॥" अर्थात्-छोटे-बड़े सब जीवो पर समभाव रखना, पाँच इन्द्रियो को अपने वश मे रखना, हृदय मे शुद्ध और श्रेष्ठ भाव रखना, आर्त तथा रौद्र दुानो का परित्याग करना 'सामायिक व्रत' है।"
उक्त लक्षण मे पात तथा रौद्र दुर्ध्यान का परित्याग, सामायिक का मुख्य लक्षण माना गया है। जब तक साधक के मन से प्रार्त
और रौद्र ध्यान के दु सकल्प नही मिटते है, तब तक सामायिक का शुद्ध स्वरूप प्राप्त नहीं किया जा सकता।
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सामायिक मे दुर्ध्यान विवर्जन
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आर्तध्यान के चार प्रकार
'पात' शब्द अति शब्द से निष्पन्न हुआ है। अति का अर्थ है-पीडा, वाधा, क्लेश एव दुख । अति के कारण यानी दुख के होने पर मन मे जो नाना प्रकार के भोग-सम्बन्धी सकल्प-विकल्प उत्पन्न होते है, उसे 'आर्त ध्यान' कहते है । दु ख की उत्पत्ति के चार कारण है, अत पात ध्यान के भी चार प्रकार है
(१) अनिष्ट-संयोगज---अपनी प्रकृति के प्रतिकूल चलने वाला साथी, शत्रु, अग्नि आदि का उपद्रव इत्यादि अनिष्ट-अप्रिय वस्तुओ का सयोग होने पर मनुष्य के मन में अत्यधिक दुख उत्पन्न होता है। दुर्बल-हृदय मनुष्य, दुख से व्याकुल हो उठता है और मन मे अनेक प्रकार के सकल्पो का ताना-बाना बुनता रहता है कि हाय । मैं इस दुख से कैसे छटकारा पाऊँ ? कब यह दुख दूर हो ? इसने तो मुझे तग ही कर दिया, आदि आदि ।
(२) इष्ट-वियोगज-धन, सम्पत्ति, ऐश्वर्य, स्त्री, पुत्र, परिवार, मित्र आदि इष्ट-प्रिय वस्तुओ का वियोग होने पर भी मनुष्य के मन मे पीडा, भ्रम, शोक, मोह आदि भाव उत्पन्न होते है । प्रिय वस्तु के वियोग से बहुत से मानव तो इतने अधिक शोकाकुल होते है कि एक प्रकार से विक्षिप्त ही हो जाते है । रात दिन इसी उधेडबुन मे रहते है कि किस प्रकार वह गई हुई वस्तु मुझे मिले ? क्या करू, कहाँ जाऊँ ? किस प्रकार वह पहले-सा सुख वैभव प्राप्त करूँ, आदि आदि।
(३) प्रतिकूल वेदना-जनित-वात, पित्त, कफ आदि की विषमता से रोगादि की जो प्रतिकूल वेदना होती है, वह हृदय मे बडी ही उथल-पुथल कर देती है। बहुत से अधीर मनुष्य तो रोग होने पर अतीव अशान्त एव क्षुब्ध हो जाते है । वे उचित-अनुचित किसी भी प्रकार की पद्धति का विचार किए विना, यही चाहते हैं कि चाहे कुछ भी करना पडे, बस मेरी यह रोग आदि की वेदना दूर होनी चाहिए। हर समय हर आदमी के आगे अपने रोग आदि का ही रोना रोते रहते हैं।
(४) निदान-जनित-पामर ससारी जीव भोगो की उत्कट लालसा के कारण सर्वदा अशान्त रहते है। हजारो आदमी वर्तमान
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७०
सामायिक-प्रवचन जीवन के आदर्शों को भूल कर केवल भविष्य के ही सुनहले स्वप्न देखते रहते है। दिन पर दिन इन्ही विचारो मे वीत जाते है कि किस प्रकार लखपति बनूं? सुन्दर महल, बाग आदि कैसे वनाऊँ ? समाज मे पूजा, प्रतिष्ठा किस प्रकार प्राप्त करूँ ? आदि उचित-अनुचित का कुछ भी विचार किए बिना विलासी जीव हर प्रकार से अपना स्वार्थ गाठना चाहते है ।
रौद्र ध्यान के चार प्रकार
'रौद्र' शब्द 'रुद्र' से निष्पन्न हुआ है। रुद्र का अर्थ है-ऋ र, भयकर। जो मनुष्य क्रूर होते है, जिनका हृदय कठोर होता है वे बडे ही भयकर एव क्रूर विचार करते है। उनके हृदय मे हमेशा द्वेप की ज्वालाएँ भडकती रहती हैं। उक्त रौद्र ध्यान के शास्त्रकारो ने चार प्रकार बतलाए है
(१) हिसानन्द-अपने से दुर्बल जीवो को मारने मे, पीडा देने मे, हानि पहुँचाने मे आनन्द अनुभव करना, हिसानन्द दुर्ध्यान है। इस प्रकार के मनुष्य बडे ही क्रूर होते है । ऐसे लोग व्यर्थ ही हिसाकार्यों का समर्थन करते रहते है।
(२) मृषानन्द कुछ लोग असत्य भापण मे बडी ही अभिरुचि रखते है। इधर-उधर मटरगश्ती करना, झूठ बोलना, दूसरे भोले भाइयो को भुलावे मे डाल कर अपनी चतुरता पर खुश होना, हर समय असत्य कल्पनाएँ घडते रहना, सत्य धर्म की निन्दा और असत्य आचरण की प्रशसा करना, मृषानन्द दुर्ध्यान मे सम्मिलित है।
(३) चौनिन्दबहुत से लोगो को हर समय चोरी-छप्पी की आदत होती है। वे जब कभी सगे सम्वन्धी के या मित्रो के यहाँ आते-जाते है, तव वहाँ कोई भी सुन्दर चीज देखते ही उनके मुंह मे पानी भर आता है । वे उसी समय उसको उडाने के विचार मे लग जाते है । हजारो मनुष्य इस दुर्विचार के कारण अपने महान् जीवन को कलकित कर डालते है । रात-दिन चोरी के सकल्प-विकल्पो मे ही अपना अमूल्य समय बर्बाद करते रहते है। .
(४) परिग्रहानन्द प्राप्त परिग्रह के सरक्षण मे और अप्राप्त परिग्रह के प्राप्त करने मे मनुष्य के समक्ष वडी ही जटिल समस्याएं आती
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सामायिक मे दुनि विवर्जन
है। जो लोग सदाचारी होते हैं, वे तो बिना किसी को कष्ट पहुँचाए अपनी बुद्धि से अपनी समस्याएं सुलझा लेते है, किंतु दुर्जन लोग परिग्रह के लिए इतने क्रूर हो जाते है कि वे भले-बुरे का कुछ विचार नही करते, दिन-रात अपनी स्वार्थ-साधना मे लीन रहते है। धन की लालसा मे हमेशा रौद्र-रूप धारण किए रहना, अपने स्वार्थ की सिद्धि के लिए क्रूर-मे-क्रू र उपाय सोचते रहना, परिग्रहानन्द रौद्र ध्यान है।
यह आर्त और रौद्र ध्यान का सक्षिप्त परिचय है । आर्त ध्यान के लक्षण-शका, भय, शोक, प्रमाद, कलह, चित्त-भ्रम, मन की चचलता, विषय-भोग की इच्छा, उद्भ्रान्ति आदि हैं । अत्यधिक प्रार्त ध्यान के कारण मनुष्य जड, मूढ एव मूच्छित भी हो जाता है । आर्तध्यान का फल पुनर्जन्म मे अनन्त दुखो से आकुल-व्याकुल पशु-गति प्राप्त करना है। उधर रौद्र ध्यान भी कुछ कम भयकर नही है । रौद्र ध्यान के कारण मनुष्य को क रता, दुष्टता, वचकता, निर्दयता आदि दुर्गुण चारो ओर से घेर लेते है और वह सदैव लाल आँखे किए, भौह चढाए, भयानक आकृति बनाए राक्षस-जैसा रूप धारण कर लेता है । अत्यधिक रौद्र ध्यान का फल नरक गति होता है।
सामायिक का प्रारण समभाव है, समता है । अत साधक का कर्तव्य है कि वह अपनी साधना को आर्त और रौद्र ध्यानो से बचाने का प्रयत्न करे। कोई भी विचारशील देख सकता है कि उपर्युक्त आर्त और रौद्र विचारो के रहते हुए सामायिक की विशुद्धि कहाँ तक रह सकती है ? * * *
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शुभ भावना
मानव-जीवन मे भावना का वडा भारी महत्व है । मनुष्य अपनी भावनाओ से ही बनता - बिगडता है। हजारो लोग दुर्भावनाओ के कारण मनुष्य के उत्तम शरीर को पाकर भी राक्षस बन जाते है, और हजारो मनुष्य पवित्र विचारो के कारण देवो से भी ऊची भूमिका को प्राप्त कर लेते है, फलत देवो के भी पूज्य बन जाते है । मनुष्य श्रद्धा का, विश्वास का, भावना का बना हुआ है, जो जैसा सोचता है, विचारता है, भावना करता है, वह वैसा ही बन जाता है
सत्वानुरूपा सर्वस्य श्रद्धा भवति भारत । श्रद्धामयोऽय पुरुषो यो यच्छृद्ध स एव स ॥
- गीता १७|३
सामायिक एक पवित्रव्रत है। दिन-रात का चक्र यो ही सकल्प-विकल्पो मे, इधर-उधर की उधेडबुन में निकल जाता है । मनुष्य को सामायिक करते समय दो घडी ही शान्ति के लिये मिलती है । यदि साधक इन दो घडियो मे भी मन को शान्त न कर सका, पवित्र न बना सका, तो फिर वह पवित्रता की उपासना कब करेगा ? ग्रतएव प्रत्येक जैनाचार्य सामायिक मे शुभभावना भाने के लिए विशेष निर्देश करते है । पवित्र सकल्पो का वल अन्तरात्मा को महान् प्राध्यात्मिक शक्ति एव विशुद्धि प्रदान करता है । ग्रात्मा से परमात्मा के, नर से नारायण के पद पर पहुँचने का, यह विशुद्ध विचार ही स्वर्ण सोपान है ।
सामायिक में विचारना चाहिए कि "मेरा वास्तविक हित एव कल्याण, आत्मिक सुख-शान्ति के पाने में एव श्रन्तरात्मा को विशुद्ध
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शुभ भावना
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बनाने मे ही है। इन्द्रियो के भोगो से मेरी मनस्तृप्ति कदापि नही हो सकती। ये काम-भोग तो समुद्र की भाति अन्त हीन है—समुद्र इव हि काम -तैत्ति० ब्रा० २।२।५ जैसे समुद्र के जल का कोई किनारा नही है उसी प्रकार काम-तृप्णा का भी कोई किनारा नही है ।
सामायिक के पथ पर अग्रसर होने वाले साधक को सुख की सामग्री मिलने पर हर्पोन्मत्त नहीं होना चाहिए और दुख की सामग्री मिलने पर व्याकुल नही होना चाहिए, घबराना नही चाहिए । सामायिक का सच्चा साधक मुख-दुख दोनो को समभाव से भोगता है, दोनो को धूप तथा छाया के समान क्षणभगुर मानता है।
सामायिक की साधना हृदय को विशाल बनाने के लिए है। अतएव जब तक साधक का हृदय विश्व-प्रेम से परिप्लावित नही हो जाता, तब तक साधना का सुन्दर रग निखर ही नहीं पाता। हमारे प्राचीन प्राचार्यों ने सामायिक मे समभाव की परिपुष्टि के लिये चार भावनाओं का वर्णन किया हैं-मैत्री, प्रमोद, करुणा, और माध्यस्थ्य।
सत्वेषु मैत्री गुरिणषु प्रमोद, क्लिष्टेषु जीवेषु कृपापरत्वम् । माध्यस्थ्यभाव विपरीतवृत्ती, सदा ममात्मा विदधातु देव ।।'
-आचार्य अमितगति परमात्मा द्वात्रिंशिका १ (१) मैत्री भावना-ससार के समस्त प्राणियो के प्रति निस्वार्थ प्रेम-भाव रखना , अपनी आत्मा के समान ही सब को सुख-दुख की अनुभूति करनेवाले समझना, मैत्री भावना है। जिस प्रकार मनुष्य अपने किसी विशिष्ट मित्र की हमेशा भलाई चाहता है, जहाँ तक अपने से हो सकता है, समय पर भलाई करता है, दूसरो से उसके लिये भलाई करवाने की इच्छा रखता है, उसी प्रकार जिस साधक का हृदय मैत्री भावना से परिपूरित हो जाता है, वह भी प्राणीमात्र की भलाई करने के लिए बहुत उत्सुक रहता है, सब को अपनेपन की बुद्धि से देखता है। वह किसी को भी किसी भी तरह का
१ तुलना कीजिए
मैत्री करुणा-मुदितोपेक्षाणा सुखदु ख पुण्यापुष्यविपयाणा भावनात श्चित्तप्रसादनम् ।
योगदर्शन १३३
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सामायिक प्रवचन
कष्ट नही देना चाहता । वह समस्त विश्व को मित्ररूप मे
देखता है
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" मित्रस्य चक्ष ुपा सर्वाणि भूतानि पश्यामहे । "
- यजुर्वेद ३६।१८
अर्थात् में सव जीवो को मित्र की आँखो से देखता हूँ, मेरा किसी से भी वैर-विरोध नही है, प्रत्युत सब के प्रति प्रेम है । भारतीय साहित्य मे मैत्री के ये ही स्वर आपको सर्वत्र गू ँजते हुए सुनाई देंगे, देखिए -
मित्ती मे सव्व भूएसु मैत्त च मे सव्वलोकस्सि ।
( आव० अ० ४) ( धम्मपद )
मेरी विश्व के सब प्राणियो के साथ मंत्री है
)
(२) प्रमोद भावना - गुणवानो को सज्जनो को, धर्मात्मा को देखकर प्रेम से गद्गद हो जाना, मन मे प्रसन्न हो जाना, प्रमोद भावना है। कई बार ऐसा होता है कि मनुष्य अपने से धन, सम्पत्ति सुख, वैभव, विद्या, वुद्धि अथवा धार्मिक भावना आदि मे अधिक बढे हुए उन्नतिशील साथी को देखकर ईर्ष्या करने लगता है । यह मनोवृत्ति वडी ही दूपित है । जब तक यह मनोवृित्ति दूर न हो जाय, तव तक हिंसा, सत्य यादि कोई भी सद्गुण अन्तरात्मा मे टिक नही सकता । इसीलिए भगवान् महावीर ने ईर्ष्या के विरुद्ध प्रमोद भावना का उपदेश दिया है ।
इस भावना का यह अर्थ नही कि ग्राप दूसरो को उन्नत देखकर किसी प्रकार का ग्रादर्श ही न ग्रहण करें, उन्नति के लिए प्रयत्न ही न करे, और सदा दीन-हीन ही बने रहे। दूसरो के प्रभ्युदय को देखकर यदि अपने को भी वैसा ही ग्रभ्युदय इष्ट हो तो उसके लिए न्याय, नीति के साथ प्रबल पुरुषार्थ करना चाहिए, उनको यादर्श बनाकर दृढता से कर्म-पथ पर अग्रसर होना चाहिए। शास्त्रकार तो यहाँ दुर्बल मनुष्यों के हृदय मे दूसरो के अभ्युदय को देखकर जो ढाह होता है, केवल उसे दूर करने का प्रादेश देते हैं ।
मनुष्य का कर्तव्य है कि वह सदैव दूसरो के गुग्गो की ओर ही अपनी दृष्टि से दोपों की ओर नहीं । गुरणी की ओर दृष्टि रखने मे गुग्गा-गाहकता के भाव उत्पन्न होते है, और दीपा की ओर दृष्टि गने से अन्तकरण पर दोप-ही-दोष छा जाते हैं । मनुष्य जैसा
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शुभ भावना
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चिन्तन करता है, वैसा ही बन जाता है । अत प्रमोद भावना के द्वारा प्राचीन काल के महापुरुषो के उज्ज्वल एव पवित्र गुणो का चिन्तन हमेशा करते रहना चाहिए । गजसुकुमार मुनि की क्षमा, धर्मरुचि मुनि की दया, भगवान् महावीर का वैराग्य, शालिभद्र का दान किसी भी साधक को विशाल आत्मिक शक्ति प्रदान करने के लिए पर्याप्त है।
(३) करुणा भावना-किसी दीन-दुखी को पीडा पाते हुए देख कर दया से गद्गद् हो जाना, उसे सुख-शान्ति पहुंचाने के लिए यथाशक्ति प्रयत्न करना, अपने प्रिय-से-प्रिय स्वार्थ का बलिदान देकर भी उसका दुख दूर करना, करुणा भावना है । अहिंसा की पुष्टि के लिए करुणा भावना अतीव आवश्यक है। बिना करुणा के अहिंसा का अस्तित्त्व कथमपि नहीं हो सकता । यदि कोई बिना करुणा के अहिंसक होने का दावा करता है, तो समझ लो वह अहिंसा का उपहास करता है। करुणा-हीन मनुष्य, मनुष्य नही, पशु होता है। दुखी को देख कर जिसका हृदय नही पिघला, जिसकी आँखो से सहानुभूति एव प्रेम की धारा नहीं वही, वह किस भरोसे पर अपने को धर्मात्मा समझ सकता है?
(४) माध्यस्थ्य भावना-जो अपने से असहमत हो, विरोधी हो, उन पर भी द्वेष न रखना, उदासीन अर्थात् तटस्थभाव रखना, माध्यस्थ्य भावना है। कभी-कभी ऐसा होता है कि साधक को बिल्कुल ही सस्कार-हीन एव धर्म-शिक्षा ग्रहण करने के सर्वथा अयोग्य, क्षुद्र, क्रूर, निन्दक, विश्वासघाती, निर्दय, व्यभिचारी तथा वक्र स्वभाव वाले मनुष्य मिल जाते है, और पहले-पहल साधक बडे उत्साह-भरे हृदय से उनको सुधारने का, धर्म-पथ पर लाने का प्रयत्न करता है, परन्तु जब उनके सुधारने के सभी प्रयत्न निष्फल हो जाते है, तो वह सहसा उद्विग्न हो उठता है, क्रुद्ध हो जाता है, विपरीताचरण वालो को अपशब्द तक कहने लगता है। भगवान् महावीर मनुष्य की इसी दुर्बलता को ध्यान मे रख कर माध्यस्थ्य भावना का उपदेश करते है कि ससार-भर को सुधारने का केवल अकेले तुम ने ही ठेका नही ले रक्खा है । प्रत्येक प्राणी अपने-अपने सस्कारो के चक्र मे है। जब तक भव-स्थिति का परिपाक नही होता है, अशुभ सस्कार क्षीण होकर शुभ सस्कार जागृत नही होते है, तव तक कोई सुधर नही सकता । तुम्हारा काम तो बस सद्भावना के साथ प्रयत्न करना है।
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सामायिक-प्रवचन
सुधरना और न सुधरना, यह तो उसकी स्थिति पर है । अपना प्रयत्न चालू रक्खो, सभव है कभी तो अच्छा परिणाम पाही जाए ।
विरोधी और दुश्चरित्र व्यक्ति को देखकर घृणा भी नही करनी चाहिए। ऐसी स्थिति मे माध्यस्थ्य भावना के द्वारा समभाव रखना, तटस्थ हो जाना ही श्रेयस्कर है। प्रभ महावीर को सगम आदि देवो ने कितने भयकर कप्ट दिए, कितनी मर्मान्तक पीडा पहुचाई, किन्तु भगवान् की माव्यस्थ्य वत्ति पूर्ण रूप से अचल रही। उनके हृदय मे विरोधियों के प्रति जरा भी क्षोभ एव क्रोध नही हुआ। वर्तमान युग के सघर्षमय वातावरण मे माध्यस्थ्य भावना की बडी भारी अावश्यकता है। .
ध्यान विधित्मता ने यं ध्याता ध्येय तथा फलम् ।
-योगशास्त्र ७१ ध्यान के उच्छक माधक को तीन वाते जान लेनी चाहिए--१ व्याता-ध्यान करने वाने की योग्यता। २ व्येय--जिन का व्यान किया जाता है उसका म्वन्प और फल-ध्यान पापन।
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आत्मा ही सामायिक है
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-
-
सामायिक के स्वरूप का वर्णन बहुत-कुछ किया जा चुका है। फिर भी, प्रश्न है कि सामायिक क्या है ? बाह्य वस्तुओ के स्वरूप का निर्णय करने के लिए वैज्ञानिको को कितना ऊहापोह, विचारविमर्श, चिन्तन-मनन करना पडता है, तब कही जाकर वे वस्तु के वास्तविक स्वरूप तक पहुच पाते है। भला, जब बाह्य वस्तुप्रो के सम्बन्ध मे यह बात है, तो सामायिक तो एक बहुत ही गूढ अन्तर्लोक की धार्मिक क्रिया है। उसके स्वरूप-परिज्ञान के लिए तो हमे पुन - पुन चिन्तन, मनन करने की आवश्यकता है । अत पुनरुक्ति से घबराइये नही, चिन्तन के क्षेत्र मे जहाँ तक प्रगति कर सके, करने का प्रयत्न करें।
सामायिक क्या है ? यह प्रश्न भगवती-सूत्र मे बडे ही सुन्दर ढग से उठाया गया है और इसका उत्तर भी आध्यात्मिक भावना की उच्चतम श्रेणी को लक्ष्य मे रख कर दिया गया है। भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा के कालास्यवेसी अनगार, भगवान् महावीर के अनुयायी स्थविर मुनिराजो के पास पहुचते हैं और प्रश्न करते है कि "हे पार्यो | सामायिक क्या है ? और उसका अर्थ-प्रयोजन-फल क्या है ?" स्थविर मुनिराज उत्तर देते है कि "हे आर्य | प्रात्मा ही सामायिक है, और आत्मा ही सामायिक का अर्थ-फल है"आया सामाइए, आया सामाइयस अट्ठे ।" ।
-भगवती-सूत्र, श० १, उ०६ भगवती-सूत्र का यह सूत्र वचन बहुत सक्षिप्त है, किन्तु उसमे चिन्तन-सामग्री भरी हुई है । आइए, जरा स्पष्टीकरण कर ले कि विशाल अात्मा ही सामायिक और सामायिक का अर्थ किस प्रकार है ?
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सामायिक-प्रवचन
निश्चयदृष्टि से सामायिक का स्वरूप
बात यह है सामायिक मे पापमय व्यापारो का परित्याग कर समभाव अर्थात् शुद्ध मार्ग अपनाया जाता है। समभाव को ही सामायिक कहते है । समभाव का अर्थ है बाह्य विषय-भोग की चचलता से हटकर स्वभाव मे-यात्म-स्वरूप मे स्थिर होना, लीन होना । अस्तु, आत्मा का काषायिक विकारो से अलग किया हुआ अपना शुद्ध स्वरूप ही सामायिक है। और उस शुद्ध आत्म-स्वरूप को पा लेना ही सामायिक का अर्थ-फल है । यह निश्चयदृष्टि का कथन है, इसके अनुसार जबतक साधक स्व-स्वरूप मे ध्यान-मग्न रहता है, उपशम-जल से राग-द्वेष के मल को धोता है, पर-परिणति को हटाकर आत्म-परिणति मे रमण करता है, तब तक ही सामायिक है। और ज्यो ही सकल्पो-विकल्पो के कारण चचलता होती है, बाह्य क्रोध, मान, माया, लोभ की ओर परिणति होती है, त्यो ही साधक सामायिक से शून्य हो जाता है । आत्म-स्वरूप की परिणति हुए बिना सामायिक, प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान आदि सब-की-सब बाह्य धर्म साधनाएँ मात्र पुण्यात्रव-रूप है, मोक्ष की साधक-सवर रूप नही।
इसी भाव को भगवती-सूत्र मे भगवान् महावीर ने तु गिया नगरी के श्रावको के प्रश्न के उत्तर मे स्पप्ट किया है। वहा वर्णन है कि "यात्म-परिणति-प्रात्म-स्वरूप की उपलब्धि के बिना, तप, सयम आदि की साधना से मात्र पुण्य-प्रकृति का बध होता है, फलस्वरूप देव-भव की प्राप्ति होती है, मोक्ष की नही ।" अत साधको का कर्तव्य है कि निश्चय सामायिक की प्राप्ति का प्रयत्न करे। केवल सामायिक के वाह्य स्वरूप से चिपटे रहना और उसे ही सब-कुछ समझ लेना उचित नही।
व्यावहारिक भूमिका : क्रमिक विकास
निश्चय दृष्टि के सम्बन्ध मे एक बडा ही विकट प्रश्न है । वह यह कि इस प्रकार शुद्ध प्रात्म-परिणतिरूप सामायिक तो कभी होती नही । मन वडा चचल है, वह अपनी उछल-कूद भला कभी छोड पाता है ? कभी नही । अव रहे केवल वचन और शरीर, सो उनको
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आत्मा ही सामायिक है
रोके रखने भर से सामायिक की पूर्णता होती नही । प्रत आजकल की सामायिक-क्रिया तो एक प्रकार से व्यर्थं ही हुई
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1
इसके उत्तर मे कहना है कि निश्चय सामायिक के स्वरूप का वर्णन करके उस पर जोर देने का यह भाव नही कि अन्तरंग साधना अच्छी तरह नही होती है, तो बाह्य सावना भी छोड़ ही दी जाए बाह्य साधना, भी आन्तरिक साधना के लिए अतीव आवश्यक है । सर्वथा शुद्ध निश्चय सामायिक तो साध्य है, उसकी प्राप्ति शुद्ध व्यवहार साधना करते-करते ग्राज नही, तो कालान्तर मे कभी-नकभी होगी ही । मार्ग पर एक-एक कदम बढने वाला दुर्बल यात्री भी एक दिन अपनी मंजिल पर पहुच जाएगा । अभ्यास की शक्ति महान् है । आप चाहे कि मन भर का पत्थर हम ग्राज ही उठा ले शक्य है । किन्तु प्रतिदिन क्रमश सेर दो-सेर, तीन सेर ग्रादि का पत्थर उठाते-उठाते, कभी एक दिन वह भी आएगा कि जब प्राप मन-भर का पत्थर भी उठा लेगे ।
1
अब रही मन की चचलता । सो, इससे भी घबराने की आवश्यकता नही । मन स्थिर न भी हो, तब भी आप टोटे मे नही रहेगे । वचन और शरीर के नियत्रण का लाभ तो आपका कही नही गया । सामायिक का सर्वथा नाश मन, वचन और शरीर तीनो शक्तियो को सावद्य - क्रिया मे सलग्न कर देने से होता है । केवल मनसा भग अतिचार होता है, अनाचार नही । अतिचार का अर्थ- 'दोष' है । और इस दोष की शुद्धि पश्चात्ताप एव आलोचना आदि से हो जाती है ।
क्या
हाँ, तो यह ठीक है कि मानसिक शाति के बिना सामायिक पूर्ण नही, अपूर्ण है । परन्तु इसका यह अर्थ तो नही कि पूर्ण न मिले, तो अपूर्ण को भी ठोकर मार दी जाए ? व्यापार मे हजार का लाभ न हो, तो सौ, दो सौ का लाभ कही छोड़ा जाता है ? आखिर है तो लाभ ही, हानि तो नही ! जब तक रहने के लिए सातमजिल का महल न मिले, तब तक झोपडी ही सही । सर्दी-गर्मी से तो रक्षा होगी, कभी परिश्रमानुकूल भाग्य ने साथ दिया, तो महल भी कौन बडी चीज है, वह भी मिल सकता है । परन्तु, महल के अभाव मे झोपडी छोडकर सडक पर भिखारियो की तरह पडे रहना तो ठीक नही । अपने ग्राप मे व्यवहार सामायिक
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करेमि भते । सामाइयं
=हे भगवन् 1 में समतारूप सामायिक
करता हूँ ।
सव्व सावज्जं जोग पच्चक्खामि - सब सावध - पापो के व्यापार त्यागता हूँ
1
पज्जुवासामि= यावज्जीवन - जीवन भर के लिए सामायिक ग्रहण करता हूँ ।
जावज्जीवाए
तिविह तिविहेण
मणेण वायाए कारण
सामायिक प्रवचन
साधु और साध्वी की सामायिक
*
अप्पाण वोसिरामि
=
- तीन कररण, तीन योग से ।
=
= मन से, वचन से,
( पाप कर्म ) ।
न करेमि, न कारवेमि, करत पिन करूँगा, न कराऊ गा, करने वाले
अन्न न समणुज्जारगामि
तस्स भते पडिक्कमा मि
निंदामि गरिहामि
शरीर से
दूसरे का अनुमोदन भी नही करू गा । हे भगवन् 1 उस पापरूप व्यापार से हटता हूँ ।
= निन्दा करता हूँ, गर्हा करता हूँ ।
,
= पापमय प्रात्मा को वोसराता हूँ ।
श्रावक श्रौर श्राविका की सामायिक
ป
श्रावक और श्राविकाओ के सामायिक का पाठ भी यही है । केवल 'सव्वं सावज्ज' के स्थान मे 'सावज्ज' 'जावज्जीवाए' के स्थान मे 'जावनियम', तिविह तिविहेण' के स्थान मे 'दुविह तिविहरण' बोला जाता है । और करत पि अन्न न समरगुज्जारगामि' यह पद बिल्कुल ही नही बोला जाता ।
पाठक समझ गए होगे कि साधु और श्रावको के सामायिक व्रत मे कितना अन्तर है ? आदर्श एक ही है, किन्तु गृहस्थ देश सयमी है, परिग्रह आदि रखता है, अत वह तीन कररण, तीन योग से पापो का सर्वथा परित्याग नही कर सकता । वह सामायिककाल मे मन-वचन और शरीर से पाप कर्म न स्वय करेगा, न दूसरो
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और श्रावक की सामायिक
करवाएगा। परन्तु, घर या दुकान आदि पर होने वाले पापा-भ के प्रति गृहस्थ का आन्तरिक ममतारूप अनुमोदन चालू रहता अत अनुमोदन का त्याग नही किया जा सकता । साधु पूर्ण मी है, वह अपने जीवन मे कोई भी पाप व्यापार नही रखता,
वह अनुमोदन का भी त्याग करता है । गृहस्थ पापारम्भ से दा के लिए अलग होकर गृह-जीवन की नौका नही खे सकता । इ सामायिक से पहले भी प्रारम्भ करता रहता है और सामायिक वाद भी उसे करना है, अत वह दो घडी के लिए ही सामायिक हरण कर सकता है, यावज्जीवन के लिए नही । श्रावश्यक नियुक्ति अपनी टीका में आचार्य हरिभद्र ने विशेष स्पष्टीकरण किया है, त विशेष जिज्ञासु उसे पढने का कष्ट करे ।
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साधु की अपेक्षा गृहस्थ की सामायिक मे काफी अन्तर है, कर भी इतना नही है कि वह सर्वथा ही कोई अलग-थलग मार्ग । दो घडी के लिए सामायिक मे गृहस्थ यदि पूर्ण साधु नही तो, घु जैसा अवश्य ही हो जाता है । उच्च जीवन के अभ्यास के लए, गृहस्थ प्रतिदिन सामायिक ग्रहण करता है और उतनी र के लिए वह ससार के धरातल से ऊपर उठ कर उच्च प्राध्यामक भूमिका पर पहुँच जाता है । प्रत आवश्यक नियुक्ति को द्धृत करते हुए प्राचार्य जिनभद्रगणी क्षमाश्रमण ने ठीक ही कहा है
सामाइयम्मि उकए, समरणो इव
एएण
कारणेण, बहुसो
सावग्रो हवइ जम्हा । कुज्जा ॥
सामाइय
— विशेषावश्यक भाष्य, २६६०
– सामायिक करने पर श्रावक साधु जैसा हो जाता है, बासना से जीवन को बहुत-कुछ अलग कर लेता है, अतएव श्रावक का कर्तव्य है कि वह प्रतिदिन सामायिक ग्रहरण करे, समता-भाव का नाचरण करे ।
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सामायिक प्रवचन
भी एक बहुत बडी साधना है । जो लोग सामायिक न करके व्यर्थ ही इधर-उधर निन्दा, चुगली, झूठ, हिंसा, लडाई प्रादि करते फिरते है, उनकी अपेक्षा निश्चय सामायिक का न सही, व्यवहार सामायिक का ही जीवन देखिए, कितना ऊँचा है, कितना महान् है ? स्थूल पापाचारो से तो जीवन बचा हुआ है
?
८०
समाइग्रोवउत्तो जीवो सामाइय सय चेव ।
- विशेषा ० १५२६ सामायिक मे उपयोग युक्त ग्रात्मा स्वयं ही सामायिक है ।
चित्तस्य हि प्रसादेन हन्ति कर्म शुभाशुभम् । प्रसन्नात्माऽऽत्मनि स्थित्वा सुखमव्ययमश्नुते ॥
-- मैत्रा० श्रारण्यक ६१३४-४
चित्त के प्रसन्न (निर्मल) एव शात हो जाने पर शुभाशुभ कर्म नष्ट हो जाते हैं । और प्रसन्न एव शातचित्त मनुष्य ही जव आत्मा में लीन होता है तब वह अविनाशी प्रानन्द प्राप्त करता है ।
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साधु और श्रावक की सामायिक
जैन-धर्म के तत्वो का सूक्ष्म निरीक्षण करने पर यह बात सहज ही ध्यान मे ग्रा सकती है कि यहाँ साधु और श्रावको के लिए सर्वथा विभिन्न परस्पर विरोधी दो मार्ग नही है । आध्यात्मिक विकास की तरतमता के कारण दोनो की धर्म साधना मे अन्तर अवश्य रक्खा गया है, पर दोनो साधनाओ का लक्ष्य एक ही है, पृथक् नही ।
१६
अतएव सामायिक के सम्बन्ध मे भगवान् महावीर ने कहा है कि यह साधु और श्रावक दोनो के लिए आवश्यक है
-
"गारसामाइए चेव अरणगार सामाइए चेव" - स्थानाग सूत्र, स्था० २, उ० ३
सामायिक, साधना क्षेत्र की प्रथम आवश्यक भूमिका है, अत इसके विना दोनो ही साधको की साधनाए पूर्ण नही हो सकती । परन्तु श्रात्मिकविकास की दृष्टि से दोनो की सामायिक मे अन्तर है । गृहस्थ की सामायिक अल्पकालिक होती है, और साधु की यावज्जीवन - जीवन - पर्यन्त के लिए ।
दोनो की सामायिकसाधना का स्वरूप समझने के लिए निम्न सूत्रो पर ध्यान देना आवश्यक है ।
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सामायिक-प्रवचन
साधु और साध्वी की सामायिक
करेमि भते ! सामाइयं =हे भगवन् | मैं समतारूप सामायिक
करता हूँ। सव्व सावज्ज जोग पच्चक्खामि सब सावद्य-पापो के व्यापार
त्यागता हूँ। जावज्जीवाए पज्जुवासामि=यावज्जीवन-जीवन-भर के लिए
__ सामायिक ग्रहण करता हूँ। तिविह तिविहेणं
=तीन करण, तीन योग से। मणेण वायाए काएग =मन से, वचन से, शरीर से
(पाप कर्म)। न करेमि, न कारवेमि, करत पि=न करूंगा, न कराऊ गा, करने वाले अन्न न समणुज्जारणामि दूसरे का अनुमोदन भी नही करू गा। तस्स भते पडिक्कमामि हे भगवन् । उस पापरूप व्यापार से
हटता हूँ। निंदामि, गरिहामि =निन्दा, करता हूँ, गर्दा करता हूँ।
अप्पाण वोसिरामि
=पापमय आत्मा को वोसराता हूँ।
श्रावक और श्राविका की सामायिक
श्रावक और श्राविकाओ के सामायिक का पाठ भी यही है । केवल 'सव्वं सावज्ज' के स्थान मे 'सावज्ज' 'जावज्जीवाएं' के स्थान मे 'जावनियम', तिविह तिविहेण' के स्थान मे 'दुविह तिविहेण' बोला जाता है। और करत पि अन्न न समरणज्जारणामि' यह पद बिल्कुल ही नही बोला जाता।
पाठक समझ गए होगे कि साधु और श्रावको के सामायिक व्रत मे कितना अन्तर है ? आदर्श एक ही है, किन्तु गृहस्थ देश सयमी है, परिग्रह आदि रखता है, अत वह तीन करण, तीन योग से पापो का सर्वथा परित्याग नही कर सकता। वह सामायिककाल मे मन-वचन और शरीर से पाप-कर्म न स्वय करेगा, न दूसरो
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साधु और श्रावक की सामायिक
से करवाएगा। परन्तु, घर या दुकान आदि पर होने वाले पापारम्भ के प्रति गृहस्थ का आन्तरिक ममतारूप अनुमोदन चालू रहता है, अत अनुमोदन का त्याग नही किया जा सकता । साधु पूर्ण सयमी है, वह अपने जीवन मे कोई भी पाप-व्यापार नही रखता, अत वह अनुमोदन का भी त्याग करता है। गृहस्थ पापारम्भ से सदा के लिए अलग होकर गृह-जीवन की नौका नही खे सकता। वह सामायिक से पहले भी प्रारम्भ करता रहता है और सामायिक के बाद भी उसे करना है, अत वह दो घडी के लिए ही सामायिक ग्रहण कर सकता है, यावज्जीवन के लिए नही । आवश्यक-नियुक्ति की अपनी टीका मे आचार्य हरिभद्र ने विशेष स्पष्टीकरण किया है, अत विशेष जिज्ञासु उसे पढने का कष्ट करे।
साधु की अपेक्षा गृहस्थ की सामायिक मे काफी अन्तर है, फिर भी इतना नही है कि वह सर्वथा ही कोई अलग-थलग मार्ग हो। दो घडी के लिए सामायिक मे गृहस्थ यदि पूर्ण साधु नही तो, साधु जैसा अवश्य ही हो जाता है। उच्च जीवन के अभ्यास के लिए, गृहस्थ प्रतिदिन सामायिक ग्रहण करता है और उतनी देर के लिए वह ससार के धरातल से ऊपर उठ कर उच्च प्राध्यात्मिक भूमिका पर पहुंच जाता है। अत आवश्यक नियुक्ति को उद्धृत करते हुए प्राचार्य जिनभद्रगरणी क्षमाश्रमण ने ठीक ही कहा है
सामाइयम्मि उ कए, समणो इव सावो हवइ जम्हा । एएण कारणेण, बहुसो सामाइय कुज्जा ॥
-विशेषावश्यक-भाष्य, २६६० —सामायिक करने पर श्रावक साधु जैसा हो जाता है, वासनामो से जीवन को बहुत-कुछ अलग कर लेता है, अतएव श्रावक का कर्तव्य है कि वह प्रतिदिन सामायिक ग्रहण करे, समता-भाव का आचरण करे।
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सामायिक के छह आवश्यक
जैन-धर्म की धार्मिक क्रियाओ मे छ आवश्यक मुख्य माने गए है। आवश्यक का अर्थ है-प्रतिदिन अवश्य करने योग्य अात्म-विशुद्धि करने वाले धार्मिक अनुष्ठान । वे छह आवश्यक इस प्रकार है-(१) सामायिक-- समभाव, (२) चतुर्विशतिस्तवचौबीसो भगवान् की स्तुति, (३) वन्दन-गुरुदेव को नमस्कार, (४) प्रतिक्रमण-पापाचार से हटना, (५) कायोत्सर्ग=शरीर का ममत्व त्याग कर ध्यान करना, (६) प्रत्याख्यान-पाप-कार्यो का त्याग करना।
उक्त आवश्यको का पूर्ण रूप से आचरण तो प्रतिक्रमण करते समय किया जाता है। किन्तु, सर्वप्रथम जो यह सामायिक आवश्यक है, इस मे भी साधक को आगे के पाँच आवश्यको की झाँकी मिल जाती है।
_ 'करेमि सामाइय', मे सामायिक आवश्यक का, 'भते' मे चतुविशति स्तव का, 'तस्स भते' मे गुरु-वन्दन का, 'पडिवक मामि', मे प्रतिक्रमण का, 'अप्पारण वोसिरामि' मे कायोत्सर्ग का, 'सावज्ज जोग पच्चक्खामि' मे प्रत्याख्यान आवश्यक का समावेश हो जाता है । अतएव सामायिक करने वाले महानुभाव, जरा गहरे आत्म-निरीक्षण मे उतरे, तो वे सामायिक के द्वारा भी छहो आवश्यको का आचरण करते हुए अपना प्रात्म-कल्याण कर सकते है।
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सामायिक कब करनी चाहिए ?
आजकल सामायिक के काल के सम्बन्ध मे बडी ही अव्यवस्था चल रही है । कोई प्रात काल करता है, तो कोई सायकाल । कोई दुपहर को करता है, तो कोई रात को । मतलब यह है कि मनमानी कल्पना से जो जब चाहता है, तभी कर लेता है, समय की पाबंदी का कोई खयाल नही रक्खा जाता ।
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अपने-आपको क्रान्तिकारी सुधारक कहने वाले तर्क करते है कि "इससे क्या ? यह तो धर्म - क्रिया है, जब जी चाहे, तभी कर लेनी चाहिए | काल के बन्धन मे पडने से क्या लाभ?" मुझे इस कुतर्क पर बडा ही दुख होता है । भगवान् महावीर ने स्थान-स्थान पर काल की नियमितता पर बल दिया है । प्रतिक्रमण - जैसी धार्मिक क्रियाओ के लिए भी समय के कारण प्रायश्चित्त तक का विधान किया है। सूत्रो के स्वाध्याय के लिए क्यो समय का खयाल रखखा जाता है ? धार्मिक क्रियाए तो मनुष्य को और अधिक नियत्रित करती है, अत इनके लिए तो समय का पाबंद होना अतीव आवश्यक है ।
यह ठीक है कि परिपक्व दशा मे पहुँचा हुआ उत्कृष्ट साधक काल से बद्ध नही होता, उसके लिए हर समय ही साधना का काल है । इसीलिए साधु को यावज्जीवन की सामायिक बतलाई है । साधु का हर क्षण सामायिक स्वरूप होता है । ग्रत यहाँ उत्कृष्ट साधक का प्रश्न नही, प्रश्न है - साधारण साधक का । उसके लिए नियमितता आवश्यक है |
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सामायिक प्रवचन
समय की नियमितता का मन पर बडा चमत्कारी प्रभाव होता है । उच्छङ्खल मन को यो ही अव्यवस्थित छोड देने से वह और भी अधिक उच्छ खल हो उठता है। रोगी को औषधि समय पर दी जाती है । अध्ययन के लिए विद्यामन्दिरो मे समय निश्चित होता है । विशिष्ट व्यक्ति अपने भोजन, शयन आदि का समय भी ठीक निश्चित रखते है । अधिक क्या, साधारण व्यसनो तक की नियमितता का भी मन पर बडा प्रभाव होता है । तमाखू आदि दुर्व्यसन करने वाले मनुष्य, नियत समय पर ही दुर्व्यसनो का सकल्प करते है। अफीम खाने वाले व्यक्ति को ठीक नियत समय पर अफीम की याद आ जाती है, और यदि उस समय न मिले, तो उसका चित्त चचल हो जाता है । इसी प्रकार सदाचार के कर्तव्य भी अपने लिए समय के नियम की अपेक्षा रखते हैं । साधक को समय का इतना अभ्यस्त हो जाना चाहिए कि वह नियत समय पर अन्य कार्य छोड कर सर्वप्रथम ग्रावश्यक धर्म - क्रिया करे | यह भी क्या धार्मिक जीवन है कि आज प्रात काल, तो कल दुपहर को परले दिन सायकाल, तो उससे अगले दिन किसी और ही समय । आजकल यह नियमितता बहुत ही बढ रही है । इससे न धर्म के समय धर्म ही होता है और न कर्म के समय कर्म ही ।
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प्रश्न किया जा सकता है कि फिर कौन-से काल का निश्चय करना चाहिए ? उत्तर मे कहना है कि सामायिक के लिए प्रात औौर सायकाल का समय बहुत ही सुन्दर है । प्रकृति के लीला क्षेत्र ससार मे वस्तुत इधर सूर्योदय का और उधर सूर्यास्त का समय, वडा ही सुरम्य एव मनोहर होता है । सभव है नगर की गलियों मे रहने वाले आप लोग दुर्भाग्य से प्रकृति के इस विलक्षण दृश्य के दर्शन से वचित हो, परन्तु यदि कभी आप को नदियो के सुरम्य तटो पर, पहाडो की ऊँची चोटियो पर, या बीहड वनो मे रहने का प्रसंग हुआ हो और वहाँ दोनो सन्ध्याओ के सुन्दर दृश्य आँखो की नजर पडे हो, तो मैं निश्चय से कहता हूँ कि आप उस समय ग्रानन्द-विभोर हुए बिना न रहे होगे । ऐसे प्रसगो पर किसी भी दर्शक का भावुक अन्त कररण उदात्त और गम्भीर विचारो से परिपूर्ण हुए विना नही रह सकता । लेखक
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सामायिक कब करनी चाहिए ?
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उत्कल (उडीसा) मे उदयगिरि पर और मगध मे वैभारगिरि एव विपुलाचल पर ध्यानसाधना मे रहा है, अत वह तत्कालीन प्रभात और सायकाल के सुन्दर एव सुमनोहर दृश्य अब भी भूला नही । जब कभी स्मृति आती है, हृदय आनन्द से गुदगुदाने लगता है । उस समय ध्यान मे मानसिक एकाग्रता वस्तुत बहुत अद्भुत होती थी।
हाँ, तो प्रभात का समय तो ध्यान, चिन्तन आदि के लिए बहुत ही सुन्दर माना गया है । सुनहरा प्रभात, एकान्त, शान्ति और प्रसन्नता आदि की दृष्टि से वस्तुत प्रकृति का श्रेष्ठ रूप है। इस समय हिंसा और क्रूरता नही होती, दूसरे मनुष्यो के साथ सम्पर्क न होने के कारण असत्य एव कटु भाषण का भी अवसर नही आता, चोर चोरी से निवृत्त हो जाते है, कामी पुरुष कामवासना से निवृत्ति पा लेते है। अस्तु, हिंसा, असत्य, स्तेय और अब्रह्मचर्य
आदि के कुरुचि-पूर्ण दृश्यो के न रहने से आस-पास का वायु-मण्डल अशुद्ध विचारो से स्वय ही शुद्ध-प्रदूषित रहता है। इस प्रकार सामायिक की पवित्र क्रिया के लिए वह समय बडा ही पुनीत है। यदि प्रभात काल मे न हो सके, तो सायकाल का समय भी दूसरे समयो की अपेक्षा शान्त माना गया है । * * *
ब्राह्म मुहूर्ते बुध्येत धर्माथौचानुचिंतयेत् ।
-मनु० ४।६२ प्रात काल ब्राह्ममुहूर्त मे जागकर प्रथम धर्म का और तदनन्तर अर्थ का चितन करना चाहिये।
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आसन कैसा?
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उपर्युक्त शीर्षक के नीचे मैं फर्श पर बिछाये जाने वाले आसनो की बात नही कह रहा हूँ। यहाँ आसन से अभिप्राय बैठने के ढग से है। कुछ लोगो का बैठना वडा ही अव्यवस्थित होता है। वे जरासी देर भी स्थिर होकर नही बैठ सकते । अस्थिर आसन मन की दुर्बलता और चचलता का द्योतक है। भला, जो साधक दो घडी के लिए भी अपने शरीर पर नियत्रण नही कर सकता, वह अपने मन पर क्या खाक विजय प्राप्त करेगा?
आसन, योग के आठ अगो मे से तीसरा अग माना गया है। इससे शरीर मे रक्त की शुद्धि होती है, रक्तशुद्धि से स्वास्थ्य ठीक रहता है और स्वास्थ्य ठीक होने से उच्च विचारो को बल मिलता है, मानसिक एकाग्रता बढ़ती है। सिर नीचा झुकाये, पीठ को दुहरी किये, पैरो को फैलाये बैठे रहने वाला मनुष्य कभी भी महान् नहीं बन सकता। दृढ आसन का मन पर बड़ा गहरा प्रभाव पड़ता है। शरीर की कडक मन मे कडक अवश्य लाती है अतएव सामायिक मे सिद्धासन अथवा पद्मासन आदि, किसी एक अपनी स्थिति के अनुकूल सुखद आसन से स्थिर हो कर बैठने का अभ्यास रखना चाहिए । मस्तिष्क का सम्बन्ध पीठ पर की रीढ की हड्डियो से है, अत पीठ के मेरुदण्ड को भी तना हुआ रखना आवश्यक है।
१ यम नियमासनप्राणायामप्रत्याहारघारणाध्यानसमाधयोऽष्टावगानि ।
-पातजलयोगदर्शन २।२६
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प्रासन कैसा?
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आसनो के सम्बन्ध मे विशेष जानकारी के लिए प्राचीन योगशास्त्र आदि ग्रन्थो का अवलोकन करना अधिक अच्छा होगा। यदि पाठक इतनी दूर न जाना चाहे, तो उन्हे लेखक की 'महामंत्रनवकार' नामक पुस्तक से भी थोडा-सा आवश्यक परिचय मिल सकेगा। यहाँ तो केवल दो-तीन सुप्रसिद्ध आसनो का उल्लेख ही पर्याप्त रहेगा।
१ सिद्धासन-बाएं पैर की एडी से जननेन्द्रिय और गुदा के वीच का स्थान को दबा कर दाहिने पैर की एडी से जननेन्द्रिय के ऊपर के प्रदेश को दबाना, ठुड्डी को हृदय मे जमाना, और देह को सीधा तना हुआ रख कर दोनो भौंहो के बीच मे दृष्टि को केन्द्रित करना, सिद्धासन है।
२ पद्मासन-बायी जाघ पर दाहिना पैर और दाहिनी जाघ पर बायां पैर रखना, फिर दोनो हाथो को लम्बा करके दोनो घुटनो पर ज्ञानमुद्रा आदि के रूप मे चित रखना अथवा दोनो हाथो की हथेलियो को नाभि के नीचे ध्यान मुद्रा मे रखना, पद्मासन है। हथेली पर हथेली रखते समय बाए हाथ की हथेली के ऊपर दाहिने हाथ की हथेली रखने का ध्यान रहना चाहिए।
३ पर्य कासन-दाहिना पैर बायी जाघ के नीचे और बाया पैर दाहिनी जाघ के नीचे दबा कर बैठना, पर्यकासन है । पयंकासन का दूसरा नाम सुखासन भी है। सर्वसाधारण इसे पालथी-पालथी भी कहते है। * * *
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पूर्व और उत्तर दिशा ही क्यों ?
सामायिक करने वाले को अपना मुख पूर्व अथवा उत्तर दिशा की ओर रखना श्रेष्ठ माना गया है । श्री जिनभद्रगरणी क्षमाश्रमरण लिखते हैं
२०
पुव्वाभिमुहो उत्तरमुहो व दिज्जाsहवा पडिच्छेज्जा ।
- विशेषावश्यक - भाष्य ३४०६
शास्त्रस्वाध्याय, प्रतिक्रमण, और दीक्षा दान आदि धर्मक्रियाए पूर्व और उत्तर दिशा की ओर करने का विधान है । स्थानाग-सूत्र मे भगवान् महावीर ने भी इन्ही दो दिशाओ का महत्व वर्णन किया है। ग्रत सामायिक करते समय सामने यदि गुरुदेव विद्यमान हो तो उनके सन्मुख बैठते हुए अन्य किसी दिशा में भी मुख किया जा सकता है परन्तु अन्य स्थान पर तो पूर्व और उत्तर की ओर मुख रखना ही उचित है ।
जव कभी पूर्व और उत्तर दिशा का विचार चल पडता है, तो प्रश्न किया जाता है कि पूर्व और उत्तर दिशा मे ही ऐसा क्या महत्त्व है, जो कि ग्रन्य दिशाओ को छोड कर इनकी ओर ही मुख किया जाए ? उत्तर मे कहना है कि इस मे शास्त्रपरम्परा ही सब से बडा प्रमाण है। अभी तक आचार्यो ने इस के वैज्ञानिक महत्व पर कोई विस्तृत प्रकाश नही डाला है । हा, अभी-अभी वैदिक विद्वान् सातवलेकर जी ने इस सम्बन्ध मे कुछ लिखा है और वह काफी विचारणीय है ।
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पूर्व और उत्तर दिशा ही क्यो ?
१
पूर्वदिशा प्रगति की प्रतीक
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धातु का । 'प्र'
प्राची दिशा -आगे बढना, उन्नति करना, जाना - यह प्राञ्च- 'प्र' पूर्वक 'अञ्चु ' जिससे पूर्वदिशावाचक प्राची शब्द बना है आधिक्य, आगे, सम्मुख है । 'अञ्चु ' का अर्थ गति और पूजन है । अर्थात् जाना, बढना, प्रगति करना, चलना, सत्कार और पूजा करना है । इस प्रकार प्राची शब्द का अर्थ हुआ आगे बढना, उन्नति करना, प्रगति करना, अभ्युदय को प्राप्त करना, ऊपर चढना आदि ।
अग्रभाग मे हो मूल अर्थ है, का अर्थ प्रकर्ष,
पूर्व दिशा का यह गौरवमय वैभव प्रात काल अथवा रात्रि के समय अच्छी तरह ध्यान मे आ सकता है । प्रात काल पूर्व दिशा की ओर मुख कीजिए, आप देखेंगे कि अनेकानेक चमकते हुए तारा मण्डल पूर्व की ओर से उदय होकर अनन्त आकाश की ओर चढ रहे है, अपना सौम्य और शीतल प्रकाश फैला रहे है । कितना प्रभुत दृश्य होता है वह । सर्वप्रथम रात्रि के सघन अन्धकार को चीर कर अरुण प्रभा का उदय भी पूर्व दिशा से होता है । वह अरुणिमा कितनी मनोमोहक होती है । सहस्ररश्मि सूर्य का अमित आलोक भी इसी पूर्व दिशा की देन है । तमोगुणस्वरूप अन्धकार का नाश करके सत्त्वगुण प्रधान प्रकाश जब चारो ओर अपनी उज्ज्वल किरणे फैला देता है, तो सरोवरो मे कमल खिल उठते है, वृक्षो पर पक्षी चहचहाने लगते है, सुप्त ससार अँगडाई लेकर खडा हो जाता है, प्रकृति के अरण अरण मे नवजीवन का सचार हो जाता है ।
हाँ, तो पूर्व दिशा हमे उदय-मार्ग की सूचना देती है, अपनी तेजस्विता बढाने का उपदेश करती है । एक समय का प्रस्त हुआ सूर्य पुन अभ्युदय को प्राप्त होता है, और अपने दिव्य तेज से ससार को जगमगा देता है । एक समय का क्षीण हुआ चन्द्रमा पुन पूर्णिमा के दिन पूर्ण मण्डल के साथ उदय होकर ससार को दुग्ध-धवल चाँदनी से नहला देता है । इसी प्रकार अनेकानेक तारक अस्तगत होकर भी पुन अपने सामर्थ्य से उदय हो जाते है, तो क्या मनुष्य अपने सुप्त अन्तस्तेज को नही
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सामायिक प्रवचन
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जगा सकता क्या कभी किसी कारण से सुप्त एव अवनत हुए अपने जीवन को जागृत एव उन्नत नही कर सकता ? अवश्य कर सकता है । मनुष्य महान् है, वह जीता जागता चलता-फिरता ईश्वर है । उसकी अलौकिक शक्तियाँ सोई पडी है । जिस दिन वे जागृत होगी, जीवन मे सब ओर मगल ही मंगल नजर आएगा। पूर्व दिशा हमे सकेत करती है कि मनुष्य अपने पुरुषार्थ के बल पर, अपनी इच्छा के अनुसार, अभ्युदय प्राप्त कर सकता है । वह सदा पतित और हीन दशा मे रहने के लिए नही है, प्रत्युत पतन से उत्थान की ओर अग्रसर होना, उसका जन्म सिद्ध अधिकार है ।
२
उत्तर दिशा : उच्चता व दृढता का श्रात्म बोध
*
उत्तर दिशा - उत् अर्थात् उच्चता से तर- अधिक जो भाव होता है, वह उत्तर दिशा से ध्वनित होता है, तो उत्तर का अर्थ हुआ - ऊँची गति, ऊँचा जीवन, ऊँचा आदर्श पाने का संकेत । शरीर शास्त्र की दृष्टि से मनुष्य का हृदय भी वॉर्ड बगल की ओर है,
त वह उत्तर है । मानव शरीर मे हृदय का स्थान वहुत ऊँचा माना गया है । वह एक प्रकार से आत्मा का केन्द्र ही है । जिसका हृदय जैसा ऊँच-नीच अथवा शुद्ध-अशुद्ध होता है, वह वैसा ही वन जाता है । मनुष्य के पास जो भक्ति, श्रद्धा, विश्वास और पवित्र भावना का भाग है, वह लौकिक दृष्टि से भी उत्तर दिशा मे - हृदय में ही है । इसी ग्राशय से सभवत यजुर्वेद के मत्र द्रष्टा ने कहा है- इदमुत्तरात् स्व । - यजुर्वेद १३।५७
उत्तर दिशा में स्वर्ग है अर्थात् हृदय की उत्तर अर्थात उत्तम विचार दृष्टि में ही स्वर्ग है । अस्तु, उत्तर दिशा हमे सकेत करती है कि हम हृदय को विशाल, उदार, उच्च एव पवित्र बनाएँ ।
उत्तर दिशा का दूसरा नाम ध्रुव दिशा भी है। प्रसिद्ध ध्रुव नक्षय, जो अपने केन्द्र पर ही रहता है, इधर-उधर नही होता,
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पूर्व और उत्तर दिशा ही क्यो ?
पूर्वाचार्यों चुम्बक को अप कोई विशेष शातएव मानना
उत्तर दिश मे है । अत पूर्व दिशा जहाँ प्रगति की, हल-चल की सन्देशवाहिका है, वहाँ उत्तर दिशा स्थिरता, दृढता, निश्चयात्मकता एव अचल आदर्श की प्रतीक है। जीवन-सग्राम मे गति के साथ स्थिरता, हलचल के साथ शान्ति और स्वस्थता अत्यन्त अपेक्षित है। केवल गति और केवल स्थिरता जीवन को पूर्ण नही बनाती, किन्तु दोनो का मेल ही जीवन को ऊँचा उठाता है । प्रगति और दृढता के विना कोई भी मनुष्य किसी भी प्रकार की उन्नति नही प्राप्त कर सकता।
___उत्तर दिशा की चमत्कारिक शक्ति के सम्बन्ध मे एक प्रत्यक्ष प्रमाण भी है। ध्रुव-यन्त्र यानी कुतुबनुमा मे जो लोह-चुम्बक की सुई होती है, वह हमेशा उत्तर की ओर रहती है । लोह चुम्बक की सुई जड पदार्थ है, अत उसे स्वय तो उत्तर, दक्षिण का कोई परिज्ञान नही, जो उधर घूम जाए। अतएव मानना होगा कि उत्तर दिशा मे ही ऐसी कोई विशेष शक्ति व आर्कषण है, जो, सदैव लोह-चुम्बक को अपनी ओर आकृष्ट किये रहती है। हमारे पूर्वाचार्यों के मन मे कही यह तो नही था कि यह शक्ति मनुष्य पर भी अपना कुछ प्रभाव डालती है ?
भौतिक दृष्टि से भी दक्षिण दिशा की ओर शक्ति की क्षीणता तथा उत्तर दिशा की ओर शक्ति की अधिकता प्रतीत होती है। दक्षिण देश के लोग कुछ दुर्बल एव कृष्ण वर्ण होते है। उत्तर दिशा के बलवान एव गौरवर्ण होते है। इस पर से अनुमान किया जा सकता है कि अवश्य ही मनुष्यो के खान-पान, चाल-चलन, रहनसहन एव सबलता-निर्बलता आदि पर दक्षिण और उत्तर दिशा का कोई विशेष प्रभाव पड़ता है। आज भी पुराने विचारो के भारतीय दक्षिण और पश्चिम को पैर करके सोना पसद नहीं करते ।
जैन सस्कृति ही नही, वैदिक-सस्कृति में भी पूर्व और उत्तर दिशा का ही गौरव गान किया गया है । दक्षिण यम की दिशा मानी है और पश्चिम वरुण की। ये दोनो देव क्रूर प्रकृति के माने गये है । शतपथ ब्राह्मण मे पूर्व देवतायो की, और उत्तर मनुष्यो की दिशा कथन की गई है
भौतिक दृष्टि से भारी शक्ति की अधिकार है। उत्तर ।
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सामायिक-प्रवचन
"प्राची हि देवाना दिक योदीची दिक् सा मनुष्याणाम्',
-शतपथ, दिशा वर्णन किं बहुना, विद्वानो को इस सम्बन्ध में और भी अधिक ऊहापोह करने की आवश्यकता है। मैंने तो यहाँ केवल दिशासूचन के लिए ही ये कुछ पक्तियाँ लिख छोडी है। ,, ,*
वकच्चितदयेदर्थान् सिंहवच्च पराक्रमेत् ।
-मनुस्मृति ७।१०५ अपने लक्ष्य की प्राप्ति करने हेतु साधक को वगुले की तरह एकाग्र होकर विचार करना चाहिए और सिंह की भाति साहस पूर्वक पराक्रम करना चाहिए।
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प्राकृत भाषा में ही क्यों ?
सामायिक के पाठ भारत की बहुत प्राचीन प्राकृत भाषा अर्द्ध मागधी में हैं । इस सम्बन्ध मे आजकल तर्क किया जा रहा है कि हमे तो भावो से मतलब है, शब्दो के पीछे बँधे रहने से क्या लाभ ? मागधी के गूढ पाठो को तोते की तरह पढते रहने से हमे कुछ भी भाव पल्ले नही पडते । अत अपनी अपनी गुजराती, मराठी, हिन्दी आदि लोकभाषाओ मे पाठो को पढना ही लाभ-प्रद है।
महापुरुषो की वारणी
प्रश्न बहुत सुन्दर है, किन्तु अधिक गम्भीर विचारणा के समक्ष फीका पड़ जाता है । महापुरुषो की वाणी मे और जन-साधारण की वाणी मे बडा अन्तर होता है । महापुरुषो की वाणी के पीछे उनके प्रौढ, सदाचारमय जीवन के गम्भीर अनुभव रहते है, जब कि जनसाधारण की वाणी जीवन के बहुत ऊपर के स्थूल स्तर से ही सम्बन्ध रखती है । यही कारण है कि महापुरुषो के सीधे-सादे साधारण शब्द भी हृदय मे असर कर जाते है, जीवन की धारा बदल देते है, भयकर-से भयकर पापी को भी धर्मात्मा और सदाचारी बना देते हैं, जब कि साधारण मनुष्यो की अलकारमयी लच्छेदार वाणी भी कुछ असर नही कर पाती । क्या कारण है, जो महान् आत्मानो की वाणी हजारो-लाखो वर्षों के पुराने युग से आज तक बराबर जीवित चली आरही है, और आजकल के लोगो
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सामायिक-प्रवचन
की वाणी उनके समक्ष ही मृत हो जाती है ? हाँ, तो इसमे सन्देह नहीं कि महापुरुषो के वचनो मे कुछ विलक्षण प्रामाण्य, पवित्रता एव प्रभाव रहता है, जिसके कारण हजारो वर्षों तक लोग उसे बडी श्रद्धा और भक्ति से मानते रहते है, प्रत्येक अक्षर को बड़े अादर और प्रेम की दृष्टि से देखते है । महापुरुषो के अन्दर जो दिव्य दृष्टि होती है, वह साधारण लोगो मे नही होती । और यह दिव्य दृष्टि ही प्राचीन पाठो मे गम्भीर अर्थ और विशाल पवित्रता की झांकी दिखलाती है।
अनुवाद, केवल छायाचित्र
महापुरुपो के वाक्य बहुत नपे-तुले होते है । वे ऊपर से देखने मे अल्पकाय मालूम होते है, परन्तु उनके भावो की गम्भीरता अपरम्पार होती है । प्राकृत और सस्कृत भाषायो मे सूक्ष्म-से-सूक्ष्म अान्तरिक भावो को प्रकट करने की जो शक्ति है, वह प्रान्तीय भाषाओ मे नही आ सकती । प्राकृत मे एक शब्द के अनेक अर्थ होते है, और वे सव-के-सब यथा-प्रसग बडे ही सुन्दर भावो का प्रकाश फैलाते है। हिन्दी आदि भाषामो मे यह खूबी नही है । मैं साधारण आदमियो की बात नहीं कहता, बड़े-बड़े विद्वानो का कहना है कि प्राचीन मूल ग्रन्थो का पूर्ण अनुवाद होना अशक्य है। मूल के भावो को आज की भाषाएँ अच्छी तरह छू भी नहीं सकती । जब हम मूल को अनुवाद मे उतारना चाहते है, तो हमे ऐसा लगता है, मानो ठाठे मारते हुए महासागर को एक क्ष द्र गगरी मे बन्द कर रहे है, जो सर्वथा असम्भव है । चन्द्र, सूर्य, और हिमालय के चित्र लिए जा रहे है, परन्तु वे चित्र मूल वस्तु का साक्षात् प्रतिनिधित्व नहीं कर सकते । चित्र का सूर्य कभी प्रकाश नहीं दे सकता । इसी प्रकार अनुवाद केवल मूल का छाया-चित्र है। उस पर से आप मूल के भावो की अस्पष्ट झाँकी अवश्य ले सकते है, परन्तु सत्य के पूर्ण दर्शन नही कर सकते । बल्कि अनुवाद में आकर मूल का भाव कभी-कभी असत्य से मिश्रित भी हो जाता है। व्यक्ति अपूर्ण है, अत वह अनुवाद मे अपनी भूल की पुट कही-न-कही दे हो देता है, अतएव अाज के धुरधर विद्वान् टीकानो पर विश्वस्त नहीं होते, वे मूल
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प्राकृत भाषा मे ही क्यो ?
का अवलोकन करने के बाद ही अपना विचार स्थिर करते है । अतएव प्राकृत पाठो की जो बहुत पुरानी परपरा चली आ रही है, वह पूर्णत उचित है। उसे बदल कर हम कल्याण की ओर नही जाएंगे, प्रत्युत सत्य से भटक जाएंगे। .
प्राकृत एकता की प्रतीक
को मोह लेहा संस्कृति के नन्दराज जी सुसा था। मैंने पूछा
व्यवहारदृष्टि से भी प्राकृत-पाठ ही औचित्य पूर्ण हैं। हमारी धर्म-क्रियाएँ मानव-समाज की एकता की प्रतीक है। साधक किसी भी जाति के हो, किसी भी प्रात के हो, किसी भी राष्ट्र के हो, जब वे एक ही स्थान मे, एक ही वेश-भूषा मे, एक ही पद्धति मे, एक ही भाषा मे धार्मिक पाठ पढते हैं, तो ऐसा मालूम होता है, जैसे सब भाई-भाई हो, एक ही परिवार के सदस्य हो । क्या कभी आपने मुसलमान भाइयो को ईद की नमाज पढ़ते देखा है ? हजारो मस्तक एक साथ भूमि पर झुकते और उठते हुए कितने सुन्दर मालूम होते हैं ? कितनी गभीर नियमितता । हृदय को मोह लेती है। एक ही अरबी भाषा का उच्चारण किस प्रकार उन्हे एक ही सस्कृति के सूत्र मे बाधे हुए है ? लेखक के पास एक बार देहली मे श्री आनन्दराज जी सुराना एक जापानी व्यापारी को लाए, जो अपने आपको बौद्ध कहता था। मैंने पूछा कि "धार्मिक पाठ के रूप मे आप क्या पाठ पढा करते हो ?"-तो उसने सहसा पाली भाषा के कुछ पाठ अपनी अस्फुट-सी ध्वनि मे उच्चारण किए। मैं आनन्द-विभोर हो गया-अहा | पाली के मूल पाठो ने किस प्रकार भारत, चीन, जापान आदि सुदूर देशो को भी एक भ्रातृत्व के सूत्र मे बाँध रक्खा है। अस्तु, सामायिक के मूल पाठो का भी मैं यही स्थान देखना चाहता हू । गुजराती, बगाली, हिन्दी और अग्रजी आदि की अलग-अलग खिचडी मुझे कतई पसन्द नही। यह विभिन्न भाषायो का मार्ग हमारी प्राचीन सास्कृतिक एकता के लिए कुठाराघात सिद्ध होगा।
नावश्यक
अव रही भाव समझने की बात | उसके सम्बन्ध मे यह आवश्यक है कि टीका-टिप्पणियो के आधार से थोडा-बहुत मूल
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'ह
सामायिक प्रवचन
भाषा से परिचय प्राप्त करके अर्थों को समझने का प्रयत्न किया जाए। बिना भाव समझे हुए मूल का वास्तविक आनन्द प्राप नही उठा सकते। आचार्य याज्ञवल्क्य कहते है कि "बिना अर्थ समझे हुए शास्त्रपाठी की ठीक वही दशा होती है, जो दलदल मे फसी हुई गाय की होती है । वह न बाहर आने लायक रहती है और न अन्दर जल तक पहुँचने के योग्य ही । उभयतोभ्रष्टदशा मे ही अपना जीवन समाप्त कर देती है ।"
आजकल अर्थ की ओर ध्यान न देने की हमारी अज्ञानता बडा ही भयंकर रूप पकड गयी है । न शुद्ध का पता न, अशुद्ध का । एक रेलगाडी की तरह पाठो के उच्चारण किये जाते है, जो तटस्थ विद्वान् श्रोता को हमारी मूर्खता का परिचय कराये बिना नही रहते । अर्थ को न समझने से बहुत कुछ भ्रान्तिया भी फैली रहती है । हँसी की बात है कि - " एक बाई ' करेमि भते' का पाठ पढते हुए 'जाव' के स्थान मे 'आव' कहती थी। पूछने पर उसने तर्क के साथ कहा कि सामायिक को तो बुलाना है, अत उसे 'जाव' क्यो कहे ? 'आव' कहना चाहिए ।"
इस प्रकार के एक नही, अनेक उदाहरण आपको मिल सकते है । साधको का कर्तव्य है कि दुनियादारी की भझटो से अवकाश निकाल कर अवश्य ही अर्थ जानने वा प्रयत्न करे 1 कुछ अधिक पाठ नही है । थोड़े से पाठो को समझ लेना आपके लिए आसान ही होगा, मुश्किल नही । लेखक ने प्रस्तुत पुस्तक मे इसीलिए यह प्रयत्न किया है, आशा है इससे कुछ लाभ उठाया जाएगा
!
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२२ ॥
दो घड़ी ही क्यों ?
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सामायिक का कितना काल है ? यह प्रश्न आजकल काफी चर्चा का विषय बना हुआ है। आज का मनुष्य सासारिक झझटो के नीचे अपने-आपको इतना फंसाये जा रहा है कि वह अपनी आत्म-कल्याणकारिणी धार्मिक क्रियाओ को करने के लिए भी अवकाश नही निकालना चाहता। यदि चाहता भी है, तो इतना चाहता है कि जल्दी से जल्दी कर-कराके छटकारा मिले और बस घर के काम-धन्धे मे लगे। इसी मनोवृत्ति के प्रतिनिधि कितने ही सज्जन कहते है कि “सामायिक स्वीकार करने का पाठ 'करेमि भते' है। उसमें केवल 'जाव नियम' पाठ है, अर्थात् जब तक नियम है, तब तक सामायिक है । यहा काल के सम्बन्ध मे कोई निश्चित धारणा नही बताई गई है। अत साधक की इच्छा पर है कि वह जितनी देर ठीक समझे, उतनी देर सामायिक करे। दो घड़ी का ही बन्धन क्यो ?"
कालमर्यादा व्यवस्था के लिए
इस चर्चा के उत्तर मे निवेदन है कि हा, पागम-साहित्य मे सामायिक के लिए निश्चित काल का उल्लेख नही है। सामायिक के पाठ मे भी कालमर्यादा के लिए 'जाव नियम' ही पाठ है, 'पुहुत्त' आदि नही । परन्तु, सर्वसाधारण जनता को नियमबद्ध करने के लिए प्राचीन प्राचार्यों ने दो घड़ी को मर्यादा
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सामायिक-प्रवचन
बाँध दी है । यदि मर्यादा न बाँधी जाती, तो बहुत अव्यवस्था हो जाती । कोई दो घडी सामायिक करता, तो कोई घडी भर ही। कोई आध घडी मे ही छमतर करके निपट लेता, तो कोई-कोई दश-पाच मिनटो मे ही वेडा पार कर लेता। यदि प्राचीन काल से सामायिक की काल-मर्यादा निश्चित न होती तो आज के श्रद्धा-हीन युग मे न मालूम सामायिक की क्या दुर्गति होती ? किस प्रकार उसे मजाक की चीज बना लिया जाता?
मनोवैज्ञानिक दृष्टि
मनोविज्ञान की दृष्टि से भी काल-मर्यादा आवश्यक है। धार्मिक क्या, किसी भी प्रकार की ड्यूटी, यदि निश्चित समय के साथ न बधी हो, तो मनुष्य मे शैथिल्य आ जाता है, कर्तव्य के प्रति उपेक्षा का भाव होने लगता है, फलत धीरे-धीरे अल्पसे अल्प काल की ओर सरकता हुआ मनुष्य अन्त मे केवल अभाव पर पा खडा होता है । अत प्राचार्यों ने सामायिक का काल दो घडी ठीक ही निश्चित किया है । प्राचार्य हेमचन्द्र भी सामायिक के लिए मुहूर्त-भर काल का स्पष्ट उल्लेख करते हैं
त्यक्तार्त-रौद्रध्यानस्य, त्यक्तसावद्यकर्मण । मुहूर्त समता या ता, विदु सामायिकव्रतम् ।।
-योगशास्त्र, तृतीय प्रकाश श्लोक ८२
सामायिक प्रत्याख्यान है
मूल आगम-साहित्य मे प्रत्येक धार्मिक क्रिया के लिए कालमर्यादा का विधान है। मुनिचर्या के लिए यावज्जीवन, पौषधव्रत के लिए दिन-रात और व्रत आदि के लिए चतुर्थभक्त आदि का उल्लेख है। सामायिक भी प्रत्याख्यान है, अत प्रश्न होता है कि पापो का परित्याग कितनी देर के लिए किया है ? छोटे-सेछोटा और बड़े-से बडा प्रत्येक प्रत्याख्यान काल-मर्यादा से बँधा हुआ होता है। शास्त्रीयदृष्टि से श्रावक का पचम गुण
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दो घडी ही क्यो?
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स्थान है, अत वहाँ अप्रत्याख्यान क्रिया नही हो सकती। अप्रत्याख्यानक्रिया चतुर्थ गुणस्थान तक ही है। अत सामायिक मे भी प्रत्याख्यान की दृष्टि से काल-मर्यादा का निश्चय रखना आवश्यक है।
दश प्रत्याख्यानो मे नमस्कारसहित अर्थात् नवकारसी का प्रत्याख्यान किया जाता है । आगम मे नवकारसी के काल का पौरुषी आदि के समान किसी भी प्रकार का उल्लेख नही है। केवल इतना कहा गया है कि "जब तक प्रत्याख्यान पारने के लिए नमस्कारनवकार मन्त्र न पढूं, तब तक अन्न-जल का त्याग करता हूँ।" परन्तु आप देखते है कि नवकारसी के लिए पूर्व परम्परा से मुहूर्तभर का काल माना जा रहा है। मुहूर्त से अल्पकाल के लिए नवकारसी का प्रत्याख्यान नही किया जाता। इसी प्रकार सामायिक के लिए भी समझिए।
"इह सावधयोगप्रत्यास्यानरूपस्य सामायिकस्य मुहूर्तमानता सिद्धान्तेऽनुक्ताऽपि ज्ञातव्या, प्रत्याख्यानकालम्य जघन्यतोऽपि मुहूर्तमाग्रत्वान्नमस्कारसहितप्रत्याख्यानवदिति ।"
-जिनलाभ सूरि, प्रात्म-प्रबोध, द्वितीय प्रकाश
ध्यान को दृष्टि
मुहूर्त-भर का काल ही क्यो निश्चित किया गया ? एक घडी या आध घडी अथवा तीन या चार घडी भी कर सकते थे ? यह प्रश्न मुन्दर है, विचारणीय है । इसके उत्तर के लिए हमे आगमो की शरण मे जाना पडेगा । यह आगमिक नियम है कि साधारण साधक का एक विचार, एक सकल्प, एक भाव, एक ध्यान अधिक-से-अधिक अन्तर्मुहूर्त-भर ही चालू रह सकता है । अन्तर्मुहूर्त के बाद अवश्य ही विचारो मे परिवर्तन आ जाता है। इस सम्बन्ध मे भद्रवाह स्वामी ने कहा है"अतोमुहुत्तकाल चित्तस्सेगग्गया हवइ भाण"
--आवश्यकनियुक्ति १४५८
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सामायिक-प्रवचन
हॉ, तो शुभ सकल्पो को लेकर सामायिक का ग्रहण किया हुआ नियम अन्तर्मुहूर्त तक ही समान गति से चालू रह सकता है । पश्चात् कुछ-न-कुछ परिवर्तन, ऊँचा या नीचा आ ही जाता है। अत विचारो की एकधारा की दृष्टि से सामायिक के लिए मुहूर्त कहते हैं और मुहूर्त मे से एक समय एव एक क्षण भी कम हो, तो अन्तर्मुहूर्त माना जाता है।
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वैदिक सन्ध्या और सामायिक
प्रत्येक धर्म के आचार व्यवहार मे प्रतिदिन कुछ-न-कुछ पूजा-पाठ, जप-तप, प्रभु- नाम-स्मरण आदि धार्मिक क्रियाएँ की जाती है । मानव-जीवन सम्बन्धी प्रतिदिन की प्राध्यात्मिक भूख की शान्ति के लिए, एव मन की प्रसन्नता के हेतु प्रत्येक पन्थ या मत ने कोई-नकोई योजना, मनुष्य के सामने अवश्य रक्खी है ।
२३
जैन-धर्म के पुराने पडोसी वैदिक धर्म मे भी सन्ध्या नाम से एक धार्मिक अनुष्ठान का विधान है, जो प्रात और सायकाल दोनो समय किया जाता है । वैदिक टीकाकारो ने सन्ध्या का अर्थ इस प्रकार किया है - स - उत्तम प्रकार से ध्यै -- ध्यान करना । अर्थात् अपने इष्टदेव का पूर्ण भक्ति और श्रद्धा के साथ ध्यान करना, चिन्तन करना । सन्ध्या शब्द का दूसरा अर्थ है -- मिलन, सयोग, सम्बन्ध | उक्त दूसरे अर्थ का तात्पर्य है - उपासना के समय परमेश्वर के साथ उपासक का सबन्ध यानी मिलना । सन्ध्या का एक तीसरा अर्थ भी है, वह यह कि प्रात काल और सायकाल दोनो सन्ध्याकाल है । रात्रि और दिन की सन्धि प्रात काल है, और दिन एव रात्रि की सन्धि सायकाल है । अत सन्ध्या मे किया जानेवाला कर्म भी 'सन्ध्या' शब्द से व्यवहृत होता है।
वैदिक धर्म की इस समय दो शाखाएं सर्वत प्रसिद्ध हैंसनातन धर्म और आर्यसमाज | सनातनी पुरानी मान्यताओ के . पक्षपाती हैं, जब कि आर्यसमाजी नवीन धारा के अनुयायी । वेदो
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सामायिक-प्रवचन
का प्रामाण्य दोनो को ही समानरूप से मान्य है, अत दोनो ही वैदिक शाखाएँ है। सर्व-प्रथम सनातन धर्म की सन्ध्या का वर्णन किया जाता है।
संध्या :स्वरूप और विधि
सनातनधर्म की सन्ध्या केवल प्रार्थनायो एव स्तुतियो से भरी हुई है । विष्ण -मत्र के द्वारा शरीर पर जल छिडक कर शरीर को पवित्र बनाया जाता है, पृथ्वी माता की स्तुति के मत्र से जल छिड़क कर आसन को पवित्र किया जाता है। इसके पश्चात् सृष्टि के उत्पत्ति-क्रम पर चिंतन होता है। फिर प्राणायाम का चक्र चलता है । अग्नि, वायु, आदित्य, बृहस्पति, वरुण, इन्द्र और विश्व देवतायो की वडी महिमा गाई जाती है। सप्त व्याहृति इन्ही देवो के लिए होती है। जल का महत्त्वपूर्ण स्थान है। वैदिक ऋषि बडी ही भावकता के साथ जल की स्तुति करता है-"हेजल | पाप जीवमात्र के मध्य मे से विचरते हो। इस ब्रह्माण्डरूपी गुहा मे सब ओर आपकी गति है । तुम्ही यज्ञ. हो, वषट्कार हो, अप हो, ज्योति हो, रस हो, और अमृत भी तुम्ही हो
ॐअन्तश्चरसि भूतेषु, गुहायां विश्वतोमुख ।
त्व यज्ञस्त्व वषट्कार, आपो ज्योतीरसोऽमृतम् ॥ सूर्य को तीन बार जल का अर्घ्य दिया जाता है । जिसका आशय है कि प्रथम अर्घ्य से राक्षसो की सवारी का. दूसरी से राक्षसो के शस्त्रो का, और तीसरे से राक्षसो का नाश होता है । इस के बाद गायत्री मत्र पढा जाता है, जिसमे सविता-सूर्य देवता से अपनी बुद्धि की प्रस्फूर्ति के लिए प्रार्थना है । अधिक क्या, इसी प्रकार स्तुतियो, प्रार्थनाओ एव जल छिडकने आदि की एक लवी परपरा है, जो केवल जीवन के बाह्याचार से ही सम्बन्ध रखती है। अन्तर्जगत् की भावनाओ को स्पर्श करने का और पापमल से प्रात्मा को पवित्र बनाने का कोई सकल्प व उपक्रम नही देखा जाता।
हाँ, एक मत्र अवश्य ऐसा है, जिसमे इस ओर कुछ थोडा बहुत लक्ष्य दिया गया है। वह यह है--
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वैदिक सन्ध्या और सामायिक
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"प्रोम् सूर्यश्च मा मन्युश्च मन्युपतयश्च मन्युकृतेम्य. पापेभ्यो रक्षन्ताम् । यद् अह्ना यद् रात्र्या पापमकार्ष मनसा वाचा हस्ताभ्यां पद्भ्यामुदरेण शिश्ना रात्रिस्तदवलुम्पतु, यत् किञ्चिद् दुरितं मयि इवमहमापोऽमृतयोनी सूर्ये ज्योतिषि जुहोमि स्वाहा ।"
--सूर्य नारायण, यक्षपति और देवताओ से मेरी प्रार्थना है कि यक्ष-विषयक तथा क्रोध से किये हुए पापो से मेरी रक्षा करें। दिन या रात्रि मे मन, वाणी, हाथ, पैर, उदर और शिश्न से जो पाप हुए हो, उन पापो को मैं अमृतयोनि सूर्य मे होम करता हूँ। इसलिए वह उन पापो को नष्ट करे।
प्रार्थना : पलायन नहीं, प्रक्षालन है
प्रार्थना करना बुरा नही है। अपने इष्टदेव के चरणो मे अपने-आप को समर्पण करना और अपने अपराधो के प्रति क्षमायाचना करना, मानव-हृदय की श्रद्धा और भावुकता से भरी हुई कल्पना है । परन्तु, सब-कुछ देवतानो पर ही छोड बैठना, अपने ऊपर कुछ भी उत्तरदायित्व न रखना, अपने जीवन के अभ्युदय एव निश्रेयस् के लिए खुद कुछ न करके दिन-रात देवताओ के आगे नत-मस्तक होकर गिडगिडाते ही रहना, उत्थान का मार्ग नही है। इस प्रकार मानव-हृदय दुर्बल, साहस-हीन एव कर्तव्य के प्रति पराड मुख हो जाता है । अपनी ओर से जो दोष, पाप अथवा दुराचार
आदि हुए हो, उन के लिए केवल क्षमा-प्रार्थना कर लेना और दड से बचे रहने के लिए गिडगिडा लेना, मानव-जाति के लिए बडी ही घातक विचारधारा है । सिद्धान्त की बात तो यह है कि सर्वप्रथम मनुष्य कोई अपराध ही न करे। और, यदि कभी कुछ अपराध हो जाय, तो उसके परिणाम को भोगने के लिए सहर्ष प्रस्तुत रहे। यह क्या बात है कि बढ-बढ कर पाप करना और दड भोगने के समय देवताग्रो से क्षमा की प्रार्थना करना, दड से बच कर भाग जाना । यह भीरुता है, वीरता नही । और, भीरुता कभी भी धर्म नही हो सकती। प्रार्थना का उद्देश्य पाप से पलायन करना नही, किन्तु अतीत के पाप का प्रक्षालन करना और भविष्य मे उसका परिवर्जन करना है । क्षमा प्रार्थना के साथ-साथ यदि अपने
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सामायिक प्रवचन
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जीवन को अहिंसा, सत्य आदि की मधुर भावनाओं से भरे, हृदय मे आध्यात्मिक बल का सचार करे, तो वह प्रार्थना व उपासना वस्तुत सही हो सकती है । जैन धर्म की सामायिक मे किसी लम्बीचौड़ी प्रार्थना के बिना ही, जीवन को स्वय अपने हाथो पवित्र बनाने का सुन्दर विधान प्रापके समक्ष है, जरा तुलना कीजिए ।
श्रार्यसमाजी प्रार्थना
अब रहा श्रार्यसमाज । उसकी सन्ध्या भी प्राय सनातनधर्म के अनुसार ही है । वही जल की साक्षी, वही ग्रघमर्षण मे सृष्टि का उत्पत्ति - क्रम, वही प्राणायाम, वह स्तुति, वही प्रार्थना । हाँ, इतना अन्तर अवश्य हो गया है कि यहा पुराने वैदिक देवताओ के स्थान मे सर्वत्र ईश्वर-परमात्मा विराजमान हो गया है । एक विशेषता मार्जन मन्त्रो की है । किन्तु मन्त्र पढकर शिर, नेत्र, कण्ठ, हृदय, नाभि, पैर आदि को पवित्र करने मे क्या गुप्त रहस्य है, करने वाले ही बता सकते है । इन्द्रियो की शुद्धि तो सदाचार के ग्रहण और दुराचार के त्याग मे है, जिसके लिए इस सध्या मे भी कोई खाम सकल्प एव प्रवृत्ति दृष्टि गोचर नही होती ।
मनसा परिक्रमा का प्रकरण सन्ध्या मे क्यो रक्खा है ? यह बहुत कुछ विचार करने के बाद भी समझ मे नही आता । मनसा परिक्रमा में एक मन्त्र है, जिसका आखिरी भाग है
"योस्मान् द्वेष्टि य वय द्विष्मस्त वो जम्मे दध्म
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इसका अर्थ है, जो हम से द्वेष करता है अथवा जिससे हम द्वेष करते है, उसको हे प्रभु | हम तुम्हारे जबड़े मे रखते हैं ।
1
1
पाठक जानते हैं, जबडे मे रखने का क्या फल होता है ? नाश यह मन्त्र छह वार प्रात और छह बार सायकाल की सन्ध्या मे पढा जाता है | विचार करने की बात है कि यह सन्ध्या है या वही दुनियावी तूतू-मैंमै । सन्ध्या में बैठकर भी वही द्वेष वही घृणा, वही नफरत, वही नष्ट करने-कराने की भावना । मैं पूछता हू, फिर सासारिक क्रियाओ और धार्मिक क्रियाओ मे अन्तर ही क्या
१
अर्थवेद का ० ३ सू० २७ म० १६
सातवलेकर द्वारा सम्पादित वि० स० १९६६ मे मुद्रित संस्करण ।
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वैदिक सन्ध्या और सामायिक
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रहा ? मारा-मारी के लिए तो ससार की कटे ही बहुत है । सन्ध्या मे तो हमे उदार, सहिष्ण, दयालु, स्नेही मनोवृत्ति का धनी बनना चाहिए। तभी हम परमात्मा से सन्धि एव मेल साध सकते है । इस कूड े - कर्कट को लेकर तो परमात्मा से सन्धि-मेल तो दूर, उस को मुख दिखलाने के लायक भी हम नही रह सकते । क्या ही अच्छा होता, यदि इस मन्त्र में अपराधी के अपराध को क्षमा करने की, वैर-विरोध के स्थान मे प्राणिमात्र के प्रति प्रेम और स्नेह की प्रार्थना की होती ।
उपर्युक्त प्राशय का ही एक मन्त्र यजुर्वेद का है, जो सन्ध्या मे तो नही पढा जाता, परन्तु अन्य प्रार्थना के क्षेत्र मे वह भी विशेष स्थान पाये हुए हैं । वह मन्त्र भी शत्रुओ से सत्रस्त किसी विक्षुब्ध, हृदय की वाणी है ।
"योऽस्मभ्यमरातीयाद्यरच
नो द्विषते जन. । निन्द्याद् योऽमस्मान् धिप्साच्च सर्वं भस्मसा कुरु ॥"
- जो हमसे शत्रुता करते है, जो हमसे द्वेष रखते है, जो हमारी निन्दा करते है, जो हमे धोखा देते है, हे भगवन् । हे ईश्वर । तुम उन सव दुष्टो को भस्म कर डालो ।
यह सब उद्धरण लिखने का अभिप्राय किसी विपरीत भावना को लिए हुए नही है । और मैं यह भी नही मानता कि वेदो मे इसी प्रकार की द्वेषमूलक भावनाए भरी है । ऋग्वेद आदि का स्वाध्याय मैंने किया है। उनमे जीवन की उदात्त मधुर एव निर्मल भावनाओ का प्रवाह है । अच्छा होता प्रार्थना मे उन उदात्त भावनाओ को स्थान दिया जाता । यहाँ पर तो केवल प्रसग वश, सामायिक के साथ तुलना करने के लिए ही इस ओर लक्ष्य दिया है । मैं विद्वानो से विनम्र निवेदन करूँगा कि वह इस ओर ध्यान दे तथा उपर्युक्त मन्त्रो के स्थान मे उदात्तता एव प्रेम-भाव से भरे मत्रो की योजना करे ।
पाठक वैदिक धर्म की दोनो ही शाखाओ की सन्ध्या का वर्णन पढ चुके है। स्वय मूल ग्रन्थो को देखकर अपने-आपको और अधिक विश्वस्त कर सकते है । और इधर सामायिक आपके समक्ष है ही । अत आप तुलना कर सकते हैं, किसमे क्या विशेषता है ?
१ यजुर्वेद ११८०
सातवलेकर द्वारा संपादित वि० स० १६६८ मे मुद्रित सस्करण |
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सामायिक-प्रवचन
सामायिक में हृदय की पवित्रता
सामायिक के पाठो मे प्रारम्भ से ही हृदय की कोमल एव पवित्र भावनाओ को जागृत करने का प्रयत्न किया गया है । छोटे-से-छोटे और बडे-से-बडे किसी भी प्राणी को यदि कभी ज्ञात या अज्ञात रूप से किसी तरह की पीडा पहुची हो, तो उसके लिए ईर्यापथिक आलोचना-सूत्र मे पश्चात्ताप-पूर्वक 'मिच्छामि, दुक्कड' दिया जाता है। तदनन्तर अहिंसा और दया के महान् प्रतिनिधि तीर्थकर देवो की स्तुति की गई है, और उसमे आध्यात्मिक शान्ति, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् समाधि के लिए मङ्गल कामना की है। पश्चात् 'करेमि भते' के पाठ मे मन से, वचन से और शरीर से पाप-कर्म करने का त्याग किया जाता है । साम्य-भाव के आदर्श को प्रतिदिन जीवन मे उतारने के लिए सामायिक एक महती अध्यात्मिक प्रयोग-शाला है । सामायिक मे आर्त और रौद्र ध्यान से अर्थात् शोक और द्वप के संकल्पो से अपने आपको सर्वथा अलग रखा जाता है और हृदय के अरण-अण मे मैत्रीकरुणा आदि उदात्त भावनायो के आध्यात्मिक अमृत रस का सचार किया जाता है । आप देखेगे, सामायिक की साधना करनेवाले के चारो ओर विश्व-प्रेम का सागर किस प्रकार ठाठे मारता है । यहा द्वेष, घृणा आदि दुर्भावनाओ का एक भी ऐसा शब्द नहीं है, जो जीवन को जरा भी कालिमा का दाग लगा सके । पक्षपात-रहित हृदय से विचार करने पर ही सामायिक की महत्ता का ध्यान आ सकेगा।
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प्रतिज्ञा पाठ कितनी बार ?
सामायिक ग्रहण करने का प्रतिज्ञा पाठ करेमि भते' है । यह बहुत ही पवित्र और उच्च आदर्शो से भरा हुआ है । सम्पूर्ण जैन साहित्य इसी पाठ की छाया मे फल-फूल कर विस्तृत हुआ है। प्रस्तुत पाठ के उच्चारण करते ही साधक, एक ऐसे नवीन क्षेत्र मे पहुच जाता है, जहाँ राग-द्वेष नही, घृणा- नफरत नही, हिंसा असत्य नही, चोरीव्यभिचार नही, लडाई झगडा नही, स्वार्थ नही, दम्भ नही, प्रत्युत सब ओर दया, क्षमा, नम्रता, सन्तोष, तप, ज्ञान, भगवद्भक्ति, प्रेमसरलता, शिष्टता आदि सद्गुरगो की सुगन्ध ही महकती रहती है । सासारिक वासनाओ का अन्धकार जब छिन्न-भिन्न हो जाता है, तो जीवन का प्रत्येक पहलू ज्ञानालोक से जगमगा उठाता है ।
तीन बार प्रत्यावर्तन
२४
*
हाँ, तो सामायिक करते समय यह पाठ कितनी बार पढना चाहिये, यह प्रश्न है, जो आज पाठको के समक्ष विचाने के लिये रखा जा रहा है । श्राजकल सामायिक एक बार के पाठ द्वारा ही ग्रहरण कर ली जाती है । परन्तु यह अधिक औचित्य - पूर्ण नही है । दूसरे पाठो की अपेक्षा इस पाठ मे विशेषता होनी चाहिए । प्रतिज्ञा करते समय हमे अधिक सावधान और जागरूक रहने के लिए प्रतिज्ञा पाठ को तीन वार दुहराना आवश्यक है । मनोविज्ञान का नियम है कि "जब तक प्रतिज्ञा - वाक्य को दूसरे वाक्यो से पृथक् महत्त्व नही दिया जाता, तब
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। ११०
सामायिक-प्रवचन
तक वह मनपर दृढ संस्कार उत्पन्न नही कर सकता। भारतीय सस्कृति मे तीन वचन ग्रहण करना, आज भी दृढता के लिए अपेक्षित माना जाता है । राजनीति मे भी शपथ ग्रहण करते समय तीन वार शपथ दुहराई जाती है । आध्यात्मिक दृष्टि से भी तीन बार पाठ पढते समय मन, योगत्रय की दृष्टि से क्रमश. तीन बारप्रतिज्ञा के शुभ भावो से भर जाता है और प्रतिज्ञा के प्रति शिथिल सकल्प तेजस्विता-पूर्ण एव सुदृढ हो जाता है।
गुरुदेव को वन्दन करते समय तीन बार प्रदक्षिणा करने का विधान है। तीन वार ही 'तिक्खुत्तो' का पाठ आज भी उस परम्परा के नाते पढा जाता है। आप विचार सकते है कि "प्रदक्षिणा भक्ति-प्रदर्शन के लिए एक ही काफी है, तीन प्रदक्षिणा क्यो ? वन्दन-पाठ भी तीन बार वोलने का क्या उद्देश्य ?" आप कहेंगे कि यह गुरु-भक्ति के लिए, अत्यधिक श्रद्धा व्यक्त करने के लिए है । तो, मैं भी जोर देकर कहूँगा कि "सामायिक" का प्रतिज्ञा-पाठ तीन बार दुहराना भी, प्रतिज्ञा के प्रति अत्यधिक श्रद्धा और दृढता के लिए अपेक्षित है।"
इस विषय मे तर्क के अतिरिक्त क्या कोई प्रागम प्रमाण भी है ? हाँ, लीजिए । व्यवहारसूत्र-गत, चतुर्थ उद्देश के भाष्य मे उल्लेख प्राता है'सामाइय तिगुणमट्ठगहण च"
-~गा० ३०९ प्राचार्य मलयगिरि, जो आगम-साहित्य के समर्थ टीकाकार के रूप मे विद्वत्ससार मे परिचित है, वे उपर्युक्त भाष्य पर टीका करते हुए लिखते है
"त्रिगुणं श्रीन वरान् सामायिकमुच्चरयति ।" उक्त वाक्य का अर्थ है-सामायिक पाठ तीन बार उच्चारण करना चाहिए । व्यवहार भाष्य ही नही, निशीथ-चूरिण भी इस सम्बन्ध मे यही स्पष्ट विधान करती है
____ "सेहो सामाइय तिक्खुत्तो कड्ढइ ।" अस्तु, प्राचीन भाष्यकारो एव टीकाकारो के मत से भी सामायिक प्रतिज्ञा पाठ का तीन बार उच्चारण करना उचित है। यह ठीक है
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प्रतिज्ञा-पाठ कितनी बार ?
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कि ये उल्लेख साघु के लिए आए है, श्रावक के लिए नही । परन्तु प्रश्न यह है कि ग्रात्म-विकास की दृष्टि से साधु की भूमिका ऊ ची है या गृहस्थ की ? जब उच्च भूमिका वाले साधु के लिए तीन बार प्रतिज्ञा-पाठ उच्चारण करने का विधान है, तब फिर गृहस्थ के लिए तो कोई विवाद ही नही रह जाता । मेरा आशय सिर्फ इतना ही है कि प्रतिज्ञा के उच्चारण के साथ हो हमारा सकल्प जागृत होना चाहिए, और उसके लिए हमें अपनी प्रतिज्ञा, जो दृढ संकल्प का रूप है, उसे तीन बार दुहराना चाहिए।
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सामायिक में ध्यान
ग्राज के अधिकाश जिज्ञासुग्रो की ओर से यह प्रश्न बराबर सामने आता है कि "हम सामायिक तो करते है, किंतु मन एकाग्र नही होता । और जब मन एकाग्र नही होता तो फिर सामायिक करने का क्या लाभ है
?"
२५
यह बात वहुत शो मे ठीक भी है कि एकाग्रता के विना सामायिक का वाछित फल और ग्रानन्द प्राप्त नही हो सकता । किन्तु सामायिक कोई जादू तो नही है कि वस, 'करेमि भते' का मंत्र बोला और मन वश में हो गया । मन को वश मे करने के लिए, साधना करनी होती है, त सामायिक मे वह प्रयत्न करना चाहिए, जिससे कि मन एकाग्र हो, समत्व में स्थिर हो ।
समभाव और ध्यान
*
सामायिक का मूल अर्थ 'समता भाव' है, समत्त्वयोग की साधना है । और यह भूल नही जाना है कि समत्त्वयोग ही ध्यान साधना का मुख्य श्राधार है । जव मन समत्त्व में स्थिर होगा, तभी वह ध्यान योग का आनन्द प्राप्त कर सकेगा । ग्राचार्य हेमचन्द्र ने कहा है
न साम्येन विना ध्यान न ध्यानेन विना च तत् । निष्कम्प जायते तस्माद् द्वयमन्योन्यकारणम् ॥
— योगशास्त्र ४।११४
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सामायिक मे ध्यान
समभाव का अभ्यास किए बिना ध्यान नहीं होता और ध्यान के बिना निश्चल समत्व की प्राप्ति नही होती । इसलिए समभाव और ध्यान का अन्योन्याश्रय सम्बन्ध है । दोनो एक-दूसरे के पूरक भी है और घटक भी।
ध्यान की परिभाषा
प्राचीन ग्रन्थो मे समभाव की साधना के निमित्त अनेक उपाय बताये गए है। उन सब मे ध्यान साधना प्रमुख है । अत प्रस्तुत अध्याय मे सामायिक मे ध्यान कैसे किया जाए ? मनोनिग्रह कैसे हो? आदि प्रश्नो के समाधान करने का सक्षिप्त प्रयत्न है। ___मनोवैज्ञानिको का मत है कि अपनी जागृत अवस्था मे हमे विभिन्न प्रकार की वस्तुग्रो का बोध होता रहता है। उनमे से कुछ वस्तुएँ चेतना केन्द्र के अधिक निकट होती है, कुछ उसके आस-पास घूमती है और कुछ उसके किनारे पर घूमती रहती है। जिस वस्तु पर चेतना का प्रकाश केन्द्रित हो जाता है, वह वस्तु ध्यान का विषय (ध्येय) बन जाती है । अत किसी भी वस्तु या विषय पर चेतना के प्रकाश का केन्द्रित हो जाना ध्यान कहा जाता है। इस प्रकार ध्यान का अर्थ हुआ-वस्तु (ध्येय) पर चेतनाप्रकाश का केन्द्रित होना। जैनदृष्टि से इसे ही 'एक पुद्गलनिविष्टदृष्टि' कहा जाता है । सीवी भाषा मे मन का एक विषय पर स्थिर हो जाना, एकाग्र हो जाना ध्यान है।
कुछ विद्वान् ध्यान का अर्थ करते है–'योगश्चित्तवृत्तिनिरोध' अर्थात् चित्त की वृत्तियो का निरोध हो जाना, ध्यानयोग है। इसका अर्थ है--मन को गतिहीन कर देना, शून्य बना देना । योगदर्शन ने इसी अर्थ मे योग की व्याख्या की है, आजकल भी कुछ साधक व विद्वान् ध्यान के लिए मन को गतिहीन करना, शून्य करना तथा मन को भीतर मे ले जाना आदि शब्दावली का प्रयोग करते है, किंतु मेरा अनुभव है कि साधना की प्रथम अवस्था मे इस प्रकार की शब्दावली मात्र एक उलझाव है। साधना की प्रथम सीढी पर चरण रखने वाला साधक पहले ही क्षण मे उसके शिखर को स्पर्श करने के लिए हाथ बढाए, तो यह साधना की गति तथा प्रगति का सही मार्ग नहीं होगा।
अत. जैन साधना पद्धति सर्वप्रथम मन को गतिशून्य करने की
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सामायिक प्रवचन
अपेक्षा मन की गति को बदलने पर बल देती है । जैनाचार्यो ने योग का अर्थ – “योगो दुश्चित्तवृत्तिनिरोध "" किया है, जो कि "योगश्चित्तवृत्तिनिरोध " का परिष्कृत रूप है ।
२
मन जव तक मनरूप मे है, गतिशील रहता है, सर्वथा शून्य नही हो सकता, इस तथ्य को आज मनोविज्ञान भी स्वीकार कर चुका है । अत प्राथमिक अवस्था मे ध्यान अथवा मनोनिग्रह का अर्थ मन की गति को परिवर्तित करना है, चिंतन की दिशा को ऊर्ध्वगामी बनाना है, मन को दुर्वृत्तियो से हटाकर सद्वृत्तियो की ओर उन्मुख करना है, सच्चितन मे मन को जोडना है । सक्ष ेप मे शास्त्र की भाषा मे कहे तो, मन को अशुभ से शुभ की ओर परिवर्तित करना है ।
इस प्रकार चित्त वृत्तियो का परिशोधन उदात्तीकरण एवं चेतना प्रकाश का केन्द्रीकरण - यह सब ध्यान साधना के अन्तर्गत आ सकता है । इस दृष्टि से जप साधना को भी ध्यान कहा जाता है ।
जपसाधना
योगेश्वर श्रीकृष्ण ने गीता मे कहा है- "यज्ञानां जपयज्ञोऽस्मि' में यज्ञो मे 'जपयज्ञ' हूँ । जप, मन को एकाग्र करने की एक सरल तथा श्रेष्ठ विधि है । जप की महिमा गाते हुए प्राचार्यो ने कहा है - " जपात् सिद्धिर्जपात्सिद्धिर्जपात्सिद्धिर्न सशय " जप से अवश्य ही सिद्धि प्राप्त होती है । जप से मन मे तन्मयता एव मधुरता का एक ऐसा प्रवाह उमडता है कि साधक उसमे आत्मविभोर होकर डूब जाता है, अपने को विस्मृत कर देता है, और जप्य (ध्येय) मे तदाकार होकर ऐक्यानुभूति करने लगता है । भक्तियोग मे तो जप को श्र ेष्ठतम साधना माना गया है । जप की साधना 'ध्यान योग' की भाँति दुरूह भी नही है, साधना की प्रथम भूमिका मे भी साधक इसके ग्रानन्द की अनुभूति कर सकता है ।
१ उपाध्याय यशोविजयजी कृत योगदर्शन की टीका १।१
२
पातंजल योगदर्शन १1१
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सामायिक में ध्यान
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तीन प्रकार के जप
जप साधना का विश्लेषण करते हुए आचार्यों ने इसके तीन रूप बताए है-मानस जप, उपाशु जप और भाष्य जप ।
भाष्यजप-यह साधना की प्राथमिक श्रेणी है । साधक वाणी के द्वारा ध्वनिप्रधान श्रव्य उच्चारण करता हुआ जब स्तोत्र, पाठ, माला आदि का जप करता है, तो वह भाष्य जप है । इस जप मे उच्चरित वाणी दूसरे भी सुन सकते है । वाणी का प्रयत्न अधिक होने के कारण इस जप मे मन की स्थिरता बहुत ही कम रहती है, अत साधक को इससे आगे बढकर दूसरी श्रेणी मे पहुँचने का प्रयत्न करना चाहिए।
उपाशु जप-इस जप मे साधक मत्र, स्तोत्र पाठ आदि का बहुत ही धीमे स्वर से उच्चारण करता है। उसकी ध्वनि अन्य व्यक्तियो को सुनाई नही देती, किन्तु उसके अपने कानो तक अवश्य पहुँचती रहती है । शब्द का स्पर्श जीभ और होठ से होता रहता है, अत. वे कुछ-कुछ हिलते भी है। पूर्व के जप की अपेक्षा इसमे वाणी का प्रयत्न मद होता है, अत इसमे पूर्वापेक्षया मानसिक एकाग्रता अधिक प्राप्त की जा सकती है।
मानस जप-इस जप मे मत्र आदि के अर्थ का चिन्तन करते हुए केवल मन ही मन मत्र के वर्ण, स्वर व पदो की आवृत्ति की जाती है । मानसिक एकाग्रता की दृष्टि से यह जप सर्वश्रेष्ठ माना गया है। आचार्यों के मतानुसार भाष्यजप से सौ गुना श्रेष्ठ उपाशु जप है और उससे हजार गुना श्रेष्ठ मानस जप है।
चतुमुखि जप
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जप पद्धति मे चतुर्मुख जप का भी विशेप महत्त्व है । अन्य प्रकार के शब्द-जप की अपेक्षा इसमे मानसिक एकाग्रता अधिक स्थायी एव दृढ होती है । इस जप मे पद्मासन आदि किसी एक आसन पर बैठ कर ध्यानमुद्रा बनाएँ, दोनो आँखो को हलके से मू द ले और फिर किसी चीजमत्र का जप करे, जैसे कि 'ॐ' या 'अहं' आदि का मन ही मन ध्यान करे । ध्यान का क्रम इस प्रकार है--अन्तर्मन के सकल्प से सर्व
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सामायिक-प्रवचन
प्रथम दॉये कधे पर मत्र की स्थापना करे, अर्थात् मानस कल्पना से मत्र की आकृति कधे पर रख लिखे, फिर बॉये कधे पर, फिर ललाट (दोनो भौहो के बीच) पर, और फिर हृदय पर । इस प्रकार चार स्थान पर पुन. पुन अपने इष्ट मत्र की प्राकृति स्थापित करते रहे । इसमे चार स्थानो पर मत्राकृति अकित की जाती है, अत यह, 'चतुर्मुखजप' कहलाता है। यह जप की श्रेष्ठ विधि है । एक प्रकार से यह ध्यान व जप की मिश्रित अवस्था है, अत. इसके द्वारा मन एकाग्रता की दिशा मे अच्छी तरह साधा जा सकता है।
जप किसका ?
2.5
जप करने वाला साधक अधिकतर यह जानना चाहता है कि जप साधना मे किस मत्र का जप किया जाए? __जप मे यो तो किसी भी श्रेष्ठ मत्र का जप किया जा सकता है, किन्तु उसके लिए यह ध्यान में रखना चाहिए कि जप-मत्र के अक्षर जितने कम हो और उनका उच्चारण करते समय जितना अधिक दीर्घ स्वास लिया जाए, वही मत्र चुनना चाहिए। उदाहरण के रूप मे 'ॐ' यह एकाक्षर मत्र है, इसके उच्चारण के साथ प्राणायाम की क्रिया भी स्वतः होती रहती है, चाहे जितना दीर्घस्वास लिया जा सकता है। 'ॐ' के स्थान पर 'अह' का भी जप किया जा सकता है, अथवा 'ॐ अर्ह' इस मत्र का भी।
मत्र का चुनाव करते समय, ध्येय-स्वरूप का ध्यान रखा जाए तो और भी श्रेष्ठ है, जैसे 'ॐ' के उच्चारण के साथ ही 'ध्येय' रूप अरिहत, सिद्ध आदि पाँच पदो के स्वरूप का चित्र मानस-चक्षु के सामने चित्रित हो जाना चाहिए । जैन परम्परा मे 'ॐ' नवकार मत्र का बीज मत्र माना गया है। इसमे 'अ' से अरिहन, 'अ' से सिद्धअशरीरी , 'या' से प्राचार्य, 'उ' से उपाध्याय तथा 'म्' से मुनि (साधु) इनकी ध्वनि ग्रहण की गई है।
१ अरिहता असरीरा, आयरिय-उवज्झाय-मुगियो। पचवखर निष्फन्नो ॐ कारो पच परमिट्ठी ॥
-~बृहद् द्रव्य सग्रह, टीका पृ० १८२
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सामायिक में ध्यान
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ध्यान के भेद
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होते हुए भी बहुत प्रवृत्ति अर्थात् बार ध्यान मे किसी एक
जप और ध्यान की प्रक्रिया बहुत कुछ समान भिन्न भी है । जप मे जहाँ एक ही मंत्र व पद की बार चिन्तन व उच्चारण किया जाता है, वहाँ ही विषय पर चिन्तन - अनुचिन्तन की प्रखंड धारा प्रवाहित होती रहती है । जप साधना की अपेक्षा ध्यान साधना मे मानसिक चिन्तन अधिक स्थिर एव निर्मल होता है, इस दृष्टि से ध्यान साधना, जपसाधना से अधिक महत्त्वपूर्ण व श्रेष्ठ मानी गई है ।
स्थानाग सूत्र यादि प्राचीन आगमो मे ध्यान के अनेक भेद-प्रभेद वर्णन किये गये हैं | योग शास्त्र, ज्ञानार्णव तथा तत्त्वानुशासन आदि ग्रन्थो मे पिण्डस्थ, पदस्थ, रूपस्थ एव रूपातीत आदि अनेक ध्यानविधियाँ बताई गई है, जो प्राथमिक ध्यानसाधक के लिये अतीव उपयोगी है | यहाँ हम अधिक विस्तार मे न जाकर सक्षेप मे ही कुछ वर्णन पाठको की जिज्ञासापूर्ति के लिये कर रहे हैं ।
पिण्डस्थ ध्यान
*
किसी शान्त एकान्त स्थान मे सिद्धासन, पद्मासन आदि किसी श्रेष्ठ आसन से बैठकर पिण्डस्थ ध्यान किया जाता है । पिण्ड का अर्थ है- शरीर | अत पिण्डस्थ ध्यान का मतलब हुआ पिण्ड ग्रर्थात् देह के प्रमुख – ललाट, ब्रह्म रंध्र, आज्ञाचक्र, कठ, नासिकाग्रभाग तथा नाभिकमल आदि पर मन को केन्द्रित करना ।
1
प्राचीन आचार्यों ने पिण्डस्थ ध्यान के क्रम मे पार्थिवी, आग्नेयी, मारुती, वारुणी एव तत्त्ववती धारणा नामक पाँच धारणाओ के माध्यम से उत्तरोत्तर ग्रात्मकेन्द्र पर ध्यानस्थ होने का वर्णन किया है । इन धारणाओ मे साधक सर्वप्रथम अपने को पार्थिवी धारणा मे कमल पर समासीन देखता है, फिर ग्राग्नेयी धारणा मे चारो ओर अग्नि ज्वालाएँ दहकने की कल्पना करता है, जिसमे शरीर भस्म होकर अन्तर् मे से हस्त पादादि श्रवयवो से रहित केवल घनपिण्डरूप देहाकार 'ग्रात्मा' चमकने लगती है । ग्रनन्तर वायवी धारणा मे वायु के प्रबल झोको से राख उड जाने की और फिर वारुरणी धारणा मे
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सामायिक-प्रवचन
सघन जल वर्षा से सब ओर से धुलकर आत्मा का शुद्ध प्रकाशमय रूप प्रगट हो जाने की कल्पना करनी चाहिए। इस प्रकार धारणाओं की कल्पना के माध्यम से साधक उत्तरोत्तर आत्मस्वरूप तक पहुँचने का प्रयत्न करता है ।
उक्त पिण्डस्थ ध्यान को विकसित व अधिक स्थिर वनाने के लिये 'पाजाचक्र' को समझना आवश्यक है।
प्राज्ञाचक्र
ध्येय पर मन को केन्द्रित करने के लिये साधना विधि मे 'आज्ञाचक्र' का अपना विशिष्ट महत्त्व है। इससे बाहर मे विभिन्न विषयो पर भटकता हुआ मन केन्द्र पर स्थिर हो जाता है और उसी विषय मे चिन्तन-मनन का प्रवाह आगे बढने लगता है।
अाजाचक्र का अर्थ है-भ्र मध्य में ध्यान को केन्द्रित करना। सिद्धासन प्रादि दृढ आसन से मेरुदण्ड (रीढ की हड्डी) को सीधा करके वैठ जाएं, ध्यान मुद्रा लगाएं और फिर मानसचक्ष, अर्थात् मन की आँखो से दोनो भ्रू के मध्य मे देखने का प्रयत्न करें। इस अवस्था मे पाखे खुली नही रहनी चाहिए, केवल कल्पना से ही भ्र मध्य को देखा जाए और फिर उस केन्द्र मे 'ॐ' या 'अहं' की स्थापना करके उसी के स्वरूप का चिंतन करे । भ्र मध्य को योग की भाषा मे 'श्राज्ञा चक्र' कहते है। आजाचक्र की साधना प्रारम्भ मे कुछ कठिन प्रतीत होती है, किन्तु निरन्तर के अभ्यास से यह साधना सरल बन जाती है और बहुत ही आनन्दप्रद प्रतीत होती है । हाँ, वृत्तियो व शरीर के साथ हठ नही करना चाहिए, शनै शन इस ओर बढना चाहिए। मेरा अपना अनुभव है कि कुछ दिन सतत अभ्यास के पश्चात् इस अवस्था मे मन की निर्विकल्पता वढने लगती है, मन सहज मे ही स्थिर एव वृत्तियाँ शान्त होने लगती है तथा मानसिक उल्लास, प्रसन्नता एव ताजगी का अनुभव होने लगता है।
पदस्थध्यान
पदस्थ ध्यान का अर्थ है-पदो पर ध्यान केन्द्रित करना । यो तो साधक अपनी रुचि व कल्पना के अनुसार किसी भी प्रकार के सकल्प
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बना सकता है और उन पर मन को स्थिर करने का प्रयत्न कर सकता है । उदाहरण स्वरूप हम यहाँ एक विधि का उल्लेख करते है, जो जैन योग साधना मे 'सिद्ध चक्र' के नाम से प्रसिद्ध है ।
I
सर्व प्रथम ध्यानयोग्य ग्रासन से स्थिर बैठकर हृदयकमल पर अष्टदलश्वेतकमल की कल्पना करनी चाहिए । जब प्रष्ट पखुडियो की स्पष्ट कल्पना होने लगे, मम उस पर जम जाए, तब कमल की कणिका ( कमल का मध्यभाग, बीजकोप) पर 'नमो अरिहंताण' की कल्पना करे । फिर कमल की पूर्वादि चारो दिशाओ की पखुडियो पर क्रमश 'नमो सिद्धाण' 'नमो आयरियाण' 'नमो उवज्झायारण' एव 'नमो लोए सव्वसाहूण' का ध्यान केन्द्रित करे । इसके पश्चात ईशानकोण आदि विदिशाओ की चार पखडियो पर क्रमश 'नमो गारणस्स' 'नमो दसरणस्स' 'नमो तवस्स' 'नमो चरित्तस्स' की कल्पना करनी चाहिए । योगशास्त्र (८, ३३-३४ ) मे आचार्य हेमचन्द्र ने 'गारणस्स' आदि के स्थान पर 'एसो पंचरणमुक्करो आदि चूलिका पदो की स्थापना करने की सूचना की है । स्पष्टता के लिये निम्न चित्र देखिये ।
णमो
णमो तवस्स
णमो सिद्धाणं
णमो अरिहंताणं
스리그집트
मात
LAYE
राजान
सिद्धचक्र
णाणस्स
णमो
आयरियाणं णमो
ܩܢ
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सामायिक प्रवचन
इस प्रक्रिया का मुख्य प्रयोजन यही है कि मन बार-बार इन्ही केन्द्रो पर श्रावर्तन प्रत्यावर्तन करता रहे। इसका यह परिणाम होता है कि अन्य विषयो से प्रवृत्तियो की पकड़ ढीली हो जाती है और मन स्वय-चालित चक्र की भाँति केवल इन्ही केन्द्रो पर चलता रहता है ।
१२०
पदस्थ ध्यान मे अक्षर ध्यान की प्रक्रिया भी काफी प्रचलित है । वैसे तो अक्षर का अर्थ है- अविनाशी तत्त्व | परमात्मा, सिद्ध, भगवान् | किन्तु यहाँ अक्षर से अभिप्राय वर्णमाला के अक्षरो से है | इसमें शरीर के तीन केन्द्रो पर - अर्थात् नाभिकमल, हृदयकमल एव आज्ञाचक्र पर क्रमश सोलह पखुडीवाले, चौवीसपखुडी तथा प्राठ पखुडी वाले कमल की कल्पना की जाती हैं और उन पर वर्णमाला के अक्षरो की सरचना करके प्रत्येक अक्षर पर स्वतंत्र चितन किया
अकाल
अ-अ
222
गधार
अक्षर ध्यान
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जाता है । जैसे - - पर अरिहत, अमर, अविनाशी, अभय आदि अक्षरो की कल्पना करके फिर प्रत्येक ग्रक्षर के वाक्य स्वरूप की गहराई में उतरने का प्रयत्न किया जाता है । मानसिक स्थिरता जितनी गहरी होगी, अक्षर चिंतन उतना ही गम्भीर और विराट् होता जाएगा । सलग्न चित्र से यह प्रक्रिया अच्छी तरह समझ मे आ जायेगी ।
१२१
कुछ योगाभ्यासी मुमुक्षत्रो का मत है कि ध्यान की ये प्रक्रियाएँ वस्तुत ध्यान साधना की नही प्रत्युत जपसाधना की ही विधियाँ है । हो सकता है, चितनप्रधान ध्यान को 'जप' ही मान लिया 'नाए । फिर भी साधक को ध्यान व जप की परिभाषा मे नही उलझना है, उसे मन को एकाग्र करना है । जिस विधि से भी मन प्रशुभ से शुभ की और उन्मुख हो, दुर्विकल्पो से मुक्त होकर सत्सकल्प एवं क्रमश निर्विकल्पता की ओर बढे, वही विधि श्रेष्ठ है ।
रूपस्थ ध्यान
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1
ध्यान की इस प्रक्रिया मे साधक अपने मन को किसी दिव्य रूपवान विषय पर स्थिर करता है । कभी वह अपने देह को ही प्रभु के रूप मे चित्रित करके उस पर विभिन्न कल्पनाएँ करता हुआ केन्द्रित हो जाता है, कभी रूपवान अरिहत परमात्मा - अर्थात् तीर्थंकर देव, श्रथवा अन्य महान् ग्रात्माओ के श्रु तानुश्रत रूपो किंवा स्वरूप के अनुसार कल्पित रूपो को अपने मानस-चक्षु के समक्ष प्रकित करता है । जैसे भगवान् के समवसरण की रचना, उसमे प्रभु को उपदेश देते हुए देखना और उस पर चिंतन करना अथवा उनकी ध्यानसाधना के चित्र मन से तैयार करना और उन पर मन को जमा देना आदि विविध रूपो की कल्पना की जा सकती है ।
महापुरुषो के जीवन सम्बन्धी विविध रूपो पर ध्यान को केन्द्रित करने से मन का भटकना वन्द हो जाता है । फलतः वह एक शुभ व विशुद्ध केन्द्र पर स्थिर होता है, सकल्प बलवान वनते है और इस प्रकार हमेशा शुभ एव पवित्र सकल्प आदि करने का अभ्यास हो जाता है ।
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सामायिक-प्रवचन
श्वासानुसधान
रूपस्थ ध्यान के समान श्वासानुसन्धान भी ध्यान की एक सुन्दर प्रक्रिया है। इस प्रक्रिया मे साधक ध्यान को अपने श्वासोच्छवास पर केन्द्रित करता है । स्थिर आसन से बैठा हुया साधक अपनी वृत्तियों
और कल्पनाओ को श्वास पर केन्द्रित करके उसकी गणना करता रहता है। इसमे प्राणायाम की भांति खूव लम्बा सास लिया जाता है और फिर कुछ काल तक उसे रोककर धीरे-धीरे बाहर छोडा जाता है । श्वास को खीचते समय तथा छोडते समय उसकी गति पर ध्यान रखा जाता है और मन ही मन गिनती भी की जाती है कि कितने साँस खीचे और कितने छोड़े। मेरा अनुभव है कि इस क्रिया से मन काफी समय तक एक ही विपय पर रह सकता है। स्थिर होने से उसका सकल्प-वल भी प्रबल होता है और एकाग्रता की साधना भी सरल हो जाती है। ____ श्वासानुसन्धान की एक और भी सरल प्रक्रिया है । वह यह कि आसन का कोई खास प्रतिबन्ध नही है। किसी भी तरह, किसी भी मुद्रा में बैठकर या लेटकर श्वास पर ध्यान केन्द्रित किया जा सकता है। शरीर को ढीला छोड दीजिए, तनाव से मुक्त कर दीजिए और सहज भाव से प्राते जाते श्वास पर लक्ष्य रखिए । श्वास को रोकने और उसकी गणना करने की भी कोई आवश्यकता नहीं है। रोकने और गणना करने मे भी कुछ तनाव की स्थिति रहती है, अत उक्त सहज प्रक्रिया मे सहज भाव से आने-जाने वाले श्वासो पर केवल ध्यान रखा जाता है और कुछ नही ।
रूपातीत ध्यान
रूपातीत ध्यान का अर्थ है-रूप रग से अतीत, निरजन, निराकार आत्म-स्वरूप का चिन्तन करते हुए उसी मे लय हो जाना ।
अात्मा न इन्द्रिय है, न देह है और न मन है । ये सब भौतिक है, आत्मा अभौतिक । उसका कोई रूप नहीं है । वह तो द्रष्टा मात्र है, जो जगत् के समस्त दृश्यो को देख रहा है। प्रात्मा के इस द्रष्टा अर्थात् ज्ञानमय स्वरूप का चिन्तन करना रूपातीत ध्यान है । प्रात्मा की
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सामायिक में ध्यान
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यह अवस्था ही परमात्म-दशा अर्थात् सिद्ध अवस्था है । इसलिए आचार्यो ने सिद्ध स्वरूप का चिन्तन भी रूपातीत ध्यान मे गिना है ।
रुपातीत ध्यान की विशेषता यह है कि इसमे किसी प्रकार का बाह्य ससारी विकल्प नही होता । मन बाहर से लौटकर भीतर मे चला जाता है, अर्थात् ग्रात्मा के शुद्ध स्वरूप मे लीन-सा हो जाता है । यह स्वरूपलीनता एक प्रकार की विचारातीत अवस्था-सी है, परन्तु इसे सर्वथा विचार शून्य अवस्था भी नही कह सकते। वह तो ध्यान की अन्तिम अवस्था है, जिसमे मन का समूल विलय हो जाता है । लय और विलय मे बहुत अन्तर है । लय अवस्था मे मन अपना अस्तित्व रखते हुए किसी एक चिन्तन मे एकाकार होता है और विलय अवस्था मे उसका सर्वथा अवरोध हो जाता है, वह गतिशून्य हो जाता है । अस्तु यह चर्चा बहुत सूक्ष्म है । जिज्ञासुओ के लिए अभी इतना ही काफी है कि उन्हे मन को लय अर्थात् एकाग्र करने की साधना करनी है और उसका श्रेष्ठ साधन रूपातीत ध्यान है । भावातीत ध्यान
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वर्तमान मे कुछ योगसाधको व चिन्तको ने ध्यान के निर्विकल्प रूप पर अधिक बल दिया है । वे मन को चिन्तन - शून्य स्थिति मे ले जाना चाहते है । उनके विचार मे "मन को इधर-उधर से रोककर किसी विषय पर स्थिर करने का मतलब है, मन की पकड को मजबूत बनाए रखना, उसे शिथिल न होने देना । इससे कभी-कभी मन के साथ सघर्ष भी होता है । मन को रोकना एक हठ है और हठ मे सघर्ष एव तनाब की सम्भावना रहती है, प्रत मन को बिल्कुल उन्मुक्त कर देना चाहिए। वह जैसा भी अच्छा-बुरा विकल्प करे, करने देना चाहिए, जहाँ भी वह दोडे दौडने देना चाहिए। आखिर वह कब तक दौडेगा ? अपने आप थक कर धीरे-धीरे शान्त हो जाएगा और फिर अन्तत वह क्षण आएगा, जवकि वह विचार से निर्विचार की ओर स्वत ही बढ जायेगा ।" यह है एक प्रक्रिया, जिसे वर्तमान के ध्यानसाधको ने विशेष महत्त्व दिया है । उनका कहना है कि "मन पर भार या दबाव मत डालो । मन को तप, जप, त्याग, सयम, यम-नियम आदि मे लगाए रखने की कोई अपेक्षा नही । उसे अपने अनन्त स्वरूप मे जाने दो, लय होने दो। वह स्वत ही
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सामायिक्र-प्रवचन निविषय, विचारातीत एव भावातीत होकर शून्य मे लीन हो जायेगा और तब एक अनिर्वचनीय आनन्द की अनुभूति स्फुरित होगी, जो अब तक अनुभव नही की गई है।" __ जैन योग के 'रूपातीत' ध्यान का कुछ स्वरूप भावातीत ध्यान के साथ मेल खाता है, किन्तु मन को विचार शून्य करने की प्रक्रिया का जहाँ सवाल है, वहाँ अब तक के साधको की भाषा मे कोई बुद्धिगम्य प्रक्रिया प्रस्तुत नही की गई है, जिसे सर्व साधारण की बुद्धि मे उतारा जा सके। इसलिए वे ध्यान का प्रयोजन और फलश्रु ति बताने मे जितने सफल हुए हैं, उतने प्रक्रिया समझाने मे नही, और यही कारण है कि स्पष्टता के लिए अधिक चर्चा करने पर कभी-कभी वे इस प्रक्रिया को अनिर्वचनीय भी कह देते हैं।
मेरा अनुभव है कि भावातीत ध्यान की निर्विकल्प प्रक्रिया अवश्य है, और उसमे अपूर्व आनन्दानुभूति भी जग सकती है, किंतु प्राथमिक साधक के लिए इससे अधिक लाभ की सभावना नही है । उक्त अभावात्मक शब्दो से कभी-कभी साधक उलझन मे पड़ जाता है। ठीक तरह कुछ समझ नहीं पाता है । अत प्रारभ्भिक भूमिका मे साधक को क्रमश ही आगे बढ़ना चाहिए। पहले सदाचार, सयम
आदि की सरल एवं सहज साधना द्वारा मन को विशुद्ध करना चाहिए, फिर ध्यान की प्रक्रिया के द्वारा एकाग्र । झरने का बहता विशुद्ध जल तलैया के स्थिर, किन्तु गदे जल से अधिक उपादेय है, इस बात को भूल नही जाना है । जैन साधना-पद्धति इसीलिए ध्यान को समत्वयोग अर्थात् सामायिक के साथ जोडकर चलती है। इस प्रक्रिया मे पहले मन का शोधन किया जाता है और पश्चात् स्थिरीकरण । वस्तुत. शुद्ध मन की एकाग्रता ही ध्यान कहलाती है। प्राचार्य बुद्धघोप के शब्दो मे-'कुसलचित्त एकग्गता समाधि'' पवित्र (कुशल) चित्त का एकाग्र होना ही समाधि है । इसी दृष्टि से हमने सामायिक साधना मे ध्यान प्रक्रिया के कुछ रूप पाठको के समक्ष प्रस्तुत किये है । * *
१ विमुद्धिमग्गो २।३
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लोगस्स का ध्यान
सामायिक लेने से पहले जो कायोत्सर्ग किया जाता है, वह आत्म-विशुद्धि के लिए होता है । प्रश्न है कि कायोत्सर्ग मे क्या पढना चाहिए ? किस पाठ का चिन्तन करना चाहिए इस सम्बन्ध मे आजकल दो परपराएं चल रही है, एक परपरा कायोत्सर्ग मे 'ईर्यापथिक' सूत्र का ध्यान करने की पक्षपातिनी है, तो दूसरी परपरा 'लोगस्स' के ध्यान की । ईर्या-पथिक के ध्यान के सम्बन्ध मे प्रश्न यह है कि जब एक बार ध्यान करने से पहले ही ईर्ष्या - पथिक सूत्र पढ लिया गया, तब फिर उसे दुबारा ध्यान मे पढने की क्या आवश्यकता है ?
यदि कहा जाय कि यह आलोचना सूत्र है, अत गमनागमन की क्रिया का ध्यान मे चिन्तन आवश्यक है, तो इसके लिए निवेदन है कि तब तो पहले ध्यान मे ईर्या-पथिक का पाठ पढना चाहिए और फिर बाद मे खुले स्वर से । अतिचारो के चिन्तन मे हम देखते हैं कि पहले ध्यान मे चिन्तन होता है और फिर बाद मे खुले रूप से 'मिच्छामि दुक्कड' दिया जाता है । ध्यान मे 'मिच्छामि दुक्कड देने की न तो परपरा ही है और न औचित्य हो । जव पहले ही खुले रूप मे 'ईरिया वही' पढकर 'मिच्छामि दुक्कड' दे दिया है तो बाद मे पुन उसे ध्यान मे पढने से क्या लाभ ? और यदि पढ भी लो, तो फिर उसका 'मिच्छामि दुक्कड' कहाँ देते हो ? व्यान तो चिंतन के लिए ही है, 'मिच्छामि दुक्कड' के लिए नही । अत लोगस्स के चितनका पक्ष ही अधिक सगत प्रतीत होता है ।
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सामायिक प्रवचन
ध्यान की प्राचीन परंपरा
絲
लोगस्स के ध्यान के लिए भी एक बात विचारणीय है, वह यह कि आजकल ध्यान मे सम्पूर्ण 'लोगस्स' पढा जाता है, जब कि हमारी प्राचीन परपरा इसकी साक्षी नही देती । प्राचीन परंपरा यह है है कि ध्यान मे 'लोगस्स' का पाठ 'चदेसु निम्मलयरा' तक ही पढना चाहिए । हाँ, बाद मे खुले रूप से पढते समय सम्पूर्ण पढना जरूर आवश्यक है ।
प्रतिक्रमण सूत्र के प्रसिद्ध टीकाकार प्राचार्य तिलक लिखते है" कायोत्सर्गे च चन्देसु निम्मलयरेत्यन्तश्चतुविशतिस्तवश्चिन्त्यः । पारिते च समस्तो भरिणतव्यः ।"
- प्रतिक्रमणसूत्र-वृत्ति
ग्राचार्य हेमचन्द्र जैन-समाज के एक प्रसिद्ध साहित्यकार एव महान् ज्योतिर्धर ग्राचार्य हुए है । आपने योग विषय पर सुप्रसिद्ध योग शास्त्र नामक ग्रन्थ लिखा है । उसकी स्वोपज्ञवृत्ति मे लोगस्स के ध्यान के सम्वन्ध मे ग्राप लिखते हैं
" पञ्चतिशत्युच्छवासाश्च चतुविशतिस्तवेन चन्देसु निम्मलयरा इत्यन्तेन चिन्तितेन पूर्यन्ते । " सम्पूर्ण कायोत्सर्गश्च 'नमो अरिहतारण' इति नमस्कारपूर्वकं पारथित्वा चतुर्विंशतिस्तवं सम्पूर्ण पठति "
- योग० ३।१२४ स्वोपज्ञवृत्ति
यह तो हुई प्राचीन प्रमाणो की चर्चा | अब जरा युक्तिवाद पर भी विचार कर ले । कायोत्सर्ग अन्तर्जगत् की वस्तु है । ब्राह्य इन्द्रियो का व्यापार हटाकर केवल मानस-लोक मे ही प्रवृत्ति करना इसका उद्देश्य है । अत कायोत्सर्ग एक प्रकार की प्राध्यात्मिक निद्रा है । निद्रा-जगत् का प्रतिनिधि चन्द्र है, सूर्य नही । सूर्य वाह्य प्रवृत्ति का, हलचल का प्रतीक है । इस दृष्टि से कायोत्सर्ग मे 'चदेसु निम्मलयरा' तक का पाठ ही अधिक उपयुक्त है । यह अध्यात्मिक लीनता एव स्वच्छता का सूचक है ।
'लोगस्स' के ध्यान के सम्बन्ध मे एक बात और स्पष्ट करना आवश्यक है । आजकल लोगस्स पढा तो जाता है, परन्तु वह सरसता
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लोगस्स का ध्यान
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नही रही, जो पहले थी। इसका कारण बिना लक्ष्य के यो ही अस्तव्यस्त दशा मे 'लोगस्स' का पाठ कर लेना है। आचार्य हरिभद्र आदि प्राचीन आचार्यों ने कायोत्सर्ग मे 'लोगस्स' का ध्यान करते हुए श्वासोच्छवास की ओर लक्ष्य रखने का विधान किया है। उनका कहना है कि "लोगस्स का एकेक पद एकेक श्वास मे पढना चाहिए। एक ी प्रवास मे कई पद पढ लेना, कथमपि उचित नहीं है। यह ध्यान नही, बेगार काटना है। यह दीर्घ श्वास प्राणायाम का एक महत्त्वपूर्ण अग है। और , प्राणायाम योगसाधना का, मन को निग्रह करने का बहुत अच्छा साधन है ।" हॉ, तो इस प्रकार नियम-बद्ध दीर्घ श्वास से ध्यान किया जायगा, तो प्राणायाम का अभ्यास होगा, शब्द के साथ अर्थ की त्वरित विचारणा का भी लाभ होगा। जीवन की पवित्रता केवल शब्द मात्र की आवृत्ति से नही होती है, वह तो शब्द के साथ अर्थ-भावना की गम्भीरता मे उतरने से ही प्राप्त हो सकती है। पाठक जल्दबाजी और आलस्य को छोडकर श्वास-गणना के नियमानुसार, यदि अर्थ का मनन करते हुए, प्रभु के चरणो मे भक्ति का प्रवाह बहाते हुए, एकाग्रचित्त से 'लोगस्स' का ध्यान करेगे, तो वे अवश्य ही भगवत्स्तुति मे प्रानन्द-विभोर होकर अपने जीवन को पवित्र बनाएँगे । यदि इतना लक्ष्य न हो सके, तो जैसा अब पढा जा रहा है, वह परम्परा ही ठीक है। परन्तु, शीघ्रता न करके धीरे-धीरे अर्थ की विचारणा अवश्य अपेक्षित है। * *
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उपसंहार
सामायिक के मूल पाठो पर विवेचन करने के बाद मेरे हृदय मे एक विचार उठा कि "आज की जनता में सामायिक के सम्बन्ध मे बहुत ही कम जानकारी है, अत प्रस्तावना के रूप मे एक साधारण सा पुरोवचन लिखना अच्छा होगा।" अस्तु, पुरोवचन लिखने बैठ गया और मूल आगमो, टीकाओ, स्वतन्त्र ग्रन्थो एव इधर-उधर की पुस्तको से जो सामग्री मिलती गई, लिखता चला गया । फलस्वरूप पुरोवचन अाशा से कुछ अधिक लम्बा हो गया, फिर भी सामायिक के सम्बन्ध मे कुछ अधिक प्रकाश नही डाल सका । जैन-साहित्य में सामायिक को सम्पूर्ण द्वादशाङ्गी का मूल माना गया है, और इस पर पूर्वाचार्यों ने इतना अधिक लिखा है कि जिसकी कोई सीमा नही वाँधी जा सकती। फिर भी, 'यावद् बुद्धिबलोदयम्' जो कुछ, सग्रह कर पाया हूँ, सन्तोषी पाठक उसी पर से सामायिक की महत्ता की झाँकी देखने की कृपा करे ।
साधना से प्रानन्द
अव पुरोवचन (सामायिक-प्रवचन) का उपसहार चल रहा है, अत प्रेमी पाठको को लम्बी बातो मे न ले जाते हुए, सक्षेप मे, एक-दो बातो की ओर ही लक्ष्य कराना है। हमारा काम आप के समक्ष प्रादर्श रख देने भर का है, उस पर चलना या न चलना आप के अपने सकल्पो के ऊपर है--"प्रवृत्तिसारा खलु मादृशा गिर ।' १ किरातार्जुनीय ११२५
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किसी भी वस्तु की महत्ता का पूरा परिचय, उसे आचरण में लाने से ही हो सकता है । पुस्तके तो केवल आपको साधारण सी झाकी ही दिखा सकती है । अस्तु, सामायिक की महत्ता आपको सामायिक करने पर ही मालूम हो सकती है। मिश्री की डली हाथ मे रखने-भर से मधुरता नही दे सकती, हा, मुँह मे डालिये, आप आनन्दविभोर हो जायेंगे । यह आचरण का शास्त्र है । आचार-हीन को कोई भी शास्त्र आध्यात्मिक तेज अर्पण नही कर सकता । अत आपका कर्त्तव्य है कि प्रतिदिन सामायिक करने का अभ्यास करे । अभ्यास करते समय पुस्तक मे बताए गये नियमो की ओर लक्ष्य देते रहे । प्रारम्भ मे भले ही आप कुछ आनन्द न प्राप्त कर सके, परन्तु ज्यो ही दृढता के साथ प्रतिदिन का अभ्यास चालू रखेगे, तो अवश्य आध्यात्मिक क्षेत्र मे प्रगति कर सकेगे । सामायिक कोई साधारण धार्मिक क्रियाकाण्ड नही है, यह एक उच्चकोटि की धर्म - साधना है । अत सुन्दर पद्धति से किया गया हमारा सामायिक धर्म, हमे सारा दिन काम आ सके, इतना मानसिक बल और शान्ति देने वाला, एक महान् शक्तिशाली अखण्ड भरना है ।
उपसहार
सामायिक सौदेबाजी नहीं है
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ग्राजकल एक नास्तिकता फैल रही है कि सामायिक क्यों करें ? सामायिक से क्या लाभ ? प्रतिदिन दो घडी का समय खर्च करने के बदले मे हमे क्या मिलता है ? आप इन कल्पनाओ से अलग रहिये । अध्यात्मिक क्षेत्र के लिए यह वरिणक् वृत्ति बडी ही घातक है । एक रुपये के बदले मे एक रुपये की चीज लेने के लिये झगडना, बाजार मे तो ठीक हो सकता है, धर्म मे नही । यह मजदूरी नही है । यह तो मानव जीवन के उत्थान की सर्व श्र ेष्ठ साधना है । यहाँ सौदेबाजी नही, प्रत्युत जीवन को साधना के प्रति सर्वतोभावेन समर्पण करना है । प्रस्तुत साधना का यही मुख्य उद्देश्य है । भले ही कुछ देर के लिए आपको स्थूल एव दृष्ट लाभ न प्राप्त हो सके, परन्तु सूक्ष्म एव दृष्ट लाभ तो इतना बडा होता है कि जिसकी कोई उपमा नही ।
यदि कोई हठाग्रही यह कहे कि " निद्रा मे जो छह-सात घंटे चले जाते है, उसमे कोई स्थूल द्रव्य की प्राप्ति तो नही होती, प्रत मैं निद्रा ही न लूगा " - तो, उस मूर्ख का क्या हाल होगा ? सर्व नाश !
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सामायिक-प्रवचन
पाच-सात दिन मे ही शरीर की हड्डी-हड्डी दुखने लगेगी, दर्द से सिर फटने लगेगा, स्फूर्ति लुप्त हो जायेगी, मृत्यु खड़ी सामने नाचने लगेगी। तब पता चलेगा कि जीवन मे निद्रा की कितनी आवश्यकता है ? निद्रा से स्वास्थ्य अच्छा रहता है, कठिन-से-कठिन कार्य करने के लिये साहस एव स्फति प्राप्त होती है, शरीर और मन मे उदग्र नवजीवन का सचार हो जाता है। निद्रा मे ऐसी क्या शक्ति है ? इसके उत्तर मे निवेदन है कि मन का व्यापार बद होने से ही निद्रा पाती है। जब तक मन चचल रहता है, जब तक कोई चिन्ता या शोक मन मे चक्कर काटता रहता है, तब तक मनुष्य निद्रा का आनन्द नही ले सकता। चित्त वत्तियो की स्तब्धता ही-इधर उधर के विकल्पो की लहरो का अभाव ही-श्रेष्ठ निद्रा है, सुषुप्ति है।
सामायिक :योगनिद्रा
आप कहेगे, सामायिक के प्रसग में निद्रा की क्या चर्चा ? मैं कहूगा--सामायिक भी एक प्रकार की योग-निद्रा है, आध्यात्मिक सुषुप्ति है, चित्त-वृत्तियो के निरोध की साधना है। सामान्य निद्रा
और योग-निद्रा में इतना ही अन्तर है कि निद्रा अज्ञान एवं प्रमादमूलक होती है, जबकि सामायिक-रूप योगनिद्रा ज्ञान एव जागृतिमूलक है । सामायिक मे चचल मन की ज्ञान-मूलक स्थिरता होती है, अत इससे आध्यात्मिक जीवन के लिए बहुत कुछ उत्साह, बल, दीप्ति एव प्रस्फूर्ति की प्राप्ति होती है । सामायिक से क्या लाभ है ? इस प्रश्न को उठाने बाले सज्जन इस दिशा मे विशेष चिन्तन का प्रयत्न करें।
धैर्यपूर्वक चलते रहिए
प्रश्न हो सकता है-चित्त-वृत्तिका निरोध हो जाने पर अर्थात् एक लक्ष्य पर मन को स्थिर कर लेने पर तो यह अानन्द मिल सकता है। परन्तु जब तक मन स्थिर न हो, चित्त-वृत्ति शात न हो, तब तक तो इससे कोई लाभ नही ? उत्तर है-बिना साधन के साध्य की प्राप्ति नही हो सकती। बिना श्रम के, बिना प्रयत्न के कभी कुछ
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उपसहार
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मिला है आज तक किसी साधक को ? प्रसिद्ध ब्राह्मणकार महीदास ने अपने ऐतरेय ब्राह्मण (३२1३) मे कहा है-
'चरैवेति 'चरैवेति' – चले चलो, चले चलो '
साधना के मार्ग मे पहले दृढता से चलना होता है, फिर साध्य की प्राप्ति का आनन्द उठाया जाता है । आजकल यह वृत्ति बडी भयकर चल रही है कि " हल्दी लगे न फिटकरी, रग चोखा ही चोखा । " करना कराना कुछ न पड े, और कार्य सिद्धि हमारे चरणो मे सादर उपस्थित हो जाय
कल्पना कीजिये, आप के सामने एक सुन्दर आम का वृक्ष है । उस पर पके हुए रसदार फल लगे हुए है | आपकी इच्छा है, ग्राम खाने की । परन्तु आप अपने स्थान से न उठे, ग्राम तक न पहुचे, न ऊपर चढें, न फल तोड े, न चूसे और चाहे यह कि ग्राम का मधुर रस चख ले | क्या ऐसा हो सकता है कभी ? कदापि नही । ग्राम खाने तक जितने व्यापार है, यह ठीक है कि उनमे श्रानन्द नही है । परन्तु इसी पर कोई कहे कि वृक्ष तक पहुचने तक मे ग्राम का स्वाद नही मिलता, प्रत में नही जाऊँगा, नही चढूगा, नही फल तोडूंगा, तो बताइए उसे क्या कहा जाय ? यही बात सामायिक से पहले तर्क उठाने वालो की भी है । उनका समाधान नही हो सकता । सामायिक एक साधना है, पहले-पहल सम्भव है, आनन्द न आए | परन्तु, ज्यो ही आगे बढेगे, आध्यात्मिक क्षेत्र मे प्रगति करेंगे, आपको उत्तरोत्तर अधिकाधिक आनन्द प्राप्त होता जायेगा । तट पर न बैठे रहिए | समुद्र मे गहरी डुबकी लगाइए । अपार रत्नराशि आपको मालामाल क़र देगी ।
सामायिक का महत्व समझिए
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एक बात और भी है, जिस पर लक्ष्य देना आवश्यक है । सामायिक एक पवित्र धार्मिक अनुष्ठान है, अत सामायिक सम्बन्धी दो घडी का अनमोल काल व्यर्थ ही प्रालस्य प्रमाद, अशुभ एव निन्द्य प्रवृत्तियो मे नही बिताना चाहिए । प्राजकल सामायिक तो की जाती है, किन्तु उसकी महनीय मर्यादा का पालन नही किया जाता । बहुत बार देखा गया है कि लोग सामायिक मे दुनियादारी की अटसट बातें करने लग जाते है, आपस मे गमागरम बहस करते हुए झगडने लगते हैं,
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सामायिक-प्रवचन
गन्दी एव कुत्सित विकारोत्तेजक पुस्तके पढते है, हँसी-मजाक करते है, सोने लगते है, आदि आदि । उनकी दृष्टि मे जैसे-तैसे दो घडी का समय गुजार देना ही सामायिक है । यही हमारी अज्ञानता है, जो श्राज सामायिक के महान् प्रादर्श को पाकर भी हम उन्नत नही हो पाते, श्राध्यात्मिक उच्च भूमिका पर पहुच नही पाते ।
हां तो सामायिक में हमे बडी सावधानी के साथ अन्तर्जगत् मे प्रवेश करना चाहिए । बाह्य जीवन की ओर अभिमुख रहने से सामायिक की विधि का पूर्णरूपेण पालन नही हो सकता । अस्तु, सामायिक मे भगवान-तीर्थ कर देव की स्तुति भक्तामर आदि स्तोत्रो के द्वारा करनी चाहिए, ताकि ग्रात्मा मे श्रद्धा का पूर्व तेज प्रकट हो सके । महापुरुषो के जीवन की झाँकियो का विचार करना चाहिए, ताकि मन की श्राखो के समक्ष प्राध्यात्मिक उन्नति का मार्ग प्रशस्त हो सके। पवित्र धर्म-पुस्तको का अध्ययन-चिन्तन, मनन एव नवकार मंत्र का जप करना चाहिए, ताकि हमारी अज्ञानता और अश्रद्धा का अन्धकार दूर हो | यदि इस प्रकार सामायिक का पवित्र समय बिताया जाये, तो अवश्य ही आत्मा नि यस् प्राप्त कर सकेगी, परमात्मा भाव के पवित्र पद पर पहुच सकेगी।
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नमस्कार – सूत्र
नमो अरिहंताणं, नमो सिद्धाणं,
नमो श्रायरियाणं,
नमो उवज्झायाणं,
नमो लोए सव्वसाहूणं ।
एसो पंच-नमोक्कारो, सव्व-पाव-प्रणासणो । मंगलारण च सव्वेसि, पढमं हवइ मंगलं ॥
शब्दार्थ
नमो-नमस्कार हो अरिहतारण - अरिहन्तो को नमो = नमस्कार हो
सिद्धारण = सिद्धो को नमो नमस्कार हो श्रायरियारण = आचार्यों को नमो-नमस्कार हो उवज्झायाण–उपाध्यायो को नमो =नमस्कार हो लोए = लोक मे
सव्व = सर्ब
साहूण = साधु को एसो = यह
पच = पाचो को किया हुआ नमोक्कारो =नमस्कार
सव्वपाव = सब पापो को परासरणी = विनष्ट करनेवाला है
च=और
सम्बेसि सब
मगलाणं = मगलो मे
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सामायिक-सूत्र
पढम-मुख्य मंगलं मगल
हवइ-है
भावार्थ अरिहन्त, सिद्ध, प्राचार्य, उपाध्याय और लोक मे-समग्र मानवक्षेत्र मे वर्तमान समस्त साधु-साध्वियो को-अर्थात् धर्म-साधको को मेरा नमस्कार हो।
उक्त पाच परमेष्ठी महान् आत्मानो को किया हुया यह नमस्कार, सब प्रकार के पापो को पूर्णतया नाश करनेवाला है और विश्व के सब मगलो मे प्रथम-प्रधान मगल है।
विवेचन मानव-जीवन मे नमस्कार को बहुत ऊ चा स्थान प्राप्त है । मनुष्य के हृदय की कोमलता, सरसता, गुरण-ग्राहकता एव भावुकता का पता तभी लगता है, जबकि वह अपने से श्रेष्ठ एव पवित्र महान् आत्मायो को भक्ति-भाव से गद्गद् होकर नमस्कार करता है, गुणो के समक्ष अपनी अहता का त्याग कर गुरणी के चरणो मे अपने-अापको सर्वतोभावेन अर्पण कर देता है ।
नमस्कार का अर्थ
नमस्कार, नम्रता एव गुण-ग्राहकता का विशुद्ध प्रतीक है । नमस्कार की व्याख्या करते हुए वैयाकरण कहा करते है
'मत्तस्त्वमुत्कृष्टस्त्वत्तोऽहमपकृष्टः, एतदद्वय बोधनानुकूल व्यापारी हि नमः शब्दार्थः।"
उक्त वाक्य का भावार्थ यह है कि नमस्कार शब्द से यह अर्थ ध्वनित होता है- मेरे से पाप उत्कृष्ट हैं, गुणो मे बडे है और मैं आपसे अपकृष्ट हूँ, गुरणो मे हीन हूँ। ___ एक बात ध्यान मे रहे, यहाँ हीनता और महत्ता स्वामी सेवक-जैसी नही है । जैन-धर्म मे इस प्रकार की दास मनोवृत्ति वाले निम्न श्रेणी के सम्वन्धो का स्वप्न मे भी कही स्थान नहीं है । यहाँ हीनता और महत्ताका
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ममस्कार-सूत्र
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सम्बन्ध वैसा ही पवित्र एव गुणात्मक है जैसा कि पिता और पुत्र का होता है, गुरु और शिष्य का होता है । उपासक और उपास्य दोनो के बीच मे भक्ति और प्रेम का साम्राज्य है । आदर्श रूप मे पवित्र सस्कार ग्रहण करने की भावना से ही उपासक अपने अभीष्ट उपास्य के अभिमुख होता है। इसमे विवशता या लाचारी-जैसा भाव आस-पास कही भी नही है।
प्रमोद भावना
शास्त्रीय परिभाषा मे नमस्कार एक प्रमोद-भावना है । अपने से अधिक सद्गुरणी, तेजस्वी, एव विकसित आत्मायो को देख कर अथवा सुन कर प्रेम से गद्गद होजाना, उनके प्रति बहुमान एव सम्मान प्रदर्शित करना, प्रमोद-भावना हैं ।
प्रमोद-भावना का अभ्यास करने से सद् गुणो की प्राप्ति होती है। ईर्ष्या, डाह और मत्सर आदि दुर्गुणो का समूल नाश हो जाता है, फलतः साधक का हृदय विशाल, उदार, एव उदात्त हो जाता है । हजारो-लाखो सज्जन, पूर्व काल मे इसी प्रमोद-भावना के वल से ही अपने जीवन का कल्याण कर गए है।
नमस्कार से लाभ
आज तर्क का युग है । प्रश्न किया जाता है कि महान् आत्माओ को केवल नमस्कार करने और उनका नाम लेने से क्या लाभ है ? अरिहन्त आदि क्या कर सकते है ? । प्रश्न सुन्दर है, समाधान चाहता है, अत उत्तर पर विचार करना चाहिए। हम कब कहते है कि अरिहन्त, सिद्ध आदि वीतराग हमारे लिए कुछ करते है ? उनका हमारे उत्थान या पतन से कोई सीधा सम्बन्ध नही है । जो कुछ भी करना है हमे ही करना है। परन्तु, आलम्बन की तो आवश्यकता होती है । पाच पद हमारे लिये पालम्बन हैं, आदर्श हैं, लक्ष्य हैं । उन तक पहुचना, उन जैसी अपनी आत्मा को भी विकसित करना, हमारा अपना आध्यात्मिक ध्येय है। कर्तृत्व का अर्थ स्थूल दृष्टि से केवल हाथ-पैर मारना ही नही है। आध्यात्मिक क्षेत्र मे निमित्तमात्र से ही कर्तृत्व आ जाता है । और, इस अश मे जैन-धर्म का दूसरे कर्तृत्व-वादियो से समझौता होजाता है। परन्तु, जहाँ कर्तृत्व
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सामायिक-सूत्र का अर्थ स्थूल सहायता, उद्धार एव अलौकिक चमत्कार-लीला आदि लिया जाता है, वहाँ जैन-धर्म को अपना पृथक् स्वतत्र मार्ग चुनना होता है ।
अरिहन्त आदि महापुरुषो का नाम लेने से पाप-मल उसी प्रकार दूर हो जाते है, जिस प्रकार प्रात काल सूर्य के उदय होने पर चोर भागने लगते है। सूर्य ने चोरो को लाठी मार कर नही भगाया, किन्तु उसके निमित्तमात्र से ही चोरो का पलायन हो गया । सूर्य कमल को विकसित करने के लिए कमल के पास नही आता, किन्तु उसके गगन मडल मे उदय होते ही कमल स्वय खिल उठते है। कमलो के विकास मे सूर्य निमित्त कारण है, साक्षात्कर्ता नही। इसी प्रकार अरिहन्त आदि महान् आत्माओ का नाम भी ससारी आत्मानो के उत्थान में निमित्त कारण बनता है । सत्पुरुपो का नाम लेने से विचार पवित्र होते है । विचार पवित्र होने से असत्सकल्प नही हो पाते हैं। प्रात्मा मे वल, साहस, शक्ति का संचार होता है, स्वस्वरूप का भान होता है। और तब कर्मवन्धन उसी तरह नष्ट हो जाते है, जिस तरह लका में ब्रह्मपाश मे बधे हुए हनुमान के दृढ बन्धन छिन्न-भिन्न हो गए थे। कव? जबकि उसे यह भान हुआ कि मैं हनुमान हूँ, मै इन्हे तोड सकता हूँ।
गुण-पूजा
जैन-धर्म की जितनी भी शाखाए है, उनमे चाहे कितना ही विस्तृत भेद क्यो न हो, परन्तु प्रस्तुत नमस्कार-मत्र के सम्बन्ध मे सव-के-सब एकमत है। यह वह केन्द्र है, जहा हम सब दूर-दूर के यात्री एकत्र हो जाते है। इसमे मानव-जीवन की महान् और उच्च भूमिकाओ को वन्दन करके गुण-पूजा का महत्व प्रकट किया गया है। आप देखेंगे कि हमारे पडौसी सप्रदायो के मत्रो मे व्यक्तिवाद का प्राबल्य है। वहाँ पर कही इन्द्र की स्तुति है तो कही विष्ण, शिव, ब्रह्मा, चन्द्र, सूर्य आदि की स्तुतियाँ हैं। परन्तु, नमस्कार-मत्र आपके समक्ष है, आपको इसमे किसी व्यक्ति-विशेप का नाम नही मिलेगा। यहाँ तो गुणो के विकास से जो श्रेष्ठ हो गये हैं, उनको नमस्कार है, भले ही वे किसी भी जाति, वर्ण, देश, वेप या सप्रदाय से सम्बन्ध रखते हो । वाह्य जीवन की विशेषताओ का प्रश्न नही है, प्रश्न है आत्मा की आध्यात्मिक विशेषतानो का । अहिंसा, सत्य आदि आध्यात्मिक गुणो का विकास ही गुण-पूजा का कारण है।
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नमस्कार-सूत्र
महामंत्र नमस्कार का सर्वप्रथम विश्वहितकर पद रिहत का है । हित का बहुप्रचलित एक अर्थ है - अन्त करण के काम, क्रोध, अहकार, लोभ श्रादि विकारो एव कर्म शत्रुओ पर पूर्ण विजय प्राप्त करने वाले महान आत्मा !"
अरिहत शब्द का एक दूसरा अर्थ है - परम पूजनीय अर्थात् वदनीय आत्मा । पूजा के योग्य, अथवा मुक्ति गमन की क्षमता - योग्यता से पूर्ण आत्मा ।
एक व्युत्पत्ति के द्वारा यह भी बताया गया है कि जिस आत्मा के ज्ञानालोक मे विश्व के समस्त चर अचर पदार्थ प्रतिभासित होते है, जिससे कुछ भी प्रच्छन्न- छिपा हुआ (रह X रहस्य ) नही है, ' वह महान् ग्रात्मा रिहत भगवान के पद पर प्रतिष्ठित होती है ।
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पांच पद का अर्थ
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दूसरा पद सिद्ध का है। सिद्ध अर्थात् – पूर्ण । जो महान् ग्रात्मा कर्म-मल से सर्वथा मुक्त हो कर, जन्म-मरण के चक्र से सदा के लिये छुटकारा पाकर, अजर अमर सिद्ध बुद्ध, मुक्त होकर मोक्ष प्राप्त कर चुके हैं, वे सिद्ध पद से सम्बोधित होते है । सिद्ध होने के लिये पहले अरिहन्त की भूमिका तय करनी होती है । प्ररिहत हुए बिना सिद्ध नही बना जा सकता । लोक भाषा मे कहा जाए तो जीवन्मुक्त अरिहत होते हैं, और विदेह मुक्त सिद्ध ।
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अट्ठविह पिय कम्म, प्ररिभूय होइ सव्वजीवाण । त कम्ममरिहता, श्ररिहता तेण वुच्चति ॥
(क) अरिहति वदरण नमसगाइ, अरिहति पूअ सक्कार । सिद्धिगमरण च अरिहा, अरहता तेण वुच्चति ॥
हाल र ज तु, कम्मसे सिमट्ठा । सि घत ति सिद्धस्स, सिद्धत्तमुवजायइ ॥
- श्राव० नियुक्ति १४
- आव० निर्युक्ति ६१५
(ख) पूजामर्हन्तीत्यर्हन्त - अनुयोग द्वार वृत्ति, दशाश्रुत स्कघवृत्ति १
नास्ति रह प्रच्छन्न किञ्चिदपि येषा प्रत्यक्षज्ञानित्वात् तेऽरहन्त. । - स्थानाग वृत्ति ३।४
- आव० नियुक्ति ६१७
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सामायिक-सूत्र
आचार्य का तीसरा पद है । जैन-धर्म मे आचरण का बहुत वडा महत्त्व है । पद-पद पर सदाचार के मार्ग पर सतर्कता से गतिशील रहना ही जैन-साधक की श्रेष्ठता का प्रमाण है। अस्तु, जो प्राचार का, सयम का स्वय पालन करते है, और सघ का नेतृत्व करते हुए दूसरो से पालन कराते हैं, वे आचार्य कहलाते है । जैन-आचारपरपरा के अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह-ये पाच मुख्य अग है। प्राचार्य को इन पाँचो महाव्रतो का प्राण-प्रण से स्वय पालन करना होता है, और दूसरे भव्य प्राणियो को भी, भूल होने पर, उचित प्रायश्चित्त आदि देकर, सत्पथ पर अग्रसर करना होता है। साधु, साध्वी, श्रावक और श्राविका-यह चतुर्विध सध है, इसकी आध्यात्मिक-साधना के नेतृत्व का भार आचार्य पर होता है। ___चतुर्थ पद उपाध्याय का है । जीवन मे विवेक-विज्ञान की वडी आवश्यकता है । भेद-विज्ञान के द्वारा जड और चैतन्य के पृथक्करण का भान होने पर ही साधक अपना उच्च एवं आदर्श जीवन बना सकता है। अत आध्यात्मिक विद्या के शिक्षण का कर्तृत्व उपाध्याय पर है । उपाध्याय मानव-जीवन की अन्त -ग्रन्थियो को बडी सूक्ष्म पद्धति से सुलझाते है, और अनादिकाल से अज्ञान अन्धकार मे भटकते हुये भव्य प्राणियो को विवेक का प्रकाश देते है । 'उप-समोपेऽधीयते यस्मात् इति उपाध्याय ।'
पचम पद साधु का है। साधु का अर्थ है-आत्मार्थ की साधना करने वाला साधक । प्रत्येक व्यक्ति सिद्धि की शोध मे है, परन्तु आत्मार्थ की सिद्धि की ओर किसी विरले ही महानुभाव का लक्ष्य जाता है। सासारिक वासनामो को त्याग कर जो पाच इन्द्रियो को अपने वश में रखते हैं, ब्रह्मचर्य की नव वाडो की रक्षा करते हैं, क्रोध, मान, माया, लोभ पर यथाशक्य विजय प्राप्त करते है, अहिंसा, सत्य अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह रूप पाच महाव्रत पालते है, पाच समिति और तीन गुप्तियो की सम्यक्तया आराधना करते है, ज्ञानाचार, दर्शनाचार, चारित्राचार,
१ पचविह पायार, आयरमाणस्स तहा पभासता ।
पायार दसता, मायरिया तेण वुच्चति । --आव०नियुक्ति ९८८ मर्यादया चरन्तीत्याचार्या -आचाराग चूर्णि
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नमस्कार-सूत्र
१४१ तप आचार, वीर्याचार-इन पाच प्राचारो के पालन मे दिन-रात सलग्न रहते है, जैन परिभाषा के अनुसार वे ही पुरुष या स्त्री, साधु कहलाते है । "साधयन्ति ज्ञानादिशक्तिभिर्मोक्षमिति साधव.।"
व्यापक दृष्टि
यह साधु-पद मूल है। प्राचार्य, उपाध्याय और अरिहन्त–तीनो पद इसी साधु-पद के विकसित रूप है। साधुत्व के अभाव मे उक्त तीनो पदो की भूमिका पर कथमपि नही पहुँचा जा सकता।
पचम-पद मे 'लोए' और 'सव्व' शब्द विशेष ध्यान देने योग्य है। जैन-धर्म का समभाव यहा पूर्णरूपेण परिस्फुट हो गया है । द्रव्यसाधुता के लिए भले ही साम्प्रदायिक दृष्टि से नियत किसी वेष आदि का वन्धन हो, परन्तु भाव-साधुता के लिए, अन्तरग की उज्ज्वलता के लिए तो किसी भी बाह्य रूप का प्रतिबन्ध नही है। भाव-साधता अखिल ससार मे जहाँ भी, जिस किसी भी व्यक्ति मे अभिव्यक्त हो, वह जैन धर्म मे अभिवन्दनीय है। नमस्कार हो लोक मेससार मे, जिस किसी भी रूप मे जो भी भाव साधु हो, उन सबको । कितना दीप्तिमान् महान् व्यापक आदर्श है ।
देव और गुरु
पाचो पदो मे प्रारभ के दो पद देव-कोटि मे आते है, और अन्तिम तीन पद आचार्य, उपाध्याय, साधु गुरु-कोटि मे। __आचार्य, उपाध्याय और साघु तीनो अभी साधक ही है, आत्मविकास की अपूर्ण अवस्था में ही है। अत अपने से निम्नश्रेणी के श्रावक आदि साधको के पूज्य और उच्च श्रेणी के अरिहन्त आदि देवत्व भाव के पूजक होने से गुरु-तत्त्व की कोटि मे है । परन्तु अरिहत और सिद्ध तो अन्तिम विकास पद पर पहुँच गए है, अत वे सिद्ध है, देव हैं। उनके जीवन मे जरा भी राग द्वेप आदिकी स्खलना का, प्रमाद का लेश नही रहा, अत उनका पतन नही हो सकता । अरिहन्त भी एक दृष्टि से सिद्ध-पूर्ण ही है । अनुयोगद्वार सूत्र में उन्हे सिद्ध कहा भी है। अन्तरात्मा की पवित्रता की दृष्टि से कोई अन्तर नही है। अन्तर केवल पूर्वबद्ध अघाति रूप प्रारब्ध कर्मो के भोग का है । अरिहन्तो को सुख दुख आदि प्रारब्ध कर्म का भोग शेप रहता है, जव कि सिद्धो को शरीर-रहित मुक्ति मिल जाने के कारण प्रारब्ध कर्म नही रहते ।
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सामायिक-सूत्र
चूलिका
चूलिका में पाँचो पदो के नमस्कार की महिमा कथन की गई है । मूल नमस्कार मंत्र तो पाँच पद तक ही है, किन्तु यह चूलिका भी कुछ कम महत्व की नही है ।
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चूलिका में बताया गया है कि पाँच परमेष्ठी को नमस्कार करने से सब प्रकार के पापो का नाश हो जाता है । नाश ही नही, प्रणाश हो जाता है । प्रणाश का अर्थ है, पूर्ण रूप से नाश, सदा के लिए नाण कितना उत्कृष्ट प्रयोजन है ।
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चूलिका में पहले पापो का नाश बतलाया है, और बाद मे मंगल का उल्लेख किया है । पहले दो पदो मे हेतु का उल्लेख है, तो अन्तिम दो पदो मे कार्य का, फल का वर्णन है । जब आत्मा पापकालिमा से पूर्णतया साफ हो जाती है, तो फिर सर्वत्र सर्वदा आत्मा का मंगल ही मंगल है, कल्याण - ही - कल्याण है | नमस्कार मंत्र हमे पाप-नाशरूप श्रभावात्मक स्थिति पर ही नही पहुँचाता, प्रत्युत पूर्व - मंगल का विधान करके हमे पूर्ण भावात्मक स्थिति पर भी पहुँचाता है ।
द्वैत-अद्वैत नमस्कार
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ग्राचार्य जयसेन नमस्कार पर विवेचन करते हुए, नमस्कार के दो भेद बतलाते है -- एक द्वैत नमस्कार और दूसरा अद्वैत । जहाँ उपास्य और उपासक मे भेद की प्रतीति रहती है, मैं उपासना करने वाला हूँ और यह रिहन्त आदि मेरे उपास्य हैं - यह द्वैत रहता है, वह द्वैत नमस्कार है । और जव कि राग-द्वेष के विकल्प नष्ट हो जाने पर चिद्भाव की इतनी अधिक स्थिरता हो जाती है कि आत्मा अपनेआपको ही अपना उपास्य अरिहन्त प्रादि रूप समझता है और उसे केवल स्व-स्वरूप का ही ध्यान रहता है, वह अद्वैत नमस्कार कहलाता है । दोनो मे द्वैत नमस्कार ही श्रेष्ठ है । द्वैत नमस्कार, अद्वैत का साधन - मात्र है । पहले पहल साधक भेद-प्रधान साधना करता है, और वाद मे ज्योज्यो ग्रागे प्रगति करता है, त्यो त्यो अभेद-प्रधान साधक होता जाता है । पूर्ण प्रभेदसाधना अरिहन्त दशा मे प्राप्त होती है । प्रस्तुत सन्दर्भ मे प्राचार्य जयसेन से कहा है
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नमस्कार-सूत्र
१४३ "अहमाराधक एते च अर्हदादय प्राराध्या, इत्याराध्याराधक-विकल्परूपो द्वतनमस्कारो भण्यते। रागाद्यपाधि-विकल्प-रहितपरमसमाधि-बलेनात्मन्येव आराध्याराधकभाव पुनरद्व तनमस्कारो भण्यते ।"
-प्रवचनसार १५ तात्पर्य-वृत्ति
नमस्कार अपने आपको
अद्वैत नमस्कार की साधना के लिए साधक को निश्चय दृष्टिप्रधान होना चाहिए । जैन-धर्म का परम लक्ष्य निश्चय दृष्टि ही है। हमारी विजय-यात्रा बीच मे ही कही टिक रहने के लिए नही है। हम तो धर्म-विजय के रूप मे एक-मात्र अपने आत्म-स्वरूप रूप चरम लक्ष्य पर पहुचना चाहते हैं । अत नवकार मन्त्र पढते हुए साधक को नवकार के पाच महान् पदो के साथ अपने-आपको सर्वथा अभिन्न अनुभव करना चाहिए। उसे विचार करना चाहिए—मैं मात्र आत्मा हूँ, कर्म-मल से अलिप्त हूँ। यह जो कुछ भी कर्म-बन्धन है, मेरी अज्ञानता के कारण ही है | यदि मैं अपने इस अज्ञान के परदे को, मोह के आवरण को दूर करता हुआ आगे बढू और अन्त मे इसे पूर्ण रूप से दूर कर दूं, तो मैं भी क्रमश साधू हूँ, उपाध्याय हूँ, प्राचार्य हूँ, अरिहन्त हूँ और सिद्ध हूँ। मुझ मे और इनमे भेद ही क्या रहेगा? उस समय तो मेरा नमस्कार मुझे ही होगा न ? और अव भी जो मैं यह नमस्कार कर रहा हूँ, वह गुलामी के रूप में किसी के आगे नहीं झुक रहा हूँ, प्रत्युत प्रात्मगुणो का ही आदर कर रहा हूँ, अत एक प्रकार से मैं अपने-आपको ही नमन कर रहा हूँ । जैन शास्त्रकार जिस प्रकार भगवती-सूत्र आदि में निश्चय-दृष्टि की प्रमुखता से आत्मा को ही सामायिक कहते है, उसी प्रकार आत्मा को ही पच परमेष्ठी भी कहते है । अत निश्चय नय से यह नमस्कार पाच पदो को न होकर अपने-आप को ही होता है। इस प्रकार निश्चय दृष्टि की उच्च भूमिका पर पहुँच कर जैन-धर्म का तत्त्व-चिन्तन, अपनी चरम-सीमा पर अवस्थित हो जाता है। अपनी आत्मा को नमस्कार करने की भावना के द्वारा अपने आत्मा की पूज्यता, उच्चता, पवित्रता और अन्ततोगत्वा परमात्मरूपता ध्वनित होती है। जैनधर्म का गभीर घोष है कि 'अपनी श्रात्मा ही अपने भविष्य का निर्माता है, अखण्ड भाव-शान्ति का भण्डार है, और शुद्ध परमात्म-रूप है"अप्पा सो परमप्पा"।
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सामायिक सूत्र
यह बाह्य नमस्कार आदि की भूमिका तो मात्र प्रारम्भ का मार्ग है । इसकी पूर्णता निश्चय भाव पर पहुँचने मे ही है, अन्यत्र नही । यह जो कुछ भी मैं कह रहा हूँ, केवल मेरी मति - कल्पना नही है । इस प्रकार के अद्वैत नमस्कार की भावना का अनुशीलन कुछ पूर्वाचार्यो ने भी किया है । एक आचार्य कहते है -
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J
नमस्तुभ्य नमस्तुभ्य, नमस्तुभ्य नमोनम ! नमो मह्य नमो मह्य, नमो मह्य नमोनम !! जैन ससार के सुप्रसिद्ध मर्मी सत श्री ग्रानन्दघन जी भी एक जगह भगवत्स्तुति करते हुए वडी ही सुन्दर एवं सरस भाव-तरग मे कह रहे है
हो हो हूँ मुझने नमू, नमो मुझ नमो मुझ रे ! श्रमित फलदान दातारनी, जेहने भेंट थई तुझ रे ||
नमस्कारपूजा द्रव्य और भाव
非
नवकार मंत्र के पाँचो पदो मे सर्वत्र यादि मे वोला जाने वाला 'नमो' पद पूजार्थक है । इसका भाव यह है कि महापुरुपों को नमस्कार करना ही उनकी पूजा है । नमस्कार के द्वारा हम नमस्करणीय पवित्र ग्रात्मा के प्रति अपनी श्रद्धा, भक्ति और पूज्य भावना प्रकट करते हैं । यह नमस्कार - पूजा दो प्रकार से होती है - द्रव्य नमस्कार और भाव नमस्कार । द्रव्य नमस्कार का अभिप्राय है, हाथ-पैर और मस्तक आदि अगो को एक बार हरकत मे लाकर महापुरुष की ओर झुका देना, स्थिर कर देना । और भाव नमस्कार का अभिप्राय है— ग्रपने चचल मन को इधर-उधर के विकल्पो से हटाकर महापुरुष की ओर प्रणिधान - एकाग्र करना । नमस्कार करने वालो का कर्तव्य है कि वे दोनो ही प्रकार का नमस्कार करे । नम शब्द पूजार्थक है, इसके लिए धर्म - सग्रह का दूसरा घिकार देखिए
"नम इति नेपातिक पद पूजार्थम् । पूजा च द्रव्यभाव-सकोच. 1 तत्र करशिर पावादिद्रव्यसन्यासो द्रव्यसकोच. 1 मावस कोचस्तु विशुद्धस्य मनसो योग ।"
क्रम की सार्थकता
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यद्यपि श्राध्यात्मिक पवित्रतारूप निष्कलकता की सर्वोत्कृष्ट दशा मे पहुँचे हुए पूर्ण विशुद्ध श्रात्मा केवल सिद्ध भगवान् ही है,
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नमस्कार-सूत्र
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अत सर्वप्रथम उन्ही को नमस्कार की जानी चाहिए । परन्तु, सिद्ध भगवान् के स्वरूप को बतलाने वाले, और अज्ञान के सघन अधकार मे भटकने वाले मानव-ससार को सत्य की अखड ज्योति के दर्शन कराने वाले परमोपकारी श्री अरिहन्त भगवान् ही है, अत उनको ही सर्वप्रथम नमस्कार किया गया है। यह व्यावहारिक दृष्टि की विशेषता है।
प्रश्न हो सकता है कि इस प्रकार तो सर्वप्रथम साधु को ही नमस्कार करना चाहिए। क्योकि आजकल हमारे लिए तो वही सत्य के उपदेष्टा हैं। उत्तर मे निवेदन है कि सर्वप्रथम सत्य का साक्षात्कार करने वाले और केवल ज्ञान के प्रकाश मे सत्यासत्य का पूर्ण विवेक परखने वाले तो श्री अरिहन्त भगवान ही है। उन्होने साक्षात् स्वानुभूत सत्य-का जो-कुछ प्रकाश किया, उसीको मुनिमहाराज जनता को बताते हैं। स्वय मुनि तो सत्य के सीधे साक्षात्कार करने वाले नही है। वे तो परम्परा से आने वाला सत्य ही जनता के समक्ष रख रहे है । अत सत्य के पूर्ण अनुभवी मूल उपदेष्टा होने की दृष्टि से, गुरु से भी पहले अरिहन्तो को नमस्कार है।
'सर्वश्रेष्ठ मंत्र
जैन-धर्म में नवकार मंत्र से बढकर कोई भी दूसरा मत्र नही है। जैन-धर्म अध्यात्म-विचारधारा-प्रधान धर्म है, अत उसका मन्त्र भी अध्यात्म-भावना प्रधान ही होना चाहिए था। और इस रूप में नवकार मत्र है । नवकार मत्र के सम्बन्ध मे जैन-परम्परा की मान्यता है कि यह सम्पूर्ण जैन वाड मय का अर्थात् चौदह पूर्व का सार है, निचोड है। चौदह पूर्व का सार इसलिए है कि इसमे समभाव की महत्ता का तटस्थ भाव से दिग्दर्शन कराया गया है। बिना किसी साम्प्रदायिक भेदभाव के, बिना किसी देश या जाति-गत विशेषता के गुण-पूजा का महत्त्व बताया गया है। जैन-धर्म की सस्कृति का प्रवाह समभाव को लक्ष्य मे रखकर प्रवाहित हुआ है, फलत सम्पूर्ण जैन-साहित्य इसी भावना से ओत-प्रोत है। जैनसाहित्य का सर्वप्रथम मत्र नवकार मत्र भी उसी दिव्य समभाव का प्रमुख प्रतीक है। अत यह समग्र जैन-दर्शन का सार है, परम निष्यन्द है । नवकार को मत्र क्यो कहते है ? इस प्रश्न का उत्तर यह है कि जो मनन करने से, चिंतन करने से दुखो से त्राण-रक्षा करता है, वह मत्र होता है
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सामायिक-सूत्र "मंत्रः परमो शेयो मनन त्राणे हातो नियमात्" । मत्र शब्द की यह व्युत्पत्ति नवकार मत्र पर ठीक बैठती है। वीतराग महापुरुषो के प्रति अखण्ड श्रद्धा-भक्ति व्यक्त करने से अपने आपको हीन समझने रूप सशय का नाश होता है, सशय का नाश होने पर यात्मिकशक्ति का विकास होता है, और आत्मिक-शक्ति का विकास होने पर समस्त दुखो का नाश स्वय सिद्ध है।
प्राचीन धर्म ग्रन्थो मे नवकार का दूसरा नाम परमेष्ठी मत्र भी है, जो महान् आत्माएँ परम अर्थात् उच्च स्वरूप मे-समभाव मे स्थिर रहती हैं, वे परमेष्ठी कहलाती है। आध्यात्मिक विकास के ऊँचे पद पर पहुँचे हुए जीव ही परमेष्ठी माने गए है । और जिसमे उन परमेष्ठी आत्मानो को नमस्कार किया हो, वह मत्र परमेष्ठी मंत्र कहलाता है।
महामगल
जैन-परम्परा नवकार मत्र को महान् मगल रूप में बहुत बडा आदर का स्थान देती है। अनेक आचार्यों ने इस सम्बन्ध मे नवकार की महिमा का वर्णन किया है और नवकार की चूलिका मे भी कहा गया है कि नवकार ही सब मगलो मे प्रथम अर्थात् अनन्त आत्म-गुरणो को अभिव्यक्त करने वाला सर्व-प्रधान मगल है- '
__"मंगलाणं च सन्वेसि पढम हवइ मगलं ।" हाँ, तो अब जरा मगल के ऊपर भी विचार कर ले कि वह प्रधान मगल किस प्रकार है ? मगल के दो प्रकार है-एक द्रव्य मंगल और दूसरा भाव मगल । द्रव्य मगल को लौकिक मगल और भाव मगल को लोकोत्तर मगल कहते है। दही और अक्षत आदि द्रव्य मगल माने जाते हैं। साधारण जनता इन्ही मगलो के व्यामोह मे फँसी पड़ी है। अनेक प्रकार के मिथ्या विश्वास द्रव्य मगलो के कारण ही फैले हुए हैं। परन्तु, जैन धर्म द्रव्य मगल की महत्ता में विश्वास नही रखता । क्योकि ये मगल, अमगल भी हो जाते हैं और सदा के लिए दुखरूप अमगल का अन्त भी नहीं करते । अत द्रव्यमगल ऐकान्तिक
और प्रात्यन्तिक मंगल नहीं हैं। दही और अक्षत (चावल) मगल माने जाते है । दही यदि ज्वर की दशा में खाया जाय, तो क्या होगा? अक्षत यदि मस्तक पर न लग कर आख मे पड जाय, तो क्या होगा? अमगल ही होगा न ? अस्तु, द्रव्य मगल का मोह
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नमस्कार-सूत्र
छोडकर सच्चे साधक को भाव मगल ही अपनाना चाहिए | नवकार मत्र भाव मगल है । यह अन्तर्जगत् से - भाव लोक से सम्बन्ध रखता है, अत भाव मगल है | यह भाव मगल सर्वथा और सर्वदा मगल ही रहता है, साधक को सब प्रकार के दुखो से बचाता है, कभी भी मंगल एव हितकर नही होता । भाव मगल जप, तप, ज्ञान, दर्शन, स्तुति, चारित्र, नमस्कार, नियम श्रादि के रूप मे अनेक प्रकार का होता है । ये सब के सब भाव मगल, मोक्ष-रूप सिद्धि के साधक होने से ऐकान्तिक एव आत्यन्तिक मगल हैं । प्राचार्य जिनदास ने इसी दृष्टि से मगल शब्द की व्युत्पत्ति करते हुए लिखा है - ( मग नारकादिषु पवडतं सो लाति मंगलं । लति गेण्ह इति वृत्त भवति - दश० चूर्णि १1१ ) मग अर्थात् नारक आदि दुर्गति, उस से जो रक्षा करे वह मंगल है | नवकार मंत्र जप तथा नमस्कार - रूप भाव मगल है । प्रत्येक शुभ कार्य करने से पहले नवकार मंत्र पढ़कर भाव मगल कर लेना चाहिए। यह सब मगलो का राजा है, अत ससार के अन्य सब मगल इसी के दासानुदास है | सच्चे जैन की नजरो मे दूसरे मगलो का क्या महत्त्व हो सकता है ?
नव पद
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नवकार मंत्र के नमस्कार मंत्र, परमेष्ठी मत्र आदि कितने ही नाम है | परन्तु सबसे प्रसिद्ध नाम नवकार ही है । नवकार मंत्र मे नव अर्थात् नौ पद हैं, अत इसे नवकार मंत्र कहते है, पाँच पद तो मूल पदो के है और चार पद चूलिका के इस प्रकार कुल नौ पद होते है । एक परम्परा, नौ पद दूसरे प्रकार से भी मानती है । वह इस प्रकार कि पाँच पद तो मूल के है और चार पद-नमो नारणस्सः = ज्ञान को नमस्कार हो, नमो दंसरणस्स = दर्शन को नमस्कार हो-नमो चरित्तस्स = चारित्र को नमस्कार हो, नमो तबस्सः - तप को नमस्कार हो — ऊपर की चूलिका के है । इस परम्परा मे अरिहन्त आदि पाँच पद साधक तथा सिद्ध की भूमिका के है और अन्तिम चार पद साधना के सूचक है । ज्ञान आदि की साधना के द्वारा ही साधु श्रादि साधक, अध्यात्म-क्षेत्र मे प्रगति करते हुए प्रथम अरिहन्त बनते हैं और पश्चात् अजर, अमर सिद्ध हो जाते है । इस परम्परा मे ज्ञान आदि चार गुरणो को नमस्कार
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सामायिक-सूत्र
करके जैन-धर्म ने वस्तुत गुण-पूजा का महत्त्व प्रकट किया है । अतएव साधु आदि पदो का महत्त्व व्यक्ति की दृष्टि से नही, गुणो की दृष्टि से है । साधक की महत्ता ज्ञान आदि की साधना के द्वारा ही है, अन्यथा नही । और, जव ज्ञानादि की साधना पूर्ण हो जाती है, तब साधक अरिहन्त सिद्ध के रूप मे देव-कोटि मे आ जाता है। हाँ, तो दोनो ही परम्पराओ के द्वारा नौ पद होते है और इसी कारण प्रस्तुत मत्र का नाम नवकार मत्र है । नवकार मत्र के नौ पद ही क्यो हैं ? नव पद का क्या महत्त्व है ? इन प्रश्नो पर भी यदि कुछ थोडा-सा विचार कर लें, तो एक गम्भीर रहस्य स्पष्ट हो जाएगा।
नव का अक सिद्धि का सूचक
भारतीय साहित्य मे नौ का अक अक्षय सिद्धि का सूचक माना गया है। दूसरे अक अखड नही रहते, अपने स्वरूप से च्युत हो जाते हैं। परन्तु, नौ का अक हमेशा अखड, अक्षय बना रहता है। उदाहरण के लिए दूर न जाकर मात्र नौ के पहाडे को ही ले ले । पाठक सावधानी के साथ नौ का पहाडा गिनते जाएँ, सर्वत्र नौ का ही अक शेष रूप मे उपलब्ध होगा
8+8 १८=१+८=६ २७+२+७=8 ३६=३+६=8 ४५=४+५=8 ५४=५+४=8 ६३-६+३=8 ७२=७+२-६ ८१=5+१=8
६०=8+o=8 आपको समझ मे ठीक तौर से आ गया होगा कि आठ और एक नौ, सात और दो नौ, छ और तीन नौ, पाँच और चार नौ-इस प्रकार सव अको मे गुणाकार के द्वारा नौ का अक पूर्ण-तया अखण्ड
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नमस्कार-सूत्र
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ही बच रहता है । गणित की यह साधारण-सी प्रक्रिया, नौ अक की अक्षय-स्वरूपता का सुन्दर परिचय दे देती है। नौ के अक की अक्षयता के और भी बहुत से उदाहरण है। विशेष जिज्ञासु, लेखक का 'महामत्र नवकार' अवलोकन करे। नवकार के नौ पदो से ध्वनित होने वाली अक्षय अक की ध्वनि सूचित करती है कि जिस प्रकार नौ का प्रक अक्षय है, अखडित है, उसी प्रकार नव-पदात्मक नवकार की साधना करने वाला साधक भी अक्षय, अजर अमर पद प्राप्त कर लेता है। नवकार मत्र का साधक कभी क्षीण, हीन और दीन नही हो सकता। वह बराबर अभ्युदय और निश्रेयस् का प्रगतिशील यात्री रहता है ।
नव आध्यात्मिक विकास का प्रतीक
नव-पदात्मक नवकार मंत्र से आध्यात्मिक विकास-क्रम की भी सूचना होती है । नौ के पहाडे की गणना मे ६ का अक मूल है। तदनन्तर क्रमश १८, २७, ३६, ४५,५४,६३, ७२, ८१ और ६० के अक हैं । इस पर से यह भाव ध्वनित होता है कि आत्मा के पूर्ण विशुद्धसिद्धत्त्व-रूप का प्रतीक ६ का अङ्क है, जो कभी खण्डित नही होता।
आगे के अङ्खो मे दो-दो अङ्क हैं। उनमे पहला अङ्क, शुद्धि का प्रतीक है, और दूसरा अशुद्धि का । समस्त ससार के अबोध प्राणी १८ अङ्क की दशा मे हैं उनमे विशुद्धि का एक के रूप मे छोटा-सा अश है, और काम, क्रोध, लोभ, मोह आदि की अशुद्धि का अश पाठ के रूप मे अधिक है। यहां से साधना का जीवन शुरू होता है । सम्यक्त्व आदि की थोडी-सी साधना के पश्चात् आत्मा को २७ के अक का स्वरूप मिल जाता है। भाव यह है कि इधर शुद्धि के क्षेत्र मे एक अश और बढ़ जाता है, और उधर अशुद्धि के क्षेत्र मे एक अश कम होकर मात्र ७ अश ही रह जाते हैं। आगे चल कर ज्यो-ज्यो साधना लम्बी होती जाती है त्यो-त्यो शुद्धि के अश बढते जाते है, और अशुद्धि के अश कम होते जाते हैं । अन्त मे जब कि साधना पूर्ण रूप मे पहुचती है, तो शुद्धि का क्षेत्र पूर्ण हो जाता है और उधर अशुद्धि के लिए मात्र शून्य रह जाता है। सक्षेप मे, ६० का अक हमारे सामने यह आदर्श रखता है कि साधना के पूर्ण हो जाने पर साधक की आत्मा पूर्ण विशुद्ध हो जाती है, उसमे अशुद्धि का एक भी अश नही रहता । अशुद्धि के सर्वथा अभाव का
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सामायिक सूत्र
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प्रतीक ९० के ग्रक मे ६ के आगे का ० शून्य है । हाँ तो, नमस्कार महामन्त्र की शुद्ध हृदय से साधना करने वाला साधक भी ε के पहाडे के समान विकसित होता हुआ अन्त मे ६० के रूप मे अर्थात् सिद्ध रूप मे पहुँच जाता है, जहाँ प्रात्मा मे मात्र अपना निजी शुद्ध रूप ही शेष रह जाता है । कर्मों का अशुद्ध अश सदा काल के लिए पूर्णतया नष्ट हो जाता है ।
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सम्यक्त्व-सत्र
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अरिहंतो मह देवो, जावज्जीवं सुसाहुणो गुरुयो। जिरण-पण्णत्तं तत्त, इअ सन्मत्तं मए गहियं ।।
शब्दार्थ जावजीव-जीवन पर्यन्त
जिण-पण्णतवीतराग देव
का प्ररूपित तत्त्व ही मह मेरे
तत्ततत्त्व है, धर्म है मरिहतो=अरिहन्त भगवान्
इप्र=यह देवो देव हैं
सम्मत्त-सम्यक्त्व सुसाहुणो-श्रेष्ठ साधु
मे=मैंने गुरुणो गुरु हैं
गहिय=ग्रहण किया भावार्थ
राग-द्वेष के जीतनेवाले जिन अर्थात श्री अरिहन्त भगवान् मेरे देव हैं. जीवनपर्यन्त सयम की साधना करने वाले सच्चे साधु मेरे गुरु है,श्री जिन भगवान का बताया हुआ अहिंसा, सत्य आदि धर्म ही मेरा धर्म है-यह देव, गुरु, धर्म पर श्रद्धा-स्वरूप सम्यक्त्व-ब्रत मैंने यावज्जीवन के लिए ग्रहण किया।
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सामायिक-सूत्र
विवेचन यह सूत्र 'सम्यक्त्व-सूत्र' कहा जाता है । सम्यक्त्व, जैनत्व की वह प्रथम भूमिका है, जहाँ से भव्य प्राणी का जीवन अज्ञान अन्धकार मे से निकलकर सम्यक् आत्मबोध रूप ज्ञान के प्रकाश की ओर अग्रसर होता है। आगे चलकर श्रावक आदि की भूमिकाओ मे जो कुछ भी त्यागवैराग्य, जप-तप, नियम-व्रत आदि साधनाएं की जाती है, उन सबकी बुनियाद सम्यक्त्व ही मानी गई है । यदि मूल मे सम्यक्त्व नहीं है, तो अन्य सब तप आदि प्रमुख क्रियाएँ, केवल अज्ञान कष्ट ही मानी जाती हैं, धर्म नही । अत वे ससार-चक्र का घेरा बढाती ही हैं, घटाती नही।
सम्यग्दृष्टि की मुख्यता
सच्चा श्रावकत्व और साधुत्व पाने के लिए सब से पहली शर्त सम्यक्त्व-प्राप्ति की है। सम्यक्त्व के विना होने वाला व्यावहारिक चारित्र, चाहे वह थोडा है या बहुत, वस्तुत. कुछ है ही नहीं । विना अक के लाखो, करोडो बिन्दियाँ केवल शून्य कहलाती है, गणित में सम्मिलित नही हो सकती । और अक का पाश्रय पाकर शून्य का मूल्य दश गुणा हो जाता है। इसी प्रकार सम्यक्त्व प्राप्त करने के बाद चारित्र भी निश्चय मे परिणत होकर पूर्णतया उद्दीप्त हो उठता है।
चारित्र का पद तो बहुत दूर है, सम्यक्त्व के अभाव मे तो मनुष्य ज्ञानी होने का पद भी प्राप्त नही कर सकता। भले ही मनुष्य न्याय या दर्शन आदि शास्त्र के गभीर रहस्य जान ले, विज्ञान के क्षेत्र मे हजारो नवीन आविष्कारो की सृष्टि कर डाले, धर्म-शास्त्रो के गहन-से-गहन विपयो पर भाव-भरी टिप्पगियाँ भी लिख छोडे, परन्तु सम्यक्त्व के विना वह मात्र विद्वान् हो मकता है, ज्ञानी नहीं । विद्वान और जानी दोनो के दृष्टि-कोण में वडा भारी अन्तर है । विद्वान् का दृष्टिकोण संसाराभिमुख होता है, जबकि ज्ञानी का दृष्टि-कोरण आत्माभिमुख । फलत मिथ्यादृष्टि विद्वान् अपने जान का उपयोग कदाग्रह के पोपण मे करता है, और सम्यग्दृष्टि जानी सदाग्रह के पोपण मे । यह सदाग्रह का-सत्य की पूजा का निर्मल
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सम्यक्त्व-सूत्र
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दृष्टिकोण बिना सम्यक्त्व के कदापि प्राप्त नही हो सकता । अतएव भगवान महावीर ने अपने पावापुरी के अन्तिम धर्म-प्रवचन मे स्पष्ट रूप से कहा है-'सम्यक्त्व-हीन को ज्ञान नही होता, ज्ञान-हीन को चारित्र नही होता, चारित्र-हीन को मोक्ष नही होता, और मोक्ष-हीन को निर्वाण-पद नही मिल सकतानादसणिस्स नाण,
नाणेण विरणा न हुति चरणगुणा । अगुरिणस्स नत्थि मोक्खो, नत्थि प्रमोक्खस्स निन्यारण ॥
-उत्तराध्ययन-सूत्रं, २८/३०
आत्मा की तीन दशा
' सम्यक्त्व की महत्ता का वर्णन काफी लम्बा हो चुका है । अब प्रश्न यह उठता है कि यह सम्यक्त्व है क्या चीज ? उक्त प्रश्न के उत्तर मे कहना है कि,सराार मे जितनी भी आत्माएँ है, वे सब तीन अवस्थाप्रो मे विभक्त है- १-बहिरात्मा, २–अन्तरात्मा, और ३-परमात्मा ।
'बहिरात्मा' नामक पहली अवस्था मे आत्मा का वास्तविक शुद्ध स्वरूप, मिथ्यात्व मोहनीय कर्म के प्रावरण से सर्वथा ढका रहता है। अत. आत्मा निरतर मिथ्या सकल्पो मे फंस कर, पौद्गलिक भोग-विलासो को ही अपना आदर्श मान लेता है, उनकी प्राप्ति के लिए ही अपनी सम्पूर्ण शक्ति का अपव्यय करता है । वह सत्य सकल्पो की ओर कभी झाक कर भी नही देखता । जिस प्रकार ज्वर के रोगी को अच्छे-सेअच्छा पथ्य भोजन अच्छा नही लगता, इसके विपरीत, कुपथ्य भोजन ही उसे अच्छा लगता है, ठीक इसी प्रकार मिथ्यात्व मोहनीय कर्म के उदय से जीव का सत्य-धर्म के प्रति द्वष तथा असत्य धर्म के प्रति अनुराग उत्पन्न होता है । यह बहिरात्मा का स्वरूप है। ', 'अंतरात्मा' नामक दूसरी अवस्था मे, मिथ्यात्व मोहनीय कर्म का प्रावरण क्षीण हो जाने के कारण, आत्मा क्षयोपशम आदि के रूप मे . सम्यक्त्व के आलोक से आलोकित हो उठता है। यहाँ आकर आत्मा सत्य धर्म का साक्षात्कार कर लेता है, पौद्गलिक भोग-विलासो की ओर से उदासीन-सा होता हुआ
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सामायिक सूत्र
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शुद्ध ग्रात्म स्वरूप की ओर झुकने लगता है, श्रात्मा और परमात्मा में एकता साधने का भाव जागृत करता है । इसके ग्रनन्तर, ज्यो-ज्यो चारित्र मोहनीय कर्म का आवरण, क्रमश शिथिल, शिथिलतर एव शिथिलतम होता जाता है, त्यो त्यो श्रात्मा बाह्य भावो से हट कर अन्तरंग भाव मे केन्द्रित होता जाता है और विकासानुसार विकारो का जय करता है, त्याग प्रत्याख्यान करता है और श्रावकत्व एव साधुत्व के पद पर पहुँच जाता है ।
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'परमात्मा' - नामक तीसरी अवस्था सर्वोच्च अवस्था है । आत्मा जब अपने प्राध्यात्मिक गुरणो का विकाश करते-करते अन्त मे अपने विशुद्ध श्रात्म स्वरूप को पा लेता है, अनादि प्रवाह से निरन्तर चले आने वाले ज्ञानावरण आदि सघन कर्म - प्रावरणो का जाल सर्वथा नष्ट कर देता है, और अन्त मे केवलज्ञान तथा केवल दर्शन की ज्योति के पूर्ण प्रकाश से जगमगा उठता है । तब वह परमात्मा हो जाता है । जैन दर्शन मे यही परमात्मा का स्वरूप है ।
आत्मविकास के सूचक गुणस्थान
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पहला, दूसरा और तीसरा गुणस्थान बहिरात्म-श्रवस्था का द्योतक है | चौथे से बारहवे तक के गुणस्थान अन्तरात्म-अवस्था के परिचायक हैं, और तेरहवाँ चौदहवाँ गुणस्थान अरिहन्त रूप परमात्म अवस्था का सूचक है । प्रत्येक साधक बहिरात्म-भाव की अवस्था से निकल कर अन्तरात्मा की ' आदि भूमिका' सम्यक्त्व पर आता है एव सर्वप्रथम यही पर सत्य की वास्तविक ज्योति के दर्शन करता है। यह सम्यग्दृष्टि नामक चतुर्थ गुणस्थान की भूमिका है । यहाँ से श्रागे बढकर पांचवें गुणस्थान मे श्रावकत्व के तथा छठवें गुरण-स्थान मे साधुत्व के पद पर पहुँच जाता है । सातवें से लेकर बारहवें तक के मध्य गुणस्थान साधुता के विकास की भूमिका रूप हैं । बारहवें गुरणस्थान मे मोहनीय कर्म सर्वथा नष्ट होता है । श्रौर, ज्यो ही मोहनीय कर्म का नाश होता है, त्यो ही तत्क्षरग ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, अन्तराय - कर्म का नाश हो जाता है और साधक तेरहवे गुणस्थान मे पहुँच जाता है । तेरहवें गुरणस्थान का अधिकारी पूर्ण वीतराग दशा पर पहुँचा हुआ जीवन् - मुक्त 'जिन' हो जाता है । तेरहवें गुणस्थान मे आयुष्कर्म, वेदनीय श्रादि भोगावलीकर्मो को भोगता हुआ अन्तिम समय मे चौदहवें गुरराणस्थान की
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सम्यक्त्व सूत्र
भूमिका को भी पार कर गुण स्थानातीत होता है और सदा के लिए अजर, अमर, देह-मुक्त "सिद्ध' रूप परमात्मा बन जाता है ! सिद्धपरमात्मा आत्मा के विकास का अन्तिम स्थान है। यहाँ आकर वह पूर्णता प्राप्त होती है, जिसमे फिर न कभी कोई विकास होता है और न ह्रास ।
निश्चय और व्यवहार
सम्यक्त्व का क्या स्वरूप है और वह किस भूमिका पर प्राप्त होता है-यह ऊपर के विवेचन से पूर्णतया स्पष्ट हो चुका है। सक्षेप मे, सम्यक्त्व का सीधा-सादा अर्थ किया जाए, तो 'विवेक-दृष्टि' होता है । जड-चेतन का, सत्य-असत्य का विवेक ही जीवन को सन्मार्ग की ओर अग्रसर करता है। धर्म-शास्त्रो मे सम्यक्त्व के अनेक भेद प्रतिपादन किए है। उनमे मुख्यतया दो भेद अधिक प्रसिद्ध हैं-निश्चय और ध्यवहार । आध्यात्मिक विकास से उत्पन्न आत्मा की एक विशेष परिणति, जो शेय=जानने योग्य-जीवाजीवादि तत्त्व को तात्त्विक रूप मे जानने की, और हेय=छोडने-योग्य हिंसा, असत्य आदि पापो को त्यागने की, और उपादेय=ग्रहण करने योग्य व्रत, नियम आदि को ग्रहण करने की अभिरुचि-रूप है, वह शुद्ध आत्म-प्रतीति रूप निश्चय सम्यक्त्व है । व्यहार सम्यक्त्व श्रद्धा-प्रधान होता है। अत. कुदेव, कुगुरु, और कुधर्म को त्याग कर सुदेव, सुगुरु और सुधर्म पर दृढ श्रद्धा रखना व्यवहार सम्यक्त्व है। व्यवहार सम्यक्त्व, एक प्रकार से निश्चय सम्यक्त्व का ही बहिर्मुखी रूप है । किसी व्यक्तिविशेप मे साधारण व्यक्तियो की अपेक्षा विशेष गुणो का, किंवा आत्म-शक्ति का विकास देखकर उसके सम्बन्ध मे जो एक सहज प्रानन्द की वेगवती धारा अन्तमे उत्पन्न हो जाती है, उसे श्रद्धा कहते हैं । श्रद्धा मे महापुरुषो के महत्व की प्रानन्द-पूर्ण स्वीकृति के साथसाथ उनके प्रति पूज्य-बुद्धि का भाव भी है। अस्तु, सक्षेप मे निचोड़ यह है कि "प्रात्म दृष्टिरूप निश्चय सम्यक्त्व अन्तरग की चीज है, अत वह मात्र अनुभवगम्य है । परन्तु, व्यवहार सम्यक्त्व की भूमिका देव, गुरु आदि की श्रद्धा पर है, अत. वह बाह्यदृष्टि से भी प्रत्यक्षत सिद्ध है।" , प्रस्तुत सम्यक्त्व-सूत्र मे व्यवहार सम्यक्त्व का वर्णन किया गया
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सामायिक सूत्र
है। यहाँ बतलाया गया है कि किस को देव मानना, किस को गुरु मानना और किस को धर्म मानना ? साधक प्रतिज्ञा करता है-अरिहन्त मेरे देव हैं, सच्चे साधु मेरे गुरु हैं, जिन-प्ररूपित तत्त्व रूप सच्चा धर्म मेरा धर्म है।
देव : अरिहन्त
जैन-धर्म में स्वर्ग लोक के भोग-विलासी देवो का स्थान अलौकिक एव आदरणीय रूप मे नही माना है। उनकी पूजा, भक्ति या सेवा करना, मनुष्य की अपनी मानसिक दुर्बलता के सिवा और कुछ नही है। जिन शासन आध्यात्मिक भावना-प्रधान धर्म है, अत यहाँ श्रद्धा और भक्ति के द्वारा उपास्य देव वही हो सकता है, जो दर्शन, ज्ञान एवं चारित्र के पूर्ण विकास पर पहुंच गया हो, ससार की समस्त मोहमाया से मुक्त हो चुका हो, केवलज्ञान तथा केवल-दर्शन के द्वारा भूत, भविष्यत् तथा वर्तमान तीन काल और तीन लोक को प्रत्यक्ष-रूप मे हस्तामलकवत् जानता-देखता हो । जैन-धर्म का कहना है कि सच्चा अरिहन्त देव वही महापुरुष होता है, जो अठारह दोषो से सर्वथा रहित होता है। अठारह दोष इस प्रकार हैं१ दानान्तराय
२ लाभान्तराय ३ भोगान्तराय
४ उपभोगान्तराय ५ वीर्यान्तराय
६ हास्य-हँसी ७ रति प्रीति
८ अरति अप्रीति 1 ६ जुगुप्साघृणा , १० भय=डर ११ कामवासना
१२ अज्ञान-मूढता १३ निद्राप्रमाद
१४ अविरति त्याग का अभाव १५ राग
१६ द्वष १७ शोक-चिन्ता १८ मिथ्यात्व असत्य निष्ठा ____ अन्तराय का अर्थ विघ्न होता है। जब अन्तराय कर्म का उदय होता है, तब दान देने मे और अभीष्ट वस्तु की प्राप्ति आदि मे विघ्न होता है। अपनी इच्छानुसार किसी भी कार्य का सम्पादन नहीं कर
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सम्यक्त्व सून
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सकता। अरिहन्त भगवान् का अन्तराय कर्म क्षय हो जाता है, फलत उनको दान, लाभ यादि मे किसी भी प्रकार का विघ्न नही होता।
गुरु : निर्गन्य
जैन-धर्म मे गुरु का महत्त्व त्याग की कसौटी पर ही परखा जाता है । जो प्रात्मा अहिंसा आदि पाच महाव्रतो का पालन करता हो, छोटे बड़े सब जीवो पर समभाव रखता हो, भिक्षा-वृत्ति के द्वारा भोजन-यात्रा पूर्ण करता हो, पूर्ण ब्रह्मचर्य का पालन करता होरात्रि भोजन न करता हो, किसी भी प्रकार का परिग्रह-धन न रखता हो, पैदल ही विहार करता हो, वही, सच्चे गुरु-पद का अधिकारी है।
धर्म : जीवदया आदि
सच्चा धर्म वही है, जिसके द्वारा अन्तःकरण शुद्ध हो, वासनाओ का क्षय हो, प्रात्म-गुणो का विकास हो, आत्मा पर से कर्मों का प्रावरण नष्ट हो । अन्त मे पात्मा अजर, अमर, पद पाकर सदाकाल के लिए दुखो से मुक्ति प्राप्त कर ले। ऐसा धर्म अहिंसा, सत्य, अपरिग्रहसन्तोष तथा दान, तप और भावना आदि है।
सम्यक्त्व के लक्षण
सम्यक्त्व अन्तरग की चीज है, अत उसका ठीक-ठीक पता लगाना साधारण लोगो के लिए जरा मुश्किल है। इस सम्बन्ध मे निश्चित रूप से केवलज्ञानी ही कुछ कह सकते है । तथापि, आगम मे सम्यक्त्वधारी व्यक्ति की विशेषता बतलाते हुए पाँच चिह्न ऐसे बतलाए हैं, जिनसे व्यवहार क्षेत्र मे भी सम्यग्दर्शन की पहचान हो सकती है ।
१-प्रशम-असत्य के पक्षपात से होने वाले कदाग्रह श्रादि दोषो का उपशमन होना 'प्रशम' है । सम्यग्-दृष्टि आत्मा कभी भी दुराग्रही नही होता | वह असत्य को त्यागने और सत्य को स्वीकार करने के लिए हमेशा तैयार रहता है। एक प्रकार से उसका समस्त जीवन सत्यमय और सत्य के लिए ही होता है।
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सामायिक सूत्र
२-संवेग-काम, क्रोध, मान, माया आदि सासारिक बन्धनो का भय ही सवेग है। सम्यग्दृष्टि प्राय. भय से मुक्त रहता है। वह हमेशा निर्भय एव निर्द्वन्द्व रहता है और उत्कृष्ट दशा मे पहुँच कर तो जीवन-मरण, हानि-लाभ, स्तुति-निन्दा
आदि के भय से भी मुक्त हो जाता है। परन्तु, यदि उसे कोई भय अर्थात् अरुचि है, तो वह सांसारिक बन्धनो से है । वस्तुत यह है भी ठीक । आत्मा के पतन के लिए सांसारिक बन्धनो से बढकर और कोई चीज नही है। जो इनसे डरता रहेगा, वही अपने को बन्धनो से स्वतंत्र कर सकेगा।
३-निर्वेद-विषय भोगो मे आसक्ति का कम हो जाना 'निवेद' है । जो मनुष्य भोग-वासना का गुलाम है, विषय भोग की पूर्ति के लिए भयकर-से-भयंकर अत्याचार करने पर भी उतारू हो जाता है, वह सम्यग्दृष्टि किस तरह बन सकता है ? आसक्ति और सम्यगदर्शन का तो दिन रात का सा वैर है। जिस साधक के हृदय में ससार के प्रति गाढ आसक्ति नहीं है, जो विषय-भोगो से कुछ उदासीनता रखता है, वही सम्यग्-दर्शन की ज्योति से प्रकाशमान होता है।
४-अनुकम्पा-दुःखित प्राणियो के दुखो को दूर करने की बलवती इच्छा 'अनुकम्पा' है। सम्यग्दृष्टि साधक, सकट मे पडे हुए जीवो को देखकर कपित हो उठता है, उन्हे बचाने के लिए अपने समस्त सामर्थ्य को लेकर उठ खडा होता है। वह अपने दुख से इतना दुःखित नही होता, जितना कि दूसरो के दुख से दुखित होता है। जो लोग यह कहते है कि दुनियाँ मरे या जिए, हमे क्या लेना देना है ? मरते को बचाने मे पाप है, धर्म नहीं | उन्हे सम्यक्त्व के उक्त अनुकम्पा-लक्षण पर ही लक्ष्य देना चाहिए ।, अनुकम्पा ही तो भव्यत्व का परिपाक है । कहा जाता है-अभव्य बाह्यत जीव-रक्षा कर सकता है, परन्तु अन्तर् मे अनुकम्पा कभी नही कर सकता। - ५-प्रास्तिक्य-आत्मा आदि परोक्ष किन्तु आगमप्रमाण सिद्ध पदार्थों का स्वीकार ही आस्तिक्य है। साधक आखिरकार साधक ही है, सिद्ध नही । अत वह कितना ही प्रखर-बुद्धि क्यो न हो; परन्तु आत्मा आदि अरूपी पदार्थों को वह कभी भी प्रत्यक्षत इन्द्रिय-ग्राह्य नही कर सकता। भगवद्वाणी पर विश्वास रक्खे विना साधना की
है। है ? मरते को ज पर ही लक्ष्य देहा अभ
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सम्यक्त्व सूत्र
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यात्रा तय नही हो सकती। अत. तर्क एव युक्ति के क्षेत्र मे अग्रसर होते हुए भी, साधक को अध्यात्म-भावना प्रधान आगम-वारणी से अपना सम्बन्ध नहीं तोडना चाहिए।
मिथ्यात्व-परिहार
सम्यक्त्व का विरोधी तत्त्व मिथ्यात्व है । सम्यक्त्व और मिथ्यात्व दोनो का एक स्थान पर होना असभव है । अत सम्यक्त्व-धारी साधक का कर्तव्य है कि वह मिथ्यात्व भावनामो से सर्वदा सावधान रहे। कही ऐसा न हो कि भ्राति-वश मिथ्यात्व की धारणायो पर चलकर अपने सम्यक्त्व को मलिन कर बैठे । सक्षेप मे, मिथ्यात्व के दश भेद हैं
१--जिनको कचन और कामिनी नही लुभा सकती, जिनको सासारिक लोगो की प्रशसा, निंदा आदि क्षुब्ध नही कर सकती, ऐसे सदाचारी साधुओ को साधु न समझना ।
२-जो कचन और कामिनी के दास बने हुए हैं, जिनको सासारिक लोगो से पूजा प्रतिष्ठा पाने की दिन-रात इच्छा बनी रहती है, ऐसे साधु-वेश-धारियो को साघु समझना । - ३–क्षमा, मार्दव, आर्नव, शौच, सत्य, सयम, तप, त्याग, आकिचन्य और ब्रह्मचर्य-ये दश प्रकार का धर्म है । दुराग्रह के कारण उक्त धर्म को अधर्म समझना ।
४-जिन कार्यों से अथवा विचारो से आत्मा की अधोगति होती है, वह अधर्म है । अस्तु, हिंसा करना, शराब पीना, जुआ खेलना, दूसरो की बुराई सोचना इत्यादि अधर्म को धर्म समझना ।
५-शरीर, इन्द्रिय और मन ये जड है। इनको आत्मा समझना, अर्थात् अजीव को जीव मानना।
६-जीव को अजीव मानना । जैसे कि गाय, बैल, बकरी आदि प्राणियो मे प्रात्मा नही है, अतएव इनके मारने या खाने मे कोई पापं नही है-ऐसी मान्यता रखना।
७-उन्मार्ग को सुमार्ग समझना। शीतला-पूजन, गगा-स्नान, श्राद्ध प्रादि लोकमान्यताएं, तथा जो पुरानी या नयी कुरीतियाँ हैं, जिनसे सचमुच हानि होती है, उन्हे ठीक समझना ।
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सामायिक सूत्र
८-सुमार्ग को उन्मार्ग समझना । जिन पुरानी या नयी प्रथाश्रो से धर्म की वृद्धि होती है, सामाजिक उन्नति होती है उन्हे ठीक न समझना।
६-कर्म रहित को कर्म-सहित मानना। परमात्मा मे राग,द्वेष नहीं हैं, तथापि यह मानना कि भगवान् अपने भक्तो की रक्षा के लिए दैत्यो का नाश करते हैं और अमुक स्त्रियो की तपस्या से प्रसन्न होकर उनके पति बनते है, इत्यादि ।
१०-कर्म-सहित को कर्म-रहित मानना । भक्तो की रक्षा और शत्रु यो का नाश राग द्वेष के विना नही हो सकता और राग, द्वेष कर्म-सम्बन्ध के विना नही हो सकते । तथापि मिथ्या आग्रह-वश यही मानना कि यह सब भगवान की लीला है। सब-कुछ करते हुए भी अलिप्त रहना उन्हे आता है और इसलिए वे अलिप्त रहते हैं। उक्त दश प्रकार के मिथ्यात्व से सतत दूर रहना चाहिए।
सम्यक्त्व-सूत्र का प्रतिदिन पाठ क्यों ? अत मे एक प्रश्न है कि जब साधक अपनी साधना के प्रारम्भिक काल मे सर्व-प्रथम एक बार सम्यक्त्व ग्रहण कर ही लेता है और तत्पश्चात् ही अन्य धर्म-क्रियाएं शुरू करता है, तब फिर उसका नित्यप्रति पाठ क्यो? क्या प्रतिदिन नित्य नयी सम्यक्त्व ग्रहण करनी चाहिए ? उत्तर है कि सम्यक्त्व तो एक बार प्रारम्भ मे ग्रहण की जाती है, प्रतिदिन नही । परन्तु, प्रत्येक सामायिक आदि धर्म-क्रिया के प्रारम्भ मे, प्रतिदिन जो यह पाठ बोला जाता है, इसका प्रयोजन सिर्फ यह है कि ग्रहण की हुई सम्यक्त्व की स्मृति को सदा ताजा रक्खा जाय । प्रतिदिन प्रतिज्ञा को दोहराते रहने से आत्मा मे बल का सचार होता है, और प्रतिज्ञा नित्य प्रति अधिकाधिक स्पष्ट, शुद्ध एव सवल होती जाती है।
यदि वास्तविक दृष्टि से विचार किया जाए तो सम्यक्त्व ग्रहण करने की, किसी से लेनेदेने की चीज नही है। वह तो आत्मा की एक विशिष्ट शुद्ध परिणति है, वह अन्तर मे से ही जागृत होती है । यह जो पाठ हैं, वह बाहर का व्यवहार है। इसका लाभ केवल इतना है कि साधक को सम्यक्त्व के स्वरूप की प्रतीति होती रहे, अपने शुद्ध स्वरूप एव ध्येय की स्मृति सदा जागृत रहे ।
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गुरु-गण-स्मरण-सत्र
ཁ་འདུག་ཟས་ལ་བཟང་
[१] पंचिदिय-संवरणो,
तह नवविह-बंभचेर-गुत्तिधरो। चउविह-कसायमुक्को, इस अट्ठारसगुणेहि सजुत्तो।
[ २ ] पंच मह वय-जुत्तो,
पंचविहायारपालगसमत्थो । पचसमियो तिगुत्तो, छत्तीसगुणो गुरू मज्झ ॥
शब्दार्थ पचिदिय-सवरणो-~-पाच इन्द्रियो को अर्थात् पाच इन्द्रियो के
विषयो को रोकनेवाले, वश मे करने वाले तह–तथा इसी प्रकार नव-विह-बभचेर गुत्तिघरो–नव प्रकार की ब्रह्मचर्य की गुप्तियो
को धारण करने वाले
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सामायिक-सूत्र
चउविहकसायमुक्को-चार प्रकार के कषाय से मुक्त इन-इन अट्ठारस-गुणेहि सजुत्तो-अट्ठारह गुणो से सयुक्त पंच महन्वय-जुत्तो-पॉच महाव्रतो से युक्त पचविहायारपालणसमत्थो-पाच प्रकार का आचार पालने मे समर्थ पंचसमित्रो-पाच समिति वाले तिगुत्तो-तीन गुप्ति वाले छत्तीसगुणो-छत्तीस गुणो वाले सच्चे त्यागी मज्भ-मेरे गुरु - गुरु हैं
भावार्थ पाँच इन्द्रियो के वैषयिक चाचल्य को रोकने वाले, ब्रह्मचर्य-व्रत की नवविध गुप्तियो को-नौ बाडो को धारण करने वाले, क्रोध आदि चार प्रकार की कषायो से मुक्त, इस प्रकार अठारह गुणो से सयुक्त
-अहिंसा आदि पाँच महाव्रतो से युक्त, पाँच प्राचार के पालन करने में समर्थ, पाँच समिति और तीन गुप्ति के धारण करने वाले, अर्थात् उक्त छत्तीस गुणो वाले श्रेष्ठ साधु मेरे गुरु हैं ।
विवेचन मनुप्य का महान् एव उन्नत मस्तक, जो अन्यत्र किसी भी गति एव योनि मे कहीं भी प्राप्त नही होता, क्या वह हर किसी के चरणो मे झुकने के लिए है ? नहीं, ऐसा नही हो सकता | मनुष्य का मस्तक विचारो का सर्वश्रेष्ठ केन्द्र है। वह नरक, तिर्यंच, स्वर्ग और मोक्ष सभी स्थितियो का स्रष्टा है। दृश्य-जगत् मे यह जो कुछ भी वैभव विखरा पडा है, सव उसी की उपज है। अतएव, यदि वह भी अपने
आपको विचार-शून्य बना कर हर किसी के चरणो की गुलामी स्वीकार करने लगे, तो इससे बढकर मनुष्य का और क्या पतन हो मकता है ?
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गुरु-गुण-स्मरण-सूत्र
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सद्गुरु कौन ?
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शास्त्रकारो ने सद्गुरु की महिमा का मुक्त कठ से गुणगान किया है | उनका कहना है कि प्रत्येक साधक को गुरु के प्रति असीम श्रद्धा और भक्ति का भाव रखना चाहिए । भला जो मनुष्य प्रत्यक्ष - सिद्ध महान् उपकार करने वाले एव माया के दुर्गम पथ को पार कर सयम-पथ पर पहुँचाने वाले अपने आराध्य सद्गुरु का ही भक्त नही है, वह परोक्ष-सिद्ध भगवान का भक्त कैसे हो सकेगा ? साधक पर सद्गुरु का इतना विशाल ऋरण है कि उसका कभी बदला चुकाया ही नही जा सकता । गुरुमहत्ता अपरम्पार है, अत प्रत्येक धर्म-साधना के प्रारम्भ मे सद्गुरु को श्रद्धा-भक्ति के साथ अभिवन्दन करना चाहिए | परन्तु प्रश्न है ? कौन-सा गुरु ? किसके चरणो मे नमस्कार ? सद्गुरु के चरणो मे, या सद्गुरु वेष धारी के चरणो मे ?
श्राज संसार मे, विशेष कर भारत मे, गुरु-रूप- धारी द्विपद जीवो की कोई साधारण - सी सीमित संख्या नही है । जिधर देखिए उधर ही गली-गली मे सैकडो गुरु- नामधारी महापुरुष घूम रहे हैं, जो भोलेभाले भक्तो को जाल मे फसाते है, भद्र महिलाओ के उन्नत जीवन को जादू टोने के वहम मे नष्ट कर देते हैं। कुछ दूसरे कारणो को गौरा रूप मे रक्खा जाय, तो भारत के पतन का यदि कोई मुख्य कारण है, तो वह गुरु ही है, ऐसा कहा जा सकता है | भला, जो दिन-रात भोगविलास में लगे रहते हैं, चढावे के रूप मे बड़ी से बडो भेटे लेते है, राजा का-सा ठाठ - वाट सजाए रखते है, माल - मलीदा खाते हैं, इतर - फुलेल लगाते है, नाटक सिनेमा देखते हैं, मद्य, गाँजा, भाँग, सुलफा आदि मादक पदार्थो का सेवन करते हैं, उन गुरुग्रो से देश का क्या भला हो सकता है ? जो स्वय अन्धा हो, वह दूसरो को क्या खाक मार्ग दिखाएगा ? अतएव प्रस्तुत-सूत्र मे बतलाया है कि सच्चे गुरु कौन हैं ? किनको वन्दन करना चाहिए ? प्रत्येक साधक को दृढ प्रतिज्ञ होना चाहिए कि "वह सूत्रोक्त छत्तीस गुरणो के धर्ता महात्माओ को ही अपना धर्म - गुरु मानेगा, अन्य ससारी को नही ।" गुरु-वन्दन से पहले उक्त प्रतिज्ञा का स्मरण करना एव गुरु के गुणो का सकल्प करना अत्यावश्यक है । इसी उद्देश्य की पूर्ति के लिए यह सूत्र-पाठ, सामायिक करते समय गुरु वन्दन से पहले पढा जाता है ।
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सामायिक-सूत्र
पांच इन्द्रियो का दमन
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जीवात्मा को ससार सागर मे डुवाने वाली पाच इन्द्रियाँ हैंस्पर्शन इन्द्रिय- त्वचा, रसन इन्द्रिय - जिह्वा, घ्राण इन्द्रिय- नाक, चक्ष - ग्रॉख र श्रोत्र इन्द्रिय- कान । पाँचो इन्द्रियो के मुख्य विषय क्रमश इस प्रकार है - स्पर्श, रस, गन्ध, रूप और शब्द | गुरु वह है जो उक्त विषयो मे समभाव रखे । यदि प्रिय हो, तो राग न करे और यदि प्रिय हो, तो प न करे ।
नवविध ब्रह्मचर्य
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पाच इन्द्रियो की चचलता रोक देने से ब्रह्मचर्य व्रत का पालन अपने-आप हो जाता है । तथापि ब्रह्मचर्य व्रत को अधिक दृढता के साथ निर्दोष पालन करने के लिए शास्त्र मे नव गुप्तियाँ बतलाई हैं । नव गुप्तियो को साधारण भाषा मे वाड भी कहते हैं । जिस प्रकार वाड अन्दर रही हुई वस्तु का सरक्षण करती है, उसी प्रकार नव गुप्तियाँ भी ब्रह्मचर्यव्रत का सरक्षण करती है ।
१ - विविक्त वसति - सेवा - एकान्त स्थान मे निवास करना । स्त्री, पशु, श्रीर नपु सक तीनो की काम चेप्टाएँ विकारोत्तेजक होती हैं, तब्रह्मचर्य की रक्षा के लिए उक्त तीनो से रहित एकान्त शान्त स्थान में निवास करना चाहिए ।
२ - स्त्री- कथा - परिहार — स्त्रियो की कथा का परित्याग करना । स्त्री - कथा से मतलब यहाँ स्त्रियों की जाति, कुल, रूप, और वेषभूषा यादि के वर्णन से है । जिस प्रकार नीबू के वर्णन से जिह्वा मे से पानी वह निकलता है, उसी प्रकार स्त्री-कथा से भी हृदय में वासना का झरना वह निकलता है ।
३ - निषद्यानुपवेशन - निपद्या यानी स्त्री के बैठने की जगह, उस पर नही बैठना । शास्त्र मे कहा है कि जिस स्थान पर स्त्री वैठती हो, उसके उठ जाने के बाद भी दो घडी तक ब्रह्मचारी को वहाँ नही बैठना चाहिए | काररण, स्त्री के शरीर के सयोग से वहाँ उष्णता हो
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गुरु-गुण-स्मरण-सूत्र
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जाती है, वासना का वायु-मडल तैयार हो जाता है । अत बैठने वाले के मन मे विह्वलता आदि दोष पैदा हो सकते हैं । आजकल के वैज्ञानिक भी विद्य ुत के नाम से उक्त परिस्थिति को स्वीकार करते है ।
४ - इन्द्रियाप्रयोग - स्त्री के मुख, नेत्र, हाथ, पैर आदि अवयवो की ओर देखने का प्रयत्न नही करना चाहिए । यदि प्रसग -वश कदाचित् दृष्टि पड भी जाय, तो शीघ्र ही हटा लेना चाहिए । सौन्दर्य के देखने से मन मे मोहनी जागृत होगी, काम-वासना उठेगी, अन्त मे ब्रह्मचर्य व्रत के भग की आशका भी उत्पन्न हो जाएगी । जिस प्रकार सूर्य की ओर देखने से आँखो का तेज घटता है, उसी प्रकार स्त्री के अवयवो को देखने से ब्रह्मचर्य का बल भी क्षीण हो जाता है ।
६–कुड्यान्तर-दाम्पत्यवर्जन — एक दीवार के अन्तर से स्त्री-पुरुष रहते हो, तो वहाँ नही रहना । कुड्य का अर्थ दीवार है, अन्तर का अर्थ दूरी से है, और दाम्पत्य का अर्थ स्त्री-पुरुष का युगल है । पास रहने से श्रृङ्गार श्रादि के वचन सुनने पर काम जागृत हो सकता है । अग्नि के पास रहा हुग्रा मोम पिघल ही जाता है ।
६ - पूर्व कोडित स्मृति - पहली काम-क्रीडाओ का स्मरण न करना । ब्रह्मचर्य धारण करने के पहले जो वासना का जीवन रहा है, स्त्रियो के साथ सासारिक सम्बन्ध कायम रहा है, उसको व्रती हो जाने के बाद कभी भी अपने चिन्तन मे नही लाना चाहिए। वासना का क्षेत्र बडा भयकर है | वासनाएँ भी जरा-सी स्मृति आ जाने पर पुनरुज्जीवित हो उठती है और साधना को नष्ट-भ्रष्ट कर डालती है । मादक पदार्थो का नशा स्मृति के द्वारा जागत होता है, यह सर्वसाधारण मे प्रसिद्ध है ।
७ - प्रणीताभोजन - प्रणीत का अर्थ अति स्निग्ध है । प्रत प्रणीत भोजन का अर्थ हुआ कि जो भोजन प्रति स्निग्ध हो, कामोत्तेजक हो, वह ब्रह्मचारी को नही खाना चाहिए। पौष्टिक भोजन से शरीर मे जो कुछ विषय-वासना की विकृतियाँ उत्पन्न होती हैं, उन्हें हर कोई स्वानुभव से जान सकता है । जिस प्रकार सन्निपात का रोग घी खाने से भयंकर रूप धारण कर लेता है, उसी प्रकार विषय-वासना भी पौष्टिक पदार्थो के अमर्यादित सेवन से भडक उठती है ।
द-
-- प्रतिमात्राभोग - प्रमाण से अधिक भोजन नही करना । भोजन का सयम, ब्रह्मचर्य की रक्षा के लिए रामबाण अस्त्र है । भूख से
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सामायिक-सूत्र
अधिक भोजन करने से शरीर मे आलस्य पैदा होता है, मन मे चचलता होती है, और अन्त मे इन सब बातो का असर ब्रह्मचर्य पर पड़ता है।
E-विभूषा-परिवर्जन-विभूषा का अर्थ अलकार एव श्रङ्गार होता है, और परिवर्जन का अर्थ त्याग होता है । अत. विभूषा-परिवर्जन का अर्थ 'शृगार का त्याग करना' हुआ। स्नान करना, इत्रफुलेल लगाना, भडकदार बढिया वस्त्र पहनना, इत्यादि कारणो से अपने मन मे भी आसक्ति की भावना जागृत होती है और देखने वालो के मन मे भी मोह का उद्रेक हो जाता है। कुम्हार को लाल रत्न मिला, साफ करके छप्पर पर रख दिया । सूर्य के प्रकाश मे ज्यो ही चमका, मास का टुकडा समझ कर चील उठाकर ले गई । श्रृङ्गारप्रेमी साधु के ब्रह्मचर्य का भी यही हाल होता है ।
चार कषाय का त्याग
__ कर्म-बन्ध का मुख्य कारण कपाय है। कषाय का शाब्दिक अर्थ होता है- 'कष-ससार । प्राय लाभ ।' अर्थात् जिससे ससार का लाभ हो, जन्म-मरण का चक्र वढता हो, वह कषाय है । मुख्य रूप से कपाय के चार प्रकार है
(१) क्रोध-क्रोध से प्रेम का नाश होता है। क्रोध क्षमा से दूर किया जा सकता है।
(२) मान-अहकार विनय का नाश करता है। नम्रता के द्वारा अहकार नष्ट किया जा सकता है।
(३) माया-माया का अर्थ कपट है । माया मित्रता का नाश करती है, आर्जव-सरलता से माया दूर की जा सकती है।
(४) लोभ-लोभ सबसे अधिक भयकर कषाय है । यह सभी सद्गुरगो का नाश करने वाला है । लोभ पर सतोष के द्वारा ही विजय प्राप्त की जा सकती है।
पांच महाव्रत
१--सव-प्राणातिपात-विरमरण-सव प्रकार से अर्थात् मन, वचन और शरीर से प्राणातिपात-जीव की हिंसा-का त्याग करना,
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गुरु-गुण-स्मरण-सूत्र
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प्रथम अहिंसा महाव्रत है । प्राणातिपात का अर्थ-प्राणो का अतिपात -नाश है। प्राण दश हैं—पाच इन्द्रिय, मन, वचन, काय, श्वासोच्छवास और आयुष्य । विरमण का, अर्थ त्याग करना है । अत किसी भी जीव के प्रारणो का नाश करना हिंसा है। हिंसा का त्याग करना अहिंसा है।
(२) सर्व-मृषावाद-विरमरण-सब प्रकार से मृषावाद-झूठ बोलने का त्याग करना, सत्य महाव्रत है । मृषा का अर्थ झूठ, वाद का अर्थ भाषण, विरमरण का अर्थ त्याग करना है।
(३) सर्व-अदत्तादान-विरमण-सब प्रकार से अदत्त चोरी का त्याग करना, अस्तेय महाव्रत है। अदत्त का अर्थ बिना दी हुई वस्तु है, अादान का अर्थ ग्रहण करना है।
(४) सर्व-मथुन-विरमरण-सब प्रकार से मैथुन-काम वासनाका त्याग करना, ब्रह्मचर्य महावत है। मन, वचन और शरीर से किसी भी प्रकार की काम-सम्बन्धी चेष्टा करना, साधु के लिए सर्वथा निषिद्ध है। ___ (५) सर्व-परिग्रह-विरमरण-सब प्रकार से परिग्रह-धन-धान्य आदि का त्याग करना, अपरिग्रह महाव्रत है । अधिक क्या, कौडी मात्र धन भी अपने पास न रखना, न दूसरो के पास रखवाना और न रखने वालो का अनुमोदन करना । सयम की साधना के उपयोग मे आने वाले मर्यादित वस्त्र-पात्र आदि पर भी मूर्छा-भाव न रखना। ___पाँचो ही महाव्रतो मे मन, वचन और शरीर-करना, कराना और अनुमोदन करना—सब मिलकर नव कोटि से क्रमश हिंसा आदि का त्याग किया जाता है। महाव्रत का अर्थ है- महान् व्रत । महाव्रती साधु ही हो सकता है, गृहस्थ नही । गृहस्थ-धर्म मे 'सर्व' के स्थान पर 'स्थूल' शब्द का प्रयोग किया जाता है । जिसका अर्थ यह है कि गृहस्थ मर्यादित रूप से स्थूल हिंसा, स्थूल असत्य आदि का त्याग करता है। अत गृहस्थ के ये पाँच अरण -व्रत कहलाते है- अणु का अर्थ छोटा होता है।
पाँच प्राचार
(१) ज्ञानाचार-ज्ञानाभ्यास स्वय करना और दूसरो को कराना, ज्ञान के साधन शास्त्र आदि स्वय लिखना तथा ज्ञान-भडारो की रक्षा करना
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सामायिक-सूत्र
और ज्ञानाभ्यास करने वालो को यथायोग्य सहायता प्रदान करना--यह सब ज्ञानाचार है।
(२) दर्शनाचार-दर्शन का अर्थ सम्यक्त्व है। अत सम्यक्त्व का स्वय पालन करना, दूसरो से पालन करवाना, तथा सम्यक्त्व से भ्रष्ट होने वाले साधको को हेतु एव तर्क आदि से प्रेमपूर्वक समझा कर पुन सम्यक्त्व मे दृढ करना- यह सब दर्शनाचार है।
(३) चारित्राचार-अहिंसा आदि शुद्ध चारित्र का स्वय पालन करना, दूसरो से पालन करवाना, तथा पालन करने वालो का अनुमोदन करना, पापाचार का परित्याग करके सदाचार पर आरूढ होने का नाम चारित्राचार है ।
(४) तप-आचार-बाह्य तथा आभ्यन्तर दोनो ही प्रकार का तप स्वय करना, दूसरो से कराना, करने वालो का अनुमोदन करना । यह सब तप साधना, तप प्राचार है। बाह्य तप अनशन-उपवास आदि है, और आभ्यन्तर तप स्वाध्याय, ध्यान, विनय आदि है।
(५) वीर्याचार-धर्मानुष्ठान मे-प्रतिक्रमण, प्रतिलेखन, स्वाध्याय आदि मे अपनो शक्ति का यथावसर उचित प्रयोग करना । कदापि पालस्य आदि के वश धर्माराधन मे अन्तराय नही डालना। अपनी मानसिक, वाचिक तथा शारीरिक शक्ति को दुराचरण से हटाकर सदाचरण मे लगाना-वीर्याचार है।
पाँच समिति
समिति का शाब्दिक अर्थ होता है-सम्=सम रूप से+इति= जाना अर्थात् प्रवृत्ति करना । फलितार्थ यह है कि चलने मे, बोलने मे, अन्नपान आदि की गवेषणा मे, किसी वस्तु को लेने या रखने मे, मल-मूत्र आदि को परठने मे, सम्यक् रूप से मर्यादा रखना अर्थात् गमनादि किसी भी क्रिया मे विवेक-युक्त सीमित प्रवृत्ति करना, समिति है। समिति के पाँच भेद हैं
(१) ईर्या-समिति-ईर्या का अर्थ गमन होता है, अत किसी भी जीव को पीडा न पहुँचे-इस प्रकार सावधानता पूर्वक गमनागमनादि क्रिया करना, ईर्या समिति है।
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गुरु-गुण- स्मरण - सूत्र
(२) भाषा समिति - भाषा का अर्थ बोलना है, अत सत्य, हितकारी, परिमित तथा सन्देह रहित, मृदु वचन बोलना भाषा समिति है ।
(३) एषरणा समिति - एषणा का अर्थ खोज करना होता है । प्रत जीवन-यात्रा के लिए आवश्यक ग्राहारादि साधनो को जुटाने की सावधानता पूर्वक निरवद्य प्रवृत्ति करना, एषरणा समिति है ।
(४) श्रदान- निक्षेप-समिति — प्रादान का अर्थ ग्रहण करना और निक्ष ेप का अर्थ रखना होता है । अत अपने पात्र पुस्तक आदि वस्तु को भली-भाँति देख-भाल कर, प्रमार्जन करके लेना अथवा रखना, आदान-निक्षेप - समिति है ।
(५) उत्सर्ग-समिति — उत्सर्ग का अर्थ त्याग होता है । प्रत वर्तमान मे जीव-जन्तु न हो अथवा भविष्य मे जीवो को पीडा पहुँचने की सभावना न हो, ऐसे एकान्त प्रदेश मे अच्छी तरह देख कर तथा प्रमाजनकर के ही अनुपयोगी वस्तुओ को डालना, उत्सर्ग समिति है । उक्त समिति को परिष्ठा पनिका समिति भी कहते हैं । परिष्ठापन का अर्थ भी परठना, त्यागना ही है ।
तीन गुप्ति
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गुप्ति का अर्थ गुप्= रक्षा करना, रोकना है । अर्थात् सासारिक वासनाओ से आत्मा की रक्षा करना, विवेकपूर्वक मन, वचन और शरीर-रूप योगत्रय की प्रवृत्तियो का प्रशत या सर्वंत निग्रह करना गुप्ति है ।
(१) मनोगुप्ति -- कुशल यानी पाप-पूर्ण सकल्पो का निरोध करना । मन का गोपन करना, मन की चंचलता को रोकना, बुरे विचारो को मन मे न आने देना ।
(२) वचन - गुप्ति – वचन का निरोध करना, निरर्थक वार्तालाप न करना, मौन रहना | बोलने के प्रत्येक प्रसग पर, वचन पर यथावश्यक नियन्त्रण रखना, वचन - गुप्ति है ।
(३) काय - गुप्ति - बिना प्रयोजन शारीरिक क्रिया नही करना । किसी भी चीज के लेने, रखने, किंवा बैठने आदि क्रियाओ मे सयम करना, स्थिरता का अभ्यास करना, काय - गुप्ति है ।
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सामायिक-सूत्र
समिति और गुप्ति, सयम जीवन के प्रधान तत्त्व हैं । अतएव जैनसिद्धान्तो मे इन को आठ प्रवचन माता कहा है। प्रवचन अर्थात् शास्त्र, उसकी माता । पाठ प्रवचन माता का समावेश सवर-तत्त्व मे होता है। कारण, इन से कर्मों का सवरण होता है, नये कर्मों के बन्धन का प्रभाव होता है।
समिति और गुप्ति का अन्तर
समिति और गुप्ति मे क्या अन्तर है ? उक्त-प्रश्न का समाधान यह है कि यथानिश्चित काल तक मन, वचन तथा शरीर इन तीनो योगो का निरोध करना गुप्ति है। और गुप्ति मे बहुत काल तकस्थिर रह सकने में असमर्थ साधक की कल्याण-रूप क्रियाप्रोमे प्रवृत्ति समिति है । भाव यह है कि गुप्ति मे असत् क्रिया का निषेध मुख्य है, समिति मे सक्रिया का प्रवर्तन मुख्य है ।
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गुरुवन्दन-सूत्र
तिक्खुत्तो आयाहिरण पयाहिरणं करेमिः वंदामि, नमसामिः सक्कारेमिः सम्मारणेमि कल्लाणं मंगलं देवयं चेइयं पज्जुवासामि मत्थएण वंदामि ।
शब्दार्थ
तिक्खुत्तो-तीन बार प्रायाहिण=दाहिनी ओर से पयाहिण=प्रदक्षिणा फरेमि करता हूँ वदामि स्तुति करता हूँ नमसामि नमस्कार करता हूं
सक्कारेमि=सत्कार करता हूँ सम्मारणेमिसम्मान करता हूँ कल्लारण = कल्याण-रूप को मगल-मगल-रूप को देवय-देवता-स्वरूप को चेइय=ज्ञान-स्वरूप को
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सामायिक सूत्र
पज्जुवासामि = उपासना करता हूँ वदामि = वन्दना करता
मत्थ एण = मस्तक से
वन्दना करता हूँ, नमस्कार करता सत्कार करता हूँ, सम्मान करता हूँ ।
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भावार्थ
भगवन् । दाहिनी ओर से प्रारंभ करके पुन दाहिनी ओर तक आपकी तीन बार प्रदक्षिणा करता हूँ ।
आप कल्याण - रूप है, मंगल रूप है ।
आप देवता-स्वरूप हैं, चैत्य स्वरूप यानी ज्ञान स्वरूप हैं ।
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गुरुदेव । ग्रापकी - मन, वचन और शरीर से - पर्युपासनासेवा - भक्ति करता हूँ ।
विनय-पूर्वक मस्तक झुका कर आपके चरण कमलो मे वन्दना करता हूँ ।
विवेचन
आध्यात्मिक-साधना के क्षेत्र मे गुरु का पद बहुत ऊँचा है । कोई भी दूसरा पद इसकी समानता नही कर सकता । गुरुदेव हमारी जीवन- नौका के नाविक है । अत वे ससार-समुद्र के काम, क्रोध, मोह आदि भयकर श्रावर्तो मे से हमे सकुशल पार पहुँचाते है ।
आप जानते हैं- जब घर मे अन्धकार होता है, तब क्या दशा होती है ? कितनी कठिनाइयों का सामना करना पडता है ? चोर और सेठ का, रस्सी और सर्प का विवेक नष्ट हो जाता है । अन्धकार के कारण इतना विपर्यास होता है कि कुछ पूछिए ही नही । सत्असत् का कुछ भी विवेक नही रहता । ऐसी दशा मे, दीपक का कितना महत्त्व है, यह सहज ही समझ मे आ सकता है । ज्यो ही घनान्धकार मे दीपक जगमगाता है, चारो ओर शुभ्र प्रकाश फैल जाता है, तो कितना श्रानन्द होता है ? प्रत्येक वस्तु अपने रूप मे ठीक-ठीक दिखाई देने लगती है । सर्प और रस्सी सेठ और चोर स्पष्टतया सामने झलक उठते है ! जीवन मे प्रकाश की कितनी आवश्यकता है ?
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गुरु वन्दन - सूत्र
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प्रज्ञान का अधकार
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यह तो केवल स्थूल द्रव्य अन्धकार है । परन्तु, एक और अन्धकार है, जो इससे अनन्त गुरण भयकर है। यदि वह अन्धकार विद्यमान हो, तो उसे हजारो दीपक, हजारो सूर्य भी नष्ट नही कर सकते । वह अन्धकार हमारे अतरग का है। उसका नाम अज्ञान है । प्रज्ञान- अन्धकार के कारण ही आज ससार मे भयकर मारामारी होती है । प्रत्येक प्राणी वासना के जाल मे फँसा हुआ तडप रहा है । मुक्ति का मार्ग कही दृष्टिगत ही नही होता । साधु को प्रसाधु, असाधु को साधु, देव को कुदेव, कुदेव को देव, धर्म को अधर्म, अधर्म को धर्म, श्रात्मा को जड और ज़ड को आत्मा समझते हुए यह ग्रात्मा अज्ञानता के कारण ठोकरो-पर-ठोकरें खाता हुआ अनादिकाल से भटक रहा है ।
सद्गुरु का महत्व
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सद्गुरु ही इस अज्ञान को दूर कर सकते है । हमारे प्राध्यात्मिक जीवन-मन्दिर के वे ही प्रकाशमान दीपक है । उनकी कृपा दृष्टि से ही हमे वह प्रकाश मिलता है, जिसको लेकर जीवन की विकट घाटियो को हम सानन्द पार सकते हैं । उक्त प्रकाश - कर्तृत्व गुण को लेकर ही वैयाकरणो ने गुरु शब्द की व्युत्पत्ति की है कि 'गु' शब्द अन्धकार का वाचक है औरा 'रु' शब्द विनाश का वाचक है । अत गुरु वह, जो अन्धकार का नाश करता है ।
आज के युग मे गुरु बहुत सस्ते हो रहे हैं । जन-गणना के अनुसार आजकल अकेले भारत मे ५६ लाख गुरुप्रो की फौज जनता के लिए अभिशाप बन रही है । अतएव जैन शास्त्रकार गुरु पद का महत्व ऊँचा बताते हुए उसके कर्तव्य को भी ऊँचा बता रहे हैं । गुरुपद के लिए न केला ज्ञान ही काफी है, और न अकेली क्रिया ही । ज्ञान और क्रिया का सुन्दर समन्वय ही गुरुत्व को सृष्टि कर सकता है | आज के गुरु लाखो की सम्पत्ति रखते हुए, भोग-विलास के मनमाने ग्रानन्द उठाते हुए जनता को वेदान्त का उपदेश देते फिरते है ससार के मिथ्या होने का ढिंढोरा पीटते फिरते है | भला, जो स्वय ग्रन्धा है, वह दूसरो को क्या मार्ग दिखलाएगा ? जो स्वय पगु है वह
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सामायिक सूत्र
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वह दूसरो को किस प्रकार लक्ष्य पर पहुँचाएगा ? जिसका जीवन ही शास्त्र हो, जिसकी प्रत्येक क्रिया पर त्याग और वैराग्य की अमिट छाप हो, वही गुरु होने का अधिकारी है । मनुष्य का मस्तक बहुत बडी पवित्र चीज है । वह किसी योग्य महान् आत्मा के चरणो मे ही झुकने के लिए है । अत हर किसी ऐरे गैरे के प्रागे मस्तक रगडना पाप है, धर्म नही । अस्तु, गुरु बनाते समय विचार कीजिए, ज्ञान और क्रिया की ऊँचाई परखिए, त्याग और वैराग्य की ज्योति का प्रकाश देखिए । ऐसा गुरु ही ससार समुद्र से स्वय तिरता है और दूसरो को तार सकता हैं। गुरु की महत्ता ऊँची जाति और कुल वर्ग से नही है, रूप और ऐश्वर्य से नही है, किसी विशेष सम्प्रदाय से भी नही है । उसकी महत्ता तो मात्र गुणो से है, रत्नत्रय - ज्ञान, दर्शन, चारित्र से है । अतएव साम्प्रदायिक मोह को त्याग कर जहाँ कही गुरणो के दर्शन हो, वही मस्तक झुका दीजिए ।
गुरुदेव की महिमा के सम्बन्ध मे काफी वर्णन किया जा चुका है । अब जरा मूल-सूत्र के पाठो पर भी विचार कीजिए । गणधर देवो ने प्रस्तुत पाठ की रचना बडे ही भाव-भरे शब्दो मे की है। प्रत्येक शब्द प्रेम और श्रद्धा-भक्ति के गहरे रंग से रंगा हुआ है । उक्त पाठ के द्वारा शिष्य अपना अन्तर्हृदय स्पष्टतया खोल कर गुरुदेव के चरणो में समर्पण कर देता है ।
शब्दों मे भावो की गहराई
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मूल-सूत्र में 'वंदामि' आदि चार पद एकार्थक जैसे मालूम होते हैं । त प्रश्न होता है कि यदि ये सब पद एकार्थक हैं, तो फिर व्यर्थ ही सब का उल्लेख क्यो किया गया है ? किसी एक पद से ही काम नही चल जाता ? सूत्र तो सक्षिप्त पद्धति के अनुगामी होते है । सूत्र का अर्थ ही है- 'सक्षेप में सूचना मात्र देना ।'
'सूचनात्सूत्रम् ' - अभिधान चि० २।१५७
परन्तु, यहाँ तो एक ही अर्थ की सूचना के लिए इतने लम्बे-चौडे शब्दो का उल्लेख किया है । क्या यह सूत्र की शैली है ? उक्त प्रश्न के उत्तर में कहना है कि 'वदामि' आदि सब शब्दो का अलग-अलग
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गुरुवन्दन - सूत्र
अर्थ है, एक नही । व्याकरण - शास्त्र की गभीरता मे उतरते ही इन शब्दों की महत्ता पूर्ण रूप से प्रकट हो जायगी ।
'वदामि' का अर्थ वन्दन करना है । वन्दन का अर्थ स्तुति है । मुख से गुण-गान करना, स्तुति है । सद्गुरु को केवल हाथ जोडकर वन्दन कर लेना ही पर्याप्त नही है। गुरुदेव के प्रति अपनी वारणी को अर्पण कीजिए, उनकी स्तुति के द्वारा वारणी के मल को भी घोकर साफ कीजिए । किसी श्र ेष्ठ पुरुष को देखकर चुप रहना, उसकी स्तुति में कुछ भी न कहना, वाणी की चोरी है । जो साधक वारणी का इस प्रकार चोर होता है, जो गुणानुरागी नही होता है, जो प्रमोद भावना का पुजारी नही होता है, वह प्राध्यात्मिक विभूति का किसी प्रकार भी अधिकारी नही हो सकता ।
1
'नमसामि' का अर्थ नमस्कार करना है । नमस्कार का अर्थ पूजा है, पूजा का अर्थ प्रतिष्ठा है, और प्रतिष्ठा का अर्थ है - उपास्य महापुरुष को सर्वश्रेष्ठ समझना, भगवत्स्वरूप समझना । जब तक साधक के हृदय में श्रद्धा की बलवती तरग प्रवाहित न हो सद्गुरू को सर्वश्र ेष्ठ समझने का शुभ सकल्प जागृत न हो, तब तक शून्य हृदय से यदि मस्तक को झुका भी दिया, तो क्या लाभ ? वह नमस्कार निष्प्राण है, जीवन शून्य है । इस प्रकार के नमस्कार से अपने शरीर को केवल पीडा ही देना है और कुछ लाभ नही ।
'सत्कार' का अर्थ मन से आदर करना है । मन मे आदर का भाव हो, तभी उपासना का महत्त्व है, अन्यथा नही । गुरुदेव के चरणो मे वन्दन करते समय मन को खाली न रखिए, उसे श्रद्धा एव आदर के अमृत से भर कर गद्गद बनाइए ।
'सम्मान' का अर्थ बहुमान देना है । जब भी कभी अवसर मिले गुरुदेव के दर्शन करना न भूलिए गुरुदेव के ग्रागमन को तुच्छ न समझिए, हजार काम छोड कर भी उनके चरणो मे वन्दन करने के लिए पहुचिये । सम्राट् भरत चक्रवर्ती ने जब सुना कि भगवान् ऋषभ देव अयोध्या नगरी के बाहर उद्यान मे पधारे है, तो पुत्र जन्म का महोसत्व छोडा, चक्र - रत्न पाने के कारण होने वाला अपना चक्रवर्ती पद - महोत्सव भी छोड़ा, और सब से पहले प्रभु के दर्शन को पहुंचा । इसे कहते है - वहुमान देना । यदि गुरुदेव का श्रागमन सुनकर भी
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सामायिक सूत्र
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मन मे उत्साह जागृत न हो, ससारी कामो का मोह न छटे, तो यह गुरुदेव का अपमान है । और, जहाँ इस प्रकार का अपमान होता है, वहाँ श्रद्धा कैसी और भक्ति कैसी ? ग्राजकल के उन साधको को इस शब्द पर विशेष लक्ष्य देना चाहिए, जो गुरुदेव के यह पूछने पर कि भाई, व्याख्यान ग्रादि सुनने कैसे नही ग्राए ? तव कहते हैं कि ग्रजी, काम मे लगा रहा. इसलिए नही ग्रा सका । और कुछ तो यह भी कहते हैं, ग्रजी, काम-वाम तो कुछ नही था, यो ही ग्रालस्य मे पडे रह गए । यह अपमान नही तो क्या है
'कल्लाणं' का संस्कृत रूप कल्याण है । कल्याण का स्थूल अर्थ क्ष ेम, राजी खुशी होता है । परन्तु हमे इसके लिए जरा गहराई मे उतरना चाहिए ।
श्रमर कोष के सुप्रसिद्ध टीकाकार एव महावैयाकरण भट्टोजी दीक्षित के सुपुत्र श्री भानुजी दीक्षित कल्याण का अर्थ प्रातस्मरणीय करते हैं ।
'कल्ये प्रात काले व्यते, 'प्ररण' शब्दे' (स्वा-प-से-)
- श्रमर-कोष १/४/२५
उक्त संस्कृत व्युत्पत्ति का हिन्दी मे यह अर्थ है - प्रात काल मे जो पुकारा जाता है, वह प्रात स्मरणीय है । कल्य + ग्ररण ये दो शब्द है । 'कल्य' का ग्रर्थ प्रात काल है, और 'रण' का अर्थ कहना, बोलना है । यह अर्थ बहुत ही सुन्दर है । रात्रि के गहन अन्धकार का नाश होते ही ज्यो ही सुनहरा प्रभात होता है श्रोर मनुष्य निद्रा से जाग उठता है, तब वह पवित्र ग्रात्माओ का शुभ नाम सर्वप्रथम स्मरण करता है । गुरुदेव का नाम इसके लिए पूर्णतया उचित है। अत गुरुदेव सच्चे प्रर्थो मे कल्याण रूप हैं ।
कल्याण का एक और ग्रर्थ ग्राचार्य हेमचन्द्र करते हैं । उनका अर्थ भी सुन्दर है ।
'फल्य नीरुजत्वमणतीति'
- ग्रभिवानचिन्तामरिण १ / ८६ कल्य का अर्थ है - नीरोगता - स्वस्थता । जो मनुष्य को नीरोगता प्रदान करता है, वह कल्याण है । यह ग्रर्थ श्रागम के टीकाकारो को भी ग्रभीष्ट है
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गुरुवन्दन -सूत्र
कल्योऽत्यन्तनीरुक्तया मोक्षस्तमाणयति प्रापयतीतिकल्याणः मुक्तिहेतौ - उत्तरा०, टीका, अ० ३ यहाँ कहा गया है कि कल्याण का अर्थ मोक्ष है, क्योकि वही ऐसा पद है जहाँ आत्मा पूर्णतया कर्म - रोग से मुक्त हो कर स्वस्थ होता है
- आत्मस्वरूप मे स्थित होता है । अस्तु, जो कल्य - मोक्ष प्राप्त भी कराए, वह कल्याण होता है । यह अर्थ गुरुदेव के महान् व्यक्तित्व के लिए सर्वथा अनुरूप है । गुरु ही हमे मोक्षप्राप्ति के साधनो के उपदेशक होने के कारण मोक्ष मे पहुँचाने वाले है ।
मगल का अर्थ कल्याण के समान ही शुभ, क्षेम, प्रशस्त एव शिव होता है । परन्तु जब हम व्याकरण की गहराई मे उतरते हैं, तो हमे मगल शव्द की अनेक व्युत्पत्तियो के द्वारा एक-से-एक मनोहर एव गभीर भाव दृष्टिगोचर होते हैं ।
आवश्यक नियुक्ति के ग्राधार पर प्राचार्य हरिभद्र दशवैकालिकसूत्र के प्रथम अध्ययन के प्रथम गाथासूत्र की टीका मे लिखते हैं'मग्यते = अधिगम्यते हितमनेन इति मंगलम्' - जि. क को हित की
प्राप्ति हो वह मगल है ।
अथवा
ए
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FIT
वादिति मंगलम्, ससारादपनयति'
वाच्य श्रात्मा को ससार के बन्धन से अलग करता छुडाता है, वह मंगल है |
उक्त दोनो व्युत्पत्तियाँ गुरुदेव पर पूर्णतया ठीक उतरती हैं । गुरुदेव के द्वारा ही साधक को आत्म-हित की प्राप्ति होती है और सासारिक काम, क्रोध यादि बन्धनो से छटकारा मिलता है ।
विशेषावश्यक भाष्य के प्रसिद्ध टीकाकार श्री मल्लधारी हेमचन्द्र कहते हैं—
'मड क्यते = श्रलक्रियते आत्मा इति मंगलम्' - विशेषा० ० गा० २३ शिष्यहितावृत्ति
- जिसके द्वारा ग्रात्मा शोभायमान हो, वह मगल है । 'मोदन्ते अनेन इति मंगलम्'
जिससे आनन्द तथा हर्ष प्राप्त हो वह मंगल है |
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सामायिक-सूत्र
'महन्ते-पूज्यन्ते अनेन इति मंगलम' जिसके द्वारा साधक पूज्य–विश्ववन्द्य होते हैं, वह मगल है ।
सद्गुरु ही साधक को ज्ञानादि गुणो से अलकृत करते हैं, निश्रेयस् का मार्ग बता कर आनन्दित करते हैं, अन्त मे आध्यात्मिक साधना के उच्च शिखर पर चढा कर त्रिभुवन-पूज्य बनाते है, अतः सच्चे मगल वे ही हैं। __ एक प्राचार्य मगल शब्द की और ही व्युत्पत्ति करते है। वह भी बड़ी ही सरस एव भावना-प्रधान है।
'मंगति=हितार्थ सर्पति इति मगलम्' -जो सब प्राणियो के हित के लिए प्रयत्नशील होता है, वह मंगल है।
'मगति दूर दुष्टमनेन अस्माद् वा इति मंगलम्' जिसके द्वारा दुर्दैव, दुर्भाग्य आदि सब सकट दूर हो जाते है वह मगल है।
उक्त व्युत्पत्तियो के द्वारा भी गुरुदेव ही सच्चे मगल सिद्ध होते हैं। जिसके द्वारा हित और अभीष्ट की प्राप्ति हो, वही तो मगल है। गुरुदेव से बढ कर हित तथा अभीष्ट की प्राप्ति का साधक दूसरा और कौन होगा ? द्रव्य मगलो की प्रवचना मे न पडकर गुरुदेव-रूप अध्यात्ममगल की उपासना करने से ही आत्मा का कल्याण हो सकता है। अभ्युदय एवं निश्रेयस् के द्वार गुरुदेव ही तो खोल सकते है । ____ 'देवय' का सस्कृत रूप दैवत होता है। दैवत का अर्थ देवता है । मानव, देवताग्रो का आदिकाल से ही पुजारी रहा है । वैदिक-साहित्य तो देवताग्रो की पूजा से ही भरा पड़ा है। परन्तु यहाँ उन देवताओं से मतलब नहीं है। साधारण भोग-विलासी देवतायो के चरणो में मस्तक झुकाने के लिए जैन-धर्म नही कहता। यहाँ तो उत्कृष्ट मानव मे ही देवत्व की उपासना की जाती है। प्राचार्य हरिभद्र के अष्टक प्रकरण की टीका मे श्री जिनेश्वर सूरि कहते है
'दीव्यन्ति स्वरूपे इति देवा ।'
-अष्टक-प्रकरण टीका २६ अष्टक अर्थात् जो अपने प्रात्म-स्वरूप मे चमकते है, वे देव है । गुरुदेव
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गुरुवन्दन-सूत्र
पर यह व्युत्पत्ति ठीक उतरती है । गुरुदेव अपना अलौकिक चमत्कार शुद्ध आत्म-तत्त्व मे ही दिखाते है ।
भगवान् महावीर भी सदाचार के ज्वलत सूर्य-रूप अपने साधु-अनगारो को देव कहते है । भगवती सूत्र मे पाँच प्रकार के देवो का वर्णन है । उनमे चतुर्थ श्र ेणी के देव, धर्मदेव बतलाए है, जो कि मुनि है"गोयमा ! जे इमे अणगारा भगवतो इरियासमिया० जाव गुत्तबमयारी, से तेणट्ठेण एव वच्चइ धम्मदेवा"
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o
— भगवती-सूत्र, श० १२, उद्द े० गुरु का गौरव
अहिंसा और सत्य आदि के महान् साधको को जैन-धर्म मे ही नही, वैदिक-धर्म मे भी देव कहा है । कर्मयोगी श्री कृष्ण दैवी सम्पदा का कितना सुन्दर वर्णन करते हैं
अमय सत्त्व-सश द्धिर्ज्ञान-योग-व्यवस्थिति । दान दमश्च यज्ञश्च स्वाध्यायस्तप आर्जवम् ॥
— गीता १६ । १ ।
स्वाभाव से ही निर्भय रहना, सन्मार्ग मे किसी से भी न डरना, सब को मन, वाणी और कर्म से प्रभयदान देना — अभय है । झूठ, कपट, दभ आदि के मल से अन्तकरण को शुद्ध रखना, सत्व सशुद्धि है । ज्ञान् योग की साधना मे दृढ रहना - ज्ञानयोग व्यवस्थिति है । दान – किसी अतिथि को कुछ देना । दम - इन्द्रियो का निग्रह | यज्ञ - जन सेवा के लिए उचित प्रवृत्ति करना । स्वाध्याय, तप और सरलता ।
अहिंसा सत्यमक्रोधस्त्याग. शान्तिरपैशुनम् ।
दया भूतेष्वलोलुप्त्व मार्दव हीरचापलम् ॥ २ ॥
अहिंसा, सत्य, क्रोध क्रोध न करना, विषय-वासनाओ का त्याग, शान्ति - चित्त की अनुद्विग्नता, प्रपैशुन-चुगली न करना, दया—- सब जीवो को अपने समान समझ कर उन्हे कष्टो से छुडाने का भरसक प्रयत्न करना, लोलुपता - अनासक्ति, मार्दव - कोमलता, लज्जा - अयोग्य कार्य करते हुए लजाना, श्रचपलता - बिना प्रयोजन यो ही व्यर्थ चेष्टा न करना ।
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सामायिक-सूत्र
तेज क्षमा धृति शौचमद्रोहो नातिमानता ।
भवन्ति सम्पद देवीमभिजातस्य भारत ॥ ३ ॥ तेज-अहिंसा आदि गुण-गौरव के लिए निर्भय भाव से प्रभावशाली रहना, क्षमा, धैर्य, शौच-मन, वाणी शरीर की प्राचरण-मूलक पवित्रता, अद्रोह-किसी भी प्राणी से घृणा और वैर न रखना, अपने-अापको दूसरो से वडा मानने का अहकार न करना और नम्र रहना-ये सब दैवी सम्पत्ति के लक्षण है।
उक्त गुणो का धारक मानव, साधारण मानव नही, देव है-परम देव परमात्मा के पद का आराधक है। ग्रासूरी भावना से निकल कर जव मनुष्य दैवी भावना मे पाता है, तब वह जीवन की अमर पवित्रता प्राप्त करता है, माया के बन्धन से छ टता है, विश्व का गुरु बनता है, और बिना किसी भेदभाव के सबको अजर, अमर सत्य का ज्ञान-दान देकर मुमुक्षु जनता का उद्धार करता है ।
वस्तुत विचार किया जाए, तो गुरुदेव का पद, देवता तो क्या, साक्षात् परमेश्वर के समान है। परमात्मा का अर्थ है-परम अर्थात् उत्कृष्ट प्रात्मा। गुरुदेव की आत्मा साधारण आत्मा नही, उत्कृष्ट प्रात्मा ही है। मानव-जीवन मे काम, क्रोध, मद, लोभ वासना आदि पर विजय प्राप्त करना आसान काम नही है । बडे-बडे वीर, धीर, शूर भी इन विकारो के आवेग के समय हतप्रभ हो जाते है । भयकर गजराज को वश मे करना, काल-मूर्ति सिंह की पीठ पर सवार होना, ससार के एक छोर से दूसरे छोर तक विजय प्राप्त कर लेना बहुत ही आसान है, परन्तु अपने अन्दर मे ही रहे हुए विकार-रूप शत्र ओ पर विजय प्राप्त करना, किसी विरले ही आत्म-साधक का काम है। कोई महान् प्रतापी एव तेजस्वी आत्मा ही अन्तरग शत्रुओ को नष्ट कर सकता है। अतएव एक प्राचार्य ने ठीक ही कहा है कि स्त्री और धन-इन दो पाशो मे सारा ससार जकडा हुआ है। अत जिसने इन दोनो पर विजय प्राप्त करली है, वीतरागता धारण करली है, वह दो हाथो वाला साक्षात् परमेश्वर है
कान्ता कनक-सूत्रेण, वेष्टितं सक्ल जगत्,
तासु तेषु विरफ्तो यो, द्विभुज परमेश्वर । जैन-साहित्य मे भी इसी भावना को लक्ष्य मे रखकर गुरु देव को
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गुरुवन्दन-सूत्र
'भन्ते' शब्द से सम्बोधित किया गया है ! भन्ते का अर्थ भगवान् है । देखिए, 'करेमि भन्ते' आदि सूत्र |
'चैत्य' शब्द की अनेकार्थकता
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'चेइय' - प्राकृत शब्द का संस्कृत रूप चैत्य है । इसके सम्बन्ध में कुछ साम्प्रदायिक विवाद है । कुछ विद्वान् चैत्य का अर्थ ज्ञान करते है । इस परम्परा के अनुयायी स्थानकवासी है। दूसरे विद्वान् चैत्य का श्रर्थ प्रतिमा करते हैं । इस परम्परा के अनुयायी श्वेताम्बर मूर्तिपूजक हैं । चैत्य शब्द अनेकार्थक है, अत प्रसंगानुसार ही इसका अर्थ ग्रहण किया जाता है । प्रस्तुत प्रसग मे कौनसा अर्थ अभिप्रेत है, इस पर थोडा विचार करना अत्यावश्यक है ।
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चैत्य का ज्ञान अर्थ करने मे तो कोई विवाद ही नही है । ज्ञान, प्रकाश का वाचक है । अतः गुरुदेव को 'ज्ञान' कहना, प्रकाश शब्द से सम्बोधित करना, सर्वथा औचित्यपूर्ण है । 'चिती सज्ञाने' धातु से चैत्य शब्द बनता है, जिसका अर्थ ज्ञान है ।
चैत्य का दूसरा अर्थ प्रतिमा भी यहाँ घटित ही है, प्रघटित नही । मूर्तिपूजक विद्वान् भी यहाँ चैत्य का अभिधेय अर्थ मूर्ति न करके, लक्षणा द्वारा मूर्ति सदृश पूजनीय अर्थ करते हैं । जिस प्रकार किसी मूर्ति पूजक पन्थ के अनुयायी को अपने इष्ट देव की प्रतिमा आदरणीय एव सत्करणीय होती है, उसी प्रकार गुरुदेव भी सत्करणीय हैं । यह उपमा है । उपमा लौकिक पदार्थों की भी दी जा सकती है, इसमे किसी सम्प्रदाय विशेप का अभिमत मान्य एवं श्रमान्य नही हो जाता । स्थानकवासी यदि यह अर्थ स्वीकार करें, तो कोई आपत्ति नही है । क्या हम ससार मे लोगो को अपने-अपने इष्टदेव की प्रतिमाओ का आदर-सत्कार करते नही देखते है ? क्या उपमा देने मे भी कुछ दोष है ? यहाँ तीर्थ कर की प्रतिमा के सदृश तो नही कहा है और न श्वेताम्बर मूर्तिपूजक आचार्यों ने ही यह माना है | देखिए प्रभयदेव सूरि क्या लिखते है
P
'चैत्यमिष्टदेवप्रतिमा, चैत्यमिव चैत्य पर्युपासयाम'
-भग० २ श०, १ उ० यह भगवती का स्थल भगवान् महावीर से सम्वन्ध रखता है ।
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सामायिक सूत्र अत साक्षात् भगवान् को वन्दना करते समय उनको उनकी ही मूर्ति के सदृश बताना, कैसे उचित हो सकता है ? अस्तु, लोक-प्रचलित उपमा देना ही यहाँ अभीष्ट है।
उक्त दो अर्थों के अतिरिक्त, 'चैत्य' शब्द के कुछ और भी अर्थ किए जाते हैं । आचार्य अभयदेव स्थानाग सूत्र की टीका मे लिखते हैं कि 'जिनके देखने से चित्त मे पालाद उत्पन्न हो, वे चैत्य होते है___ 'चित्ताह्लादकत्वाद्वा चैत्या' ।
-स्थानांगटीका ४/२ यह अर्थ भी यहाँ प्रसगानुकल है। गुरुदेव के दर्शन से किस भक्त के हृदय मे आलाद उत्पन्न नहीं होता ?
राजप्रश्नीयसूत्र मे उक्त पाठ पर टीका करते हुए सुप्रसिद्ध पागमिक विद्वान् प्राचार्य मलयगिरि ने एक और ही विलक्षण एव भावपूर्ण अर्थ किया है। उनका कहना है कि चैत्य वह है जो मन को सुप्रशस्त, सुन्दर, शान्त एव पवित्र बनाए
___चत्यं सुप्रशस्तमनोहेतुत्वाद् ।'
-राज० १८ कण्डिका, सूर्याभदेवताधिकार यह अर्थ भी यहाँ पूर्णतया सगत है। हमारे वासना-कलुषित अप्रशस्त मन को प्रशस्त बनाने वाले शुद्ध चैत्य गुरुदेव ही तो है। उनके अतिरिक्त और कौन है, जो हमारे मन को प्रशस्त कर सके ?
वंदना का महान् फल
अन्त मे, पुन वदामि' शब्द पर कहना है कि अपने महोपकारी गुरुदेव के प्रति वन्दना-क्रिया साधक जीवन की एक बहुत ही महत्त्वपूर्ण क्रिया है । अपने अभिमान को त्याग कर गद्गद् हृदय से साधक गुरु के चरणो मे स्वय को विनय-पूर्वक अर्पण करता है, तो आत्मा मे वह अलौकिक ज्ञान-प्रभा विकसित होती है, जो साधक को अध्यात्म पद के ऊँचे शिखर पर पहुंचा देती है । भगवान् महावीर ने कहा है
"वदणएण जीवे नीयागोय कम्म खवेइ, उच्चागोय कामं निबधइ, सोहग्गं चण अप्पडिहय आणाफल निवत्त इ, दाहिणभावं च जणयइ ।"
--उत्तरा०, २६/१०
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गुरुवन्दन सूत्र
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- वन्दन करने से नीचगोत्र कर्म का क्षय होता है, उच्च गोत्र का अभ्युदय होता है, सौभाग्य लक्ष्मी का उपार्जन किया जाता है, प्रत्येक मनुष्य सहर्ष - बिना आनाकानी के आज्ञा स्वीकार करने लगता है, और वह दाक्षिण्यभाव - श्र ेष्ठ सभ्यता को प्राप्त होता है ।
भगवान् महावीर का उपर्युक्त कथन पूर्णतया सत्य है । राजा श्रेणिक ने भक्तिभाव-पूर्वक मुनियों को वन्दन करने के कारण छह नरक के सचित पाप नष्ट कर डाले थे, यह ऐतिहासिक घटना जैनइतिहास मे सुप्रसिद्ध है । आजकल के भक्तिभावना शून्य मनुष्य वन्दन का क्या महत्त्व समझ सकते है ? अब तो उष्ट्र वन्दनाए होती है । क्या मजाल जरा भी सिर झुक जाए | बहुत से सज्जन एक इ च भी शरीर को नही नमायेंगे, केवल मुख से 'दडवत्' या 'पाँव लगो' कह देगे, और समझ लेंगे कि बस वन्दना का बेडा पार कर दिया |
वंदन : द्रव्य और भाव
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श्रागम - साहित्य मे वन्दना के दो प्रकार बताए हैं- द्रव्य श्रीर भाव । दो हाथ, दो पैर और एक मस्तक, शरीर के इन पाँच गो से उपयोग शून्य वन्दन करना द्रव्यवन्दन है । और इन्ही पाँच अगो से भाव सहित विशुद्ध एव निर्मल मन के द्वारा उपयोग सहित वन्दन करना भाव-वन्दन है। भाव के बिना द्रव्य व्यर्थ है, उसका प्राध्यात्मिक जीवन मे कोई अर्थ नही ।
वन्दन - विधि
मूल-पाठ मे जो प्रदक्षिणा शब्द आया है, उसका क्या भाव है ? उत्तर मे कहना है कि प्राचीनकाल मे तीर्थंकर या गुरुदेव समवसरण श्रर्थात् सभा के ठीक बीच मे बैठते थे । अत आगन्तुक भगवान् के या गुरु के चारो ओर घूम कर, फिर सामने ग्राकर, पचाग नमाकर वन्दन करता था । गुरुदेव के दाहिने हाथ से घूमना शुरू किया जाता था । अत प्रदक्षिरण प्रदक्षिणा होती थी । प्रदक्षिरणा का यह क्रम तीन बार चलता था । और प्रत्येक प्रदक्षिणा की समाप्ति पर वन्दन होता था । दुर्भाग्य से, वह परम्परा आज विच्छिन्न हो गयी है । अत अब तो गुरुदेव के दाहिनी ओर से बाई ओर तीन बार प्रजिल
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सामायिक सूत्र
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बद्ध हाथ घुमा कर आवर्तन करने का नाम ही प्रदक्षिणा है । प्राजकल की उक्त प्रदक्षिणा क्रिया का स्पष्ट रूप आरती उतारने की प्रचलित पद्धति से अच्छी तरह मिलता है । कुछ सज्जन भ्रान्ति-वश अपने हाथो से अपने ही दक्षिण और वाम हस्त समझ बैठते है । फलतः अपने मुख का ही आवर्तन करने लग जाते है । प्रदक्षिणा - क्रिया का वह प्राचीन रूप नही रहा, तो कम-से-कम प्रचलित रूप को तो सुरक्षित रखना चाहिए । इसे भी क्यो नष्ट-भ्रष्ट किया जाए ।
जहाँ तक बौद्धिक चिन्तन का सम्बन्ध है, 'तिक्खुत्तो प्रायाहिण पयाहिण करेमि तक का पाठ मुख से वोलने की कोई आवश्यकता प्रतीत नही होती । इसका सम्बन्ध तो करने से है, बोलने से नही । यह विधि-श का पाठ है । असली पाठ ' वन्दामि' से शुरू होता है ।
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आलोचना-सूत्र
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इच्छाकारेण संदिसह भगवं ! इरियावहियं पडिक्कमामि ? इच्छं, इच्छामि पडिक्कमि ।। इरियावहियाए, विराहणाए ।२। गमरणागमणे ।। पाणक्कमणे, बीयक्कमणे, हरियक्कमणे, प्रोसा-उत्तिग-परणग-दग-मट्टी-मक्कडा-संतारणा-संकमणे ।४। जे मे जीवा विराहिया ।। एगिदिया, बेईदिया, तेइंदिया, चरिदिया. पंचदिया ।६। अभिया, वत्तिया, लेसिया, संघाइया, संघट्टिया, परियाविया, किलामिया, उद्दविया, ठारणाश्रो ठारणं संकामिया जीवियाओ ववरोविया तस्स मिच्छा मि दुक्कडं ७।
शब्दार्थ भगव=हे भगवन् ।
[ताकि ] इच्छाकारेण==इच्छापूर्वक इरियावहिय=ऐर्यापथिकी क्रिया का सदिसह आज्ञा दीजिए पडिक्कमामि-प्रतिक्रमण करूँ
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[ गुरुदेव के प्राज्ञा देने पर ] इच्छ= आज्ञा प्रमाण है इच्छामि = चाहता हूँ पडिक्क मिउं = निवृत्त होने को [ किस से 2]
इरियावहियाए = ईर्यापथ
सम्बन्धिनी
विराहणाए - विराधना से [विराधना किन जीवो की, और किस तरह ?] गमरणागमरणे = जाने-आने मे पाणकमण े = किसी प्राणी को
दबाने से बीक्कमण े बीज को दवाने से हरियक्कमण = वनस्पति को दबाने से
ओसा = प्रोस को उत्तिग= कीडी ग्रादि के बिल को पणग=पाँच वर्ण की काई को दग= जल को
=
को
मट्टी - मिट्टी को मक्कडा-सताणा=मकड़ी के जालो संकमण े =कुचलने से, मसलने से [उपसहार]
मे मैने
जे == जो
जीवा = जीव विराहिया = पीडित किए हो [ कौन से जीव ? ] एगिदिया = एक इद्रिय वाले as दिया = दो इन्द्रिय वाले तेइ दिया = तीन इद्रिय वाले चरिदिया = चार इन्द्रिय वाले पंचिदिया = पाँच इन्द्रिय वाले [ किस तरह पीडित किए हो ? ] अभिया= सामने से श्राते रोके हो वत्तिया = धूल आदि से ढके हो लेसिया = परस्पर मसले हो संघाइया = इकट्ठे किए हो सघट्टिया = छ ुए हो परियाविया = परितापना दी हो किलामिया = थकाये हो उद्देविया = हैरान किए हो ठाणाश्रो = एक स्थान से ठाण = दूसरे स्थान पर संकामिया = रक्खे हो जीवियाओ जीवन से बवरोविया = रहित किए हो
तस्स = - उसका
सामायिक सूत्र
वुक्कडं = दुष्कृत-पाप
मि=मेरे लिए
मिच्छा = निष्फल हो
भावार्थ
भगवन् ! इच्छा के अनुसार प्राज्ञा दीजिए कि मैं ऐर्यापथिकीगमन मार्ग मे अथवा स्वीकृत धर्माचरण मे होने वाली पाप-क्रिया का प्रतिक्रमण करू ?
[ गुरुदेव की ओर से प्रज्ञा मिल जाने पर कहना चाहिए कि ] भगवन्, आज्ञा प्रमाण है ।
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आलोचना- सूत्र
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मार्ग मे चलते-फिरते जो विराधना- किसी जीव को पीडा हुई हो, तो मैं उस पाप से निवृत्त होना चाहता हूँ ।
गमनागमन में किसी प्राणी को दबाकर, सचित्त बीज एव वनस्पति को कुचलकर, श्राकाश से गिरने वाली श्रोस, चीटी के बिल, पाँचो रग की काई, सचित्त जल, सचित्त मिट्टी और मकडी के जालो को मसलकर, एकेन्द्रिय से लेकर पचेन्द्रिय तक किसी भी जीव की विराधना -हिंसा की हो, सामने आते हुओ को रोका हो, धूल आदि से ढका हो, जमीन पर या आपस में रगडा हो, एकत्रित करके ऊपर-नीचे ढेर किया हो, असावधानी से क्लेश-जनक रीति से छत्रा हो, परितापना दी हो, श्रात किया हो - थकाया हो, त्रस्त - हैरान किया हो, एक जगह से दूसरी जगह बदला हो, अधिक क्या - जीवन से ही रहित किया हो, तो मेरा वह् सव पाप हार्दिक पश्चाताप के द्वारा मिथ्या हो - निष्फल हो ।
विवेचन
विवेक बनाम यतना
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जैन-धर्म मे विवेक का बहुत महत्त्व है । प्रत्येक क्रिया के पीछे विवेक का रखना, यतना का विचार करना, श्रावक एव साधु दोनो साधको के लिए प्रतीव आवश्यक है । इधर-उधर कही भी आना-जाना हो, उठना-बैठना हो, बोलना हो, लेना-देना हो, कुछ भी काम करना हो, सर्वत्र और सर्वदा विवेक को हृदय से न जाने दीजिए। जो भी काम करना हो, अच्छी तरह सोच-विचार कर, देख-भाल कर यतना के साथ कीजिए, आपको पाप नही लगेगा । पाप का मूल प्रमाद है, अविवेक है । जरा भी प्रमाद हुआ कि पाप की कालिमा हृदय पर दाग लगा देगी । भगवान् महावीर कठोर निवृत्ति-धर्म के पक्षपाती है । परन्तु, उनकी निवृत्ति का यह अर्थ नही कि मनुष्य सब ओर से निष्क्रिय होकर बैठ जाए, किसी भी काम का न रहे, जीवन को सर्वथा शून्य ही बना ले । उनकी निवृत्ति जीवन को निष्क्रिय न बना कर, दुष्क्रिय से शुभ-क्रिय बनाती है । विवेक के प्रकाश मे जीवन-पथ पर अग्रसर होने को कहती है । यही कारण है कि शास्त्रो मे साधक को सर्वथा यतमान रहने का आदेश दिया गया है। कहा गया है कि यतना-पूर्वक चलनेफिरने, खड़े होने, बैठने, सोने, बोलने चालने, खाने-पीने श्रादि से पाप कर्म
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सामायिक सूत्र
का बन्ध नही होता, क्योकि पाप कर्म के बन्धन का मूल प्रयतना है— जय चरे जय चिट्ठे, जयमासे जयं सए । जय भुजंतो भासतो, पाव- कर्म न बंधई ॥
- दश० ४/८
प्रस्तुतसूत्र हृदय की कोमलता का ज्वलन्त उदाहरण है । विवेक और यतना के सकल्पो का जीता-जागता चित्र है । आवश्यक प्रवृत्ति के लिए कही इधर-उधर आना-जाना हुआ हो, और यतना का ध्यान रखते हुए भी, यदि कही नवधानता वश किसी जीव को पीडा पहुँची हो, तो उसके लिए उक्त पाठ मे पश्चात्ताप किया गया है । साधारण मनुष्य आाखिर भूल का पुतला है । सावधानी रखते हुए भी कभी-कभी भूल कर बैठता है, लक्ष्य - च्युत हो जाता है। भूल होना कोई असाधारण घातक चीज नहीं है, परन्तु उन भूलो के प्रति उपेक्षित रहना, उन्हे स्वीकार ही न करना, किसी प्रकार का मन मे पश्चात्ताप ही न लाना, भयकर चीज है । जैन-धर्म का साधक जरा-जरा-सी भूलो के लिए पश्चात्ताप करता है औौर हृदय की जागरूकता को कभी भी सुप्त नही होने देता । वही साधक अध्यात्म क्षेत्र मे प्रगति कर सकता है, जो ज्ञात या अज्ञात किसी भी रूप से होने वाले पाप कार्यों के प्रति हृदय से विरक्ति व्यक्त करता है, उचित प्रायश्चित्त लेकर आत्मविशुद्धि का विकास करता है, और भविष्य के लिए विशेष सावधान रहने का प्रयत्न करता है ।
हृदय-विशुद्धि
प्रस्तुत पाठ के द्वारा उपर्युक्त ग्रालोचना की पद्धति से, पश्चात्ताप की विधि से, आत्म-निरीक्षण की शैली से, श्रात्म-विशुद्धि का मार्ग वनाया गया है । जिस प्रकार वस्त्र मे लगा हुआ मैल खार और सावुन से साफ किया जाता है, वस्त्र को अपनी स्वाभाविक शुद्ध दशा मे लाकर स्वच्छ-श्वेत वना लिया जाता है, उसी प्रकार गमनागमनादि क्रियाएँ करते समय ग्रशुभयोग, मन की चचलता तथा ग्रविवेक यादि के कारण अपने विशुद्ध सयम-धर्म में किसी भी तरह का कुछ भी पाप मल लगा हो, तो वह सब पाप प्रस्तुत पाठ के चिन्तन द्वारा साफ किया जाता है । अर्थात् ग्रालोचना के द्वारा अपने सयम धर्म को स्वच्छ शुद्ध वनाया जाता है ।
पुन
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आलोचना-सूत्र
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प्रत्येक कार्य के लिए क्षेत्र-विशुद्धि का होना अतीव आवश्यक है। साधारण किसान भी बीज बोने से पहले अपने खेत के झाड-झखाडो को काट-छाँट कर साफ करता है, भूमि को जोत कर उसे कोमल बनाता है, ऊंची-नीची जगह को समतल करता है, तभी धान्य के रूप मे वीज बोने का सुन्दर फल प्राप्त करता है, अन्यथा नही । ऊसर भूमि मे यो ही फेक दिया जाने वाला वीज नष्ट-भ्रष्ट हो जाता है, पनप नहीं पाता। इसी प्रकार आध्यात्मिक क्षेत्र मे भी सामायिक आदि प्रत्येक पवित्र क्रिया करने से पहले, धर्म-साधना का बीजारोपण करने से पहले, अपनी हृदय-भूमि को विशुद्ध और कोमल बनाना चाहिए। पाप-मल से दूपित हृदय मे सामायिक की, अर्थात् समभाव की पवित्र सुवास कभी नही फैल सकती । पाप-मूच्छित हृदय, सामायिक के द्वारा सहसा तरोताजगी नही पा सकता। इसीलिए, जैन-धर्म मे पद-पद पर हृदय शुद्धि का विधान किया है। और, यह हृदय-शुद्धि आलोचना के द्वारा ही होती है। प्रस्तुत आलोचना-सूत्र का यही महत्त्व है-यह पाठको के ध्यान मे रहना चाहिए। ___ गमनागमन आदि प्रवृत्तियो मे किस प्रकार, किन-किन जीवो को पीडा पहुँच जाती है ? इसका कितनी सूक्ष्मता से वर्णन किया गया है। सूत्रकार की दृष्टि कितनी अधिक पैनी है । देखिए, वह किस प्रकार जरा-जरा-सी भूलो को पकड रही है। एकेन्द्रिय से लेकर पचेन्द्रिय तक सभी सूक्ष्म और स्थूल जीवो के प्रति क्षमा याचना करने का, और हृदय को पश्चात्ताप द्वारा विमल बनाने का बडा ही प्रभावपूर्ण विधान है यह ।
मानसिक-कोमलता आप कहेगे कि यह भी क्या पाठ है ? कीडे, मकोडे तथा वनस्पति और बीज तक की सूक्ष्म हिंसा का उल्लेख कुछ औचित्य-पूर्ण नही जंचता ? यह भी भला हिसा है ? ___मैं कहूँगा, जरा हृदय को कोमल बना कर उन पामर जीवो की अोर नजर डालिए। आपको पता लगेगा कि उनको भी जीवन की उतनी ही अपेक्षा है, जितनी आपको । जब तक हृदय मे उपेक्षा है, कठोरता है, तब तक उनके जीवन का मूल्य अापकी ऑखो में नहीं चढ सकता, वैसे ही, जैसे कि नर-भक्षी सिंह की आँखो मे आपके जीवन का मूल्य । परन्तु, जो भावुक-हृदय है, दयालु हैं, उनको दूसरे
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सामायिक सूत्र
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की सूक्ष्म से सूक्ष्म पीडा का भी उसी प्रकार दुख अनुभूत होता है, जैसे कि प्रत्येक प्राणी को अपनी पीडा का । कहते है कि रामकृष्ण परमहंस इतने दयालु थे कि लोगो को हरी घास पर टहलते देखकर भी उनका हृदय वेदना से व्याकुल हो उठता था । किसी स्थावर प्रारणी को पीडा देना भी उनको सह्य नही होता था । जीवन, आाखिर जीवन ही है, वह छोटा क्या श्रौर बडा क्या ?
हिंसा का सूक्ष्म रूप
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हिंसा का अर्थ केवल किसी को जीवन से रहित कर देना ही नही है। हिंसा का दायरा बहुत विस्तृत है। किसी भी जीव को किसी भी प्रकार की मानसिक, वाचिक तथा कायिक पीडा पहुँचाना हिंसा है । इसके लिए आप जरा 'अभिया, वत्तिया' यादि सूत्रगत शब्दो पर नजर डालिए । ग्रहिंसा के सम्वन्ध मे इतना सूक्ष्म विश्लेषण प्रापको और कही मिलना कठिन होगा। किसी जीव को एक जगह से दूसरी जगह रखना और बदलना भी हिसा है । किसी भी जीव की स्वतन्त्रता मे किसी भी तरह का अन्तर डालना 'हिंसा' है ।
परन्तु एक बात ध्यान मे रहे । यहाँ जो एक स्थान से दूसरे स्थान पर उठाकर रखने का निषेध किया है, वह दुर्भावना से उठाने का निषेध है । किन्तु, दया की दृष्टि से किसी पीडित एव दुखित जीव को यदि धूप से छाया मे अथवा छाया से धूप मे ले जाना हो, किंवा सुरक्षित स्थान मे पहुँचाना हो, तो वह हिंसा नहो, प्रत्युत ग्रहिंसा एव दया ही होती है ।
प्रस्तुत सूत्र मे 'लेसिया' और 'सघट्टिया' पाठ श्राता है । 'लेसिया' का अर्थ सव जीवो को भूमि पर मसलना और सघट्टिया का अर्थ जीवो को स्पर्श करना है । इस पर प्रश्न होता है कि जब रजोहरण से चीटी यादि छोटे जीवो को पूजते है, तब क्या वे भूमि पर घसीटे नही जाते
र स्पर्श नही किए जाते ? रजोहरण के इतने बड़े भार को वे सूक्ष्मकाय जीव विचारे किस प्रकार सहन कर सकते है ? क्या यह हिंसा नही है ? उत्तर मे कहना है कि हिंसा अवश्य होती है । परन्तु, यह हिंसा, वडी हिंसा की निवृत्ति के लिए ग्रावश्यक है । अपने मार्ग से जाते हुए चीटी श्रादि जीवो को व्यर्थ ही पूजना, रोकना, स्पर्श करना
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आलोचना सूत्र
१९१ जैन-धर्म मे निषिद्ध है। परन्तु यदि कहीआवश्यक कार्य से जाना हो, और वहाँ बीच मे जीव हो, उनको और किसी तरह बचाना अशक्य हो, तब उनकी प्राण-रक्षा के लिए, वडी हिसा से बचने के लिए पूजने के रूप मे थोडा-सा कष्ट पहुचाना पडता है । और, यह कष्ट या हिंसा, हिंसा नही, एक प्रकार से अहिंसा ही है । दया की भावना से की जाने वाली सूक्ष्म हिंसा की प्रवृत्ति भी निर्जरा का कारण है । क्योकि, हमारा विचार दया का है, हिंसा का नही । अतएव शास्त्रकारो ने प्रमार्जन-क्रिया मे सवर और निर्जरा का उल्लेख किया है, जब कि प्रमार्जन मे सूक्ष्म हिंसा अवश्य होती है । अत आप देख सकते है कि हिंसा होते हुए भी निर्जरा हुई या नही ?
हिंसा ही सब पापो का मूल
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आलोचना के रूप मे श्रेष्ठ धर्माचरण की शुद्धि के लिए केवल हिंसा की ही आलोचना का उल्लेख क्यो किया गया है ? समग्र पाठ मे केवल हिंसा की ही आलोचना है, असत्य आदि दोपो की क्यो नही ? हृदय-शुद्धि के लिए तो सभी पापो की आलोचना आवश्यक है न ? उक्त प्रश्नो का समाधान यह है कि ससार मे जितने भी पाप हैं, उन सब मे हिंसा ही मुख्य है। अत 'सर्वे पदा हस्तिपदे निमग्ना'-इस न्याय के अनुसार असत्य आदि सब दोष हिंसा मे ही अन्तर्भूत हो जाते हैं । अर्थात् हिंसा के पाप मे शेष सभी असत्य, चोरी, अब्रह्म, परिग्रह, क्रोध, मान, माया, लोभ, राग, द्वेष, क्लेश आदि पापो का समावेश हो जाता है। ___ अन्य सब पापो का हिंसा मे किस प्रकार समावेश होता है, इसके लिए जरा विचार-क्षेत्र मे उतरिए । हिंसा के दो भेद हैस्व-हिंसा और पर-हिंसा । स्व-हिंसा यानी अपनी, अपने आत्म-गुणो की हिंसा । और पर-हिंसा यानी दूसरे की, दूसरे के गुणो की हिंसा । किसी जीव को पीडा पहुँचाने से प्रत्यक्ष मे उस जीव की हिंसा होती है । और पीडा पाते समय उस जीव को राग, द्वेष आदि की परिणति होने से उसके आत्म-गुणो की भी हिंसा होती है। और, इधर हिसा करने वाला क्रोध, मान, माया, लोभ, राग, द्वष आदि किसी न किसी प्रमाद के वशवर्ती होकर ही हिंसा करता है । अत वह आध्यात्मिक दृष्टि से नैतिक पतन के रूप में अपनी भी हिसा करता है। और अपने
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सामायिक-मूत्र
सत्य, शील, नम्रता आदि यात्म-गुणो की भी हिंसा करता है । अतः स्पष्ट है कि स्व-हिंसा के क्षेत्र मे सभी पापो का समावेश हो जाता है।
प्रस्तुत पाठ का नाम ऐर्यापथिकी-सूत्र है। प्राचार्य हेमचन्द्र ने इसका अर्थ किया है___'ईरण-ईर्या-गमनमित्यर्थ, तत्प्रधानः पन्था ईर्यापथस्ता भवा ऐर्यापथिको'
-योगशास्त्र (३/१२८) स्वोपनवृत्ति ईर्या का अर्थ गमन है, गमन-युक्त जो पथ-मार्ग वह ईर्या--पथ कहलाता है। ईर्या पथ मे होने वाली क्रिया-विराधना ऐगपथिकी है । मार्ग मे इधर उधर जाते-पाते जो हिंसा, असत्य आदि क्रियाएँ हो जाती है, उन्हे ऐर्यापथिकी कहा जाता है । आवार्य हेमचन्द्र एक और भी अर्थ करते हैं
'ईर्यापय: साध्वाचार
-योगशास्त्र, (३/१२४) स्वोपन-वृत्ति प्राचार्य श्री का अभिप्राय है कि ईर्यापथ साधुश्राचार-श्रेष्ठ श्राचार को कहते है और उसमे जो पाप-कालिमा लगी हो, उसको ऐर्यापथिकी कहा जाता है। उक्त कालिमा की शुद्धि के लिए ही प्रस्तुत पाठ है।
'मिच्छामि दुक्कडं' का हार्द
प्रश्न है, केवल 'मिच्छा मि दुक्कड' कहने से पापो की शुद्धि किस प्रकार हो जाती है ? क्या यह जैनो की तोवा है, जो वोलते ही गुनाह माफ हो जाते है ? वात, जरा विचारने की है । केवल 'मिच्छा मि दुक्कड' का शव्द पाप दूर नहीं करता । पाप दूर करता है-'मिच्छा मि दुक्कड' शब्दो से व्यक्त होने वाला साधक के हृदय मे रहा हुआ पश्चात्ताप | पश्चात्ताप की शक्ति बहुत बड़ी है । यदि निष्प्राण रूढि के फेर मे न पडकर, शुद्ध हृदय के द्वारा अन्दर की गहरी लगन से पापो के प्रति विरक्ति प्रकट की जाए, पश्चात्ताप किया जाए, तो अवश्य ही पापकालिमा धुल जाती है। पश्चात्ताप का विमल वेगशाली भरना, अन्तरात्मा पर जमे हुए दोप-रूप कूडे-करकट को वहा करदूर फेक देता है, यात्मा को शुद्ध-पवित्र वना देता है।
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आलोचना-सूत्र
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श्री भद्रबाहु स्वामी ने आवश्यक सूत्र पर एक विशाल नियुक्ति ग्रन्थ लिखा है । उसमे 'मिच्छा मि दुक्कड' के प्रत्येक अक्षर का निर्वचन उपर्युक्त विचारो को लेकर बडे ही भाव-भरे ढग से किया है। वे लिखते है'मि' ति मिउ-मद्दवत्त,
'छ' त्ति अ दोसाण छादणे होइ । 'मि' ति अ मेराइ ठिो,
'दु' ति दुगंछामि अप्पारण ।। १५०० ।। 'क' ति कड मे पाव,
___'ड' ति य डेवेमि त उवसमेण । एसो मिच्छा दुक्क डपयक्खरत्यो समासेण ॥१५.१ ॥
-आवश्यक-नियुक्ति गाथाम्रो का भावार्थ 'नामकदेशे नाम ग्रहणम्'-न्याय के अनुसार इस प्रकार है-'मि' मदुता-कोमलता तथा अहकाररहितता के लिए है। 'छ' दोषो को त्यागने के लिए है। 'मि' सयम-मर्यादा मे दृढ रहने के लिए है । 'दु' पाप कर्म करने वाली अपनी आत्मा की निन्दा के लिए है। 'क' कृत पापो की स्वीकृति के लिए है। और 'ड' उन पापो को उपशमाने के लिए नष्ट करने के लिए है।
प्रस्तुत सूत्र मे कुल कितने प्रकार की हिंसा है और उसकी शुद्धि के लिए 'तस्स मिच्छा मि दुक्कड' मे 'कितने मिच्छामि दुक्कड' की भावनाएँ छपी हुई है ? हमारे प्राचीन आचार्यों ने इस प्रश्न पर भी अपना स्पष्ट निर्णय दिया है । ससार मे जितने भी ससारी प्राणी हैं, वे सब के सब ५६३ प्रकार के हैं, न अधिक और न कम । उक्त पाँच सौ तिरेसठ भेदो मे पृथ्वी, जल आदि पाच स्थावर और मनुष्य, तिर्य च, नारक तथा देव आदि त्रस, सभी जीवो का समावेश हो जाता है । अस्तु उपर्युक्त ५६३ भेदो को 'अभिया' से 'जीवियाओ ववरोविया' तक के दश पदो से, जो कि जीवो की हिंसा-विषयक है, गुणन करने से ५६ ३० भेद होते है । यह दश-विध विराधना अर्थात् हिंसा राग और द्वष के कारण होती है, अतः इन सब भेदो को दो से गुणन करने पर ११२ ६० भेद हो जाते हैं। यह विराधना मन, वचन, और काय से होती है, अत तीन से गुणन करने पर ३३७ ८० भेद बन जाते हैं।
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सामायिक सूत्र
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विराधना करना, कराना और अनुमोदन करने के रूप मे तीन प्रकार से होती है, अत तीन से गुरगन करने पर १० १३४० भेद हो जाते है । इन सबको भी भूत, भविष्यत् और वर्तमान रूप तीन काल से गुरणन करने पर ३०४० २० भेद हो जाते है । इन को भी अरिहन्त, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय, गुरु र निज ग्रात्मा - उक्त छह को साक्षी से गुणन करने पर सब १८ २४ १२० भेद होते हैं । 'मिच्छामि दुक्कड' TET कितना बड़ा विस्तार है। साधक को चाहिए कि शुद्ध हृदय से प्रत्येक प्राणी के प्रति मैत्री भावना रखते हुए कृत पापो की अरिहन्त श्रादि की साक्षी से आलोचना करे, अपनी आत्मा को पवित्र बनाए । जीव-जातियां
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सपूर्ण विश्व मे जितने भी ससारी जीव हैं उन सब को जैन-दर्शन ने पाच जातियो मे विभक्त किया है । एकेन्द्रिय से लेकर पचेन्द्रिय तक सभी जीव उक्त पांच जातियो मे ग्रा जाते है । वे पॉच जातियाँ इस प्रकार है- एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय र पचेन्द्रिय । श्रोत्र – कान, चक्षु -- ग्राख, धारण- नाक, रसन- जिल्हा और स्पर्शन - त्वचा - ये पाच इन्द्रियाँ है । पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और वनस्पति एकेन्द्रिय जीव है, इनको एक स्पर्शन इन्द्रिय ही है । कृमि, शख, सीप आदि द्वीन्द्रिय है, इनको स्पर्शन और रसन दो इन्द्रियाँ हैं । चीटी, मकोडा, खटमल, जू आदि त्रीन्द्रिय जीव हैं, इनको स्पर्शन, रसन और प्रारण तीन इन्द्रियाँ है । मक्खी, मच्छर, बिच्छू श्रादि चतुरिन्द्रिय जीव है, इनको उक्त तीन और एक चक्षु कुल चार इन्द्रियाँ है । गर्भ से पैदा होने वाले तिर्यच, मनुष्य तथा नारक एव देव पचेन्द्रिय जीव हैं, इनको श्रोत्र मिला कर पूरी पाच इन्द्रियाँ है ।
'इन्द्रिय' का अर्थबोध
'इन्द्र' नाम आत्मा का है । क्योकि वही अखिल विश्व मे ऐश्वर्य शाली है । जड जगत् मे ऐश्वर्य कहाँ ? वह तो ग्रात्मा का ही अनुचर है, दास है । अतएव कहा है
'इन्दति - ऐश्वर्यवान् भवतीति इन्द्र: '
- निरुक्त ४/१/८
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आलोचना- सूत्र
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और जो इन्द्र - आत्मा का चिह्न हो, ज्ञापक हो, बोधक हो, अथवा आत्मा जिसका सेवन करता हो, वह इन्द्रिय कहलाता है । इस व्युत्पत्ति के लिए देखिये -- पाणिनीय श्रष्टाध्यायी का पाचवा अध्याय, दूसरा पाद और ह३वा सूत्र । उक्त निर्वचन के अनुसार श्रोत्र आदि पाचो ही इन्द्रियपद - वाच्य है । ससारी आत्माओ को जो सीमित बोध है, वह सब इन इन्द्रियो के द्वारा ही तो है ।
कुछ भी
पाठ - विधि
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ऐर्यापथिक-सूत्र के पढने की विधि भी बडी सुन्दर एव सरस है । ' तिक्खुत्तों' के पाठ से तीन वार गुरुचरणो मे वन्दना करने के पश्चात् गुरुदेव के समक्ष नत मस्तक खड़ा होना चाहिए। खडे होने की विधि यह है कि दोनो पैरो के बीच मे ग्रागे की ओर चार अगुल तथा पोछे की ओर ऐडी के पास तीन ग्रगुल से कुछ अधिक अन्तर रखना चाहिए। यह जिन मुद्रा का अभिनय है । तदनन्तर, दोनो घुटने भूमि पर टेक कर, दोनो हाथो को कमल के मुकुल की तरह जोड कर, मुख के आगे रख कर, दोनो हाथो की कोहनियाँ पेट के ऊपर रख कर, योग- मुद्रा का अभिनय करना चाहिए | पश्चात् मधुर स्वर से 'इच्छाकारेण सदिसह' से 'पडिक्कमामि' तक का पाठ पढना चाहिए। यह आलोचना के लिए प्रज्ञा-प्राप्ति का सूत्र है । गुरुदेव की ओर से श्राज्ञा मिल जाने पर 'इच्छ' कहना चाहिये । यह आज्ञा का सूचक है । इसके ग्रनन्तर, गुरु के समक्ष ही उकडू श्रासन से बैठ कर या खडे हो कर 'इच्छामि पडिक्कमिउ' से लेकर 'मिच्छामि दुक्कड' तक का पूर्ण पाठ पढना चाहिए। गुरुदेव न हो, तो भगावन् का ध्यान करके उनकी साक्षी से ही पूर्व या उत्तर की ओर मुख करके खड़े हो कर यह पाठ पढ लेना चाहिए ।
सात सम्पदा
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प्राचीन टीकाकारो ने प्रस्तुत सूत्र मे सात सपदाओ की योजना की है । सम्पदा का अर्थ विराम एव विश्रान्ति होता है ।
प्रथम अभ्युपगम सम्पदा है, जिसका अर्थ गुरुदेव से आज्ञा लेना है।
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सामायिक-सूत्र
दूसरी निमित्त सम्पदा है, जिसमे आलोचना का निमित्त कारण जीवो की विराधना बताया गया है ।
तीसरी ओघ-सामान्य हेतु सम्पदा है, जिनमे सामान्य रूप से विराधना का कारण सूचित किया है।
चौथी इत्वर-विशेष हेत सम्पदा है, जिसमे जीव-विराधना के 'पाणक्कमणे' आदि विशेष हेतु कथन किये हैं।
पचम सग्रह सम्पदा है, जिसमे 'जे मे जीवा विराहिया'-इस एक वाक्य से ही सब जीवो की विराधना का संग्रह किया है।
छठी जीव-सम्पदा है, जिसमे नामग्रहण-पूर्वक जीवो के भेद बतलाये है।
सातवी विराधना सम्पदा है, जिसमे 'अभिया' आदि विराधना के प्रकार कहे गए है।
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कायोत्सर्ग-सत्र
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तस्स उत्तरी-करणेरणं पायच्छित्त-करणेरणं विसोही-करणेणं विसल्ली-करणेणं पावारण कम्माण निग्घायरगट्ठाए ठामि काउस्सग्ग 11
शब्दार्थ तस्स-उसकी, दूषित पात्मा की उत्तरीकरणग-विशेष उत्कृष्टता के लिए पायच्छित-कररोग-प्रायश्चित करने के लिए विसोही-करणेण=विशुद्धि करने के लिए विसल्ली-करणेण-शल्य का त्याग करने के लिए पावारण -पाप कम्मारणं-कर्मों का निग्घायणट्ठाए नाश करने के लिए काउस्सग्ग-कायोत्सर्ग ठामि-करता हूँ
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सामायिक-सूत्र
भावार्थ आत्मा की विशेष उत्कृष्टता-श्रेष्ठता के लिए. प्रायश्चित्त के लिए, विशेष निर्मलता के लिए, शल्य-रहित होने के लिए, पाप कर्मों का पूर्णतया विनाश करने के लिए मैं कायोत्सर्ग करता हू-अर्थात् आत्म-विकास की प्राप्ति के लिए शरीरसम्बन्धी समस्त चचल व्यापारो का त्याग करता हूँ, विशुद्ध चिन्तन करता हूँ।
विवेचन ___ यह उत्तरी-करण-सूत्र है। इसके द्वारा ऐर्यापथिक प्रतिक्रमण से शुद्ध पात्मा मे बाकी रही हुई सूक्ष्म मलिनता को भी दूर करने के लिए विशेष परिष्कार-स्वरूप कायोत्सर्ग का सकल्प किया जाता है। जीवन मे जरा भी मलिनता न रहने पाये, यह महान् आदर्श, उक्त सूत्र के द्वारा ध्वनित होता है ।
व्रत शुद्धि के लिए संस्कार
सस्कार के तीन प्रकार माने गए हैं-दोप-मार्जन, हीनाग-पूर्ति और अतिशयाधायक । इन तीनो सस्कारो के द्वारा प्रत्येक पदार्थ अपनी विशिष्ट अवस्थाश्रो मे पहुच जाता है। एक सस्कार वह है, जो सर्वप्रथम दोपो को दूर करता है। यह दोष-मार्जन सस्कार कहलाता है। दूसरा सस्कार वह है, जो दोपो की कुछ भी झलक शेप रह गई हो, उसे दूर कर दोप-रहित पदार्थों के हीन-स्वरूप की पूर्ति करता है । यह हीनाग-पूर्ति सस्कार है। तीसरा संस्कार दोष-रहित पदार्थ मे एक प्रकार की विशेपता (खूवी) उत्पन्न करता है, वह अतिशयाधायक सस्कार कहा जाता है । समस्त सस्कारो का का सस्कारत्व, इन तीन सस्कारो मे समाविष्ट हो जाता है।
उदाहरण के रूप मे, मलिन वस्त्र को ही ले लीजिए। धोवी पहले वस्त्रो को भट्टी पर चढा कर वस्त्रो के मैल को पृथक् करता है। यही पहला दोप-मार्जन सस्कार है । अन्तिम वार जल मे से निकाल कर, धूप मे मुन्वा कर यथा-व्यवस्थित वस्त्रो की तह कर देना, हीनागपूति सम्कार है । अन्त मे सलवटें साफ कर, इस्त्री कर देना-तीसरा अतिशयाघायक मस्कार है।
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कार्यात्सर्ग-सूत्र
एक और भी उदाहरण लीजिए। रंगरेज वस्त्र को पहले पानी मे डुबो कर, मल कर उसके दाग-धब्बे दूर करता है, यही पहला दोपमार्जन सस्कार है । पुन साफ-सुथरे वस्त्र को अभीष्ट रंग से रजित कर देना, यही दूसरा हीनाग-पूर्ति सस्कार है । अन्त मे कलप लगा कर इस्त्री कर देना, तीसरा अतिशयाधायक सस्कार है । इन्ही तीन सस्कारो को शास्त्रीय भाषा मे शोधक, विशेषक, एव भावक सस्कार कहते है |
व्रत-शुद्धि के लिए भी यही तीन सस्कार माने गए है । आलोचना एवं प्रतिक्रमण के द्वारा स्वीकृत व्रत के प्रमाद - जन्य दोषो का मार्जन किया जाता है । कायोत्सर्ग के द्वारा इधर-उधर रही हुई शेष मलिनता भी दूर कर, व्रत को अखण्ड बना कर हीनाग-पूर्ति सस्कार किया जाता है । अन्त मे प्रत्याख्यान के द्वारा आत्म-शक्ति मे अत्यधिक वेग पैदा करके व्रतो मे विशेषता उत्पन्न की जाती है, यह अतिशयाधायक सस्कार है ।
जो वस्तु एक बार मलिन हो जाती है, वह एक बार के प्रयत्न से ही शुद्ध नही हो जाती । उसकी विशुद्धि के लिए बार-बार प्रयत्न करना होता है । जग लगा हुआ शस्त्र, एक बार नही, अनेक बार रगडने, मसलने और सान पर रखने से ही साफ होता है, चमक पाता है ।
पाप-मल से मलिन हुआ सयमी आत्मा भी, इसी प्रकार, एक वार के प्रयत्न से ही शुद्ध नही हो जाता । उसकी शुद्धि के लिए साधक को बार-बार प्रयत्न करना पडता है । एक के बाद एक प्रयत्नो की लम्बी परम्परा के बाद ही आत्मा अपने शुद्ध स्वरूप को प्राप्त करता है, पहले नही । अस्तु सर्वप्रथम आलोचना - सूत्र के द्वारा श्रात्म-विशुद्धि के लिए प्रयत्न किया जाता है, और गमनागमनादि क्रियाओ से होने वाली मलिनता उक्त ईर्या-पथिक प्रतिक्रमण से साफ हो जाती है । परन्तु पाप - मल की बारीक झाँई फिर भी शेष रह जाता है, उसे भी साफ करने के लिए और अत शल्य को बाहर निकाल फेकने के लिए दूसरी बार कायोत्सर्ग के द्वारा शुद्धि करने का पवित्र सकल्प किया जाता है । मन, वचन और शरीर की चचलता हटाकर, हृदय मे वीतराग भगवान की स्तुति का प्रवाह बहा कर, अपने-आपको अशुभ एव चचल व्यापारो से हटाकर, शुभ
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सामायिक सूत्र
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व्यापार मे केन्द्रित कर, अपूर्व समाधि भाव की प्राप्ति के लिए एव पाप कर्मों के निर्धातन के लिए सत्प्रयत्न करना ही, प्रस्तुत उत्तरीकरण-सूत्र का महामंगलकारी उद्देश्य है ।
कायोत्सर्ग का महत्त्व
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हाँ तो, यह कायोत्सर्ग की प्रतिज्ञा का सूत्र है । पाठक मालूम करना चाहते होगे कि कायोत्सर्ग का अर्थ क्या है ? कायोत्सर्ग मे दो शब्द है— काय और उत्सर्ग । अत कायोत्सर्ग का अर्थ हुया - काय ग्रर्थात् शरीर का, शरीर की चचल क्रियाओ का उत्सर्ग अर्थात् त्याग । आशय यह है कि कायोत्सर्ग करते समय साधक, शरीर का विकल्प भूलकर, शरीर की मोह-माया त्याग कर आत्म-भाव मे प्रवेश करता है । श्रीर, जब ग्रात्म भाव मे प्रविष्ट होकर शुद्ध परमात्म-तत्त्व का स्मरण किया जाता है, तब वह परमात्म भाव मे लीन हो जाता है। जब कि यह परमात्म भाव मे की लीनता अधिकाधिक रसमय दशा मे पहुँचती है, तब आत्म-प्रदेशो मे व्याप्त पाप कर्मों की निर्जरा - क्षीणता होती है, फलत जीवन मे पवित्रता श्राती है । ग्राध्यात्मिक पवित्रता का मूल कायोत्सर्ग मे अन्तर्निहित है ।
कायोत्सर्ग की व्युत्पत्ति मे शरीर की चचलता का त्याग उपलक्षरणमात्र है । शरीर के साथ मन, वचन का भी ग्रहरण है | मन, वचन और शरीर का दुर्व्यापार जब तक होता रहता है, तब तक पाप कर्मो का आस्रव बन्द नही हो सकता । और जब तक कर्म - बन्धन से छुटकारा नही होता, तब तक मोक्ष - पद की साधना पूर्ण नही होती । ग्रत कर्म बन्धनो को तोडने के लिए तथा कर्मो का प्रस्रव रोकने के लिए मन, वचन और शरीर के अशुभ व्यापारो का त्याग ग्रावश्यक है, और यह त्याग कायोत्सर्ग की साधना के द्वारा होता है । इस प्रकार कायोत्सर्ग मोक्ष प्राप्ति का प्रधान काररण है, यह न भूलना चाहिए ।
आत्म शुद्धि के लिए प्रायश्चित्त
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प्रायश्चित्त का महत्त्व, साधना के क्षेत्र मे बहुत वडा माना गया है । प्रायश्चित एक प्रकार का प्राध्यात्मिक दण्ड है, जो किसी भी
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कायोत्सर्ग-सूत्र
दोष के होने पर साधक द्वारा अपनी इच्छा से लिया जाता है । इस ग्राध्यात्मिक दण्ड का उद्देश्य एव लक्ष्य होता है - आत्म शुद्धि, हृदय-शुद्धि | ग्रात्मा की शुद्धि का कारण पाप मन है, भ्रान्त श्राचरण है । प्रायश्चित्त के द्वारा पाप का परिमार्जन और दोष का शमन होता है, इसीलिए प्रायश्चित्त- समुच्चय श्रादि प्राचीन धर्मग्रन्थो मे प्रायश्चित्त का पाप छेदन, मलापनयन, विशोधन और अपराध-विशुद्धि आदि नामो से उल्लेख किया गया है ।
आगम - साहित्य मे बाह्य और आभ्यन्तर भेद से बारह प्रकार के तप का उल्लेख है । ग्रात्मा पर लगे पाप- मल को दूर करने वाला उपर्युक्त प्रायश्चित्त, ग्राभ्यन्तर तप मे माना गया है । अतएव झालोचना, प्रतिक्रमण और कायोत्सर्ग आदि की साधनाएँ प्रायश्चित्त हैं । ग्रागम साहित्य मे दश प्रकार के प्रायश्चित्त का उल्लेख है । उनमे से यहाँ केवल कायोत्सर्ग रूप जो पचम 'व्युत्सगर्ह प्रायश्चित' है, उसका उल्लेख है । व्युत्सर्ग का अर्थ करते हुए ग्राचार्य अभयदेव कहते है कि शरीर की चपलताजन्य चेष्टाओ का निरोध करना व्युत्सर्ग है-'व्युत्सर्गार्ह' यत्कायचेष्टानिरोधत '
— स्थानाग, ६ ठा० टीका
शरीर की क्रिया को रोक कर, मौन रह कर, धर्म ध्यान के द्वारा मन को जो एकाग्र बनाया जाता है, वह कायोत्सर्ग है । उक्त कायोत्सर्ग का श्रात्मशुद्धि के लिए विशेष महत्त्व है। स्पन्दन, दूषरण का प्रतिनिधि है, तो स्थिरत्व शुद्धि का प्रतिनिधि है ।
प्रायश्चित्त: परिभाषाएँ
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प्रायश्चित्त का निर्वचन पूर्वाचार्यों ने बडे ही अनूठे ढंग से किया है । प्राय - बहुत, चित्त-मन अर्थात जीवात्मा को शोधन करने वाली साधना जिसके द्वारा हृदय की अधिक-से-अधिक शुद्धि हो, वह प्रायश्चित्त कहलाता है
'प्रायो बाहुल्येन चित्त = जीव शोधयति कर्ममलिन विमलीकरोति'
- पचाशक विवरण
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सामायिक सूत्र
प्रायश्चित्त का दूसरा अर्थ होता है - पाप का छेदन करने
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वाला
"पापच्छेदकत्वात् प्रायश्चित्त, प्राकृते पायच्छत्तमिति । "
तीसरा अर्थ और है- प्राय - पाप,
करना ।
तथा
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- स्था० ३ ठा० ४ उद्दे ० टीका उसको चित्त शोधन
'प्राय पापं विनिर्दिष्ट, चित्तं तस्य च शोधनम् ।'
पाव छिंदइ जम्हा,
'अपराधो वा प्राय, चित्त शुद्धि, प्रायस्य चित्तं प्रायश्चित्त अपराधविशुद्धि. ।'
-
- धर्म संग्रह ३ अधि०
- राजवार्तिक ६/२२/१
उक्त सभी अर्थों का मूल आवश्यकनियुक्ति मे इस प्रकार दिया है
पाए वा विचित्त,
पायच्छित तु भण्ाई तेरा |
विसोहए तेण पच्छित्त । १५०३ ।
जिससे पाप का नाश होता है, अथवा जिसके द्वारा चित्त की विशुद्धि होती है - उसे प्रायश्चित्त कहा जाता है ।
प्रायश्चित्त की एक और भी बडी सुन्दर व्युत्पत्ति है, जो सर्वसाधारण जनता के मानस पर प्रायचिश्त की प्रतिक्रिया को ध्यान मे रख कर की गई है । प्राय का अर्थ है लोक - जनता, और चित्त का अर्थ मन है । जिस क्रिया के द्वारा जनता के मन मे आदर हो, वह प्रायश्चित्त है । प्रायश्चित्त कर लेने के बाद जनता पर क्या प्रतिक्रिया होती है, यही उस व्युत्पत्ति का प्रारण है । बात यह है कि पाप करने वाला व्यक्ति जनता की आँखो मे गिर जाता है, जनता उसे घृणा की दृष्टि से देखने लगती है । क्योकि जनता मे आदर धर्माचरण का होता है, पापाचरण का नही । पापाचरण के कारण मनुष्य जनता के हृदय से अपना वह धर्माचरण-मूलक गौरव
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कायोत्सर्ग-सूत्र
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सहसा गँवा बैठता है । परन्तु, जब वह शुद्ध हृदय से प्रायश्चित्त कर लेता है, अपने अपराध का उचित दण्ड ले लेता है, तो जनता का हृदय भी बदल जाता है, और वह उसे प्रेम तथा गौरव की दृष्टि से देखने लगती है । इसलिए कहा गया है
प्राय इत्युच्यते लोकस्तस्य चित्तं मनो भवेत्, तच्चित्त - ग्राहक कर्म प्रायश्चित्तमिति स्मृतम् । - प्रायश्चित्त समुच्चयवृत्ति
प्रायश्चित्त का एक अर्थ और भी है, जो वैदिक साहित्य के विद्वानों द्वारा किया जा रहा है । उनका कहना है कि प्रायश्चित्त शब्द के 'प्राय' और 'चित्त' ये दो विभाग है । 'प्राय' विभाग प्रयाग-भाव का सूचक है । आत्मा की भूतपूर्व शुद्ध अवस्था ही 'प्राय ' है । अस्तु, इस गत-भाव का पुन चयन -संग्रह ही 'चित्त' है । प्रायोभाव का चयन ही प्रायश्चित्त है । दूषरणो के कारण मलिन श्रात्मा शुद्ध होकर पुन स्वरूप मे उपस्थित हो, यह प्रायश्चित्त का भावार्थ है । यह ग्रर्थ भी प्रस्तुत प्रकरण मे युक्ति-संगत है । कायोत्सर्ग - रूप प्रायश्चित्त के द्वारा आत्मा चचलता से हटकर पुन अपने स्थिर रूप में, आध्यात्मिक दृष्टि से ब्रतो की दृढता मे स्थित हो जाता है ।
व्रती कौन ?
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जैन धर्म की विचारधारा के अनुसार अहिंसा, सत्य आदि व्रतो के लेने मात्र से कोई सच्चा ब्रती नहीं हो सकता । सुव्रती होने के लिए सबसे पहली और मुख्य शर्त यह है कि उसे शल्यरहित होना चाहिए । सच्चा ब्रती एव त्यागी वहीं है, जो सर्वथा निश्छल होकर, अभिमान दभ एवं भोगासक्ति से परे होकर अपने स्वीकृत चारित्र मे लगे दोषो को स्वीकार करता है, उनका यथाविधि प्रतिक्रमण करता है, आलोचना करता है और कायोत्सर्ग आदि के द्वारा शुद्धि करने के लिए सदा तैयार रहता है। जहाँ दभ है, व्रत- शुद्धि के प्रति उपेक्षा है, वहाँ शल्य है । और, जहा शल्य है, वहाँ व्रतो की साधना कहा ? इसी आदर्श को ध्यान मे रखकर प्राचार्य उमास्वाति तत्त्वार्थ- सूत्र ७ /१३ मे कहते हैं— 'नि शल्यो व्रती' - जो शल्य से मुक्त है, वही व्रती है
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ا
सामायिक सूत्र
शल्य क्या है ?
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शल्य का अर्थ है, 'शल्यतेऽनेन इति शल्यम्' जिसके द्वारा अन्तर मे पीडा सालती रहती है, कसकती रहती है, बल एव आरोग्य की हानि होती है, वह तीर, भाला और काँटा आदि ।
प्राध्यात्मिक क्षेत्र मे लक्षरणा-बृत्ति के द्वारा माया, निदान और मिथ्या-दर्शन को शल्य कहते हैं । लक्षरणा का अर्थ आरोप करना है | तीर आदि शल्य के आन्तरिक वेदना-जनक रूप साम्य से माया आदि मे शल्य का आरोप किया गया है । जिस प्रकार शरीर के किसी भाग मे काँटा तथा तीर श्रादि जब घुस जाता है, तो वह व्यक्ति को चैन नही लेने देता है, शरीर को विषाक्त बनाकर अस्वस्थ कर देता है, इसी प्रकार माया आदि शल्य भी जब अन्तर्हृदय मे घुप जाते हैं, तब साधक की आत्मा को शान्ति नही लेने देते हैं, उसे सर्वदा व्याकुल एव बेचैन किए रहते हैं सर्वथा अस्वस्थ बनाए रखते हैं । अहिंसा, सत्यादि आत्मा का आध्यात्मिक स्वास्थ्य है, वह शल्य के द्वारा चौपट हो जाता है, साधक आध्यात्मिक दृष्टि से बीमार पड जाता है ।
१. - माया- शल्य - माया का अर्थ कपट होता है । अतएव छल करना, ढोग रचना, जनता को ठगने की मनोवृत्ति रखना, अन्दर और बाहर एकरूप से सरल न रहना, स्वीकृत व्रतो मे लगे दोषो की आलोचना न करना, माया- शल्य है ।
२ – निदान - शल्य - धर्माचरण से सासारिक फल की कामना करना, भोगो की लालसा रखना निदान है । किसी राजा ग्रादि का धन, वैभव देखकर या सुनकर मन मे यह सकल्प करना कि ब्रह्मचर्य, तथा तप श्रादि मेरे धर्म के फलस्वरूप मुझे भी यही वैभव एव समृद्धि प्राप्त हो, यह निदान - शल्य है |
३ - मिथ्यादर्शन - शल्य -- सत्य पर श्रद्धा न करना, ग्रसत्य का प्राग्रह रखना, मिथ्यादर्शन-शल्य है । यह शल्य बहुत भयकर है। इसके कारण कभी भी सत्य के प्रति प्रभिरुचि नही होती । यह शल्य सम्यग्दर्शन का विरोधी है ।
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जब तक साधक के हृदय मे, उल्लिखित किसी भी शल्य का सकल्प बना रहेगा, तब तक कोई भी नियम तथा व्रत विशुद्ध नही हो सकता । मायावी का व्रत असत्य मिश्रित होता है । भोगासक्त का व्रत वीतराग-भावना से शून्य, सराग होता है । मिथ्या दृष्टि का व्रत केवल द्रव्यलिङ्गस्वरूप हैं । सम्यक्त्व के विना घोर-से-घोर क्रिया - काड भी सर्वथा निष्फल है, बल्कि कर्म-बन्ध का कारण है ।
प्रस्तुत उत्तरीकरण पाठ के सम्बन्ध मे अन्तिम सार - रूपेण इतना ही कहना है कि व्रत एव ग्रात्मा की शुद्धि के लिए प्रायश्चित्त ग्रावश्यक है । प्रायश्चित्त भाव -शुद्धि के विना नही हो सकता, भाव-शुद्धि के लिए शल्य का त्याग जरूरी है । शल्य का त्याग और पाप कर्मो का नाश कायोत्सर्ग से ही हो सकता है, कायोत्सर्ग करना परमावश्यक है । कायोत्सर्ग सयम मे होने वाली भूलो का एक विशिष्ट प्रायश्चित्त ही तो है ।
ग्रत
*
标
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प्रागार सत्र
अन्नत्थ ऊससिएरणं, नीससिएण, खासिएणं, छीएणं, जंभाइएणं, उड्डुएणं, वाय-निसग्गेणं, भमलीए. पित्त मुच्छाए ।१। सुहमेहि अंग-संचालेहि सुहह खेल संचालेहि सुहुमेहि दिठि-संचाहि ।२। एवमाइएहि आगारेहि अभग्गो अविराहियो हुज्ज मे काउस्सग्गो ।३। जाव अरिहताणं, भगवताण, नमुक्कारेणं न पारेसि ।४। ताव कायं ठाणेणं मोणेणं, झाणेणं, अप्पांण वोसिरामि ।।
शब्दार्थ अन्नत्य-ग्रागे कहे जाने वाले त्सर्ग मे शेष काय-व्यापारो
आगारो के अतिरिक्त कायो- का त्याग करता हूँ।
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आगार-सूत्र
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ऊससिएण=उच्छवास से काउस्सग्गो-कायोत्सर्ग नोससिएण=नि श्वास से - अभग्गो-अभग्न खासिएण-खासी से
अविराहिओ=विराधना-रहित छीएण-छीक से
हुज्ज हो जभाइएणजभाई-उबासी से [ कायोत्सर्ग कब तक?] उड्डुए डकार से
जाव=जब तक वायनिसग्गेण =अपानवायु से अरिहंताण =अरिहन्त भमलिए-चक्कर आने से भगवताण =भगवानो को पित्तमुच्छाए-पित्त-विकार की नमुक्कारेण नमस्कार करके मूर्छा से
कायोत्सर्ग को सुहुमेहि सूक्ष्म
न पारेमि-न पारू अग-सचालेहि अङ्ग के सचार से ताव तब तक सुहमे हि सूक्ष्म
ठाणेणं (एक स्थान पर) स्थिर खेल-संचाहि कफ के सचार से रह कर सुहमेहि-सूक्ष्म
मोणेण=मौन रह कर दिठिसचालहि दृष्टि के सचार झारगण=ध्यानस्थ रह कर
अप्पाणं अपने एषमाइएहि = इत्यादि
काय=शरीर को आगारेहि-आगारो-अपवादो से वोसिरामि (पाप कर्मों से) अलग मे-मेरा
करता हूँ
भावार्थ कायोत्सर्ग मे काय-व्यापारो का परित्याग करता हूँ, निश्चल होता हूँ। परन्तु, जो शारीरिक क्रियाएँ अशक्यपरिहार होने के कारण स्वभावत हरकत मे आजाती है, उनको छोडकर ।
उच्छ वास-ऊँचा श्वास, नि श्वास-नीचा श्वास, कासितखाँसी, छिक्का-छीक, उबासी, डकार, अपान वायु, चक्कर, पित्तविकारजन्य मूर्छा, सूक्ष्म-रूप से अङ्गो का हिलना, सूक्ष्म-रूप से कफ का निकलना, सूक्ष्य-रूप से नेत्रो का हरकत मे आ जाना, इत्यादि आगारो से मेरा कायोत्सर्ग अभग्न एव अविराधित हो ।
जब तक अरिहन्त भगवानो को नमस्कार न कर लू अर्थात् 'नमो अरिहताण' न पढ लू, तब तक एक स्थान पर स्थिर रह
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सामायिक सूत्र
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कर, मौन रह कर, धर्म-ध्यान मे चित्त की एकाग्रता करके अपने शरीर को पाप-व्यापारो से अलग करता हूँ ।
विवेचन
कायोत्सर्ग का अर्थ है, शरीर की सब प्रवृत्तियो को रोक कर पूर्णतया निश्चल एव निस्पन्द रहना । साधक जीवन के लिए यह निवृत्ति का मार्ग श्रतीव श्रावश्यक है । इसके द्वारा मन, वचन एव शरीर मे दृढता का भाव पैदा होता है, जीवन ममता के क्षेत्र से बाहर होता है, सब ओर आत्म-ज्योति का प्रकाश फैल जाता है, और आत्मा बाह्य जगत् से सम्बन्ध हटाकर, शरीर की ओर से भी पराड मुख होकर अपने वास्तविक मूल स्वरूप के केन्द्र मे अवस्थित हो जाता है ।
कायोत्सर्ग मे आगार
非
परन्तु, एक बात है, जिस पर ध्यान देना अत्यन्त आवश्यक है । साधक कितना ही क्यो न दृढ एव साहसी हो, परन्तु कुछ शरीर के व्यापार ऐसे हैं, जो वराबर होते रहते हैं, उनको किसी भी प्रकार से वन्द नही किया जा सकता । यदि हठात् बन्द करने का प्रयत्न किया जाए, तो लाभ के बदले हानि की ही सम्भावना रहती है । अत कायोत्सर्ग से पहले यदि उन व्यापारो के सम्बन्ध मे छट न रखी जाए, तो फिर कायोत्सर्ग की प्रतिज्ञा का भग होता है । एक ओर तो प्रतिज्ञा है कि शरीर के व्यापारो का त्याग करता हूँ, और उधर श्वास यादि के व्यापार चालू रहते है, ग्रत यह प्रतिज्ञा का भग नही तो और क्या है ? इसी सूक्ष्म बात को लक्ष्य मे रखकर सूत्रकार ने प्रस्तुत ग्रागार-सूत्र का निर्माण किया है । अव पहले से ही छूट रख लेने के कारण प्रतिज्ञा भग का दोप नही होता । कितनी सूक्ष्म सूझ है । सत्य के प्रति कितनी अधिक जागरूकता है ।
'एवमाइए हि आगारेहि' - उक्त पद के द्वारा यह विधान है कि श्वास यादि के सिवा यदि कोई और भी विशेष कारण उपस्थित हो तो कायोत्सर्ग वीच मे ही, समय पूर्ण किए बिना ही समाप्त किया जा सकता है । बाद मे उचित स्थान पर पुन उसको पूर्ण कर लेना चाहिए | वीच मे समाप्त करने के कारणो पर प्राचीन टीकाकारो
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आगार-२
र-सूत्र
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ने अच्छा प्रकाश डाला है । कुछ कारण तो ऐसे हैं, जो अधिकारीभेद से मानवी दुर्बलताश्री को लक्ष्य मे रखकर माने गए है । और कुछ उत्कृष्ट दयाभाव के कारण है । अतएव किसी आकस्मिक विपत्ति मे किसी की सहायता के लिए कायोत्सर्ग खोलना पडे, तो उसका आगार रखा जाता है । जैन-धर्म शुष्क क्रिया-काण्डो मे पडकर जड नही बनता है । वह ध्यान - जैसे आवश्यक - विधान मे भी ग्राकस्मिक सहायता देने की छूट रख रहा है । ग्राज के जड क्रियाकाण्डी इस चोर लक्ष्य देने का कष्ट उठाएँ, तो जन-मानस से बहुत सारी गलतफहमियाँ दूर हो सकती है ।
हाँ, तो टीकाकारो ने यादि शब्द से ग्रग्नि का उपद्रव, डाकू अथवा राजा आदि का महाभय, सिंह अथवा सर्प आदि क्रूर प्राणियों का उपद्रव, तथा पचेन्द्रिय जीवो का छेदन भेदन इत्यादि अपवादो का ग्रहण किया है । ग्रग्नि आदि के उपद्रव का ग्रहण इसलिए है कि नभव है, साधक मूल मे दुर्बल हो, वह उस समय तो अहम् मे अडा रहे, किन्तु बाद मे भावो की मलिनता के कारण पतित हो जाए । दूसरी बात यह भी है कि साधक दृढ भी हो, जीवन की अन्तिम घडियो तक विशुद्ध परिणामी भी रहे, किन्तु लोकापवाद तो भयकर है । व्यर्थ की घृष्टता के लिए लोग, जैनधर्म की निन्दा कर सकते हैं । और फिर साधना का मिथ्या प्राग्रह रखकर जीवन को यो ही व्यर्थ नष्ट कर देने से लाभ भी क्या है ? पचेन्द्रिय जीवो का छेदन-भेदन ग्रागार - स्वरूप इसलिए रखा गया है कि यदि अपने समक्ष किसी जीव की हत्या होती हो, तो चुपचाप न देखता रहे । शीघ्र ही ध्यान खोल कर उस हत्या को बन्द कराने का यत्न करना चाहिए । अहिंसा से बढकर कोई साधना नही हो सकती । सपदि किसी को काट ले, तो वहाँ भी सहायता के लिए ध्यान खोला जा सकता है । इसी भाव को लक्ष्य मे रखकर आचार्य हेमचन्द्र योगशास्त्र की स्वोपज्ञ वृत्ति मे लिखते है -
" मार्जारमूषिकादे पुरतो गमने ऽग्रत सरतोऽपि न भङ्ग । सर्पदष्टे श्रात्मनि वा साध्यादौ सहसा उच्चारयतो न भङ्ग ।
-योग० (३ / १२४) स्वोपज्ञ वृत्ति 'अभग्गो' और 'अविराहियो' के संस्कृत-रूप क्रमश 'अभग्न' एव
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सामायिक सूत्र
'अविराधित' है । अभग्न का अर्थ पूर्णत नष्ट न होना है, और अविराधित का अर्थ देशत नष्ट न होना है
" मग्न सर्वथा विनाशित, न भग्नोऽभग्न । विराधितो देशभग्न., न विराधितोऽविराधित
२१०
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- योगशास्त्र, (३ / १२४) स्वोपज्ञ वृत्ति कायोत्सर्ग मे आसन
*
एक बात और । कायोत्सर्ग पद्मासन से करना चाहिए। अथवा बिलकुल सीधे खडे होकर, नीचे की ओर भुजाओ को प्रलबमान रखकर, ग्राँखे नासिका के अग्रभाग पर जमाकर अथवा बन्द करके जिन मुद्रा के द्वारा करना भी अधिक सुन्दर होगा। एक ही पैर पर अधिक भार न देना, दीवार आदि का सहारा न लेना, मस्तक नीचे की ओर नही झुकाना, आँखे नही फिराना, सिर नही हिलाना आदि बातो का कायोत्सर्ग मे ध्यान रखना चाहिए ।
समय व सम्पदा
**
सूत्र मे कायोत्सर्ग के काल के सम्बन्ध मे वर्णन करते हुए जो यह कहा गया है कि 'नमो अरिहतारण' पढने तक कायोत्सर्ग का काल है, इसका यह अर्थ नही कि कायोत्सर्ग का कोई निश्चित काल नही, जब जी चाहा तभी 'नमो अरिहता' पढा और कायोत्सर्ग पूर्ण कर लिया । 'नमो अरिहतारण' पढने का तो यह भाव है कि जितने काल का कायोत्सर्ग किया जाए अथवा जो कोई निश्चित पाठ पढा जाए, वह पूर्ण होने पर ही समाप्ति-सूचक 'नमो अरिहतारण' पढना चाहिए। यह नियम कायोत्सर्ग के प्रति सावधानी की रक्षा के लिए है । ग्रन्यमनस्क भाव से लापरवाही रखते हुए कोई भी साधना शुरू करना और समाप्त करना फल- प्रद नही होती । पूर्ण जागरूकता के साथ कायोत्सर्ग प्रारम्भ करना और समाप्त करना, कितना अधिक आत्म जागृति का जनक होता है । यह अनुभवी ही जान सकते है ।
प्रस्तुत सूत्र मे पाँच सम्पदा अर्थात् विश्राम है
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आगार-सूत्र
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प्रथम एक वचनान्त आगार-सम्पदा है, इसमे एक वचन के द्वारा आगार वताए हैं।
दूसरी वहुवचनान्त ग्रागार सम्पदा है, इसमे बहुवचन के द्वारा आगार वताए हैं।
तीसरी आगन्तुक-आगार-सम्पदा है, इसमे आकस्मिक अग्निउपद्रव आदि की सूचना है।
चतुर्थ कायोत्सर्ग विधि-सम्पदा है, इसमे कायोत्सर्ग के काल की मर्यादा का सकेत है।
पाँचवी स्वरूप-सम्पदा है, इसमे कायोत्सर्ग के स्वरूप का वर्णन है।
यह सम्पदा का कथन मूल-सूत्र पाठ के अन्तरग मर्म को समझने के लिए अतीव उपयोगी है।
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८
लोगस्स उज्जोयग रे,
धम्मतित्थयरे जिणे ।
अरिहते कित्तइस्स,
चउवीस पि केवली ॥ १ ॥
उसभमजिय च वदे,
चतुर्विंशतिस्तव सत्र
संभवमभिरणदरण च सुमइ च ।
पउमपह सुपास,
जिणं च चदप्पह वदे ॥ २ ॥
सुविहि च पुप्फदतं,
सोप्रल-सिज्जस- वासुपूज्जं च ।
विमलमरगत च जिणं,
धम्म सति च वंदामि ॥ ३ ॥
कुंथु अरं च मल्लिं,
वदे मुणिसुव्वयं नमिजिरण च । वदामि रिट्ठनेम,
पास तह वद्धमारणं च ॥ ४ ॥
एवं मए अभित्थुआ,
विहुय रयमला पहीण-जरमरणा ।
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चतुर्विशतिस्तव-सूत्र
२१३
चउवीसं पि जिणवरा,
तित्थयरा मे पसीयंतु ॥ ५ ॥ कित्तिय-वदिय-महिया,
जे ए लोगस्स उत्तमा सिद्धा। प्रारुग्ग-बोहिलाम,
समाहि-वरमुत्तम दितु ॥ ६ ॥ चदेसु निस्सलयरा,
आइच्चेसु अहिय पयासयरा । सागरवरगभीरा, सिद्धा सिद्धि मन दिसतु ॥ ७ ॥
शब्दार्थ
[१] लोगस्स=सम्पूर्ण लोक के पउमप्पह पद्मप्रभ उज्जोयगरे=उद्योत करने वाले सुपास-सुपाव धम्मतित्थयरे धर्मतीर्थ के कर्ता च और जिणे राग-द्वेष के विजेता चदप्पह= चन्द्रप्रभ अरिहते=अरिहन्त
जिण जिनको घउवीसपि=चौवीसो ही वदे=वन्दना करता हूँ केवली=केवल ज्ञानियो का
[३] फित्तइस्स-कीर्तन करूँगा सुविहि=सुविधि [२]
च=अथवा उसभऋपभदेव
पुप्फदतपूष्पदत च=और
च=और अजिय =अजित को
सीअल शीतल वदे=वन्दन करता हूँ
सिज्जस=श्रयास संभव सभव
वासुपुज्ज-वासुपूज्य च-नौर
च=और अभिणदण=अभिनन्दन
विमल=विमल च=और
अण त=अनन्त सुमई=सुमति को
जिण=जिन
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२१४
धम्म == - धर्मनाथ च = ग्रौर
सति शान्ति को
वदामि = वन्दना करता [ ४ ]
कुंथ = कुन्थु अरं=अरनाथ च = श्रौर
मल्लि = मल्लि मुणिसुव्वय मुनिसुव्रत च = और नमिजिणनमि जिनको
=
तह तथा
-
Phcc
वद्धमाण च= वर्द्ध मान को भी वदामि = वन्दना करता हूँ [ ५ ]
एव = इस प्रकार भए = मेरे द्वारा
पसीयंतु = प्रसन्न हो
[ ६ ]
वदे=वन्दन करता हूँ
और
रिट्ठनेमि = अरिष्ट नेमि बोहिलाभ = बोधि- सम्यग्धर्म का लाभ पास = पार्श्वनाथ
उत्तम श्र ेष्ठ
समाहिवर = श्रेष्ठ समाधि दितु = देवे
जे = जो
ए= ये
लोगस्स = लोक मे
से मुक्त
चउवीसपि = चौवीसो ही जिवरा = जिनवर
तित्ययरा = तीर्थ कर मे=मुझ पर
सामायिक सूत्र
उत्तमा=
उत्तम
फित्तिय = कीर्तित = स्तुत
वदिय = वन्दित महिया = पूजित
सिद्धा तीर्थकर है, वे
आरुग्ग=ग्रारोग्य = ग्रात्म स्वास्थ्य
[ ७ ] च'देसु = चन्द्रो से भी
-
निम्मलयरा = विशेष निर्मल
आइच्चेसु = सूर्यो से भी अहिय = अधिक
अभित्यु = स्तुति किए गए वियरयमला = पाप मल से रहित पयासयरा = प्रकाश करने वाले पहीणजरमरणा=जरा और मृत्यु गरवर = महासागर के समान
गम्भीरा गम्भीर
सिद्धा = सिद्ध भगवान्
मम = मुझ को सिद्धि-सिद्धि, मुक्ति दिसतु = देवे
भावार्थ
उद्द्योत - प्रकाश करने वाले,
अखिल विश्व मे धर्म का घर्मतीर्थ की स्थापना करने वाले, ( राग द्वेष के ) जीतने वाले,
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चतुर्विंशतिस्तव-सूत्र
२१५
( अन्तरग काम क्रोधादि ) शत्रुनो को नष्ट करने वाले, केवलज्ञानी चौबीस तीर्थ करो का मै कीर्तन करूँगा- स्तुति करूंगा ॥ १ ॥
श्री ऋषभदेव को और अजितनाथ जी को वन्दना करता हूँ । सम्भव, अभिनन्दन, सुमति, पद्मप्रभ, सुपार्श्व और राग-द्वेष- बिजेता चन्द्रप्रभ जिन को भी नमस्कार करता हूँ ॥ २ ॥
श्री पुष्पदन्त (सुविधिनाथ), शीतल, श्र ेयास, वासुपूज्य, विमलनाथ, रागद्वेष के विजेता अनन्त, धर्म तथा श्री शान्तिनाथ भगवान् को नमस्कार करता हूँ ॥ ३ ॥
श्री कुन्थुनाथ, अरनाथ, मल्लिनाथ, मुनिसुव्रत, एव राग-द्वेष के विजेता नमिनाथ जी को वन्दना करता हूँ । इसी प्रकार भगवान् अरिष्टनेमि, पार्श्वनाथ, और वर्धमान ( महावीर ) स्वामी को भी नमस्कार करता हूँ ॥ ४ ॥
जिनकी मैंने स्तुति की है, जो कर्मरूप धूल के मल से रहित है, जो जरामरण दोनो से सर्वथा मुक्त है, वे अन्त शत्रु पर विजय पाने वाले धर्मप्रवर्तक चौवीस तीर्थ कर मुझ पर प्रसन्न हो ।। ५ ।।
जिनकी इन्द्रादि देवो तथा मनुष्यो ने स्तुति की है, वन्दना की है, पूजा-अर्चा की है, और जो अखिल ससार मे सबसे उत्तम हैं, वे सिद्ध-तीर्थ कर भगवान् मुझे आरोग्य - सिद्धत्व अर्थात् ग्रात्मशान्ति, वोधि - सम्यग्दर्शनादि रत्नत्रय धर्म का पूर्ण लाभ, तथा उत्तम समाधि प्रदान करे ॥ ६ ॥
जो अनेक कोटि चन्द्रमाओ से भी विशेष निर्मल है, जो सूर्यो से भी अधिक प्रकाशमान है, जो स्वयभूरमण जैसे महासमुद्र के समान गम्भीर है, वे सिद्ध भगवान् मुझे सिद्धि अर्पण करे, अर्थात् उनके आलम्बन से मुझे सिद्धि - मोक्ष प्राप्त हो ॥ ७ ॥
विवेचन
सामायिक को ग्रवतारणा के लिए आत्म-विशुद्धि का होना परमावश्यक है । अतएव सर्वप्रथम आलोचना -सूत्र के द्वारा ऐर्यापथिक प्रतिक्रमण करके आत्म शुद्धि की गई है । तत्पश्चात् विशुद्धि मे और अधिक उत्कर्ष पैदा करने के लिए, हिंसा तथा ग्रसत्य आदि भूलो का प्रायश्चित्त करने के लिए कायोत्सर्ग की साधना का उल्लेख किया
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२१६
सामायिक सूत्र
गया है । दोनो साधनाओ के बाद, यह पुन तीसरी बार भक्तहृदय मे चतुर्विंशतिस्तव - सूत्र के द्वारा भक्ति-सुधा की वर्षा करने का विधान है । जैन समाज मे चतुर्विंशतिस्तव को बहुत अधिक महत्त्व प्राप्त है । वस्तुत 'लोगस्स' भक्ति-साहित्य की एक अमर रचना है । इसके प्रत्येक शब्द मे भक्ति-भाव का प्रखड स्रोत छिपा हुग्रा है । अगर कोई भक्त, पद-पद पर भक्ति भावना से भरे हुए अर्थ का रसास्वादन करता हुआ, उक्त पाठ को पढे, तो वह श्रवश्य ही प्रानन्द-विभोर हुए विना नही रहेगा। जैन साधना में सम्यगदर्शन का वडा भारी महत्त्व है । और वह सम्यग्दर्शन किस प्रकार अधिकाधिक विशुद्ध होता है ? वह विशुद्ध होता है, चतुर्विंशतिस्तव के द्वारा-'चउदीसत्यएर दसणविसोहि जणयइ ।'
- उत्तराध्ययन २९, ६
चतुर्विंशतिस्तव के द्वारा दर्शन की विशुद्धि होती है ।
भगवत्स्मरण : श्रद्धा का दल
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ग्राज ससार अत्यधिक त्रस्त, दुखित एव पीडित है । चारो मोर क्लेश एव कष्ट की ज्वालाएँ धधक रही है; और बीच मे ग्रवरुद्ध मानव प्रजा झुलस रही है। उसे अपनी मुक्ति का कोई मार्ग प्रतीत नही होता। ऐसी अवस्था मे सरल भावेन सतो के द्वार खटखटाये जाते है, और अपने रोने रोये जाते हैं । बालक, वूढे, युवक और स्त्रिया, सभी प्रार्थना के लिए कातर है । सन्त उन्हे हमेशा से एक ही उपाय बताते चले आए हैं- भगवान् का नाम, धौर वस नाम भगवान् के नाम मे ग्रसीम शक्ति है, ग्रपार वल है, जो चाहो सो पा सकते हो, आवश्यकता है, श्रद्धा की, विश्वास की । विना श्रद्धा एव विश्वास के कुछ नही होता । लाखो जन्म बीत जाएँ, तव भी आपको कुछ नही मिलेगा, केवल प्रभाव के लौह-द्वार से टकरा कर लौट ग्रायोगे । यदि श्रद्धा और विश्वास का वल लेकर ग्रागे वढोगे, तो सम्पूर्ण विश्व की निधियों आपके श्रीचरणो मे विखरी पाएँगी ।
1
एक कहानी है । विद्वानो की सभा थी । एक विद्वान मुट्ठी बन्द किए उपस्थित हुए । एक ने पूछा- मुट्ठी मे क्या है ? उत्तर मिलाहाथी । दूसरे ने पूछा- उत्तर मिला- घोडा। तीसरे ने पूछा- उत्तर मिला - गाय | विद्वान ने किसी को भैंस तो किसी को सिंह, किसी को
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चतुर्विंशतिस्तव - सूत्र
I
हिमालय, तो किसी को समुद्र, किसी को चाँद तो किसी को सूरज बता-बता कर सबको आश्चर्य मे डाल दिया । सब लोग कहने लगेमुट्ठी है या बला ? मुट्ठी मे यह सब कुछ नही हो सकता । झूठ सर्वथा झूठ | विद्वान् ने मुट्ठी खोली । रगकी एक नन्ही सी टिकिया हथेली पर रखी थी । पानी डाला, दवात मे रंग घुल गया । अब विद्वान् के हाथ मे कागज था, कलम थी । जो कुछ कहा था वह सव, सुन्दर चित्रो के रूप मे सब को मिल गया ।
यही बात भगवान् के नन्हे से नाम मे है। श्रद्धा का जल डालिए, ज्ञान का कागज और चरित्र की कलम लीजिए, फिर जो ग्रभीप्ट हो, प्राप्त कीजिए । सव मिलेगा, कमी किसी बात की नही है ! सूखी टिकिया कुछ नही कर सकती थी। इसी प्रकार श्रद्धा हीन नाम भी कुछ नही कर सकता है ।
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?
लोग कहते है, ग्रजी नाम से क्या होता है? मैं कहता हूँ अच्छा श्रापका केस न्यायालय मे चल रहा है । ग्राप किसी से दस हजार रुपया माँगते है । जज पूछता है, क्या नाम ग्राप कह दीजिए, नाम का तो पता नही । क्या होगा ? मामला रद्द ! श्राप तो कहते है - नाम से कुछ नही होता । पर, यहाँ तो विना नाम के सब चौपट हो गया । यही बात भगवान् के नाम मे भी है । उसे शून्य न समझिए 1 श्रद्धा का बल लगा कर जरा दृढता के साथ नाम लीजिए, जो चाहोगे सो हो जायगा I
स्मरण से मन पवित्र होता है
भगवान् ऋषभदेव से लेकर भगवान् महावीर तक चौवीस तीर्थ कर हमारे इष्टदेव है, हमे अहिंसा और सत्य का मार्ग बताने वाले है, घर ग्रज्ञान - अन्धकार मे भटकते हुए हमको ज्ञान की दिव्य ज्योति के देने वाले है, अत कृतज्ञता के नाते, भक्ति के नाते उनका नाम स्मरण करना, उनका कीर्तन करना, हम साधको का मुख्य कर्तव्य है । यदि हम ग्रालस्य वश किंवा उद्दण्डता वश भगवान् का गुण-कीर्तन न करे, तो यह हमारा चुप रहना, अपनी वाणी को निष्फल करना है । अपने से गुणाधिक, श्रेष्ठ एव पूजनीय व्यक्ति के
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सामायिक सूत्र
सम्बन्ध मे चुप रहना, नैषधकार श्रीहर्ष के शब्दो मे वारणी की निष्फलता का असह्य शल्य है
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" वाग्जन्म वैफल्यमसह्यशल्य
गुणाद्भुते वस्तुनि मौनिता चेत् "
- नैषधचरित ८ / ३२
1
महापुरुषो का स्मरण हमारे हृदय को पवित्र बनाता है । वासनाओ की प्रशान्ति को दूर कर अखड आत्म-शान्ति का आनन्द देता है। तेज बुखार की हालत मे जब हमारे सिर पर बर्फ की ठंडी पट्टी बँधती है, तो हमे कितना सुख, कितनी शान्ति मिलती है इसी प्रकार जब वासना का ज्वर चैन नही लेने देता है, तब भगवन्नाम की बर्फ की पट्टी ही शाति दे सकती है । प्रभु का मंगलमय पवित्र नाम कभी भी ज्योतिर्हीन नही हो सकता । वह श्रवश्य ही अन्तरात्मा मे ज्ञान का प्रकाश जगमगाएगा । देहली- दीपक न्याय आप जानते है ? देहली पर रखा हुआ दीपक अन्दर और बाहर दोनो श्रर प्रकाश फैलाता है । भगवान् का नाम भी जिह्वा पर रहा हुआ अन्दर और बाहर दोनो जगत को प्रकाशमान बनाता है । वह हमें बाह्य जगत् में रहने के लिए विवेक का प्रकाश देता है, ताकि हम अपनी लोक यात्रा सफलता के साथ विना किसी विघ्न-बाधा के तय कर सके । वह हमे प्रन्तर्जगत् में भी प्रकाश देता है, ताकि हम अहिंसा, सत्य आदि के पथ पर दृढता के साथ चल कर इस लोक के साथ परलोक को भी शिव एव सुन्दर बना सके ।
मनुष्य श्रद्धा का, विश्वास का बना हुआ है, अत श्रद्धा करता है, जैसा विश्वास करता है, जैसा सकल्प वैसा ही बन जाता है
'श्रद्धामयोऽय पुरुष,
सकल्पबल
*
वह जैसी करता है,
यो यच्छद्ध. स एव स ' ।
- भगवद् गीता १७ /३ विद्वानो के सकल्प विान् वनाते हैं और मूर्खो के सकल्प मूर्ख !
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चतुर्विंशतिस्तव सूत्र
वीरो के नाम से वीरता के भाव पैदा होते है, और कायरो के नाम से भीरुता के भाव ! जिस वस्तु का हम नाम लेते है, हमारा मन तत्क्षण उसी आकार का हो जाता है । मन एक साफ कैमरा है । वह जैसी वस्तु की ओर अभिमुख होगा, ठीक उसी का आकार अपने मे धारण कर लेगा । ससार मे हम देखते हैं कि बघिक का नाम लेने से हमारे सामने बघिक का चित्र खडा हो जाता है । सती का नाम लेने से सती का आदर्श हमारे ध्यान मे आ जाता है । साधु का नाम लेने से हमे साधु का ध्यान हो आता है । ठीक इसी प्रकार पवित्र पुरुषो का नाम लेने से अन्य सब विषयो से हमारा ध्यान हट जायगा और हमारी बुद्धि महापुरुष-विषयक हो जायगी । महापुरुषो का नाम लेते ही महामंगल का दिव्य रूप हमारे सामने खडा हो जाता है । यह केवल जड अक्षर-माला नही है । इन शब्दो पर ध्यान दीजिए, आपको अवश्य ही अलौकिक चमत्कार का साक्षात्कार होगा I
सकल्प - चित्र
*
भगवान् ऋषभ का नाम लेते ही हमे ध्यान आता है- मानवसभ्यता के आदिकाल का । किस प्रकार ऋषदेवभ ने वनवासी, निष्क्रिय अबोध मानवो को सर्वप्रथम मानव-सभ्यता का पाठ पढाया, मनुष्यता का रहन-सहन सिखाया, व्यक्तिवादी से हटा कर समाजवादी बनाया, परस्पर प्रेम और स्नेह का आदर्श स्थापित किया, पश्चात् अहिंसा और सत्य आदि का उपदेश देकर लोक-परलोक दोनो को उज्ज्वल एव प्रकाशमय बनाया ।
1
के
भगवान् नेमिनाथ का नाम हमे दया की चरम - भूमिका पर पहुँचा देता है । पशु-पक्षियों को रक्षा निमित्त वे किस प्रकार विवाह को ठुकरा देते है, किस प्रकार राजीमती-सी सर्वसुन्दरी अनुरागयुक्ता पत्नी को विना व्याहे ही त्यागकर स्वर्ण सिंहासन को लात मार कर भिक्षु बन जाते है आपका हृदय दया और त्याग वैराग्य हो उठेगा
?
के
जरा कल्पना कीजिए, सुन्दर भावो से गद्गद
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२२०
सामायिक-सूत्र
भगवान पार्श्वनाथ हमे गगा-तट पर कमठ-जैसे मिथ्या कर्मकाण्डी को बोध देते एव धधकती हुई अग्नि मे से दयार्द्र होकर नाग-नागनी को बचाते नजर आते है। और, आगे चलकर कमठ का कितना भयकर उपद्रव सहन किया, परन्तु विरोधी पर जरा भी तो क्षोभ न हुआ | कितनी वडी क्षमा है !
भगवान् महावीर के जीवन की झाकी देखेगे, तो वह वडी ही मनोहर है, प्रभाव-पूर्ण है। वारह वर्ष की कितनी कठोर, एकान्त साधना | कितने भीपण एव लोमहर्षक उपसर्गो का सहना । पशुमेध और नर-मेध जैसे विनाशकारी मिथ्या विश्वासो पर कितने कठोर क्रान्तिकारी प्रहार | अछ तो एव दलितो के प्रति कितनी ममता, कितनी प्रात्मीयता ] गरीव ब्राह्मण को अपने शरीर पर के एकमात्र वस्त्र का दान देते, चन्दना के हाथो उडद के उवले दाने भोजनार्थ लेते, विरोधियो की हजारो यातनाएँ सहते हुए भी यज्ञ आदि मिथ्या विश्वासो का खडन करते, गौतम जैसे प्रिय-शिष्य को भी भूल के अपराध में दण्ड देते हुए भगवान महावीर के दिव्य रूप को यदि आप एक वार भी अपने कल्पना-पथ पर ला सके, तो धन्य धन्य हो जायेगे, अलौकिक यानन्द मे प्रात्म-विभोर हो जायेगे। कौन कहता है कि हमारे महापुरुप के नाम, उनके स्तुति-कीर्तन, कुछ नहीं करते। यह तो आत्मा से परमात्मा वनने का पथ है। जीवन को सरस, सुन्दर एव सबल बनाने का प्रवल साधन है । अतएव एक धुन से, एक लगन से अपने धर्म-तीर्थ करो का, अरिहन्त भगवानो का स्मरण कीजिए। सूत्रकार ने इसी उच्च प्रादर्श को व्यान में रखकर चतुविशतिस्तव-सूत्र का निर्माण किया है।
तीर्थ और तीर्थकर
"धर्म-नीर्य कर' शब्द का निर्वचन भी ध्यान में रखने लायक है। धर्म का यर्थ है, जिसके द्वारा दुर्गति मे, दुरवस्था मे पतित होता हया यात्मा नभन कर पुन स्व-ग्वरूप में स्थित हो जाए, वह अध्यात्म माधना | तीर्य का अर्थ है, जिसके द्वारा ससार समुद्र से
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चतुविशतिस्त-सूत्र
२२१ तिरा जाए, वह साधना । 'प्रतिक्रमण सूत्र पद विवृत्ति' मे आचार्य नमि लिखते है ___"दुर्गती प्रपतन्तमात्मानं धारयतीति धर्म -'तीर्यतेऽनेन इति तीर्थम्, धर्म एव तीर्थम् धर्मतीर्थम्"
अस्तु, ससार-समुद्र से तिराने वाला, दुर्गति से उद्धार करने वाला धर्म ही सच्चा तीर्थ है। और, जो इस प्रकार के अहिंसा, सत्य आदि धर्म-तीर्थ की स्थापना करते है, वे तीर्थ कर कहलाते है। चौवीसो ही तीर्थ करो ने, अपने-अपने समय मे, अहिसा, सत्य आदि आत्म-धर्म की स्थापना की है, धर्म से भ्रष्ट होती हुई जनता पुन धर्म मे स्थिर की है। ___'जिन' का अर्थ है-विजेता। किसका विजेता ? इसके लिए फिर आचार्य नमि के पास चलिए, क्योकि वह प्रागमिक परिभाषा का एक विलक्षण पण्डित है । प्रतिक्रमण सत्र पद विवृत्ति मे लिखा है
"राग-द्वेष कषायेन्द्रिय परिषहोपसर्गाष्टप्रकारकम जेतृत्वाज्जिना ।"
राग, द्वेष, कषाय, इन्द्रिय, परिपह, उपसर्ग तथा अष्टविध कर्म के जीतने से जिन कहलाते है। चार और आठ कर्म के चक्कर मे न पडिए । तीर्थकरो के चार अघाति-कर्म भी विजित-प्राय ही है । वासनाहीन पुरुप के लिए केवल भोग्य-मात्र हैं, बधन नही । घाति-कर्म नष्ट होने के कारण अब इनसे आगे नये कर्म नहीं बध सकते। यह तो तीर्थकरो के जीवन काल की बात है । और, यदि वर्तमान मे प्रश्न है, अब तो चौवीस तीर्थ कर मोक्ष में पहुंच चुके है, आठो ही कर्मो को नष्ट कर सिद्ध हो चुके है, अत वे पूर्ण जिन है।
तीर्थकर : उच्चता का आदर्श
जैन-धर्म ईश्वरवादी नहीं है, तीर्थ करवादी है। किसी सर्वथा परोक्ष एव अज्ञात ईश्वर मे वह बिल्कुल विश्वास नही रखता। उसका कहना है कि जिस ईश्वर नामधारी व्यक्ति की स्वरूप-सम्बन्धी कोई रूपरेखा हमारे सामने ही नही है, जो अनादिकाल से मात्र कल्पना का विषय ही रहा है, जो सदा से अलौकिक ही रहता
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सामायिक सूत्र
२२२
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चला ग्राया है, वह हम मनुष्यो को अपना क्या आदर्श सिखा सकता है ? उसके जीवन पर से, उसके व्यक्तित्व पर से हमे क्या कुछ लेने लायक मिल सकता है ? हम मनुष्यो के लिए तो वही ग्राराध्यदेव चाहिए, जो कभी मनुष्य ही रहा हो, हमारे समान ही ससार के सुख-दुख से एव मोह-माया से सत्रस्त रहा हो, और वाद मे अपने अनुभव एव ग्राध्यात्मिक जागरण के बल से ससार के समस्त सुख भोगो को दुखमय जानकर तथा प्राप्त राज्य-वैभव को ठुकरा कर निर्वाण पद का पूर्ण व दृढ साधक बना हो, सदा के लिए कर्म-बन्धनो से मुक्त होकर ग्रपने मोक्ष स्वरूप प्रतिम लक्ष्य पर पहुँचा हो । जैन धर्म के तीर्थ कर एव जिन इसी श्रेणी के साधक थे । वे कुछ प्रारम्भ से ही देव न थे, अलौकिक न थे । वे भी हमारी ही तरह एक दिन इस संसार के पामर प्राणी थे, परन्तु अपनी अध्यात्म-साधना के बल पर ग्रन्त मे शुद्ध, बुद्ध, मुक्त एव विश्ववद्य हो गए थे । प्राचीन धर्म - शास्त्रो मे आज भी उनके उत्थान - पतन के अनेक कडवे-मीठे अनुभव एव धर्म - साधना के क्रम-वद्ध चरण-चिह्न मिल रहे हैं, जिन पर यथा - साध्य चल कर हर कोई साधक अपना आत्म-कल्याण कर सकता है । तीर्थ करो का आदर्श साधक जीवन के लिए क्रमवद्ध अभ्युदय एव निश्रेयस का रेखाचित्र उपस्थित करता है ।
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पूजा: और पुष्प
"महिया' का अर्थ महित - पूजित होता है । इस पर विवाद करने की कोई बात नही है । सभी वन्दनीय पुरुष, हमारे पूज्य होते है । प्राचार्य पूज्य है, उपाध्याय पूज्य है, साधु पूज्य है, भिर भला तीर्थंकर क्यो न पूज्य होगे । उनसे बढकर तो पूज्य कोई हो ही नही
सकता ।
पूजा का अर्थ है, सत्कार एव सम्मान करना । वर्तमान पूजा आदि के शाब्दिक संघर्ष से पूर्व होने वाले ग्राचार्यों ने ही पूजा के दो भेद किए है द्रव्य - पूजा श्रौर भाव-पूजा । शरीर और वचन को वाह्य विपयो से सकाच कर प्रभु-वन्दना में नियुक्त करना, द्रव्य-पूजा है और मन को भी वाह्य भोगासक्ति से हटाकर प्रभु के चरणो मे अर्पण
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श्चतुर्विंशतिस्तव सूत्र
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करना, भाव-पूजा है । इस सम्बन्ध मे श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनो विद्वान् एकमत हैं ।
भगवत्पूजा के लिए पुष्षो की भी प्रावश्यकता होती है । प्रभु के समक्ष उपस्थित होने वाला भक्त पुष्प-हीन कैसे रह सकता है ? आइए, जैन - जगत के प्रसिद्ध दार्शनिक आचार्य हरिभद्र हमे कौन से पुष्प बतलाते है ? उन्होने बडे ही प्रेम से प्रभु-पूजा के योग्य पुष्प चुन रक्खे है—
अहिंसा सत्यमस्तेय, ब्रह्मचर्यमसगता । गुरुभक्तिरतपो ज्ञान, सत्पुष्पाणि प्रचक्षते ॥ —अष्टक प्रकरण ३/६
1
देखा, आपने कितने सुन्दर पुष्प है | अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, अनासक्ति, भक्ति, तप और ज्ञान - प्रत्येक पुष्प जीवन को महका देने वाला है । भगवान् के पुजारी बनने वालो को इन्ही हृदय के भाव - पुष्पोद्वारा पूजा करनी होगी । अन्यथा स्थूल क्रियाकाड से कुछ भी होना जाना नही है । प्रभु की सच्ची पूजा–उपासना तो यही है कि हम सत्य बोले, अपने वचन का पालन करे, कठोर भाषण न करे किसी को पीडा न पहुंचाएं, ब्रह्मचर्य का पालन करे, वासनाओ को जीते, पवित्र विचार रखे, सव जीवो के प्रति समभावना एव आदर की आदत पैदा करे, लोकैषरणा एव वित्तं परणा से अलग रहे । जव इन भाव पुष्पो की सुगन्ध आपके हृदय केअर-अ मे समा जाए, उस समय ही समझना चाहिए कि
१ (क) दिगम्बर विद्वान श्राचार्य अमित गति कहते हैवचो - विग्रह-सकोचो, द्रव्य - पूजा निगद्यते । तत्र मानस - सकोचो, भावपूजा पुरातने ॥ - अमितगति श्रावकाचार
(ख) श्वेताम्बर विद्वान् आचार्य नमि कहते है
नम इति पूजार्थम् । पूजा च द्रव्य-भाव-सकोचस्तत्र करशिर पादादिसन्यासो द्रव्य-सकोच, विशुद्धस्य मनसो नियोग ॥
भाव-सकोचस्तु
- प्रतिक्रमणसूत्रपदविवृति, प्रणिपातदण्डक
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सामायिक सूत्र
हम भगवान् के सच्चे पुजारी बन रहे हैं और हमारी पूजा मे अपूर्व बल एव शक्ति का सचार हो रहा है ।
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प्रभु के दरबार मे यही पुष्प लेकर पहुँचो | प्रभु को इन से असीम प्रेम है । उन्होने अपने जीवन का तिल-तिल इन्ही पुष्पो की रक्षा करने के पीछे खर्च किया है, विपत्ति की ग्रसह्य चोटो को मुस्कुराते हुए सहन किया है । प्रत जिसको जिस वस्तु से प्रत्यधिक प्रेम हो, वही लेकर उसकी सेवा मे उपस्थित होना चाहिए । पूजा व्यक्तित्व के अनुसार होती है । ग्रन्यथा पूजा नही, पूजा का उपहास है । पूज्य, पूजक और पूजा का परस्पर सम्वन्ध रखने वाली योग्य त्रिपुटी ही जीवन का कल्यारण कर सकती है, अन्य नही ।
पितामह भीष्म शर-शय्या पर पड़े थे । तमाम शरीर मे वाण विधे थे, परन्तु उनके मस्तक मे वारण न लगने से सिर नीचे लटक रहा था । भीष्म ने तकिया मागा । लोग दौड़े और नरम-नरम रूई से भरे कोमल तकिये लाकर उनके सिर के नीचे रखने लगे । भीष्म ने उन सबको लौटाते हुए कहा " अर्जुन को बुलाओ !” अर्जुन श्राए । भीष्म ने कहा – “बेटे अर्जुन । सिर नीचे लटक रहा है, तकलीफ हो रही है, जरा तकिया तो लाभो ।” चतुर अर्जुन ने तुरन्त तीन वाण मस्तक में मार कर वीरवर भीष्म की स्थिति के अनुकूल तकिया लगा दिया । पितामह ने प्रसन्न होकर आशीर्वाद दिया । क्योकि, अर्जुन ने जैसी शय्या थी, वैसा ही तकिया दिया । उस समय वीरवर भीष्म को आराम पहुँचाने की इच्छा से उन्हे रूई का तकिया देना उन्हे कष्ट पहुँचाना था, और था उनकी महिमा के प्रति अपने मोहू-ज्ञानादर्श! की कैसी उपासना होनी चाहिए, इसके लिए यह कहानी ही पर्याप्त होगी, अधिक क्या
आरोग्य और समाधि
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लोगस्स मे जो 'ग्रारुग्ग' शब्द प्राया है, उसके दो भेद है-द्रव्य और भाव । द्रव्य आरोग्य यानी ज्वर श्रादि रोगो से रहित होना । भाव आरोग्य यानी कर्म रोगो से रहित होकर स्वस्थ होना, श्रात्म-स्वरूपस्थ होना, सिद्ध होना । सिद्ध दशा पाकर ही दुर्दशा से छुटकारा मिलेगा । प्रस्तुत - सूत्र मे श्रारोग्य से मूल अभिप्राय, भाव
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चतुर्विशतिस्तव-सूत्र
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आरोग्य से है, परन्तु इसका यह अर्थ नही कि साधक को द्रव्य आरोग्य से कोई वास्ता ही नही रखना चाहिए । भाव-आरोग्य की साधना के लिए द्रव्य-आरोग्य भी अपेक्षित है। यदि द्रव्य आरोग्य हमारी साधना मे सहकारी हो सकता है, तो वह भी अपेक्षित ही है, त्याज्य नहीं।
'समाहिवरमुत्तम' मे समाधि शब्द का अर्थ बहुत गहरा है । यह दार्शनिक जगत् का महामान्य शब्द है । वाचक यशोविजय जी ने कहा है-जव कि ध्याता, ध्यान एव ध्येय की द्वैत-स्थिति हट कर केवल स्वस्वरूप-मात्र का निर्भास होता है, वह ध्यान समाधि हैस्वरूपमात्र-निर्मासं, समाधियानमेव हि।
-द्वात्रिंशिका २४/२७ उपाध्याय जी की उडान कितनी ऊँची है | समाघि का कितना ऊँचा आदर्श उपस्थित किया है | योगसूत्रकार पतञ्जलि भी वाचक जी के ही पथ पर हैं।
भगवान् महावीर साधक-जीवन के बडे ही मर्मज्ञ पारखी हैं । समाधि का वर्णन करते हुए आपने समाधि के दश प्रकार बतलाए है-पाच महाव्रत और पाच समिति"दसविहा समाही पण्णत्ता तजहा, पाणाइवायाओ वेरमण .. "
-स्थानाग सूत्र, १०/३/११ पाच महाव्रत और पाच समिति का मानव जीवन के उत्थान मे कितना महत्त्व है, यह पूछने की चीज नही ? समस्त जैन-वाड्मय इन्ही के गुण-गान से भरा पडा है ! सच्ची शान्ति इन्ही के द्वारा मिलती है ।
समाधि का सामान्य अर्थ है—'चित्त की एकाग्रता ।' जब साधक का अन्तर्मन, इधर-उधर के विक्षेपो से हटकर, अपनी स्वीकृत साधना के प्रति एक-रूप हो जाए, किसी प्रकार की वासना का लेश भी न रहे, तव वह समाधि-पथ पर पहुँचता है। यह समाधि, मनुष्य का अभ्युदय करती है, अन्तरात्मा को पवित्र वनाती है, एव सुख-दुख तथा हर्ष शोक आदि की हर हालत मे शान्त एव स्थिर रखती है । इस उच्च समाधि-दशा पर पहुँचने के बाद आत्मा का पतन
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सामायिक सूत्र
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नही होता । प्रभु के चरणो मे अपनी साधना के प्रति सर्वथा उत्तरदायित्व पूर्ण रहने की माँग कितनी अधिक सुन्दर है । कितनी अधिक भाव-भरी है ।
कुछ लोग भोग - पिपासा से ग्रन्धे होकर गलत ढंग से प्रार्थना करते भी देखे गए हैं । कोई स्त्री माँगता है, तो कोई धन, कोई पुत्र माँगता है, तो कोई प्रतिष्ठा । अधिक क्या, कितने ही लोग तो अपने शत्रु पर विजय प्राप्त करने और उनका सहार करने के लिए प्रभु के नाम की माला फेरते है । इस कुचक्र मे साधारण जनता ही नही, ग्रच्छेसे-अच्छे व्यक्ति भी फसे हुए हैं। परन्तु, जैन-धर्म के विशुद्ध दृष्टिकोण से यह सब उन वीतराग महापुरुषो का भयङ्कर अपमान है । निवृत्ति मार्ग के प्रवर्तक तीर्थ करो से इस प्रकार वासनामयी प्रार्थनाएँ करना वज्र मूर्खता का अभिशाप है । जो जैसा हो, उससे वैसी ही प्रार्थना करनी चाहिए । विरागी मुनियो से काम शास्त्र के उपदेश की और वेश्या से धर्मोपदेश की प्रार्थना करने वाले व्यक्ति के सम्बन्ध मे हर कोई कह सकता है कि उसका दिल और दिमाग ठिकाने पर नही है । अतएव प्रस्तुत पाठ मे ऐसे स्वार्थी भक्तो के लिए खूब ही ध्यान देने योग्य बात कही गई है । यहाँ और कुछ ससारी पदार्थ न माग कर तीर्थंकरो के व्यक्तित्व के सर्वथा अनुरूप सिद्धत्व की, बोधि की और समाधि की प्रार्थना की गई है । जैन दर्शन की भावनारूप सुन्दर प्रार्थना का आदर्श यही है कि हम इधर-उधर न भटक कर अपने आत्मनिर्माण के लिए ही मगल कामना करे - 'समाहिवरमुत्तम दितु ।'
सिद्धः दाता नहीं, श्रालम्बन
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व एक अन्तिम शब्द 'सिद्धा सिद्धि मम 'दिसतु' रह गया है, जिस पर विचार करना आवश्यक है । कुछ सज्जन कहते है कि भगवान् तो वीतराग हैं, कर्त्ता नही हैं । उनके श्री चरणो मे यह व्यर्थ की प्रार्थना क्यों और कैसी ? उत्तर मे कहना है कि वस्तुत प्रभु वीतरागी हैं, कुछ नही करते है, परन्तु उनका अवलम्ब लेकर भक्त तो सव- कुछ कर सकता है । सिद्धि, प्रभु नही देते, भक्त स्वयं ग्रहण करता है । परन्तु, भक्ति की भाषा मे इस प्रकार प्रभु चरणो मे प्रार्थना करना, भक्त का कर्तव्य है । ऐसा करने से अहता का नाश होता है, हृदय मे श्रद्धा का वल जागृत होता है, और भगवान् के प्रति अपूर्व सम्मान
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चतुर्विंशतिस्तव-सूत्र
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प्रदर्शित होता है। यदि लाक्षणिक भाषा मे कहे, तो इसका अर्थ'सिद्ध मुझे सिद्धि प्रदान करे, यह न होकर यह होगा कि सिद्ध प्रभु के आलम्बन से मुझे सिद्धि प्राप्त हो।' अब यह प्रार्थना, भावना मे बदल गई है। ___ जैन-दृष्टि से भावना करना, अपसिद्धान्त नही, किन्तु सुसिद्धान्त है। जैन-धर्म मे भगवान का स्मरण केवल श्रद्धा का बल जागृत करने के लिए ही है, यहाँ लेने-देने के लिए कोई स्थान नही । हम भगवान् को कर्ता नही मानते, केवल अपने जीवन-रथ का सारथी मानते हैं । सारथी मार्ग-दर्शन करता है, युद्ध योद्धा को ही करना होता है। महाभारत के युद्ध मे कृष्ण की स्थिति जानते है आप? क्या प्रतिज्ञा है ? "अर्जुन। मैं केवल तेरा सारथी बनूंगा। शस्त्र नही उठाऊँगा। शस्त्र तुझे ही उठाने होगे। योद्धाओ से तुझे ही लडना होगा। शस्त्र के नाते अपने ही गाण्डीव पर भरोसा रखना होगा ।" यह है कृष्ण की जगत्प्रसिद्ध प्रतिज्ञा | अध्यात्म-रणक्षेत्र के महान् विजयी जैन तीर्थ करो का भी यही आदर्श है। उनका भी कहना है कि "हमने सारथी बनकर तुम्हे मार्ग बतला दिया है । अत हमारा प्रवचन यथासमय तुम्हारे जीवनरथ को हाकने और मार्ग-दर्शन कराने के लिए सदा-सर्वदा तुम्हारे साथ है, किन्तु साधना के शस्त्र तुम्हे ही उठाने होगे, वासनामो से तुम्हे ही लडना होगा, सिद्धि तुमको मिलेगी, अवश्य मिलेगी । किन्तु मिलेगी अपने ही पुरुषार्थ से।" ___ सिद्धि का अर्थ पुरानी परम्परा मुक्ति-मोक्ष करती आ रही है। प्राय प्राचीन और अर्वाचीन सभी टीकाकार इतना ही अर्थ कह कर मौन हो जाते है। परन्तु, क्या सिद्धि का सीधा-सादा मुख्यार्थ उद्देश्य-पूर्ति नहीं हो सकता? मुझे तो यही अर्थ उचित जान पड़ता है। यद्यपि परम्परा से मोक्ष भी उद्देश्य-पूर्ति मे ही सम्मिलित है। किन्तु यहाँ निरतिचार व्रतपालन-रूप उद्देश्य की पूर्ति ही कुछ अधिक सगत जान पड़ती है। उसका हम से निकट सम्बन्ध है।
पाठान्तर
आचार्य हेमचन्द्र ने 'कित्तिय-वदिय-महिया' मे के 'महिया' पाठ
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सामायिक-सूत्र
के स्थान मे 'मइआ' पाठ का भी उल्लेख किया है। इस दशा में 'मइआ' का अर्थ मेरे द्वारा करना चाहिए। सम्पूर्ण वाक्य का अथ होगा-मेरे द्वारा कीर्तित, वन्दित"मइया इति पाठान्तरम्, तत्र मयका मया।"
-योग शास्त्र (३/१२४) स्वोपज्ञ-वृत्ति प्राचार्य हेमचन्द्र के कथनानुसार कीर्तन का अर्थ नाम-ग्रहण है, और वन्दन का अर्थ है स्तुति ।
कर्म रज और मल
प्राचार्य हेमचन्द्र 'विहुयरयमला' पर भी नया प्रकाश डालते है। उक्त पद मे रज और मल दो शब्द है। रज का अर्थ वध्यमान कर्म, वद्ध कर्म, तथा ऐया-पथ कर्म किया है। और मल का अर्थ पूर्व वद्ध कर्म, निकाचित कर्म तथा साम्परायिक कर्म किया है। क्रोध, मान आदि कषायो के विना केवल मन अादि योगत्रय से बंधने वाला कर्म ऐर्यापथ-कर्म होता है। और कपायो के साथ योगत्रय से बधने वाला कर्म साम्परायिक होता है। वद्ध कर्म केवल लगने मात्र होता है. वह दृढ नही होता। और निकाचित कर्म दृढ बधने वाले अवश्य भोगने योग्य कर्म को कहते है। सिद्ध भगवान् दोनों ही प्रकार के रज एव मल से सर्वथा रहित होते है -
"रजश्च मलं च रजोमले। विधूते, प्रकम्पिते अनेकार्थत्वादपनीते वा रजोमले यस्ते विधूतरजोमला । बध्यमान च कर्म रजः, पूर्ववद्धं तु मलम् । अथवा वद्ध रजो, निकाचित मलम् । अथवा ऐयां-पथं रजः, साम्परायिक मलमिति ।"
-योगशास्त्र, (३/१२४) स्वोपन-वृत्ति
विधि
चतुर्विंशतिस्तव, ऐर्यापथ-सूत्र के विवेचन मे निर्दिष्ट जिन-मुद्रा अथवा योग-मुद्रा से पढना चाहिए। अस्त-व्यस्त दशा मे पढने से स्तुति का पूर्ण रस नही मिलता।
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प्रतिज्ञा-सत्र
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करेमि भते ! सामाइय सावज्ज जोग पच्चक्खामि । जावनियम पज्जुवासामि । दुविह तिविहेण । मणेरण, वायाए, काएग। न करेमि, न कारवेमि । तस्स भते ! पडिक्कमामि, निदामि, गरिहामि, अप्पारण वोसिरामि !
शब्दार्थ भते हे भगवन् । (आपकी पच्चक्खामि त्यागता हूँ साक्षी से मैं)
[कब तक के लिए ?] सामाइय=सामायिक
जाव-जब तक करेमि==करता हू
नियम-नियम की [कैसी सामायिक ?] पज्जुवासामि= उपासना करूं सावज्ज=सावद्य,
[किस रूप मे सावध का त्याग?] स+अवद्य=पाप-सहित दुविह=दो करण से जोग-व्यापारो को
तिविहेण तीन योग से
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सामायिक-सूत्र
मरणेणं-मन से
कर्म किया हो, उसका वायाए वचन से पडियकमामिप्रतिक्रमण करता हू काएणं काया से (सावध निदामि आत्म-साक्षी से निन्दा व्यापार)
करता हू न करेमि=न स्वय करूँगा गरिहामि आपकी साक्षी से गर्दा न कारवेमिन दूसरो से कराऊँगा करता हूँ भते-हे भगवन्
अप्पारण-अपनी आत्मा को तरस अतीत मे जो भी पाप- वोसिरामि=वोसराता हू, त्यागता हूं
भावार्थ
हे भगवन् | मै सामायिक ग्रहण करता हूँ, पापकारी क्रियाओं का परित्याग करता हूँ।
जब तक मैं दो घडी के नियम की उपासना करूं'; तव तक दो करण करना और कराना] और तीन योग से-मन, वचन और शरीर से पाप कर्म न स्वय करूंगा और न दूसरो से कराऊँगा।
[जो पाप कर्म पहले हो गए हैं, उनका ] हे भगवन् ! मैं प्रतिक्रमण करता हूँ, अपनी साक्षी से निन्दा करता हूँ, आपकी साक्षी से गर्दा करता हूँ। अन्त मे मैं अपनी आत्मा को पापव्यापार से वोसिराता हू-अलग करता हूँ। अथवा पाप-कर्म करने वाली अपनी भूतकालीन मलिन आत्मा का त्याग करता हू , नया पवित्र जीवन ग्रहण करता हूँ।
विवेचन
अव तक जो कुछ भी विधि-विधान किया जा रहा था, वह सब सामायिक ग्रहण करने के लिए अपने-आप को तैयार करना था । अतएव ऐर्यापथिकी-सूत्र के द्वारा कृत पापो की आलोचना करने के वाद, तथा कायोत्सर्ग मे एवं खुले रूप मे लोगस्स-सूत्र के द्वारा अन्तर्ह दय की पाप कालिमा धो देने के वाद, सव ओर से विशुद्ध प्रात्म-भूमि मे सामायिक का वीजारोपण, उक्त 'करेमि भते' सूत्र के द्वारा किया जाता है।
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प्रतिज्ञा-सूत्र
सामायिक क्या है ? इस प्रश्न का उत्तर 'करेमि भ'ते' के मूल पाठ मैं स्पष्ट रूप से दे दिया गया है । सामायिक प्रत्याख्यान-स्वरूप है, सवर रूप है, अतएव कम-से-कम दो घडी के लिए पाप रूप व्यापारो का, क्रियाग्रो का, चेष्टाओ का प्रत्याख्यान - त्याग करना, सामायिक है ।
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सामायिक की प्रतिज्ञा
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साधक प्रतिज्ञा करता है-हे भगवन् । जिनके कारण अन्तर्हृदय पाप-मल से मलिन होता है, आत्म-शुद्धि का नाश होता है, उन मन, वचन और शरीर-रूप तीनो योगो की दुष्प्रवृत्तियो का स्वीकृत नियमपर्यन्त त्याग करता हूँ । अर्थात् मन से दुष्ट चिन्तन नही करूँगा, वचन से असत्य तथा कटु-भाषण नही करूंगा, और शरीर से हिंसा आदि किसी भी प्रकार का दुष्ट श्राचरण नही करूंगा । मन, वचन, एव शरीर की शुभ प्रवृत्ति-मूलक चचलता को रोक कर अपने-आपको स्व-स्वरूप मे स्थिर तथा निश्चल वनाता हूँ, आत्म शुद्धि के लिए आध्यात्मिक क्रिया की उपासना करता हूँ, भूतकाल मे किए गए पापो से प्रतिक्रमण के द्वारा निवृत्त होता हूं, आलोचना एव पश्चत्ताप के रूप मे श्रात्मसाक्षी से निन्दा तथा प्रापकी साक्षी से गर्हा करता हूँ, पापचार मे सलग्न अपनी पूर्वकालीन ग्रात्मा को वोसराता हूँ, फलत दो घडी के लिए सयम एव सदाचार का नया जीवन अपनाता हूँ ।
"
यह उपर्युक्त विचार, सामायिक का प्रतिज्ञा सूत्र कहलाता है । पाठक समझ गए होगे कि कितनी महत्त्वपूर्ण प्रतिज्ञा है । सामायिक का ग्रादर्श केवल वेश बदलना ही नही, जीवन को बदलना है । यदि सामायिक ग्रहरण करके भी वही वासना रही, वही प्रवचना रही, वही क्रोध, मान, माया और लोभ की कालिमा रही, तो फिर सामायिक करने से लाभ क्या ? खेद है कि प्रमाद मे, राग-द्वेष मे, सासारिक प्रपचो मे उलझे रहने वाले आजकल के जीव नित्य प्रति सामायिक करते हुए भी सामायिक के प्रद्भुत अलौकिक सम-स्वरूप को नही देख पाते हैं । यही कारण है कि वर्तमान युग मे सामायिक के द्वारा आत्म-ज्योति के दर्शन करके वाले विरले ही साधक मिलते है |
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सामायिक-सूत्र
सर्वविरतिः देशविरति
सामायिक मे जो पापचार का त्याग बतलाया गया हैं, वह किस कोटि का है ? उक्त प्रश्न के उत्तर मे कहना है कि मुख्य रूप से त्याग के दो मार्ग है.---'सर्व-विरति और देश-विरति ।' सर्व-विरति का अर्थ है-'सर्व अश मे त्याग ।' और देश-विरिति का अर्थ है-'कुछ अश मे त्याग ।' प्रत्येक नियम के तीन योग-मन, वचन, शरीर और अधिक-से-अधिक नौ भग[ प्रकार होते है । अस्तु, जो 'त्याग पूरे नौ भगो से किया जाता है, वह सर्व-विरति और जो नौ मे से कुछ भी कम पाठ, सात, या छह आदि भगो से किया जाता है, वह देश-विरति होता है। साधु की सामायिक सर्व-विरति है, अत वह तीन करण और तीन योग के नौ भगो से समस्त पाप-व्यापारो का यावज्जीवन के लिए त्याग करता है। परन्तु, गृहस्थ की सामायिक देश-विरति है, अत वह पूर्ण त्यागी न वनकर केवल छह भगो से अर्थात् दो करण तीन योग से दो घडी के लिए पापो का परित्याग करता है। इसी बात को लक्ष्य मे रखते हुए प्रतिज्ञा-पाठ मे कहा गया कि 'दुविह तिविहेणं ।' अर्थात सावद्य योग न स्वय करूंगा और न दूसरो से कराऊँगा, मन, वचन, एव शरीर से ।
दो करण और तीन योग के समिश्रण से सामायिक-रूप प्रत्यान्यानविधि के छह प्रकार होते हैं
१-मन से कर नही। २-मन से कराऊ नही।
-वचन से कल नहीं। ४-बचन मे कगों नहीं। ५.~-माया से कम नहीं। ६-माया ने कराऊं नहीं।
मान्यीय पग्भिापा मे उक्त छह प्रकारो को पटगेटि के नान में लिया गया है। माधु पानामायिक यत नव कोटि मे होता है, उसमें मावध व्यापार का अनुमोदन तब भी त्यागने के लिए तीन कोटियाँ
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प्रतिज्ञा-सूत्र
और होती हैं, परन्तु गृहस्थ की परिस्थितिया कुछ ऐसी हैं कि वह ससार मे रहते हुए पूर्ण त्याग के उग्र पथ पर नही चल सकता । श्रत साधुत्व की भूमिका मे लिए जाने वाले - मन से अनुमोदूँ नही, वचन से अनुमोदू नही, काया से अनुमोदू नही - उक्त तीन भगो के सिवा शेष छह भगो से ही अपने जीवन को पवित्र एव मगलमय बनाने के लिए सयम-यात्रा का ग्रारंभ करता है । यदि ये छह भग भी सफलता के साथ जीवन मे उतार लिए जाए, तो वेडा पार है । सयम साधना के क्षेत्र मे छोटी और वढी साधना का उतना विशेष मूल्य नही है, जितना कि प्रत्येक साधना को सच्चे हृदय से पालन करने का मूल्य है । छोटी-से-छोटी साधना भी यदि हृदय की शुद्ध भावना के साथ, ईमानदारी के साथ पालन की जाए, तो वह जीवन मे पवित्रता का मंगलमय वातावरण उत्पन्न कर देती है, माया के बन्धनो को तोड डालती है ।
'भते' के अर्थ
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वस्तु
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यह तो हुआ सामायिक की - स्थिति के सम्बन्ध मे सामान्य विवेचन | अब जरा प्रस्तुत - सूत्र के विशेप स्थलो पर भी कुछ विचारचर्चा कर लें । सर्वप्रथम प्रतिज्ञा सूत्र का 'करेमि भते' -रूप प्रारंभिक आपके समक्ष है । गुरुदेव के प्रति असीम श्रद्धा और भक्ति भाव से भरा शब्द है यह । 'भदि कल्याणे सुखे च' धातु से 'भते' शब्द वनता है । 'भते' का संस्कृत रूप 'भदत' होता है । भदत का अर्थ कल्याणकारी होता है । गुरुदेव से बढ कर ससार-जन्य दुख से त्राण देने वाला और कौन भदत है ? 'भते' के 'भवात' तथा 'भयात' – ये दो संस्कृत रूपान्तर भी किए जाते है । 'भवात' का अर्थ है-भव यानी ससार का अन्त करने वाला । श्रौर भयात का अर्थ है- भय यानी डर का अन्त करने वाला । गुरुदेव की शरण मे पहुँचने के बाद भव और भय का क्या अस्तित्व ? 'भते' का अर्थ भगवान् भी होता है । पूज्य गुरुदेव के लिए 'भते' - 'भगवान्' शब्द का सम्बोधन भी अति सुन्दर है ।
यदि 'भते' से गुरुदेव के प्रति सम्बोधन न लेकर हमारी प्रत्येक क्रिया के साक्षी एव द्रष्टा सर्वज्ञ वीतराग भगवान् को सम्वोधित
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सामायिक-सूत्र
करना माना जाए, तब भी कोई हानि नही है। गुरुदेव उपस्थित न हो, तव वीतराग भगवान् को ही साक्षी बना कर अपना धर्मानुष्ठान शुरू कर देना चाहिए । वीतराग देव हमारे हृदय की सब भावनाओ के द्रष्टा है, उनसे हमारा कुछ भी छिपा हुआ नही है, अत. उनकी साक्षी से धर्म-साधना करना, हमे आध्यात्मिक क्षेत्र मे बडी बलवती प्रेरणा प्रदान करता है, सतत जागृत रहने के लिए सावधान करता है। वीतराग भगवान् की सर्वज्ञता और उनकी साक्षिता हमारी धर्म-क्रियाओं मे रहे हुए दम्भ के विष को दूर करने के लिए अमोघ अमृत मन्त्र है।
सावध की व्याख्या
'सावज्ज जोग पच्चक्खामि' मे आने वाले 'सावज्ज' शब्द पर भी विशेष लक्ष्य रखने की आवश्यकता है। 'सावज्ज' का संस्कृत रूप सावध है। सावध मे दो शब्द है-स' और 'अवद्य' । दोनो मिलकर 'सावद्य' शव्द बनता है। सावध का अर्थ है,पाप-सहित । अत जो कार्य पाप-सहित हो, पाप-कर्म के बन्ध करने वाले हो, आत्मा का पतन करने वाले हो, सामायिक मे उन सवका त्याग आवश्यक है। परन्तु, कुछ लोगो की मान्यता हैं कि “सामायिक करते समय जीव-रक्षा का कार्य नही कर सकते, किसी की दया नही पाल सकते।" इस सम्बन्ध मे उनका अभिप्राय यह है कि "सामायिक मे किसो पर राग-द्वेष नही करना चाहिए । और, जब हम किसी मरते हुए जीव को बचाएंगे, तो, अवश्य उस पर राग-भाव आएगा। विना राग-भाव के किसी को बचाया नहीं जा सकता।" इस प्रकार उनकी दृष्टि मे किसी मरते हुए जीव को बचाना भी सावध योग है।
प्रस्तुत भ्रान्त धारणा के उत्तर मे निवेदन है कि सामायिक मे सावध योग का त्याग है । सावध का अर्थ है पापमय कार्य । अत. सामायिक मे जीव-हिंसा का त्याग ही अभीष्ट है, न कि जीव-दया का । क्या जीव-दया भी पापमय कार्य है ? यदि ऐसा है, तव तो ससार मे धर्म का कुछ अर्थ ही नहीं रहेगा । दया तो मानव-हृदय के कोमल-भाव की एव सम्यक्त्व के अस्तित्व की सूचना देने वाला अलौकिक धर्म है । जहाँ दया नही, वहाँ धर्म तो क्या, मनुष्य की साधारण मनुष्यता भी न रहेगी । जीव-दया जैन-धर्म का तो प्राण
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प्रतिज्ञा-सूत्र
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है । सभ्यता के आदिकाल से जैन-धर्म की महत्ता दया के कारण ही ससार मे प्रख्यात रही है।
रागभाव कहाँ और क्या है ?
अव रहा राग-भाव का प्रश्न । इस सम्बन्ध मे कहा है कि राग, मोह के कारण होता है । जहाँ ससार का अपना स्वार्थ है, कषायभाव है, वहाँ मोह है। जब हम सामायिक मे किसी भी प्राणी की, वह भी विना किसी स्वार्थ के, केवल हृदय की स्वभावत उद्बुद्ध हुई अनुकम्पा के कारण रक्षा करते है, तो मोह किधर से होता है ? रागभाव को कहाँ स्थान मिलता है ? जीव-रक्षा मे राग-भाव की कल्पना करना, प्राध्यात्मिकता का उपहास है। हमारे कुछ मुनि जीव-रक्षा
आदि सत्प्रवृत्ति मे भी राग-भाव के होने का शोर मचाते है। मैं उनसे पूछना चाहता हूँ कि आप साधुनो की सामायिक बडी है, या गृहस्थ फी ? आप मानते है कि साधुनो की सामायिक बडी है, क्योकि वह नव कोटि की है और यावज्जीवन की है। इस पर कहना है कि आप अपनी नव कोटि की सर्वोच्च सामायिक मे भूख लगने पर आहार के लिए प्रयत्न करते है, भोजन लाते है और खाते है, तब राग-भाव नहीं होता ? रोग होने पर आप शरीर की सार-सभाल करते है, औषधि खाते है, तब राग-भाव नही होता ? शीतकाल मे सर्दी लगने पर कबल अोढते है, सर्दी से बचने का प्रयत्न करते हैं, तब राग-भाव नही होता ? रात होने पर आराम करते है, कई घटे सोये रहते है, तब राग-भाव नही होता ? राग भाव होता है, विना किसी स्वार्थ और मोह के किसी जीब को बचाने मे ? यह कहाँ का दर्शन-शास्त्र है ? आप कहेगे कि साधु महाराज की सब प्रवृत्तियाँ निष्काम-भाव से होती हैं, अत उनमे राग-भाव नहीं होता। मैं कहूँगा कि सामायिक आदि धर्म-क्रिया करते समय अथवा किसी भी अन्य समय, किसी जीव की रक्षा कर देना भी निष्काम प्रवृत्ति है, अत वह कर्म-निर्जरा का कारण है, पाप का कारण नही । किसी भी अनासक्त पबित्र प्रवृत्ति मे राग-भाव की कल्पना करना, शास्त्र के प्रति अन्याय है। यदि इसी प्रकार राग-भाव माना जाए, तब तो पाप से कही भी छुटकारा नही होगा, हम कही भी पाप से नही
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सामायिक-सूत्र
बच सकेंगे । अत राग का मूल मोह मे, आसक्ति मे, ससार की वासना मे है, जीव रक्षा आदि धर्म-प्रवृत्ति मे नही । जो सारे चैतन्य जगत् के साथ एकतान हो गया है, अखिल चिद्-विश्व के प्रति निष्काम एव निष्कपट-भाव से तादात्म्य की अनुभूति करने लग गया है, वह प्राणिमात्र के दु ख को अनुभव करेगा, उसे दूर करने का यथाशक्ति प्रयत्न करेगा, फिर भी बेलाग रहेगा, राग मे नही फसेगा।
आप कह सकते है कि साधक की भूमिका साधारण है, अत वह इतना नि स्पृह एव निर्मोही नही हो सकता कि जीव-रक्षा करे और राग-भाव न रखे। कोई महान् आत्मा ही उस उच्च भूमिका पर पहुच सकता है, जो दुखित जीवो की रक्षा करे और वह भी इतने निस्पृह भाव से, एव कर्तव्य बुद्धि से करे कि उसे किसी भी प्रकार के राग का स्पर्श न हो। परन्तु, साधारण भूमिका का साधक तो राग-भाव से अस्पृष्ट नही रह सकता। इसके उत्तर मे कहना है कि--"अच्छा आपकी वात ही सही, पर इसमे हानि क्या है ? क्योकि, साधक की आध्यात्मिक दुर्बलता के कारण यदि जीवदया के समय राग-भाव हो भी जाता है, तो वह पतन का कारण नहीं होता, प्रत्युत पुण्यानुवन्धी पुण्य का कारण होता है। पुण्यानुबन्धी पुण्य का अर्थ है कि अशुभ कर्म की अधिकाश मे निर्जरा होती है और शुभ कर्म का बन्ध होता है। वह शुभ कर्म यहाँ भी सुख-जनक होता है और भविष्य मे भी । पुण्यानुवन्धी पुण्य का कर्ता सुख-पूर्वक मोक्ष की ओर अग्रसर होता है। वह जहाँ भी जाता है, इच्छानुसार ऐश्वर्य प्राप्त करता है और उस ऐश्वर्य को स्वय भी भोगता है एवं उससे जन-कल्याण भी करता है। जैन-धर्म के तीर्थ कर इसी उच्च पुण्यानुवन्धी पुण्य के भागी है। तीर्थ कर नाम गोत्र उत्कृष्ट पुण्य की दशा में प्राप्त होता है। आपको मालूम है, तीर्थ कर नाम गोत्र कैसे बँधता है ? अरिहन्त सिद्ध भगवान् का गुणगान करने से, जान दर्शन की आराधना करने से, सेवा करने से, आदि आदि । इसका अर्थ तो यह हुआ कि अरिहन्त सिद्ध भगवान् की स्तुति करना भी राग भाव है, ज्ञान एव दर्शन की पाराधना भी राग-भाव है ? यदि ऐसा है, तब तो आपके विचार से वह भी अकर्तव्य ही ठहरेगा। यदि यह सव भी अकर्तव्य ही है, फिर साधना के नाम से हमारे पास रहेगा क्या? आप कह सकते
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हैं कि अरिहन्त आदि की स्तुति और ज्ञानादि की आराधना यदि निष्काम-भाव से करे, तो हमे सीधा मोक्ष पद प्राप्त होगा। यदि सयोग-वश कभी राग-भाव हो भी जाए तो वह भी तीर्थ करादि पद का कारण भूत होने से लाभप्रद ही है, हानिप्रद नही। इसी प्रकार हम भी कहते है कि सामायिक मे या किसी भी अन्य दशा मे जीवरक्षा करना मनुष्य का एक कर्तव्य है, उसमे राग कैसा ? वह तो कर्म-निर्जरा का मार्ग है। यदि किसी साधक को कुछ राग-भाव श्रा भी जाए, तब भी कोई हानि नही। वह उपर्युक्त दृष्टि से पुण्यानुवन्धी पुण्य का मार्ग है, अत एकान्त त्याज्य नही।
'सावज्ज' का सस्कृत रूप 'सावर्ण्य' भी होता है। सावर्ण्य का अर्थ है-निन्दनीय, निन्दा के योग्य । अत जो कार्य निन्दनीय हो, निन्दा के योग्य हो, उनका सामायिक मे त्याग किया जाता है। सामायिक की साधना, एक अतीव पवित्र निर्मल साधना है। इसमे
आत्मा को निन्दनीय कर्मों से बचाकर, अलग रख कर निर्मल किया जाता है । आत्मा को मलिन बनाने वाले, निन्दित करने वाले कपाय भाव है, और कोई नही । जिन प्रवृत्तियो के मूल मे कषाय भाव रहता हो, क्रोध, मान, माया और लोभ का स्पर्श रहता हो, वे सब सावज्य कार्य हैं। शास्त्रकार कहते है कि कर्म-बन्ध का मूल एकमात्र कषाय-भाव मे है, अन्यत्र नही। ज्योज्यो साधक का कषाय मद होता है, त्यो-त्यो कर्म-बन्ध भी मन्द होता है, और इसके विपरीत ज्यो-ज्यो कषाय-भाव की तीव्रता होती है, त्यो-त्यो कर्म-बन्ध की भी तीव्रता होती है। जब कषाय भाव का पूर्णतया अभाव हो जाता है, तब साम्परायिक कर्म-बन्ध का भी अभाव हो जाता है। और, जब साम्परायिक कर्म-बन्ध का अभाव होता है, तो साधक झटपट केवलज्ञान एव केवल-दर्शन की भूमिका पर पहुच जाता है। अत आध्यात्मिक दृष्टि से विचार करना है कि कौन कार्य निन्दनीय है और कौन नही ? इसका सीधा-सा उत्तर है कि जिन कार्यो की पृष्ठ-भूमि मे कषायभावना रही हुई हो, वे निन्दनीय है और जिन कार्यो की पृष्ठ-भूमि मे कषायभावना न हो, अथवा प्रशस्त उद्देश्य-पूर्वक अल्प कषाय-भावना हो, तो वे निन्दनीय नही है। अस्तु, सामायिक मे साधक को वह कार्य नही करना चाहिए, जो क्रोध, मान, आदि काषायिक परिणति के कारण होता
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है । परन्तु जो कार्य समभाव के साधक हो, कषाय-भाव को घटाने वाले हो, वे अरिहन्त सिद्ध की स्तुति, ज्ञान का अभ्यास, गुरु-जनो का सत्कार, ध्यान, जीवदया, सत्य आदि अवश्य करणीय है ।
प्रस्तुत 'सावर्ण्य' अर्थ पर उन सज्जनो को विचार करना चाहिए, जो सामायिक मे जीव दया के कार्य मे पाप बताते है । यदि सामायिक के साधक ने किसी ऊँचाई से गिरते हुए अबोध बालक को सावधान कर दिया, किसी अधे श्रावक के आसन के नीचे दबते हुए जीव को वचा दिया, तो वहाँ निन्दा के योग्य कौन-सा कार्य ? हुग्रा क्रोध, मान, माया और लोभ मे से किस कषाय-भाव का वहाँ उदय हुआ ? किस कपाय की तीव्र परिणति हुई, जिससे एकान्त पाप-कर्म का बध हुआ ? किसी भी सत्य को समझने के लिए हृदय को निष्पक्ष एव सरल बनाना ही होगा । जब तक निष्पक्षता के साथ दर्शन-शास्त्र की गम्भीरता मे नही उतरा जाएगा, तब तक सत्य के दर्शन नही हो सकते ।
त सत्य बात तो यह है कि किसी भी प्रवृत्ति मे स्वय प्रवृत्ति के रूप मे पाप नही है । पाप है उस प्रवृत्ति की पृष्ठभूमि मे रहने वाले स्वार्थ भाव मे, कपाय-भाव मे, राग-द्वेष के दुर्भाव मे । यदि यह सब कुछ नही है, साधक के हृदय में पवित्र एव निर्मल करुणा यदि काही भाव है, तो फिर किसी भी प्रकार का पाप नही है |
काल मर्यादा : दो घड़ी की
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मूल पाठ मे 'जाव नियम' है, उससे दो घड़ी का अर्थ कैसे लिया जाता है ? 'जाव नियम' का भाव तो 'जब तक नियम है, तव तक ' - ऐसा होता है ? इसका फलितार्थ तो यह हुआ कि यदि दश या वीस मिनट आदि की सामायिक करनी हो, तो वह भी की जा सकती है ?
उक्त प्रश्न का उत्तर यह है कि ग्रागम साहित्य मे गृहस्थ की सामायिक के काल का कोई विशेष उल्लेख नही है । आगम मे जहाँ कही भी सामायिक चारित्र का वर्णन श्राया है, वहाँ यही कहा है कि सामायिक दो प्रकार की है— इत्थरिक और यावत्कथिक ।
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प्रतिज्ञा-सूत्र इत्वरिक अल्पकाल की होती है और यावत्कथिक यावज्जीवन की। परन्तु, प्राचीन प्राचार्यों ने दो घडी का नियम निश्चित कर दिया है। इस निश्चय का कारण काल-सम्बन्धी अव्यवस्था को दूर करना है। दो घडी का एक मुहूर्त होता है, अत जितनी भी सामायिक करनी हो, उसी हिसाब से 'जावनियम' के आगे मुहूर्त एक, मुहूर्त दो इत्यादि वोलना चाहिए।
अनुमोदन खुला क्यो ?
सामायिक मे हिंसा, असत्य आदि पाप-कर्म का त्याग केवल कृत और कारित रूप से ही किया जाता है, अनुमोदन खुला रहता है। यहाँ प्रश्न है कि सामायिक मे पाप-कर्म स्वय करना नहीं और दूसरो से करवाना भी नहीं, परन्तु क्या पाप-कर्म का अनुमोदन किया जा सकता है ? यह तो कुछ उचित नही जान पडता कि सामायिक मे बैठने वाला साधक हिंसा की प्रशसा करे, असत्य का समर्थन करे, चोरी और व्यभिचार की घटना के लिए वाह-वाह करे, किसी को पिटते-मरते देखकर-'खूब अच्छा किया' कहे, तो यह सामायिक क्या हुई, एक प्रकार का मिथ्याचार ही हो गया ।
उत्तर मे निवेदन है कि सामायिक मे अनुमोदन अवश्य खला रहता है, परन्तु उसका यह अर्थ नही कि सामायिक मे बैठने वाला साधक पापाचार की प्रशसा करे, अनुमोदन करे। सामायिक मे तो पापाचार के प्रति प्रशसा का कुछ भी भाव हृदय मे न रहना चाहिए। सामायिक मे, किसी भी प्रकार का पापाचार हो, न स्वय करना है, न दूसरो से करवाना है और न करने वालो का अनुमोदन करना है। सामायिक तो अन्तरात्मा मे-रमण करने की-लीन होने की साधना है, अत उसमे पापाचार के समर्थन का क्या स्थान ?
अव यह प्रष्टव्य हो सकता है कि जब सामायिक मे पापाचार का समर्थन अनुचित एव अकरणीय है, तब सावध योग का अनुमोदन खुला रहने का क्या तात्पर्य है ? तात्पर्य यह है कि श्रावक गहस्थ की भूमिका का प्राणी है। उसका एक पाव ससार-मार्ग मे है, तो दूसरा मोक्ष-मार्ग मे है। वह सासारिक प्रपचो का पूर्ण त्यागी नही
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सामायिक-सूत्र
है। अतएव जब वह सामायिक मे बैठता है, तब भी घर-गृहस्थी की ममता का पूर्णतया त्याग नही कर सकता है। हाँ, तो घर पर जो कुछ भी आरभ-समारभ होता रहता है, दूकान पर जो कुछ भी कारोबार चला करता है, कारखाने आदि मे जो-कुछ भी द्वन्द्व मचता रहता है, उसकी सामायिक करते समय श्चावक प्रशसा नही कर सकता। यदि वह ऐसा करता है, तो वह सामायिक नही है, परन्तु जो वहाँ की ममता का सूक्ष्म तार अात्मा से बँधा रहता है, वह नही कट पाता है। अत सामायिक मे अनुमोदन का भाग खुला रहने का यही तात्पर्य है, यही रहस्य है और कुछ नही । भगवती-सूत्र मे सामायिक-गत ममता का विषय बहुत अच्छी तरह से स्पष्ट कर दिया गपा है ।
आत्मदोषो को निन्दा
सामायिक के पाठ मे 'निन्दामि' शब्द आता है, उसका अर्थ है-मैं निन्दा करता हूँ। प्रश्न है, किसकी निन्दा ? किस प्रकार की निन्दा? निन्दा चाहे अपनी की जाए या दूसरो की, दोनो ही तरह से पाप है। अपनी निन्दा करने से अपने मे उत्साह का अभाव होता है, हीनता एव दीनता का भाव जागृत होता है। आत्मा चिन्ता तथा शोक से व्याकुल होने लगता है, अतरग मे अपने प्रति द्वप की भावना भी उत्पन्न होने लगती है। अत अपनी निन्दा भी कोई धर्म नही, पाप ही है। अब रही दूसरो की निन्दा, यह तो प्रत्यक्षत ही बडा भयकर पाप है। दूसरो से घणा करना, द्वष रखना, उन्हे जनता की आखो मे गिराना, उनके हृदय को विक्षुब्ध करना, पाप नही तो क्या धर्म है ? दूसरो की निन्दा करना, एक प्रकार से उनका मल खाना है। भारतीय साधको ने दूसरो की निन्दा करने वाले को विष्ठा खाने वाले सूअर की उपमा दी है। हा | कितना जघन्य कार्य है ।
उत्तर मे कहना है कि यहाँ निन्दा का अभिप्राय न अपनी निन्दा है, और न दूसरो की निन्दा। यहाँ तो पाप की, पापाचरण की, दूपित जीवन की निन्दा करना अभीष्ट है। अपने मे जो दुर्गुण हो, दोप हो, उनकी खूब डटकर निन्दा कीजिए। यदि साधक अपने
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प्रतिज्ञा-सूत्र
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दोषो को दोष के रूप मे न देख सका, भूल को भूल न समझ सका और उसके लिए अपने हृदय मे सहज भाव से पश्चात्ताप का अनुभव न कर सका, तो वह साधक ही कैसा ? दोषो की निन्दा, एक प्रकार का पश्चात्ताप है। और पश्चात्ताप, आध्यात्मिक-क्षेत्र मे पाप-मल को भस्म करने के लिए एवं आत्मा को शुद्ध निर्मल बनाने के लिए एक अत्यन्त तीन अग्नि माना गया है। जिस प्रकार अग्नि मे तपकर सोना निखर जाता है, उसी प्रकार पश्चात्ताप की अग्नि मे तपकर साधक की आत्मा भी निखर उठती है, निर्मल हो जाती है। आत्मा मे मल कषाय-भाव का ही है, और कुछ नही । अत. कषाय-भाव की निन्दा ही यहाँ अपेक्षित है।
सामायिक करते समय साधक विभाव-परिणति से स्वभावपरिणति मे आता है, बाहर से सिमट कर अन्तर मे प्रवेश करता है। पाठक जानना चाहेगे कि स्वभाव परिणति क्या है और विभाव परिणति क्या है ? जब आत्मा ज्ञान, दर्शन, चारित्र, वीर्य और तप आदि की भावना मे ढलता है, तब वह स्वभाव परिणति मे ढलता है, अपने-आप मे प्रवेश करता है। ज्ञान, दर्शन आदि आत्मा का अपना ही स्वभाव है, एक प्रकार से आत्मा ज्ञानादि-रूप ही है, अत ज्ञानादि की उपासना अपनी ही उपासना है, अपने स्वभाव की ही उपासना है। इसे स्वभाव परिणति कहते है। जब आत्मा पूर्ण-रूप से स्वभाव मे आ जाएगा, अपने-आप मे ही समा जाएगा, तभी वह केवल ज्ञान, केवलदर्शन का महाप्रकाश पाएगा, मोक्ष मे अजर-अमर बन जाएगा। क्योकि, सदाकाल के लिए अपने पूर्ण स्वभाव का पा लेना ही तो दार्शनिक भाषा मे मोक्ष है ।
अब देखिए, विभाव परिणति क्या है ? पानी स्वभावत शीतल होता है, यह उसकी स्वभाव परिणति है, परन्तु जब वह उष्ण होता है, अग्नि के सम्पर्क से अपने मे उष्णता लेता है, तब वह स्वभाव से शीतल होकर भी उप्ण कहा जाता है। उष्णता पानी का स्वभाव नही, विभाव है। स्वभाव अपने-आप होता है-विभाव दूसरे के सम्पर्क से । इसी प्रकार आत्मा स्वभावतः क्षमाशील है, विनम्र है, सरल है, सतोषी है, परन्तु कर्मों के सम्पर्क से क्रोधी, मानी, मायावी और लोभी बना हुआ है। अस्तु जब आत्मा कषाय के साथ एकरूप होता है, तब वह स्व-भाव मे न रह कर विभाव
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सामायिक सूत्र
मे रहता है, पर भाव मे रहता है । विभाव परिणति का नाम दार्शनिक भाषा मे ससार है । ग्रव पाठक अच्छी तरह से समझ सकते है कि निन्दा किसकी करनी चाहिए ? सामायिक में निन्दा विभाव परिरगति की है । जो ग्रपना नही है, प्रत्युत अपना विरोधी है, फिर भी अपने पर अधिकार कर बैठा है, उस कपाय-भाव की जितनी भी निन्दा की जाए उतनी ही थोडी है |
जव किसी वस्त्र पर या शरीर पर मल लग जाए, तो क्या उसे बुरा नही समझना चाहिए, उसे धोकर साफ नही करना चाहिए ? कोई भी सभ्य मनुष्य मल की उपेक्षा नही कर सकता । इसी प्रकार सच्चा सावक भी दोप-रूप मल की उपेक्षा नही कर सकता । वह जव भी ज्यो ही कोई दोप देखता है, भटपट उसकी निन्दा करता है, उसे धोकर साफ करता है । श्रात्मा पर लगे दोपो के मल को धोने के लिए निन्दा एक अचूक साधन है । भगवान् महावीर ने कहा है - " ग्रात्म-दोपो की निन्दा करने से पश्चात्ताप का भाव जाग्रत होता है, पश्चात्ताप के द्वारा विपय-वासना के प्रति वैराग्य भाव उत्पन्न होता है, ज्योज्यो वैराग्य भाव का विकास होता है, त्यो त्यो साधक सदाचार की गुरण श्रेणियों पर आरोहण करता है, और ज्यो ही गुरण श्रेणियो पर ग्रारोहरण करता है, त्यो ही मोहनीय कर्म का नाश करने में समर्थ हो जाता है । मोहनीय कर्म का नाश होते ही ग्रात्मा शुद्ध, बुद्ध, परमात्म-दशा पर पहुँच जाता है ।"
निन्दा शोक न वने
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हाँ, ग्रात्म-निन्दा करते समय एक वात पर अवश्य लक्ष्य रखना चाहिए। वह यह कि निन्दा केवल पश्चात्ताप तक ही सीमित रहे, टोपो एव विपय-वासना के प्रति विरक्त-भाव जाग्रत करने तक ही अपेक्षित रहे । ऐसा न हो कि निन्दा पश्चात्ताप ही मंगल सीमा को लाघकर शोक के क्षेत्र में पहुँच जाए | जब निन्दा शोक का रूप पकड़ लेती है, तो वह साधक के लिए बडी भयकर चोज हो जाती है | पश्चात्ताप ग्रात्मा को भवन बनाता है और शो निर्बल । शोक मे साहस का अभाव है, वर्तव्य-बुद्धि का शून्यत्व है | कर्तव्यविमूह साधक जीवन की समस्यायो को कदापि
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प्रतिज्ञा-सूत्र
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नही सुलझा सकता। न वह भौतिक जगत मे क्राति कर सकता है और न आध्यात्मिक जगत् मे ही। किसी भी वस्तु का विवेक-शून्य अतिरेक जीवन के लिए घातक ही होता है।
गर्दा : गुरु की साक्षी
आत्म-दर्शन के जिज्ञासु साधक को निन्दा के साथ गर्दा का भी उपयोग करना चाहिए। इसीलिए सामायिक-सूत्र मे 'निन्दामि' के पश्चात् ‘गरिहामि' का भी प्रयोग किया है। जैन-दर्शन की ओर से साधना-क्षेत्र मे आत्म-शोधन के लिए गर्दा की महाति-महान् अनुपम भेट है। साधारण लोग निन्दा और गर्दा को एक ही समझते है। परन्तु, जैन-साहित्य मे दोनो का अन्तर पूर्ण रूप से स्पष्ट है। जव साधक एकान्त मे बैठकर दूसरो को सुनाए बिना अपने पापो की आलोचना करता है, पश्चात्ताप करता है, वह निन्दा है, और जब वह गुरुदेव की साक्षी से अथवा किसी दूसरे की साक्षी से प्रकट रूप मे अपने पापाचरणो को धिक्कारता है, मन, वचन, और शरीर तीनो को पश्चात्ताप की धधकती प्राग मे झोक देता है, प्रतिष्ठा के झूठे अभिमान को त्याग कर पूर्ण सरल-भाव से जनता के समक्ष अपने हृदय की गाठो को खोल कर रख छोडता है, उसे गर्दा कहते है । प्रतिक्रमण-सूत्र के टीकाकार आचार्य नमि इसी भाव को लक्ष्य मे रख कर कहते हैं
निन्दामि जुगुप्सामोत्यर्थ । गर्हामीति च स एवार्थ , किन्तु आत्मसाक्षिको निन्दा, गुरुसासिकी गर्हेति, 'परसाक्षिको गह' ति वचनात् । ।
--प्रतिक्रमणसूत्र पदविवृत्ति , सामायिक-मूत्र गर्दा जीवन को पवित्र बनाने की एक बहुत ऊँची अनमोल साधना है। निन्दा की अपेक्षा गहीं के लिए अधिक प्रात्म-वल अपेक्षित है। मनुष्य अपने-आपको स्वय धिक्कार सकता है, परन्तु दूसरो के सामने अपने को प्राचरण-हीन, दोषी और पापी बताना वडा ही कठिन कार्य है। ससार में प्रतिष्ठा का भूत बहुत वडा है। हजारो यादमी प्रति वर्ष अपने गुप्त दुराचार के प्रकट होने के कारण होने वाली अप्रतिष्ठा से घबरा कर जहर खा लेते है,
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सामायिक-सूत्र
पानी में डूब मरते हैं, येन केन प्रकारेण आत्म-हत्या कर लेते है। अप्रतिष्ठा बडी भयकर चीज है। महान् तेजस्वी एव प्रात्मशोधक इने-गिने साधक ही इस खदक को लाघ पाते है। मनुष्य अन्दर के पापो को झाड-वुहार कर मुख द्वार पर लाता है, बाहर फेकना चाहता है, परन्तु ज्योही अप्रतिष्ठा की ओर दृष्टि जाती है, त्यो ही चुपचाप उस कूडे को फिर अन्दर की ओर ही डाल लेता है, बाहर नहीं फेक पाता। गर्दा दुर्बल साधक के बस की बात नही है। इसके लिए अन्तरग की विशाल शक्ति चाहिए। फिर भी, एक बात है, ज्यो ही वह शक्ति आती है, पापो का गदा मल धुलकर साफ हो जाता है। गर्दा करने के बाद पापो को सदा के लिए विदाई ले लेनी होती है। गर्दा का उद्देश्य भविष्य में पापो का न करना है।
-'पावारण कम्माण अकरणयाए' भगवान् महावीर के सयम-मार्ग मे जीवन को छपाए रखने जैसी किसी बात को स्थान ही नही है। यहाँ तो जो है, वह स्पष्ट है, सब के सामने है, भीतर और बाहर एक है, दो नही । यदि कही वस्त्र और शरीर पर गदगी लग जाए, तो क्या उसे छ पाकर रखना चाहिए ? सव के सामने धोने मे लज्जा यानी चाहिए ? नही, गन्दगी आखिर गन्दगी है, वह छपाकर रखने के लिए नहीं है। वह तो झटपट धोकर साफ करने के लिए है। यह तो जनता के लिए स्वच्छ और पवित्र रहने का एक जीवित-जाग्रत निर्देश है, इसमे लज्जा किस बात की ? गर्दा भी आत्मा पर लगे दोषो को साफ करने के लिए है। उसके लिए लज्जा और सकोच का क्या प्रतिवन्ध ? प्रत्युत हृदय मे स्वाभिमान की यह ज्वाला प्रदीप्त रहनी चाहिए कि "हम अपनी गन्दगी को धोकर साफ करते है, छुपाकर नहीं रखते।" जहाँ छु पाव है, वही जीवन का नाश है।
दूषित आत्मा का त्याग
सामायिक प्रतिज्ञा-सूत्र का अन्तिम वाक्य 'अप्पारणं वोसिरामि' है। इसका अर्थ सक्षेप मे-आत्मा को, अपने-आपको त्यागना है,
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प्रतिज्ञा-सूत्र
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छोडना है । प्रश्न है, आत्मा को कैसे त्यागना ? क्या कभी आत्मा भी त्यागी जा सकती है ? यदि श्रात्मा को ही त्याग दिया, तो फिर रहा क्या ? उत्तर मे निवेदन है कि यहाँ श्रात्मा से अभिप्राय अपने पहले के जीवन से है । पाप कर्म से दूषित हुए पूर्व जीवन को त्यागना ही, ग्रात्मा को त्यागना है । आचार्य नमि कहते है
"आत्मानम् = अतीत सावद्ययोग- कारिणम् = अश्लाध्यं ' "व्युत्सृजामि" - प्रतिक्रमणसूत्र पदविवृत्ति, सामायिक - सूत्र
देखिए, जैन तत्त्व - मीमासा की कितनी ऊँची उडान है । कितनी भव्य कल्पना है। पुराने सडे-गले दूषित जीवन को त्याग कर स्वच्छ एव पवित्र नये जीवन को अपनाने का कितना महान् श्रादर्श है | भगवान् महावीर का कहना है कि "सामायिक केवल वेश बदलने की साधना नही है । यह तो जीवन बदलने की साधना है ।" ग्रत साधक को चाहिए कि जब वह सामायिक के ग्रासन पर पहुँचे, तो पहले अपने मन को ससार की वासनाओ से खाली कर दे, पुराने दूपित सस्कारो को त्याग दे, पहले के पापा चरणरूप कुत्सित जीवन के भार को फेक कर बिल्कुल नया आध्यात्मिक जीवन ग्रहरण कर ले। सामायिक करने से पहले - प्राध्यात्मिक पुनर्जन्म पाने से पहले, भोग-बुद्धि-मूलक पूर्व जीवन की मृत्यु आवश्यक है । सामायिक की साधना के समय मे भी यदि पुराने विकारो को ढोते रहे, तो क्या लाभ ? दूषित और दुर्गन्धित मलिन- पात्र मे डाला हुआ शुद्ध दूध भी शुद्ध हो जाता है । यह है जैन दर्शन का गंभीर अन्तर्हृदय, जो 'अप्पारण वोसिरामि' शब्द के द्वारा ध्वनित हो रहा है ।
सामायिक सूत्र का प्राण प्रस्तुत प्रतिज्ञा - सूत्र ही है । अतएव इस पर काफी विस्तार के साथ लिखा है, और इतना लिखना आवश्यक भी था । अब उपसहार मे केवल इतना ही निवेदन है कि यह सामायिक एक प्रकार का आध्यात्मिक व्यायाम है | व्यायाम भले ही थोडी देर के लिए हो, दो घडी के लिए ही हो, परन्तु उसका प्रभाव और लाभ स्थायी होता है । जिस प्रकार मनुष्य प्रात काल उठते ही कुछ देर व्यायाम करता है, और उसके
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सामायिक-सूत्र
फलस्वरूप दिन-भर शरीर की स्फूर्ति एव शक्ति बनी रहती है, उसी प्रकार सामायिक-रूप प्राध्यात्मिक व्यायाम भी साधक की दिन-भर की प्रवृत्तियो मे मन की स्फूर्ति एव शुद्धि को बनाए रखता है। सामायिक का उद्देश्य केवल दो घडी के लिए नहीं है, प्रत्युत जीवन के लिए है। सामायिक मे दो घडी बैठकर आप अपना आदर्श स्थिर करते है, वाह्य-भाव से हटकर स्वभाव मे रमण करने की कला अपनाते हैं। सामायिक का अर्थ ही है-अात्मा के साथ अर्थात् अपने-अापके साथ एकरूप हो जाना, समभाव ग्रहण कर लेना, राग-द्वेप को छोड देना । प्राचार्य पूज्यपाद तत्त्वार्थ-सूत्र की अपनी टीका मे कहते है___'सम्' एकीभावे वर्तते । तद्-यथा सङ्गत घृत सङ्गत तैलमित्युच्यते एकोभूतमिति गम्यते । एकत्वेन, अयन=गमन समय , समय एव सामायिकम् । समय प्रयोजनमस्येति वा विगृह्य सामायिकम् ।
-सर्वार्थ सिद्धि ७/२१ हाँ, तो अपनी आत्मा के साथ एकरूपता केवल दो घडी के लिए ही नही, जीवन-भर के लिए प्राप्त करना है। राग-द्वप का त्याग दो घडी के लिए कर देने-भर से काम नहीं चलेगा, इन्हे तो जीवन के हर क्षेत्र से सदा के लिए खदेडना होगा । सामायिक जीवन के समस्त सद्गुणो की आधार-भूमि है। अाधार यो ही मामूली-सा सक्षिप्त नही, विस्तृत होना चाहिए। साधना के दृष्टिकोण को सीमित रखना, महापाप है। साधना तो जीवन के लिए है, फलत जीवन-भर के लिए है, प्रतिक्षण, प्रतिपल के लिए है। देखना, सावधान रहना | साधना की वीणा का अमर स्वर कभी बन्द न होने पाए, मन्द न होने पाए । सच्चा सुख विस्तार मे है, प्रगति मे है, सातत्य मे है, अन्यत्र नही
'यो वै भूमा तत्सुखम्'
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प्रणिपात-सूत्र
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नमोत्थुरण अरिहताण, भगवताख ॥ १ ॥ श्राइगराण, तित्थयाराग, सयसबुद्धारण ॥ २ ॥ पुरिसुत्तमाण, पुरिस-सीहाण, पुरिस-वर-पुडरीयारण, पुरिसवर-गधहत्थीरण ॥ ३ ॥ लोगुत्तमाण, लोग–नाहारण, लोग-हियारण, लोग-पईवारण, लोग-पज्जोयगराण ॥ ४ ॥ अभयदयारण चक्खुदयारण, मग्गदयारण, सरणदयारण, जीव-दयारणं, बोहिदयारण ॥ ५ ॥ धम्मदयारण, धम्म-देसयारण, धम्मनायगारण, धम्म-सारहीणं, धम्मवर-चाउरंत-चक्कवट्टीण ॥ ६ ॥ (दीवो ताणं तरण गई पइट्ठा) अप्पडिहय-वर-नारणं-दसण-धरारणं, विअट्ट-छउमारणं ॥ ७ ॥ जिरणारण, जावयारणं, तिन्नाणं, तारयारण, बुद्धारण, बोहयारणं, मुत्तारण, मोयगारगं ॥ ८ ॥ सव्वन्नूरण, सम्वदरिसोरणं, सिवमयलमरुयमरगतमक्खयमवावाहसपुणरावित्ति सिद्धिगइ-नामधेय ठारणं सपत्तारणं, नमो जिणारण जियभयाणं ॥ ४ ॥
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नमोत्युणं = नमस्कार हो अरिहन्ताण = अरिहन्त भगवताणं=भगवान् को
शब्दाय
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[भगवान कैसे हैं ? ] आइगराण : - धर्म की आदि करने वाले तित्ययराण = धर्म तीर्थ की स्थापना करने वाले
-
अप्प हिय = अप्रतिहत तथा वर-नाणदंसण = श्र ेष्ठ ज्ञान दर्शन के
धराण = धर्ता
सामायिक सूत्र
विभट्टछउमाण = छद्म से रहित जिणाण = राग द्वेष के विजेता जावयाणं श्रौरो के जिताने वाले तिन्नाणं = स्वयं तरे हुए तारयाण = दूसरो को तारने वाले बुद्धाण = स्वय बोध को प्राप्त
सय = स्वय ही संबुद्धाण=सम्यग्बोध को पाने वाले पुरिसुत्तमाणं = पुरुषो मे श्र ेष्ठ पुरिससीहाणं पुरुषो मे सिंह पुरिसवरगंधहत्थीरण = पुरुपो मे श्र ेष्ठ गधहस्ती
लोगुत्तमाण= लोक मे उत्तम लोगनाहाण = लोक के नाथ लोगहियाण = लोक के हितकारी लोगपईवाण = लोक मे दीपक लोगपज्जोयगराण= लोक मे उद्योत करने वाले
=
अभयदयाण - प्रभय देने वाले चक्खुदयारण- नेत्र देने वाले मग्गदयाण == धर्म मार्ग के दाता सरणदयाणं - शरण के दाता जीवदयाण - जीवन के दाता
अग्वावाह = बाधा रहित अपुरा वित्ति = पुनरागमन मे रहित (ऐसे ) वोहिदयारणं - बोधि - सम्यक्त्व के दाता सिद्धिगइ = सिद्धि गति
वोहयाण = दूसरो को वोध देने वाले मुत्ताण = स्वय मुक्त मोयगाण = दूसरो को मुक्त कराने वाले
सव्वन्नूण = सर्वज्ञ
सव्वदरिसीण = सर्वदर्शी, तथा
सिव = उपद्रवरहित
अयल = अचल, स्थिर
= रोग रहित
अरुय =
अरण त ग्रन्त रहित
अक्खय = प्रक्षत
धम्मदयाण = - धर्म के दाता धम्मदेसयाणं धर्म के उपदेशक धम्मनायगाणं = धर्म के नायक धम्मसारहीण = धर्म के सारथि धम्मवर = धर्म के श्रेष्ठ चाउरंत = चारगति का अन्त करने वाले चक्कवट्टीणं चक्रवर्ती
नामधेय = नामक
=
= प्राप्त करने वाले
ठारण = स्थान को संपत्ताण नमो नमस्कार हो जियभयाण = भय के जीतने
वाले जिणाण = जिन भगवान् को
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श्रणिपात -सूत्र
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भावार्थ
श्री अरिहन्त भगवान् को नमस्कार हो । [ अरिहन्त भगवान् कैसे है ? ] धर्म की आदि करने वाले है, धर्म तीर्थ की स्थापना करने वाले हैं, अपने-आप प्रबुद्ध हुए हैं।
पुरुषो मे श्रेष्ठ है, पुरुषो मे सिंह हैं, पुरुषो मे पुण्डरीक कमल हैं, पुरुषो मे श्रेष्ठ गन्धहस्ती है । लोक मे उत्तम हैं, लोक के नाथ हैं, लोक के हितकर्ता है, लोक मे दीपक है, लोक मे उद्द्योत करने वाले है |
अभय देने वाले हैं, ज्ञानरूप नेत्र के देने वाले है, धर्म मार्ग के देने वाले है, शरण के देने वाले है, सयमजीवन के देने वाले है, बोधि - सम्यक्त्व के देने वाले है, धर्म के दाता हैं, धर्म के उपदेशक है, धर्म के नेता है, धर्म के सारथी - सचालक हैं ।
चार गति के अन्त करने वाले श्रेष्ठ धर्म के चक्रवर्ती है, अप्रतिहत एव श्रेष्ठ ज्ञानदर्शन के धारण करने वाले हैं, ज्ञानावरण श्रादि घा'त कर्म से अथवा प्रमाद से रहित है ।
स्वय रागद्वेष के जीतने वाले है, दूसरो को जिताने वाले हैं, स्वयं संसार-सागर से तर गए है, दूसरो को तारने वाले है, स्वय बोध पा चुके है, दूसरो को बोध देने वाले है, स्वय कर्म से मुक्त है, दूसरो को मुक्त कराने वाले है ।
सर्वज्ञ हैं, सर्वदर्शी हैं। तथा शिव कल्याणरूप अचल - स्थिर, अरुज - रोगरहित, अनन्त - अन्तरहित, अक्षय-क्षयरहित, अव्याबाध - बाधा - पीडा से रहित, पुनरावृत्ति -- पुनरागमन से रहित अर्थात् जन्म-मरण से रहित सिद्धि-गति नामक स्थान को प्राप्त कर चुके है, भय को जीतने वाले हैं, रागद्वेप को जीतने वाले हैंउन जिन भगवानो को मेरा नमस्कार हो ।
विवेचन
जैन धर्म की साधना अध्यात्म-साधना है । जीवन के किसी भी क्षेत्र मे चलिए, किसी भी क्षेत्र मे काम करिए, जैन-धर्म आध्यात्मिक जीवन की महत्ता को भुला नहीं सकता । प्रत्येक प्रवृत्ति के पीछे जीवन मे पवित्रता का, उच्चता का और अखिल
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सामायिक सूत्र
विश्व की कल्याण भावना का मंगल स्वर झकृत रहना चाहिए । जहाँ यह स्वर मन्द पडा कि साधक पतनोन्मुख हो जाएगा, जीवन के महान आदर्श भुला बैठेगा, ससार की अँधेरी गलियो में भटकने लगेगा |
भक्ति, ज्ञान एव कर्मयोग का समन्वय
मानव हृदय मे अध्यात्म साधना को बद्धसूल करने के लिए उसे सुदृढ एव सबल बनाने के लिए भारतवर्ष की दार्शनिक चिन्तनधारा ने तीन मार्ग बतलाए है - भक्तियोग, ज्ञानयोग और कर्मयोग | वैदिक धर्म की शाखाओ मे इनके सम्बन्ध मे काफी मतभेद उपलब्ध है । वैदिक विचारधारा के कितने ही सम्प्रदाय ऐसे है, जो भक्ति को ही सर्वोत्तम मानते है । वे कहते हैं- "मनुष्य एक बहुत पामर प्राणी है । वह ज्ञान और कर्म की क्या आराधना कर सकता है ? उसे तो अपने-आप को प्रभु के चरणो मे सर्वतोभावेन अर्पण कर देना चाहिए । दयालु प्रभु ही, उसकी ससार - सागर मे फसी हुई नैया को पार कर सकते है, और कोई नही । ज्ञान और कर्म भी प्रभु की कृपा से ही मिल सकते है । स्वय मनुष्य चाहे कि मै कुछ करू, सर्वथा असम्भव है ।"
भक्ति-योग की इस विचार धारा मे कर्तव्य के प्रति उपेक्षा का भाव छुपा है । मनुष्य की महत्ता के और आचरण की पवित्रता के दर्शन, इन विचारो मे नही होते । ग्रपने पुत्र नारायण का नाम लेने मात्र से अजामिल को स्वर्ग मिल जाता है, अपने तोते को पढाने के समय लिए जाने वाले राम नाम से वेश्या का उद्धार हो जाता है, और न मालूम कौन क्या-क्या हो जाता है। वैदिक सप्रदाय के इस भक्ति-साहित्य ने ग्राचरण का मूल्य विल्कुल कम कर दिया है। नाम लो, केवल नाम और कुछ नही । केवल नाम लेने मात्र से जहाँ वेडा पार होता हो, वहाँ व्यर्थ ही कोई क्यो ज्ञान और ग्राचरण के कठोर क्षेत्र मे उतरेगा ?
वैदिक-धर्म के कुछ सप्रदाय केवल ज्ञान-योग की ही पूजा करने वाले है | वेदान्त इस विचारधारा का प्रमुख पक्षपाती है । वह कहता हे — 'ससार और ससार के दुख मात्र भ्रान्ति है, वस्तुत नही । लोग
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प्रणिपात - सूत्र
व्यर्थ ही तप-जप की साधनाओ मे लगते है और कष्ट झेलते है । भ्रान्ति का नाश तप-जप आदि से नही होता है, वह होता है ज्ञान से । ज्ञान से बढ कर जीवन की पवित्रता का कोई दूसरा साधन ही नही है
'न हि ज्ञानेन सदृशं पवित्रमिह विद्यते ।
- गीता ४।३८
अपने-आप को शुद्ध आत्मा समझो, परब्रह्म समझो, वस, वेडा पार है | और क्या चाहिए । जीवन मे करना क्या है, केवल जानना है | ज्यो ही सत्य के दर्शन हुए, आत्मा बन्धनो से स्वतन्त्र हुआ । "
वेदान्त की इस धारणा के पीछे भी कर्म की और भक्ति की उपेक्षा रही हुई है । जीवन-निर्माण के लिए एकान्त ज्ञानयोग के पास कोई रचनात्मक कार्यक्रम नही है । वेदान्त बौद्धिक व्यायाम पर आवश्यकता से अधिक भार देता है । मिसरी के लिए जहाँ उसका ज्ञान आवश्यक है, वहाँ उसका मुँह मे डाला जाना भी तो आवश्यक है | 'ज्ञानं भार क्रिया बिना' के सिद्धान्त को वेदान्त भूल जाता है ।
कुछ सप्रदाय ऐसे भी है, जो केवल कर्मकाण्ड के ही पुजारी है । भक्ति और ज्ञान का मूल्य, इनके यहाँ कुछ भी नही है । मात्र कर्म करना, यज्ञ करना, तप करना, पञ्चाग्नि आदि तप साधना के द्वारा शरीर को नष्ट-भ्रष्ट कर देना ही, इनका विशिष्ट मार्ग है । इस मार्ग मे न हृदय की पूछ है और न मस्तिष्क की । शुष्क शारीरिक as क्रियाकाण्ड ही, इनके दृष्टिकोण मे सर्वेसर्वा है । प्राचीनकाल के मीमासक और आजकल के हठयोगी साधु, इस विचार धारा के प्रमुख समर्थक है। ये लोग भूल जाते है कि जब तक मनुष्य के हृदय मे भक्ति और श्रद्धा की भावना न हो, ज्ञान का उज्ज्वल प्रकाश न हो, उचित और अनुचित का विवेक न हो, तब तक केवल कर्म काण्ड क्या अच्छा परिणाम ला सकता है ? विना ग्राँखो के दौडने वाला ग्रन्धा अपने लक्ष्य पर कैसे पहुँच सकेगा ? जरा समझने की बात है । जिस शरीर से दिल और दिमाग निकाल दिए जाए, वहाँ क्या शेष रहेगा ? विना ज्ञान के कर्म अन्धा है, और बिना भक्ति के कर्म निर्जीव एव निष्प्राण ।
अतएव जैन-धर्म विभिन्न मत-भेदो पर न चलकर समन्वय के
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सामायिक-सूत्र
मार्ग पर चलता है । वह किसी भी क्षेत्र मे एकान्त वाद को स्थान नहीं देता। जैन-धर्म मे जीवन का प्रत्येक क्षेत्र अनेकान्तवाद के उज्ज्वल आलोक से आलोकित रहता है। यही कारण है कि वह प्रस्तुत योगत्रय मे भी किसी एक योग का पक्ष न लेकर तीनो की समष्टि का पक्ष करता है । वह कहता है -"आध्यात्मिक जीवन की साधना न अकेले भक्तियोग पर निर्भर है, न अकेले ज्ञानयोग पर, और न कर्मयोग पर ही । साधना की गाडी तीनो के समन्वय से ही चलती है। भक्तियोग से हृदय मे श्रद्धा का बल पैदा करो । ज्ञानयोग से सत्यासत्य के विवेक का प्रकाश लो। और कर्मयोग से शुष्क एव मिथ्या कर्मकाण्ड की दलदल मे न फंसकर अहिंसा, सत्य आदि के आचरण का सत्पथ ग्रहण करो | तीनो का यथायोग्य उचित मात्रा मे समन्वय ही साधना को सबल तथा सुदृढ वना सकता है।"
भक्ति का सम्बन्ध व्यवहारत. हृदय से है, अत वह श्रद्धारूप है, विश्वासरूप है, और भावनारूप है। जब साधक के हृदय से श्रद्धा का उन्मुक्त वेगशाली प्रवाह वहता है, तो साधना का कण-कण प्रभु के प्रेमरस से परिप्लुत हो जाता है। भक्त-साधक ज्यो-ज्यो प्रभु का स्मरण करता है, प्रभु का ध्यान करता है, प्रभु की स्तुति करता है, त्यो त्यो श्रद्धा का बल अधिकाधिक पुष्ट होता है, आचरण का उत्साह जागृत हो जाता है । साधना के क्षेत्र मे भक्त, भगवान् और भक्ति की त्रिपुटी का बहुत बड़ा महत्त्व है।
ज्ञान योग, विवेक-बुद्धि को प्रकाशित करने वाला प्रकाश है। साधक कितना ही बडा भक्त हो, भावुक हो, यदि वह ज्ञान नही रखता है, उचित-अनुचित का भान नहीं रखता है, तो कुछ भी नही है । आज जो भक्ति के नाम पर हजारो मिथ्या विश्वास फैले हुए है, वे सब ज्ञानयोग के अभाव मे ही बद्धमूल हुए हैं । भक्त के क्या कर्तव्य हैं, भक्ति का वास्तविक क्या स्वरूप है, अाराध्य देव भगवान् कैसा होना चाहिए, इन सव प्रश्नो का उचित एव उपयुक्त उत्तर ज्ञानयोग के द्वारा ही मिल सकता है। साधक के लिए बन्ध के कारणो का तथा मोक्ष और मोक्ष के कारणो का ज्ञान भी अतीव आवश्यक है। और यह ज्ञान भी जान-योग की साधना के द्वारा ही प्राप्त हो सकता है ।
कर्मयोग का अर्थ सदाचार है। सदाचार के अभाव मे मनुष्य का
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प्रणिपात-सूत्र
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सास्कृतिक स्तर नीचा हो जाता है। वह आहार, निद्रा, भय और मैथुन-जैसी पाशविक भोग-बुद्धि मे ही फँसा रहता है। आशा और तृष्णा के चाकचिक्य से चुंधिया जाने वाला साधक, जीवन मे न अपना हित कर सकता है और न दूसरो का । भोग-बुद्धि और कर्तव्यबुद्धि का आपस मे भयकर विरोध है । अत दुराचार का परिहार और सदाचार का स्वीकार ही आध्यात्मिक जीवन का मूल-मत्र है। और इस मत्र की शिक्षा के लिए कर्म-योग की साधना अपेक्षित है।
श्रद्धा, विवेक एवं सदाचार
जैन-दर्शन की अपनी मूल परिभाषा मे उक्त तीनो को सम्यग-दर्शन, सम्यग्-ज्ञान और सम्यक् चारित्र के नाम से कहा गया है । प्राचार्य उमास्वाति ने कहा है'सम्यग्दर्शन-ज्ञान चारित्राणि मोक्ष-मार्ग ।'
-तत्त्वार्थ सूत्र १११ अर्थात् सम्यग्-दर्शन, सम्यग्-ज्ञान और सम्यक्-चारित्र ही मोक्षमार्ग है। 'मोक्ष-मार्ग' यह जो एक वचनान्त प्रयोग है, वह यही ध्वनित करता है कि उक्त तीनो मिल कर ही मोक्ष का मार्ग हैं, कोईसा एक या दो नही । अन्यथा 'मार्ग' न कह कर 'मार्गाः' कहा जाता, बहुवचनान्त शब्द का प्रयोग किया जाता। ___यह ठीक है कि अपने-अपने स्थान पर तीनो ही प्रधान है, कोई एक मुख्य और गौरण नही । परन्तु, मानस-शास्त्र की दृष्टि से एव आगमो के अनुशीलन से यह तो कहना ही होगा कि आध्यात्मिक साधना की यात्रा मे भक्ति का स्थान कुछ पहले है। यही से श्रद्धा की विमल गगा आगे के दोनो योग क्षेत्रो को प्लावित, पल्लवित, पुष्पित एव फलित करती है । भक्ति-शून्य नीरस हृदय में ज्ञान और कर्म के कल्पवृक्ष कभी नही पनप सकते । यही कारण है कि सामायिक-सूत्र मे सर्वप्रथम नवकार मन्त्र का उल्लेख आया है, उसके बाद सम्यक्त्वसूत्र, गुरु-गुण स्मरण-सूत्र और गुरु-वन्दन-सूत्र का पाठ है। भक्ति की वेगवती धारा यही तक समाप्त नही हुई। आगे चलकर एक वार ध्यान मे तो दूसरी बार प्रकट रूप से चतुर्विशति-स्तव-सूत्र यानी लोगस्स के पढने का मगल विधान है। 'लोगस्स' भक्तियोग
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सामायिक-सून
का एक बहुत सुन्दर एव मनोरम रेखाचित्र है। आराध्य देव के श्रो चरणो मे अपने भावुक हृदय की समग्र श्रद्धा अर्पण कर देना, एव उनके बताए मार्ग पर चलने का दृढ सकल्प रखना ही तो भक्ति है। और यह 'लोगस्स' के पाठ मे हर कोई श्रद्धालु भक्त सहज ही पा सकता है। 'लोगस्स' के पाठ से पवित्र हुई हृदय-भूमि मे ही सामायिक का बीजारोपण किया जाता है। पूर्ण सयम का महान् कल्पवृक्ष इसी सामायिक के सूक्ष्म बीज मे छुपा हुआ है। यदि यह बीज सुरक्षित रहे, क्रमशः अकुरित, पल्लवित एव पुष्पित होता रहे, तो एक दिन अवश्य ही मोक्ष का अमृत फल प्रदान करेगा। हाँ, तो सामायिक के इस अमृत वीज को सीचने के लिए, उसे बद्ध मूल करने के लिए, अन्त मे पुन भक्तियोग का अवलम्बन लिया जाता है, 'नमोत्थुरण' का पाठ पढ़ा जाता है। ___'नमोत्थुण' में तीर्थ कर भगवान् की स्तुति की गई है। तीर्थ कर भगवान , राग और द्वीप पर पूर्ण विजय प्राप्त कर समभाव-स्वरूप सामायिक के सर्वोच्च शिखर पर पहुँचे हुए महापुरुष है। अत उनकी स्तुति, सामायिक की सफलता के लिए साधक को अधिकसे-अधिक आत्म-शक्ति प्रदान करती है, अध्यात्म-भावना का वल बढाती है।
प्रभावशाली पाठ
'नमोत्थुण' एक महान् प्रभावशाली पाठ है। अत दूसरे प्रचलित साधारण स्तुति-पाठो की अपेक्षा 'नमोत्थुरण' की अपनी एक अलग ही विशेषता है। वह यह है कि भक्ति मे हृदय प्रधान रहता है, और मस्तिष्क गौण । फलत कभी-कभी मस्तिष्क की अर्थात् चिन्तन की मर्यादा से अधिक गौणता हो जाने के कारण अन्तिम परिणाम यह आता है कि भक्ति वास्तविक भक्ति न रह कर अन्धभक्ति हो जाती है, सत्याभिमुखी न रह कर मिथ्याभिमुखी हो जाती है। संसार के धार्मिक इतिहास का प्रत्येक विद्यार्थी जान सकता है कि जव मानव-समाज अन्ध-भक्ति की दल-दल मे फस कर विवेक-शून्य हो जाता है, तब वह आराध्य देव के गुणावगुणो के परिज्ञान की ओर से धीरे-धीरे लापरवाह होने लगता है, फलत
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प्रणिपात -सूत्र
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देव-भक्ति के पवित्र क्षेत्र मे देवमूढता को हृदय सिंहासन पर बिठा लेता है । आज ससार मे जो अनेक प्रकार के कामी, क्रोधी, ग्रहकारी, रागी, द्वेपी, विलासी देवताओ का जाल बिछा हुआ है, काली और भैरव यादि देवताओ के समक्ष जो दीन, मूक पशुओ का हत्याकाड रचा जा रहा है, वह सब इसी अन्ध-भक्ति और देव मूढता का कुफल है । भक्ति के प्रवेश मे होने वाले इसी बौद्धिक पतन को लक्ष्य मे रख कर प्रस्तुत शक्रस्तव - सूत्र मे - 'नमोत्थुरण' मे तीर्थ कर भगवान् के विश्व- हितकर निर्मल ग्रादर्श गुणो का अत्यन्त सुन्दर परिचय दिया गया है । तीर्थ कर भगवान् की स्तुति भी हो, और साथ-साथ उनके महामहिम सद्गुणो का वर्णन भी हो, यही 'नमोत्थुरण- सूत्र' की विशेषता है । 'एका क्रिया द्वयर्थक प्रसिद्धा' की लोकोक्ति यहाँ पूर्णतया चरितार्थ हो जाती है । सूत्रकार ने 'नमोत्थुरण' मे भगवान् के जिन ग्रनुपम गुणो का मगलगान किया है, उन मे प्रत्येक गुण इतना विशिष्ट है, इतना प्रभावक है कि जिसका वर्णन वारणी द्वारा नही हो सकता । भक्त के सच्चे उत्फुल्ल हृदय से ग्राप प्रत्येक गुरण पर विचार कीजिए, चिन्तन कीजिए, मनन कीजिए, आप को एक-एक ग्रक्षर मे, एक-एक मात्रा मे अलौकिक चमत्कार भरा नजर आएगा । 'गुरणा पूजा-स्थान गुणिषु, नच लिंग न च वय' [ [ गुरण ही पूजा का कारण है, वेश या आयु नही ] - का महान् दार्शनिक घोष, यदि आप अक्षर-अक्षर मे सेमात्रा - मात्रा मे से ध्वनित होता हुआ सुनना चाहते है, तो अधिक नही, केवल 'नमोत्थुरण' का ही भावना भरे हृदय से पाठ कीजिए । आपको इसी मे सब कुछ मिल जाएगा ।
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अरिहन्त : स्वरूप और परिभाषा
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1
भगवान् - वीतराग देव ग्ररिहन्त होते है । अरिहन्त हुए बिना वीतरागता हो ही नही सकती। दोनो मे कार्य-कारण का अटूट सम्वन्ध है । अरिहन्तता कारण है, तो वीतरागता उसका कार्य है जैन-धर्म विजय का धर्म है, पराजय का नही । शत्रुओ को जड मूल से नष्ट करने वाला धर्म है, उसकी गुलामी करने वाला नही । यही कारण है कि सम्पूर्ण जैन साहित्य अरिहन्त और जिनके मगलाचरण से प्रारम्भ होता है, और अन्त मे इनसे ही समाप्त
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सामायिक-सूत्र
होता है। जैन-धर्म का मूल मन्त्र नवकार है, उसमे भी सर्व-प्रथम 'नमो-अरिहताण' है। जैन-धर्म की साधना का मूल सम्यग्दर्शन है, उसके प्रतिज्ञा-सूत्र मे भी सर्व-प्रथम 'अरिहन्तो मह देवो' है । अतएव प्रस्तुत 'नमोत्थुण' सूत्र का प्रारम्भ भी 'नमोत्थुरण अरिहताण' से ही हुआ है। जैन-सस्कृति और जैन विचार-धारा का मूल अरिहन्त ही है। जैन-धर्म को समझने के लिए अरिहन्त शब्द का समझना, अत्यावश्यक है।
अरिहन्त का अर्थ है-'शत्रुनो को हनन करने वाला।' आप प्रश्न कर सकते हैं कि यह भी कोई धार्मिक आदर्श है ? अपने शत्रुओ को नष्ट करने वाले हजारो क्षत्रिय है, हजारो राजा है, क्या वे वन्दनीय है ? गीता मे श्रीकृष्ण के लिए भी 'अरिसूदन' शब्द आता है, उसका अर्थ भी शत्रुओं का नाश करने वाला ही है। श्रीकृष्ण ने कस, शिशुपाल, जरासन्ध आदि शत्रुओ का नाश किया भी है। अत क्या वे भी अरिहन्त हुए, जैन सस्कृति के आदर्श देव हए ? उत्तर मे निवेदन है कि यहाँ अरिहन्त से अभिप्राय, बाह्य शत्रुओ को हनन करना नही है, प्रत्युत अन्तरग काम-क्रोधादि शत्रयो को हनन करना है। बाहर के शत्रुप्रो को हनन करने वाले हजारो वीर क्षत्रिय मिल सकते हैं भयङ्कर सिंहो और बाघो को मृत्यु के घाट उतारने वाले भी मिलते है, परन्तु अपने अन्दर मे ही रहे हुए कामादि शत्रुओ को हनन करने वाले सच्चे प्राध्यात्मक्षेत्र के क्षत्रिय विरले ही मिलते है। एक साथ करोड शत्रयो से जूझने वाले कोटि-भट वीर भी अपने मन की वासनाओ के आगे थर-थर कॉपने लगते है, उन के इशारे पर नाचने लगते है। हजारो वीर धन के लिए प्राण देते है, तो हजारो सुन्दर स्त्रियो पर मरते है। रावण-जैसा विश्व-विजेता वीर भी अपने अन्दर की कामवासना से मुक्ति नही प्राप्त कर सका। अतएव जैन-धर्म कहता है कि अपने-आप से लडो | अन्दर की वासनाओ से लडो । बाहर के शत्रु इन्ही के कारण जन्म लेते है। विष-वक्ष के पत्ते नोचने से काम नहीं चलेगा, जड उखाडिए, जड | जब अन्तरग हृदय मे कोई सासारिक वासना ही न होगी, काम, क्रोध, लोभ
आदि की छाया ही न रहेगी, तब विना कारण के बाह्य शत्र क्यो कर जन्म लेंगे? जैन-धर्म का युद्ध, धर्म-युद्ध है । इसमे वाहर से नहीं
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प्रणिपात-सूत्र
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लडना है, अपने-आपसे लडना है। विश्व-शान्ति का मूल इसी भावना मे है। अरिहन्त बनने वाला, अरिहन्त बनने की साधना करने वाला, अरिहन्त की उपासना करने वाला ही, विश्व-शान्ति का सच्चा स्रष्टा हो सकता है, अन्य नही। हाँ तो, इसी अन्त शत्रुओ को हनन करने वाली भावना को लक्ष्य मे रख कर आचार्य भद्रबाहु ने कहा है कि 'ज्ञानावरणीय आदि आठ प्रकार के कर्म ही वस्तुतः ससार के सब जीवो के अरि है। अत जो महापुरुष उन कर्म शत्रुओ का नाश कर देता है, वह अरिहन्त कहलाता है। अट्ठ विह पि य कम्म,
अरिभूय होइ सव्व-जीवाण । तं कम्मरि हता, अरिह ता तेण वुच्चति ॥
-आवश्यक नियुक्ति ६१४ प्राचीन मागधी, प्राकृत और सस्कृत आदि भाषाएँ, बडी गम्भीर एव अनेकार्थ-बोधक भाषाएं हैं। यहाँ एक शब्द, अपने अन्दर मे रहे हुए अनेकानेक गभीर भावो की सूचना देता है। अतएव प्राचीन आचार्यों ने अरिहन्त आदि शब्दो के भी अनेक अर्थ सूचित किए है। अधिक विस्तार मे जाना यहाँ अभीष्ट नही है, तथापि सक्षेप मे परिचय के नाते कुछ लिख देना आवश्यक है। ___ 'अरिहन्त' शब्द के स्थान मे कुछ प्राचीन आचार्यो ने अरहन्त और अरुहन्त पाठान्तर भी स्वीकार किए हैं। उनके विभिन्न सस्कृत रूपान्तर होते हैं-अर्हन्त, अरहोन्तर, अरथान्त, अरहन्त, और अरुहन्त आदि । 'अह-पूजायाम्' धातु से बनने वाले अर्हन्त शब्द का अर्थ पूज्य है । वीतराग तीर्थ कर-देव विश्वकल्याणकारी धर्म के प्रवर्तक हैं, अत असुर, सुर, नर आदि सभी के पूजनीय है। वीतराग की उपासना तीन लोक मे की जाती है, अतः वे त्रिलोक-पूज्य हैं, स्वर्ग के इन्द्र भी प्रभु के चरण कमलो की धूल मस्तक पर चढाते है, और अपने को धन्य-धन्य समझते है।
अरहोन्तर का अर्थ—सर्वज्ञ है। रह का अर्थ है-रहस्यपूर्ण
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सामायिक-सूत्र
गुप्त वस्तु। जिनसे विश्व का कोई रहस्य छुपा हुआ नहीं है, अनन्तानन्त जडचैतन्य पदार्थो को हस्तामलक की भाँति स्पष्ट रूप से जानते देखते है, वे अरहोन्तर कहलाते हैं।
अरथान्त का अर्थ है-परिग्रह और मृत्यु से रहित । 'रथ' शब्द उपलक्षण से परिग्रह-मात्र का वाचक है और अन्त शब्द विनाश एव मृत्यु का। अत जो सब प्रकार के परिग्रह से और जन्म-मरण से प्रतीत हो, वह अरथान्त कहलाता है।
अरहन्त का अर्थ-पासक्ति-रहित है। रह का अर्थ आसक्ति है, अत जो मोहनीय कर्म को समूल नष्ट कर देने के कारण राग-भाव से सर्वथा रहित हो गए हो, वे अरहन्त कहलाते है।
अरुहन्त का अर्थ है-कर्म-वीज को नष्ट कर देने वाले, फिर कभी जन्म न लेने वाले । 'मह' धातु का सस्कृत भाषा मे अर्थ हैसन्तान अर्थात् परपरा । वीज से वृक्ष, वृक्ष से वीज, फिर वीज से वृक्ष और वृक्ष से बीज-यह बीज और वृक्ष की परपरा अनादिकाल से चली आ रही है। यदि कोई वीज को जला कर नष्ट कर दे, तो फिर वृक्ष उत्पन्न नहीं होगा, वीज-वृक्ष की परम्परा समाप्त हो जायगी। इसी प्रकार कर्म से जन्म, और जन्म से कर्म की परम्परा भी अनादिकाल से चली आ रही है। यदि कोई साधक रत्नत्रय की साधना की अग्नि से कर्म-बीज को पूर्णतया जला डाले, तो वह सदा के लिए जन्म-मरण की परम्परा से मुक्त हो जाएगा, अरुहन्त बन जाएगा। अरुहन्त शब्द की इसी व्याख्या को ध्यान मे रख कर प्राचार्य उमास्वाति तत्त्वार्थ-सूत्र के अपने स्वोपज्ञ भाप्य मे कहते हैं
दग्धेवीजे यथाऽत्यन्तं, प्रादुर्भवति नाऽड कुर । कर्म-वीजे तथा दग्धे, न रोहति भवाह कुरः ।।
-अन्तिम उपसहारकारिका प्रकरण
भगवान का स्वरूप
भारतवर्ष के दार्शनिक एवं धार्मिक साहित्य मे भगवान् शब्द बडा ही उच्च कोटि का भावपूर्ण शब्द माना जाता
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है। इसके पीछे एक विशिष्ट भाव-राशि रही हुई है ! 'भगवान्' शब्द 'भग' शब्द से बना है। अत भगवान् का शब्दार्थ है'भगवाला अात्मा।'
आचार्य हरिभद्र ने भगवान् शब्द पर विवेचन करते हुए 'भग' शब्द के छ अर्थ बतलाये है-ऐश्वर्य प्रताप, वीर्य-शक्ति अथवा उत्साह, यश-कीर्ति, श्री शोभा, धर्म=सदाचार और प्रयत्न कर्तव्य की पूर्ति के लिए किया जाने वाला अदम्य पुरुषार्थ । वह श्लोक इस प्रकार है
ऐश्वर्यस्य समग्रस्य, वीर्यस्य' यशस श्रियः । धर्मस्याऽथ प्रयत्नस्य, षण्णां भग इतीङ्गना ॥
-दशवैकालिक-सूत्र टीका, ४/१ __हाँ तो अब भगवान् शब्द पर विचार कीजिए। जिस महान् आत्मा मे पूर्ण ऐश्वर्य, पूर्ण वीर्य, पूर्ण यश, पूर्ण श्री, पूर्ण धर्म और पूर्ण प्रयत्न हो, वह भगवान कहलाता है। तीर्थकर महाप्रभु मे उक्त छहो गुण पूर्ण रूप से विद्यमान होते हैं, अत वे भगवान कहे जाते है।
जैन-सस्कृति, मानव-सस्कृति है। यह मानव मे ही भगवत्स्वरूप की झाँकी देखती है। अत जो साधक, साधना करते हुए वीतराग-भाव के पूर्ण विकसित पद पर पहुँच जाता है, वही यहाँ भगवान् बन जाता है। जैन-धर्म यह नही -मानता कि मोक्ष लोक से भटक कर ईश्वर यहाँ अवतार लेता है, और वह ससार का भगवान् बनता है। जैन-धर्म का भगवान् भटका हुआ ईश्वर नही, परन्तु पूर्ण विकास पाया हुया मानव-आत्मा ही ईश्वर है, भगवान् है। उसी के चरणो मे स्वर्ग के इन्द्र अपना मस्तक झुकाते है, उसे अपना आराध्य देव स्वीकार करते है। तीन लोक का सम्पूर्ण ऐश्वर्य उसके चरणो मे उपस्थित रहता है। उसका प्रताप, वह प्रताप है, जिसके समक्ष कोटि-कोटि सूर्यों का प्रताप और प्रकाश भी फीका पड जाता है।
१ आचार्य जिनदास ने दशवकालिक चूणि मे 'वीर्य' के स्थान मे 'रूप' ।
शब्द का प्रयोग किया है।
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आदिकर
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अरिहन्त भगवान् 'ग्रादिकर' भी कहलाते है । श्रादि कर का मूल अर्थ है, ग्रादि करने वाला । पाठक प्रश्न कर सकते है कि किस की आदि करने वाला ? धर्म तो अनादि है, उसकी श्रादि कैसी ? उत्तर है कि धर्म अवश्य अनादि है । जब से यह संसार है, ससार का बन्धन है, तभी से धर्म है, और उसका फल मोक्ष भी है। जब ससार अनादि है, तो धर्म भी अनादि ही हुआ । परन्तु यहाँ जो धर्म की आदि करने वाला कहा है, उसका अभिप्राय यह है कि अरिहन्त भगवान् धर्म का निर्माण नहीं करते, प्रत्युत धर्म की व्यवस्था का, धर्म की मर्यादा का निर्माण करते है। अपने-अपने युग मे धर्मं मे जो विकार आ जाते है, धर्म के नाम पर जो मिथ्या श्राचार फैल जाते है, उनकी शुद्धि करके नये सिरे से धर्म की मर्यादाओ का विधान करते है । अत अपने युग मे धर्म की आदि करने के कारण अरिहन्त भगवान् श्रादिकर' कहलाते हैं ।
हमारे विद्वान् जैनाचार्यो की एक परम्परा यह भी है कि अरिहन्त भगवान् श्रुत-धर्म की आदि करने वाले हैं, अर्थात् श्रुत धर्म का निर्माण करने वाले है । जैन साहित्य मे प्रचाराग आदि धर्म-सूत्रो को श्रुत धर्म कहा जाता है । भाव यह है कि तीर्थ कर भगवान् पुराने चले आये धर्मशास्त्रो के अनुसार अपनी साधना का मार्ग नही तैयार करते । उनका जीवन अनुभव का जीवन होता है । अपने आत्मानुभव के द्वरा ही वे अपना मार्ग तय करते है और फिर उसी को जनता के समक्ष रखते है । पुराने पोथी-पत्रो का भार लाद कर चलना, उन्हे अभीष्ट नही है । हर एक युग का द्रव्य, क्षेत्र, काल, और भाव के अनुसार अपना अलग शास्त्र होना चाहिए, अलग विधि-विधान होना चाहिए। तभी जनता का वास्तविक हित हो सकता है, अन्यथा नही । जो शास्त्र चालू युग की अपनी दुरूह गुत्थियो को नही सुलझा सकते, वर्तमान परिस्थितियो पर प्रकाश नही डाल सकते, वे शास्त्र मानवजाति के अपने वर्तमान युग के लिए अकिंचित्कर है, अन्यथा सिद्ध है । यही
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कारण है कि तीर्थकर भगवान् पुराने शास्त्रो के अनुसार हूबहू न स्वय चलते हैं, न जनता को चलाते है। स्वानुभव के बल पर नये शास्त्र और नये विधि-विधान निर्माण करके जनता का कल्याण करते है, अत वे आदिकर कहलाते है। उक्त विवेचन पर से उन सज्जनो का समाधान भी हो जाएगा, जो यह कहते है कि आज कल जो जैन-शास्त्र मिल रहे है, वे भगवान महावीर के उपदिष्ट ही मिल रहे है, भगवान् पार्श्वनाथ आदि के क्यो नही मिलते ?
तीर्थकर
अरिहन्त भगवान् तीर्थ कर कहलाते हैं। तीर्थकर का अर्थ है-तीर्थ का निर्माता। जिसके द्वारा ससाररूप मोहमाया का महानद सुविधा के साथ तिरा जाए, वह धर्म-तीर्थ कहलाता है। और, इस धर्म-तीर्थ की स्थापना करने के कारण भगवान् महावीर आदि तीर्थ कर कहे जाते हैं ।
पाठक जानते हैं कि उफनती नदी के प्रवाह को तैरना कितना कठिन कार्य है ? साधारण मनुष्य तो देखकर ही भयभीत हो जाते है, अन्दर घुसने का साहस ही नही कर पाते । परन्तु जो अनुभवी तैराक हैं, वे साहस करके अन्दर घुसते है, और मालूम करते है कि किस ओर पानी का वेग कम है, कहाँ पानी छिछला है, कहाँ जलचर जीव नही है, कहाँ भवर और गर्त आदि नही है, कौन-सा मार्ग सर्व साधारण जनता को नदी पार करने के लिए ठीक रहेगा? ये साहसी तैराक ही नदी के घाटो का निर्माण करते है । सस्कृत भापा मे घाट के लिए 'तीर्थ' शब्द प्रयुक्त होता है । अतः ये घाट के बनाने वाले तैराक, लोक मे तीर्थ कर कहलाते है। हमारे तीर्थ कर भगवान् भी इसी प्रकार घाट के निर्माता थे, अत तीर्थ कर कहलाते थे। आप जानते है, यह ससार-रूपी नदी कितनी भयकर है ? क्रोध, मान, माया, लोभ आदि के हजारो विकार-रूप मगरमच्छ, भँवर और गर्त है इसमे, जिन्हे पार करना सहज नही है। साधारण साधक इन विकारो के भवर मे फंस जाते हैं, और डूब जाते है। परन्तु, तीर्थ कर देवो ने सर्व-साधारण
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साधको की सुविधा के लिए धर्म का घाट वना दिया है, सदाचाररूपी विधि-विधानो की एक निश्चित योजना तैयार करदी है, जिस से हर कोई साधक सुविधा के साथ इस भीपण नदी को पार कर सकता है।
तीर्थ का अर्थ पुल भी है । विना पुल के नदी से पार होना वडे-से-बडे वलवान् के लिए भी अशक्य है; परन्तु पुल बन जाने पर साधारण दुर्बल, रोगी यात्री भी बड़े श्रानन्द से पार हो सकता है । और तो क्या, नन्ही-सी चीटी भी इधर से उधर पार हो सकती है । हमारे तीर्थ कर वस्तुत संसार की नदी को पार करने के लिए धर्म का तीर्थ बना गए हैं, पुल बना गए है । साधु साध्वी, श्रावक और श्राविका रूप चतुविध सघ की धर्म - साधना, ससार सागर से पार होने के लिए पुल है । अपने सामर्थ्य के अनुसार इनमे से किसी भी पुल पर चढिए, किसी भी धर्म-साधना को अपनाइए, आप पल्ली पार हो जाएँगे ।
आप प्रश्न कर सकते हैं कि इस प्रकार धर्म-तीर्थ की स्थापना करने वाले तो भारतवर्ष मे सर्वप्रथम श्री ऋषभदेव भगवान् हुए थे, श्रत वे ही तीर्थ कर कहलाने चाहिए । दूसरे तीर्थ करो को तीर्थ कर क्यो कहा जाता है ? उत्तर मे निवेदन है कि प्रत्येक तीर्थ कर अपने युग मे प्रचलित धर्म-परम्परा में समयानुसार परिवर्तन करता है, प्रत नये तीर्थ का निर्माण करता है । पुराने घाट जव खराव हो जाते है, तब नया घाट ढूढा जाता है न ? इसी प्रकार पुराने धार्मिक विधानो मे विकृति था जाने के वाद नये तीर्थकर, ससार के समक्ष नए धार्मिक विधानो की योजना उपस्थित करते है । धर्म का मूल प्रारण वही होता है, केवल क्रियाकाण्ड रूप शरीर बदल देते हैं । जैन-समाज प्रारम्भ से, केवल धर्म की मूल भावनाओ पर विश्वास करता आया है, न कि पुराने शब्दों और पुरानी पद्धतियों पर । जैन तीर्थ करो का शासन-भेद, उदाहरण के लिए भगवान् पार्श्वनाथ और भगवान् महावीर का शासन-भेद मेरी उपर्युक्त मान्यता के लिए ज्वलन्त प्रमाण है ।
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स्वयसम्बुद्ध
तीर्थ कर भगवान् स्वयसम्बुद्ध कहलाते है । स्वयसम्बुद्ध का अर्थ है-अपने-आप प्रवुद्ध होने वाले, बोध पाने वाले, जगने वाले । हजारो लोग ऐसे हैं, जो जगाने पर भी नही जगते। उनकी अज्ञान निद्रा अत्यन्त गहरी होती है। कुछ लोग ऐसे होते है, जो स्वय तो नही जग सकते, परन्तु दूसरो के द्वारा जगाए जाने पर अवश्य जग उठते है। यह श्रेणी साधारण साधको की है। तीसरी श्रेणी उन पुरुषो की है, जो स्वयमेव समय पर जाग जाते है, मोहमाया की निद्रा त्याग देते है, और मोह-निद्रा मे प्रसुप्त विश्व को भी अपनी एक आवाज से जगा देते है। हमारे तीर्थ कर इसी श्रेणी के महापुरुष हैं। तीर्थ कर देव किसी के वताए हुए पूर्व निर्धारित पथ पर नही चलते । वे अपने और विश्व के उत्थान के लिए स्वय अपने-आप अपने पथ का निर्माण करते है। तीर्थ कर को पथ-प्रदर्शन करने के लिए न कोई गुरु होता है, और न कोई शास्त्र | वह स्वय ही अपना पथ-प्रदर्शक है, स्वय ही उस पथ का यात्री है। वह अपना पथ स्वय खोज निकालता है। स्वावलम्बन का यह महान् आदर्श, तीर्थ करो के जीवन मे कूट-कूट कर भरा होता है। तीर्थंकर देव सडी-गली और पुरानी व्यर्थ परम्पराओ को छिन्न-भिन्न कर जन-हित के लिए नई परम्पराएँ, नई योजनाएं स्थापित करते हैं। उनकी क्राति का पथ स्वय अपना होता है, वह कभी भी परमुखापेक्षी नही होते !
पुरुषोत्तम
तीर्थकर भगवान् पुरुषोत्तम होते है। पुरुषोत्तम, अर्थात् पुरुषो मे उत्तम-श्रेष्ठ । भगवान् के क्या बाह्य और क्या ग्राभ्यन्तर, दोनो ही प्रकार के गुण अलौकिक होते हैं, असाधारण होते है। भगवान् का रूप त्रिभुवन-मोहक ! भगवान् का तेज सूर्य को भी हतप्रभ बना देने वाला । भगवान् का मुखचन्द्र सुरनर-नाग नयन मनहर । भगवान् के दिव्य शरीर मे एक-से-एक उत्तम एक हजार आठ लक्षण होते हैं, जो हर किसी दर्शक को
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उनकी महत्ता की सूचना देते है। वर्षभनाराच सहनन और समचतुरस्र सस्थान का सौदर्य तो अत्यन्त ही अनूठा होता है । भगवान् के परमौदारिक शरीर के समक्ष देवताओ का दीप्तिमान वैक्रिय शरीर भी बहुत तुच्छ एव नगण्य मालूम देता है। यह तो है वाह्य ऐश्वर्य की वात | अब जरा अन्तरग ऐश्वर्य की बात भी मालूम कर लीजिए। तीर्थ कर देव अनन्त चतुष्टय के धर्ता होते है। उनके अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन आदि गुणो की समता भला दूसरे साधारण देवपद-वाच्य कहाँ कर सकते है ? तीर्थ कर देव के अपने युग मे कोई भी ससारी पुरुष उनका समकक्ष नही होता।
पुरुषसिंह
तीर्थकर भगवान् पुरुषो मे सिंह होते है। सिंह एक अज्ञानी 'पशु है, हिंसक जीव है। अत: कहाँ वह निर्दय एव क्रूर पशु
और कहाँ दया एव क्षमा के अपूर्व भडार भगवान् ? भगवान् को सिंह की उपमा देना, कुछ उचित नहीं मालूम देता | वात यह है कि यह मात्र एकदेशी उपमा है । यहाँ सिंह से अभिप्राय, सिंह की वीरता और पराक्रम से है। जिस प्रकार बन मे पशुओ का राजा सिंह अपने बल और पराक्रम के कारण निर्भय रहता है, कोई भी पशु वीरता मे उसकी बराबरी नही कर सकता है, उसी प्रकार तीर्थ कर देव भी ससार मे निर्भय रहते है, कोई भी ससारी व्यक्ति उनके आत्म-बल और तपस्त्याग सम्बन्धी वीरता की बराबरी नही कर सकता।
सिंह की उपमा देने का एक अभिप्राय और भी हो सकता है। वह यह कि ससार मे दो प्रकृति के मनुष्य होते है-एक कुत्ते की प्रकृति के और दूसरे सिंह की प्रकृति के। कुत्ते को जब कोई लाठी मारता है, तो वह लाठी को मुंह मे पकडता है और समझता है कि लाठी मुझे मार रही है। वह लाठी मारने वाले को नही काटने दौडता, लाठी को काटने दौडता है। इसी प्रकार जव कोई शत्रु किसी को सताता है तो वह सताया जाने वाला व्यक्ति सोचता है कि यह मेरा शत्रु है, यह मुझे तग करता है, मैं इसे
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क्यो न नष्ट कर दूं? वह उस शत्रु को शत्रु बनाने वाले अन्तर मन के विकारो को नहीं देखता, उन्हे नष्ट करने की बात नही सोचता । इसके विपरीत, सिंह की प्रकृति लाठी पकडने की नही होती, प्रत्युत लाठी वाले को पकडने की होती है। ससार के वीतराग महापुरुष भी सिंह के समान अपने शत्र को शत्रु नहीं समझते, प्रत्युत उसके मन मे रहे हुए विकारो को ही शत्र समझते है। वस्तुत , शत्रु को पैदा करने वाले मन के विकार ही तो है । अत उनका अाक्रमण व्यक्ति पर न होकर व्यक्ति के विकारो पर होता है। अपने दया, क्षमा आदि सद्गुणो के प्रभाव से दूसरो के विकारो को शान्त करते है । फलत शत्रु को भी मित्र बना लेते है। तीर्थ कर भगवान उक्त विवेचन के प्रकाश में पुरुष-सिह है, पुरुषो मे सिंह की वृत्ति रखते हैं।
पुरुषवर पुण्डरीक
तीर्थ कर भगवान् पुरुषो मे श्रेष्ठ पुण्डरीक कमल के समान होते हैं । भगवान् को पुण्डरीक कमल की उपमा बडी ही सुन्दर दी गई है । पुण्डरीक श्वेत कमल का नाम है । दूसरे कमलो की अपेक्षा श्वेत कमल सौन्दर्य एव सुगन्ध मे अतीव उत्कृष्ट होता है । सम्पूर्ण सरोवर एक श्वेत कमल के द्वारा जितना सुगन्धित हो सकता है, उतना अन्य हजारो कमलो से नही हो सकता। दूर-दूर से भ्रमर-वृन्द उसकी सुगन्ध से आकर्षित होकर चले आते है, फलत कमल के आस-पास भंवरो का एक विराट् मेला सा लगा रहता है। और इधर कमल बिना किसी स्वार्थभाव के दिन-रात अपनी सुगन्ध विश्व को अर्पण करता रहता है । न उसे किसी प्रकार के बदले की भूख है, और न कोई अन्य वासना | चुप-चाप मूक सेवा करना ही, कमल के उच्च जीवन का आदर्श है।
तीर्थ करदेव भी मानव-सरोवर मे सर्वश्रेष्ठ कमल माने गए है। उनके आध्यात्मिक जीवन की सुगन्ध अनन्त होती है। अपने समय मे वे अहिंसा और सत्य आदि सद्गुणो की सुगन्ध सर्वत्र फैला देते है। पुण्डरीक की सुगन्ध का अस्तित्व तो वर्तमान कालावच्छेदेन ही होता है, किन्तु तीर्थ कर देवो के जीवन की सुगन्ध तो हजारो
है। मेवे अहिंसा की सुगन्ध कदवा के
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लाखो वर्षों बाद श्राज भी भक्त - जनता के हृदयो को महका रही है । आज ही नही, भविष्य मे भी हजारो वर्षो तक इसी प्रकार महकाती रहेगी । महापुरुपो के जीवन की सुगन्ध को न दिशा ही श्रवच्छिन्न कर सकती है, और न काल ही । जिस प्रकार पुण्डरीक श्वेत होता है, उसी प्रकार भगवान् का जीवन भी वीतराग भाव के कारण पूर्णतया निर्मल श्वेत होता है । उसमे कपायभाव का जरा भी रग नही होता । पुण्डरीक के समान भगवान् भी निस्वार्थ - भाव से जनता का कल्याण करते हैं, उन्हें किसी प्रकार की भी सासारिक वासना नहीं होती । कमल ग्रज्ञान - श्रवस्था मे ऐसा करता है, जब कि भगवान् ज्ञान के विमल प्रकाश मे निष्काम भाव से जन-कल्याण का कार्य करते है । यह कमल की अपेक्षा भगवान् की उच्च विशेषता है । कमल के पास भ्रमर ही श्राते है, जब कि तीर्थ करदेव के श्राध्यात्मिक जीवन की सुगन्ध से प्रभावित होकर विश्व के भव्य प्राणी उनके चरणो मे उपस्थित हो जाते है । कमल की उपमा का एक भाव और भी है । वह यह है कि भगवान् ससार मे रहते हुए भी ससार की वासनात्रो से पूर्णतया निर्लिप्त रहते हैं, जिस प्रकार पानी से लबालब भरे हुए सरोवर मे रह कर भी कमल पानी से लिप्त नही होता । कमलपत्र पर पानी की बूँद अपनी रेखा नही डाल सकती । यह कमल की उपमा ग्रागमप्रसिद्ध उपमा है ।
गन्धहस्ती
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भगवान् पुरुषो मे श्रेष्ठ गन्ध-हस्ती के समान है । सिंह की उपमा वीरता की सूचक है, गन्ध की नही । और पुण्डरीक की उपमा गन्ध की सूचक है, वीरता की नही । परन्तु, गन्धहस्ती की उपमा सुगन्ध और वीरता दोनो की सूचना देती है ।
गन्धहस्ती एक महान् विलक्षण हस्ती होता है । उसके गण्डस्थल से सदैव सुगन्धित मद जल वहता रहता है और उस पर भ्रमर-समूह गूंजते रहते है | गन्ध हस्ती की गन्ध इतनी तीव्र होती है कि युद्ध भूमि मे जाते ही उसकी सुगन्धमात्र से दूसरे हजारो हाथी त्रस्त होकर भागने लगते है, उसके समक्ष कुछ देर
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के लिए भी नही ठहर सकते। यह गन्धहस्ती भारतीय साहित्य मे वडा मगलकारी माना गया है। जहाँ यह रहता है, उस प्रदेश मे अतिवृष्टि और अनावृष्टि आदि के उपद्रव नहीं होते। सदा सुभिक्ष रहता है, कभी भी दुभिक्ष नही पडता।
तीर्थ कर भगवान् भी मानव-जाति मे गन्धहस्ती के समान है। भगवान् का प्रताप और तेज इतना महान् है कि उनके समक्ष अत्याचार, वैर-विरोध, अज्ञान और पाखण्ड आदि कितने ही क्यो न भयकर हो, ठहर ही नहीं सकते । चिरकाल से फैले हुए मिथ्या विश्वास, भगवान् की वाणी के समक्ष सहसा छिन्न-भिन्न हो जाते हैं, सब अोर सत्य का अखण्ड साम्राज्य स्थापित हो जाता है।
भगवान् गन्ध हस्ती के समान विश्व के लिए मगलकारी है। जिस देश मे भगवान् का पदार्पण होता है, उस देश मे अतिवृष्टि, अनावृष्टि, महामारी आदि किसी भी प्रकार के उपद्रव नही होते । यदि पहले से उपद्रव हो रहे हो, तो भगवान् के पधारते ही सव-के-सव पूर्णतया शान्त हो जाते है। समवायाग-सूत्र मे तीर्थ कर देव के चौतीस अतिशयो का वर्णन है। वहाँ लिखा है—“जहाँ तीर्थ कर भगवान् विराजमान होते है, वहाँ आस-पास सौ-सौ कोश तक महामारी आदि के उपद्रव नहीं होते। यदि पहले से हो, तो शीघ्र ही शान्त हो जाते है।" यह भगवान् का कितना महान् विश्वहितकर रूप है । भगवान् की महिमा केवल अन्तरग के काम, क्रोध आदि उपद्रवो को शान्त करने मे ही नहीं है, अपितु बाह्य उपद्रवो की शान्ति मे भी है।
प्रश्न किया जा सकता है कि एक सम्प्रदाय की मान्यता के अनुसार तो जीवो की रक्षा करना, उन्हे दुख से बचाना पाप है। दु खो को भोगना, अपने पाप कर्मो का ऋण चुकाना है। अत भगवान् का यह जीवो को दु खो से बचाने का अतिशय क्यो ? उत्तर मे निवेदन है कि भगवान् का जीवन मगलमय है। वे क्या आध्यात्मिक और क्या भौतिक, सभी प्रकार से जनता के दु खो को दूर कर शान्ति का साम्राज्य स्थापित करते है। यदि दूसरो को अपने निमित्त से सुख पहुंचाना पाप होता, तो भगवान् को यह पाप-बर्द्धक अतिशय मिलता ही क्यो ? यह अतिशय तो
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पुण्यानुबन्धी पुण्य के द्वारा प्राप्त होता है, फलत जगत् का कल्याण करता है। इसमे पाप की कल्पना करना तो वज-मूर्खता है। कौन कहता है कि जीवो की रक्षा करना पाप है ? यदि पाप है, तो भगवान् को यह पाप-जनक अतिशय कैसे मिला ? यदि किसी को सुख पहुंचाना वस्तुत पाप ही होता, तो भगवान् क्यो नही किसी पर्वत की गुहा मे बैठे रहे ? क्यो दूर-सुदूर देशो मे भ्रमण कर जगत् का कल्याण करते रहे ? अतएव यह भ्रान्त कल्पना है कि किसी को सुख-शान्ति देने से पाप होता है। भगवान् का यह मगलमय अतिशय ही इसके विरोध मे सब से बड़ा और प्रबल प्रमाण है।
लोकप्रदीप
तीर्थ कर भगवान लोक मे प्रकाश करने वाले अनुपम दीपक है । जब ससार मे अज्ञान का अन्धकार घनीभूत हो जाता है, जनता को अपने हित-अहित का कुछ भी भान नही रहता है, सत्य-धर्म का मार्ग एक प्रकार से विलुप्त-सा हो जाता है, तव तीर्थ कर भगवान अपने केवल ज्ञान का प्रकाश विश्व मे फैलाते है और जनता के मिथ्यात्व-अन्धकार को नष्ट कर सन्मार्ग का पथ आलोकित करते है।
घर का दीपक घर के कोने मे प्रकाश करता है, उसका प्रकाश सीमित और धुंधला होता है। परन्तु, भगवान् तो तीन लोक के दीपक है, तीन लोक मे प्रकाश करने का महान् दायित्व अपने पर रखते है। घर का दीपक प्रकाश करने के लिए तेल और बत्ती की अपेक्षा रखता है, अपने-आप प्रकाश नहीं करता, जलाने पर प्रकाश करता है, वह भी सीमित प्रदेश मे और सीमित काल तक । परन्तु तीर्थ कर भगवान् तो बिना किसी अपेक्षा के अपने-आप तीन लोक
और तीन काल को प्रकाशित करने वाले है । भगवान् कितने अनोखे दीपक है । __ भगवान् को दीपक की उपमा क्यो दी? मूर्य और चन्द्र आदि की अन्य सव उत्कृष्ट उपमाएँ छोड़ कर दीपक ही क्यो अपनाया गया ? प्रश्न ठीक है, परन्तु जरा गम्भीरता से सोचिए, नन्हे से
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दीपक की महत्ता, स्पष्टत झलक उठेगी। बात यह है कि सूर्य
और चन्द्र प्रकाश तो करते है , किन्तु किसी को अपने समान प्रकाशमान नहीं बना सकते। इधर लघु दीपक अपने ससर्ग मे आए, अपने से सयुक्त हुए हजारो दीपको को प्रदीप्त कर अपने समान ही प्रकाशमान दीपक बना देता है। वे भी उसी तरह जगमगाने लगते है और अन्धकार को छिन्न-भिन्न करने लगते है। हाँ, तो दीपक प्रकाश देकर ही नहीं रह जाता, वह दूसरो को भी अपने समान ही बना लेता है। तीर्थ कर भगवान् भी इसी प्रकार केवल प्रकाश फैला कर ही विश्रान्ति नही लेते, प्रत्युत अपने निकट ससर्ग मे आने वाले अन्य साधको को भी साधना का पथ प्रदर्शित कर अन्त मे अपने समान ही बना लेते है। तीर्थ करो का ध्याता, सदा ध्याता ही नहीं रहता, वह ध्यान के द्वारा अन्ततोगत्वा ध्येय-रूप मे परिणत हो जाता है। उक्त सिद्धान्त की साक्षी के लिए गौतम और चन्दना आदि के इतिहास प्रसिद्ध उदाहरण, हर कोई जिज्ञासु देख सकता है।
अभयदयः अभयदान के दाता
ससार के सब दानो मे अभय-दान श्रेष्ठ है । हृदय की करुणा अभय-दान मे ही पूर्णतया तरगित होती है । 'दाणाण सेठं अभयप्पयारण ।'
-सूत्र कृताग, ६/२३ अस्तु, तीर्थ कर भगवान् तीन लोक मे अलौकिक एव अनुपम दयालु होते हैं। उनके हृदय मे करुणा का सागर ठाठे मारता रहता है। विरोधी-से-विरोधी के प्रति भी उनके हृदय से करुणा की धारा बहा करती है। गोशालक कितना उद्दण्ड प्राणी था ? परन्तु भगवान् ने तो उसे भी क्रुद्ध तपस्वी की तेजोलेश्या से जलते हुए बचाया। चण्डकौशिक पर कितनी अनन्त करुणा की है ? तीर्थ करदेव उस युग मे जन्म लेते हैं, जब मानव-सभ्यता अपना पथ भूल जाती है, फलत सब ओर अन्याय एव अत्याचार का दम्भपूर्ण साम्राज्य छा जाता है। उस समय तीर्थ कर भगवान् क्या स्त्री क्या पुरुप, क्या राजा क्या रक, क्या ब्राह्मण क्या शूद्र,
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सभी को सन्मार्ग का उपदेश करते है। ससार के मिथ्यात्व-वन मे भटकते हुए मानव-समूह को सन्मार्ग पर लाकर उसे निराकुल बनाना, अभय-प्रदान करना, एकमात्र तीर्थ कर देवो का ही महान कार्य है।
चक्ष र्दय ज्ञाननेत्र के दाता
तीर्थ कर भगवान् आँखो के देने वाले है। कितना ही हृष्ट-पुष्ट मनुष्य हो, यदि अॉख नही तो कुछ भी नही। ऑखो के अभाव मे जीवन भार हो जाता है। अधे को आँख मिल जाय, फिर देखिए, कितना पानदित होता है वह । तीर्थ कर भगवान् वस्तुत.अधो को ऑखें देने वाले है । जब जनता के ज्ञान-नेत्रो के समक्ष अनान का जाला छा जाता है, सत्यासत्य का कुछ भी विवेक नही रहता है, तव तीर्थ कर भगवान् ही जनता को जान-नेत्र अर्पण करते हैं, अज्ञान का जाला साफ करते है।
पुरानी कहानी है कि एक देवता का मन्दिर था, वडा ही चमत्कार पूर्ण ? वह, आने वाले अन्धो को नेत्र-ज्योति दिया करता था । अन्धे लाठी टेकते पाते और इधर आँखे पाते ही द्वार पर लाठी फेक कर घर चले जाते | तीर्थ कर भगवान् ही वस्तुत ये चमत्कारी देव है। इनके द्वार पर जो भी काम और क्रोध आदि विकारो से दूषित अज्ञानी अन्धा आता है, वह ज्ञान-नेत्र पाकर प्रसन्न होता हुआ लौटता है। चण्डकौशिक आदि ऐसे ही जन्म-जन्मान्तर के अन्धे थे, परन्तु भगवान् के पास आते ही अजान का अन्धकार दूर हो गया, सत्य का प्रकाश जगमगा गया। जान-नेत्र की ज्योति पाते ही सव भ्रान्तियाँ क्षरण-भर मे दूर हो गई ।
धर्मचक्रवर्ती
तीर्थ कर भगवान् धर्म के श्रेष्ठ चक्रवर्ती है, चार दिशा रूप चार गतियो का अन्त करने वाले है । जब देश मे सब पोर अराजकता छा जाती है, तथा छोटे-छोटे राज्यो मे विभक्त हो कर देश की एकता नष्ट हो जाती है, तव चक्रवर्ती का चक्र
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ही पुन राज्य की सुव्यवस्था करता है, सम्पूर्ण बिखरी हुई देश की शक्ति को एक शासन के नीचे लाता है। सार्वभौम राज्य के विना प्रजा मे शान्ति की व्यवस्था नही हो सकती । चक्रवर्ती इसी उद्देश्य की पूर्ति करता है। वह पूर्व, पश्चिम और दक्षिण इन तीन दिशाप्रो मे समुद्र-पर्यन्त तथा उत्तर मे लघु हिमवान् पर्वत पर्यन्त अपना अखण्ड साम्राज्य स्थापित करता है, अत चतुरन्त चक्रवर्ती कहलाता है। __ तीर्थ कर भगवान् भी नरक, तिर्य च आदि चारो गतियो का अन्तकर सम्पूर्ण विश्व पर अपना अहिंसा और सत्य अादि का धर्म राज्य स्थापित करते हैं। अथवा दान, शील, तप और भावरूप चतुर्विध धर्म की साधना स्वय अन्तिम कोटि तक करते है, और जनता को भी इस धर्म का उपदेश देते हैं, अत वे धर्म के चतुरन्त चक्रवर्ती कहलाते है । भगवान् का धर्म चक्र ही वस्तुत ससार मे भौतिक एवं आध्यात्मिक अखण्ड शान्ति कायम कर सकता है। अपने-अपने मत-जन्य दुराग्रह के कारण फैली हुई धार्मिक अराजकता का अन्त कर अखण्ड धर्म-राज्य की स्थापना तीर्थ कर ही करते है । वस्तुत यदि विचार किया जाए, तो भौतिक जगत के प्रतिनिधि चक्रवर्ती से यह ससार कभी स्थायी शान्ति पा ही नही सकता। चक्रवर्ती तो भोग-वासना का दास एक पामर ससारी प्राणी है। उसके चक्र के मूल मे साम्राज्यलिप्सा का विप छ पा हुआ है, जनता का परमार्थ नही, अपना स्वार्थ रहा हुआ है । यही कारण है कि चक्रवर्ती का शासन मानव-प्रजा के निरपराध रक्त से सीचा जाता है, वहाँ हृदय पर नही, शरीर पर विजय पाने का प्रयत्न है। परन्तु हमारे तीर्थ कर धर्म-चक्रवर्ती है। अतः वे पहले अपनी ही तप साधना के बल से काम, क्रोधादि अन्तरग शत्र प्रो को नष्ट करते है, पश्चात् जनता के लिए धर्म-तीर्थ की स्थापना कर अखण्ड आध्यात्मिक शान्ति का साम्राज्य कायम करते है। तीर्थ कर शरीर के नही, हृदय के सम्राट् वनते है, फलत वे ससार मे पारस्परिक प्रेम एव सहानुभूति का, त्याग एव वैराग्य का विश्व-हितकर शासन चलाते है। वास्तविक सुख-शान्ति, इन्ही धर्म चक्रवर्तियो के शासन की छत्रछाया मे प्राप्त हो सकती है, अन्यत्र नहीं। तीर्थ कर
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सामापिक-सूत्र
भगवान् का शासन तो चक्रवर्तियो पर भी होता है । भोग-विलास के कारण जीवन की भूल भुलैय्या मे अपने कर्तव्य से पराड मुख हो जाने वाले भगवान् ही उपदेश देकर सन्मार्ग पर भान कराते है । त तोर्थ कर भगवान् चक्रवर्ती है ।
पड जाने वाले और चक्रवर्तियो को तीर्थंकर लाते है, कर्तव्य का चक्रवर्तियो के भी
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व्यावृत्त छद्म
तीर्थ कर देव, व्यावृत्त छद्म कहलाते है । व्यावृत्त - छद्म का अर्थ है - 'छद्म से रहित ।' छद्म के दो अर्थ है - आवरण और छल । ज्ञानावरणीय आदि चार घातिया कर्म आत्मा की ज्ञान, दर्शन आदि मूल शक्तियो को छादन किए रहते है, ढँके रहते है, अत छद्म कहलाते है
- 'छादयतीति छद्म ज्ञानावरणीयादि'
- प्रतिक्रमण सूत्रपद विवृत्ति, प्रणिपातदण्डक
हॉ, तो जो छद्म से, ज्ञानावरणीय आदि चार घातिया कर्मो से पूर्णतया अलग हो गए हैं, वे 'व्यावृत्त-छद्म' कहलाते हैं । तीर्थ करदेव अज्ञान और मोह प्रादि से सर्वथा रहित होते हैं । छद्म का दूसरा अर्थ है— 'छल और प्रमाद ।' ग्रत छल और प्रमाद से रहित होने के कारण भी तीर्थ कर 'व्यावृत्तछद्म' कहे जाते है ।
तीर्थ कर भगवान् का जीवन पूर्णतया सरल और समरस रहता है। किसी भी प्रकार की गोपनीयता, उनके मन मे नही होती । क्या अन्दर और क्या बाहर, सर्वत्र समभाव रहता है, स्पष्ट भाव रहता है । यही कारण है कि भगवान् महावीर प्रादि तोर्थ करो का जीवन पूर्णं प्राप्त पुरुषो का जीवन रहा है। उन्होने कभी भी दुहरी बाते नही की । परिचित और अपरिचित, साधारण जनता और असाधारण चक्रवर्ती आदि, अनसमझ बालक और समझदार वृद्ध-सबके समक्ष एक समान रहे । जो कुछ भी परम सत्य उन्होने प्राप्त किया, निश्छल भाव से जनता को अर्पण किया । यही प्राप्त जीवन है, जो शास्त्र मे प्रामाणिकता लाता है । प्राप्त
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प्रणिपात सूत्र
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पुरुष का कहा हुआ प्रवचन ही प्रमाणाबाधित, तत्त्वो-पदेशक, सर्वजीव-हितकर, अकाट्य तथा मिथ्यामार्ग का निराकरण करने वाला होता है। आचार्य सिद्धसेन शास्त्र की परिभाषा बताते हुए इसी सिद्धान्त का उल्लेख करते हैमाप्तोपज्ञमनुल्लड ध्य
महष्टेष्टविरोधकम् । तत्त्वोपदेशकृत् सार्व, शास्त्र कापथ-घट्टनम् ॥ ६ ॥
-न्यायावतार
तीर्थकर की वाणी . जन कल्याण के लिए
तीर्थ कर भगवान् के लिए जिन, जापक, तीर्ण, तारक, बुद्ध, बोधक, मुक्त और मोचक के विशेषण बडे ही महत्त्वपूर्ण हैं। तीर्थ करो का उच्च-जीवन वस्तुत इन विशेषणो पर ही अवलम्बित है। राग-द्वेष को स्वय जीतना और दूसरे साधको से जितवाना, ससार-सागर से स्वय तैरना और दूसरे प्राणियो को तैराना, केवलज्ञान पाकर स्वय बुद्ध होना और दूसरो को बोध देना, कर्म-बन्धनो से स्वयं मुक्त होना और दूसरो को मुक्त कराना, कितना महान् एव मगलमय आदर्श है। जो लोग एकान्त निवृत्ति मार्ग के गीत गाते है, अपनी आत्मा को ही तारने मात्र का स्वप्न रखते है, उन्हे इस ओर लक्ष्य देना चाहिए । ___ मैं पूछता हूँ-तीर्थकर भगवान् क्यो दूर-दूर भ्रमण कर अहिंसा
और सत्य का सन्देश देते हैं ? वे तो, केवलज्ञान और केवलदर्शन को पाकर कृतकृत्य हो गए है। अब उनके लिए क्या करना शेष है ? ससार के दूसरे जीव मुक्त होते हैं या नहीं, इससे उनको क्या हानि-लाभ ? यदि लोग धर्मसाधना करेंगे, तो उनको लाभ है और नही करेगे, तो उन्ही को हानि है। उनके लाभ और हानि से भगवान् को क्या लाभ-हानि है ? जनता को प्रबोध देने से उनकी मुक्ति मे क्या विशेपता हो जाएगी? और यदि प्रबोध न दें तो कौन-सी विशेषता कम हो जाएगी?
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सामायिक-मूत्र __ इन सब प्रश्नो का उत्तर जैनागमो का मर्मी पाठक यही देता है कि जनता को प्रबोध देने और न देने से भगवान् को कुछ भी व्यक्तिगत हानि-लाभ नही है। भगवान् किसी स्वार्थ को लक्ष्य मे रखकर कुछ भी नहीं करते । न उनको पथ चलाने का मोह है, न शिष्यो की टोली जमा करने का स्वार्थ है। न उन्हे पूजा-प्रतिष्ठा चाहिए और न मान-सम्मान | वे तो पूर्ण वीतराग पुरुष है। अत उनकी प्रत्येक प्रवृत्ति केवल करुणाभाव से होती है। जन-कल्याण की श्रेष्ठ भावना ही धर्म-प्रचार के मूल में निहित है, और कुछ नही। तीर्थ कर अनन्त-करुणा के सागर हैं। फलत किसी भी जीव को मोह-माया मे आकुल देखना, उनके लिए करुणा की वस्तु है। यह करुणा-भावना ही उनके महान् प्रवृत्तिशील जीवन की आधारशिला है। जैन-सस्कृति का गौरव प्रत्येक वात मे केवल अपना हानि-लाभ देखने मे ही नही है, प्रत्युत जनता का हानिलाभ देखने में भी है। केवल ज्ञान पाने के बाद तीस वर्ष तक भगवान् महावीर निष्काम जन-सेवा करते रहे। तीस वर्ष के धर्म-प्रचार से एव जन-कल्याण से भगवान् को कुछ भी व्यक्तिगत लाभ न हुआ। और न उनको इसकी अपेक्षा ही थी । उनका अपना आध्यात्मिक जीवन वन चुका था और कुछ साधना शेष नही रही थी, फिर भी विश्व-करुणा की भावना से जीवन के अन्तिम क्षण तक जनता को सन्मार्ग का उपदेश देते रहे। प्राचार्य शीला ने सूत्रकृताङ्ग सूत्र पर की अपनी टीका मे इसी बात को ध्यान मे रखकर कहा है___ "धर्ममुक्तवान् प्राणिनामनुग्रहार्थम्, न पूजा-सत्कारार्थम्"
-सूत्र कृताङ्ग टीका १/६/४ । केवल टीका मे ही नही, जैन-धर्म के मूल प्रागम-साहित्य मे भी यही भाव बताया गया है"सव्वजगजीव-रक्खण-दयठ्याए पावयण भगवया सुकहिय"
-प्रश्नव्याकरण-सूत्र २/१
__सर्वज्ञ, सर्वदर्शी
जिणाण
सूत्रकार ने 'जिणाण' आदि विशेषणो के वाद 'सव्वन्नूण सव्वदरिसीण' के विशेपण वडे ही गम्भीर अनुभव के आधार पर रखे है। जैन-धर्म मे सर्वत्रता के लिए शर्त है, राग और द्वप
गम्भीर
है,
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प्रणिपात-सूत्र
२७५ का क्षय हो जाना । राग-द्वेप का सम्पूर्ण क्षय किए बिना, अर्थात् उत्कृष्ट वीतराग भाव सम्पादन किए बिना सर्वज्ञता सभव नही । सर्वज्ञता प्राप्त किए बिना पूर्ण प्राप्त पुरुष नहीं हो सकता । पूर्ण प्राप्त पुरुष हुए विना त्रिलोक-पूज्यता नही हो सकती, तीर्थकर पद की प्राप्ति नही हो सकती। उक्त, 'जिणाण' पद ध्वनित करता है कि जैन-धर्म मे वही आत्मा सुदेव है, परमात्मा है, ईश्वर है, परमेश्वर है, परब्रह्म है, सच्चिदानन्द है, जिसने चतुर्गति-रूप ससार-वन मे परिभ्रमरण कराने वाले राग-द्वेष आदि अन्तरग शत्रुयो को पूर्ण रूप से नष्ट कर दिया है। जिसमे राग-द्वेप आदि विकारो का थोडा भी अश हो, वह साधक भले ही हो सकता है, परन्तु देवाधिदेव परमात्मा नही हो सकता। प्राचार्य हेमचन्द्र कहते हैं
सर्वज्ञो जितरागादि-दोषस्त्रलोक्य-पूजित । यथास्थितार्थ-वादो च, देवोऽहन परमेश्वर ।।
-योगशास्त्र २/४
पाठ भेद
आवश्यक सूत्र की प्राचीन प्रतियो मे तथा हरिभद्र और हेमचन्द्र आदि प्राचार्यों के प्राचीन ग्रन्थो मे 'नमोत्थुरण' के पाठ मे 'दीवो, ताण , सरण , गई, पइछा' पाठ नही मिलता । बहुत
आधुनिक प्रतियो मे ही यह देखने मे आया है और वह भी कुछ गलत ढग से। गलत यो कि 'नमोत्थुरण' के सव पद षष्ठी विभक्ति वाले है, जव कि यह बीच मे प्रथमा विभक्ति के रूप मे है। प्रथमा विभक्ति का सम्बन्ध, 'नमोत्थुरग' मे के नमस्कार के साथ किसी प्रकार भी व्याकरणसम्मत नही हो सकता। अत हमने मूल-सूत्र मे इस अश को स्थान नही दिया। यदि उक्त अश को 'नमोत्थरण' मे वोलना ही अभीष्ट हो, तो इसे 'दीवताण-सरणगइ-पइट्ठाण' के रूप मे समस्त पष्ठी विभक्ति लगा कर बोलना चाहिए। प्रस्तुत प्रश का अर्थ है-"तीर्थकर भगवान् ससार समुद्र मे द्वीप-टापू, त्राण-रक्षक, शरण, गति एव प्रतिष्ठा रूप हैं।"
'नमोत्थुरग' की पाठ विधि 'नमोत्थुण' किस पद्धति से पढना चाहिए, इस सम्बन्ध में
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सामायिक-सूत्र काफी मत-भेद मिल रहे है। प्रतिक्रमण-सूत्र के टीकाकार आचार्य नमि पचाग नमन-पूर्वक पढने का विधान करते है । दोनो घुटने, दोनो हाथ और पाँचवा मस्तक-इनका सम्यक् रूप से भूमि पर नमन करना, पचाग-प्रणिपात नमस्कार होता है। परन्तु, प्राचार्य हेमचन्द्र और हरिभद्र आदि योग-मुद्रा का विधान करते है। योगमुद्रा का परिचय ऐर्यापथिक-पालोचना सूत्र के विवेचन मे किया जा चुका है।
राजप्रश्नीय तथा कल्पसूत्र आदि आगमो मे, जहाँ देवता आदि, तीर्थ कर भगवान् को वन्दन करते है और इसके लिए 'नमोत्थरण' पढते है, वहाँ दाहिना घुटना भूमि पर टेक कर और बाँया खडा करके दोनो हाथ अजलि-बद्ध मस्तक पर लगाते है। आज की प्रचलित परम्परा के मूल मे यही उल्लेख काम कर रहा है। वन्दन के लिए यह आसन, नम्रता और विनय भावना का सूचक समझा जाता है। __ आजकल स्थानक वासी सम्प्रदाय मे 'नमोत्थुग' दो बार पढा जाता है। पहले से सिद्धो को नमस्कार किया जाता है, और दूसरे से अरिहन्तो को। पाठ-भेद कुछ नहीं है, मात्र सिद्धो के 'नमोत्थुण' मे जहाँ 'ठाणं सपत्ताण' बोला जाता है, वहाँ अरिहन्तो के 'नत्मोत्थुरण' मे 'ठाण सपाविउ कामाण' कहा जाता है । 'ठाण सपाविउकामारण' का अर्थ है—'मोक्ष पद को प्राप्त करने का लक्ष्य रखने वाले जीवन्मुक्त श्री अरिहन्त भगवान अभी मोक्ष मे नही गए है, शरीर के द्वारा भोग्य-कर्म भोग रहे है, जब कर्म भोग लेगे तब मोक्ष मे जाएंगे, अत वे मोक्ष पाने की कामना वाले है । कामना का अर्थ यहाँ वासना नही है, आसक्ति नहीं है । तीर्थ कर भगवान् तो मोक्ष के लिए भी आसक्ति नही रखते । उनका जीवन तो पूर्णरूप से वीतराग-भाव का होता है। अत यहाँ कामना का अर्थ आसक्ति न लेकर ध्येय, लक्ष्य, उद्देश्य आदि लेना चाहिए। आसक्ति और लक्ष्य मे वडा भारी अन्तर है। वन्धन का मूल आसक्ति मे है, लक्ष्य मे नही।
उपर्युक्त प्रचलित परम्परा के सम्बन्ध मे कुछ थोडी-बहुत विचारने की वस्तु है। वह यह है कि दो 'नमोत्थुग' का विधान
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प्रणिपात -सूत्र
प्राचीन ग्रन्थों तथा ग्रागमो से प्रमाणित नही होता । 'नमोत्थुर ' के पाठ को जब हम सूक्ष्म दृष्टि से देखते है, तब पता चलता है कि यह पाठ न सब सिद्धो के लिए है और न सब अरिहन्तो के लिए ही । यह तो केवल तीर्थकरो के लिए है । अरिहन्त दोनो होते है - सामान्य केवली और तीर्थकर । सामान्य केवली मे 'तित्थयराणं, सय- सबुद्धारणं, धम्मसारहीण, धम्मवरचाउरतचक्कवट्टीणं' आदि विशेषरण किसी भी प्रकार से घटित नही हो सकते । सूत्र की शैली, स्पष्टतया 'नमोत्थुरण' का सम्बन्ध तीर्थकरों से तथा तीर्थंकरपद से मोक्ष पाने वाले सिद्धो से ही जोडती है, सब ग्ररिहन्तो तथा सब सिद्धो से नही ।
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दो बार क्यों ?
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मेरी तुच्छ सम्मति मे ग्राजकल प्रथम सिद्ध-स्तुति- विपयक 'ठारण मपत्तारण' वाला 'नमोत्थुरण' ही पढना चाहिए, दूसरा 'ठारण संपाविउकामारण' वाला नही । क्योकि, दूसरा 'नमोत्थुरण' वर्तमानकालीन अरिहन्त तीर्थकर के लिए होता है, सो ग्राजकल भारतवर्ष मे तीर्थकर विद्यमान नही हैं। आप प्रश्न कर सकते है कि महा विदेह क्षेत्र मे वीस विहरमान तीर्थंकर है तो सही । उत्तर है कि विद्यमान तीर्थंकरो को वन्दन, उनके अपने शासनकाल मे ही होता है, ग्रन्यत्र नही । हाँ तो क्या आप बीस विहरमान तीर्थकरो के शासन मे है, उनके बताए विधि-विधानो पर चलते हैं ? यदि नही तो फिर किस आधार पर उनको वन्दन करते हैं ? प्राचीन ग्रागम - साहित्य मे कही पर भी विद्यमान तीर्थकरो के प्रभाव मे दूसरा 'नमोत्थुग' नही पढा गया । जातासूत्र के द्रौपदी - अध्ययन मे धर्मरुचि अनगार सथारा करते समय 'सपत्ताण' वाला ही प्रथम 'नमोत्थुरण' पढते है, दूसरा नही । इसी सूत्र मे कुण्डरीक के भाई पुण्डरीक और अर्हनक श्रावक भी सथारे के समय प्रथम पाठ ही पढते है, दूसरा नही । क्या उस समय भूमण्डल पर अरिहन्ती तथा तीर्थकरो का प्रभाव ही हो गया था ? महाविदेह क्ष ेत्र मे तो तीर्थकर तब भी थे । और सामान्य केवलीअरिहन्त तो, अन्यत्र क्या, यहाँ भारतवर्ष मे भी होगे । उक्त विचारणा के द्वारा
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सामायिक सूत्र
स्पष्टत सिद्ध हो जाता है कि श्रागम की प्राचीन मान्यता 'नमोत्थु ' के विषय मे यह है कि - " प्रथम नमोत्थूण तीर्थ कर पद पाकर मोक्ष जाने वाले सिद्धो के लिए पढा जाए। यदि वर्तमान काल में तीर्थ कर विद्यमान हो, तो राजप्रश्नीय - सूर्याभदेवताधिकार, कल्पसूत्र -- महावीरजन्माधिकार, जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति - तीर्थ करजन्मा भिपेकाधिकार, चौपपातिक — अवडशिष्याधिकार और ग्रन्तकृदृशाग अर्जुनमालाकाराधिकार यादि के उल्लेखानुसार उनका नाम लेकर 'नमोत्थुरण समरणस्स भगवतो महावीरस्स ठाण सपाविउकामस्स' आदि के रूप मे पढना चाहिए ।"
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यहाँ जो कुछ लिखा है, किसी श्राग्रह-वण नही लिखा है, प्रत्युत विद्वानो के विचारार्थ लिखा है । ग्रत आगमाभ्यासी विद्वान्, इस प्रश्न पर यथावकाश विचार करने की कृपा करे ।
नौ संपदा
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प्रस्तुत 'नमोत्थुरण' सूत्र मे नव सम्पदाएँ मानी गई है । सम्पदा का क्या अर्थ है, यह पहले के पाठो मे वताया जा चुका है । पुन स्मृति के लिए आवश्यक हो, तो यह याद रखना चाहिए कि सम्पदा का अर्थ विश्राम है |
प्रथम स्तोतव्य-सम्पदा है । इसमे ससार के सर्वश्रेष्ठ स्तोतव्यस्तुति योग्य तीर्थ कर भगवान् का निर्देश किया गया है ।
दूसरी सामान्य हेतु सम्पदा है । इसमे स्तोतव्यता मे कारण - भूत सामान्य गुरणो का वर्णन है । जैनधर्म वैज्ञानिक धर्म है, अत उसमे किसी की स्तुति यो ही नही की जाती, प्रत्युत गुरणो को ध्यान मे रख कर ही स्तुति करने का विधान है ।
तीसरी विशेष - हेतु सम्पदा है । इसमे स्तोतव्य महापुरुप तीर्थंकर देव के विशेष गुण वर्णन किए गए हैं ।
चतुर्थ उपयोग-सम्पदा है । इसमे ससार के प्रति तीर्थ कर भगवान् की उपयोगिता - परोपकारिता का सामान्यतया वर्णन है ।
पांचवी उपयोगसम्पदा सम्बन्धिनी हेतु सम्पदा है | इसमे बताया गया है कि तीर्थ कर भगवान् जनता पर किस प्रकार महान् उपकार करते हैं ।
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प्रणिपात-सूत्र
२७९ छठी विशेष-उपयोग-सम्पदा है। इसमे विशेष एव असाधारण शब्दो मे भगवान् की विश्वकल्याणकारिता का वर्णन है।
सातवी सहेतुस्वरूप-सम्पदा है। इसमे भगवान् के दिक्कालादि के व्यवधान से अनवच्छिन्न, अत अप्रतिहत ज्ञान-दर्शन का वर्णन करके उनका स्वरूप-परिचय कराया गया है । __ आठवी निजसमफलद-सम्पदा है। इसमे 'जावयाण, बोहयाण, मोयगाण' आदि पदो के द्वारा सूचित किया गया है कि तीर्थ कर भगवान् ससार-दुख-सतप्त भव्य जीवो को धर्मोपदेश देकर अपने समान ही जिन, बुद्ध, और मुक्त बनाने की क्षमता रखते है।
नौवी मोक्ष-सम्पदा है। इसमे मोक्ष-स्वरूप का शिव, अचल, अरुज, अनन्त, अक्षय, अव्याबाध आदि विशेषणो के द्वारा बडा ही सरल एव भव्य वर्णन किया है। ___ तार्किक प्रश्न करते है कि नौवी मोक्ष सम्पदा मे जो मोक्षस्वरूप का वर्णन है, उसका सम्वन्ध सूत्रकार ने स्थान शब्द के साथ जोड़ा है, वह किसी भी तरह घटित नही होता। स्थान सिद्धशिला अथवा आकाश जड़ पदार्थ है, अत वह अरुज, अनन्त, अव्यावाध कैसे हो सकता है ? उत्तर मे निवेदन है कि अभिधावृत्ति से सम्बन्ध ठीक नहीं बैठता है। परन्तु, लक्षणा-वृत्ति के द्वारा सम्बन्ध होने मे कोई आपत्ति नही रहती। यहाँ स्थान और स्थानी अात्माओ के मोक्ष-स्वरूप मे अभेद का आरोप किया गया है। अत मोक्ष के धर्म, स्थान मे आरोपित कर दिए गए है। अथवा यहाँ स्थान का अर्थ यदि अवस्था या पद लिया जाए, तो फिर कुछ भी विकल्प नही रहता। मोक्ष, साधक आत्मा की एक अतिम पवित्र अवस्था या उच्च पद ही तो है।
विभिन्न नाम
जैन-परम्परा मे प्रस्तुत सूत्र के कितने ही विभिन्न नाम प्रचलित हैं। 'नमोत्थुण' यह नाम, अनुयोग द्वार-सूत्र के उल्लेखानुसार प्रथम अक्षरो का आदान करके बनाया गया है, जिस प्रकार भक्तामर और कल्याण मन्दिर आदि स्तोत्रो के नाम है।
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श्री वन्दन करते अधिपति शक्र-इन आदि सूत्री मात
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सामायिक-सूत्र दूसरा नाम शक्र-स्तव है, जो अधिक ख्याति प्राप्त है। जम्वूद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र तथा कल्पसूत्र आदि सूत्रो मे वर्णन आता है कि प्रथम स्वर्ग के अधिपति शक्र-इन्द्र प्रस्तुत पाठ के द्वारा ही तीर्थ करो को वन्दन करते है, अत 'शक्र-स्तव' नाम के लिए काफी पुरानी अर्थ-धारा हमे उपलब्ध है।
तीसरा नाम प्रणिपात-दण्डक है । इसका उल्लेख योगशास्त्र की स्वोपज्ञवृत्ति और प्रतिक्रमणवृत्ति आदि ग्रन्थो मे उपलब्ध होता है। प्रणिपात का अर्थ नमस्कार होता है, अत नमस्कार-परक होने से यह नाम भी सर्वथा युक्ति मूलक है।
उपर्युक्त तीनो ही नाम शास्त्रीय एव अर्थ-सगत है। अत' किसी एक ही नाम का मोह रखना और दूसरो का अपलाप करना अयुक्त है।
महत्त्व
'नमोत्थुण' के सम्बन्ध मे काफी विस्तार के साथ वर्णन किया जा चुका है। जैन सम्प्रदाय मे प्रस्तुत सूत्र का इतना अधिक महत्त्व है कि जिस की कोई सीमा नही बाँधी जा सकती। आज के इस श्रद्धा-शून्य युग मे, सैकडो सज्जन अब भी ऐसे मिलेंगे, जो इतने लम्बे सूत्र की नित्यप्रति माला तक फेरते है। वस्तुत इस सूत्र मे भक्ति-रस का प्रवाह बहा दिया गया है। तीर्थ कर महाराज के पवित्र चरणो मे श्रद्धाञ्जलि अर्पण करने के लिए, यह बहुत सुन्दर एवं समीचीन रचना है। उत्तराध्ययन-सूत्र मे तीर्थ कर भगवान् की स्तुति करने का महान् फल बताते हुए कहा है
"यक्युइमगलेणं नाण-दसण-चरित-बोहिलाभ जणयइ । नाणसण-चरित्त-बोहिलामसंपन्ने य ण जीवे अतकिरिय कप्पविमाणोववत्तिय आराहणं आराहेइ।"
-उत्तराध्ययन २६/१४ उपर्युक्त प्राकृत सूत्र का भाव यह है कि तीर्थकर देवो की स्तुति करने से ज्ञान, दर्शन और चारित्ररूप वोधि का लाभ होता है। बोधि के लाभ से साधक साधारण दशा मे कल्प विमान तथा उत्कृष्ट दशा मे मोक्ष पद का पाराधक होता है। ज्ञान, दर्शन
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श्रणिपात -सूत्र
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और चारित्र हो जैन-धर्म है । अतः उपर्युक्त भगवद्-वारणी का सार यह निकला कि भगवान् की स्तुति करने वाला साधक सम्पूर्ण जैनत्त्व का अधिकारी हो जाता है और अन्त में अपनी साधना का परम फल मोक्ष भी प्राप्त कर लेता है । सूत्रकार ने हमारे समक्ष अक्षय-निधि खोल कर रख दी है। आइए, हम इस निधि का भक्ति-भाव के साथ उपयोग करें और अनादिकाल की आध्यात्मिक दरिद्रता का समूल उन्मूलन कर अक्षय एव अनन्त आत्म-वैभव को प्राप्त करे ।
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समाप्ति सत्र
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[पालोचना]
एयरस नवमस्स सामाइयवयस्स, पच अइयारा जाणियन्वा, न समायरियन्वा । तजहामण-दुप्पणिहारणे, वय-दुप्पणिहारो, काय-दुप्पणिहारणे, सामाइयस्स सइ अकरणया, सामाइयस्स प्रणवट्ठियस्स करणया, तस्स मिच्छा मि दुक्कड ।
(२) सामाइय सम्म काएण, न फासियं, न पालियं, न तीरिय, न किट्टिय, न सोहिय, न आराहिय, आणाए अणुपालिय न भवइ, तस्स मिच्छा मि दुक्कडं।
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समाप्ति - सूत्र
शब्दार्थ
( १ )
एयरस = इस नवमस्स= नौवे सामाइयवयस्स= सामायिक व्रत के पच अइयारा = पाँच अतिचार जाणियव्वा = जानने योग्य है समायरियव्वा=आचरण करने योग्य
न=नही हैं तं जहा- वे इस प्रकार है मरण- दुप्पणिहाणे = मन की अनुचित्त प्रवृत्ति
वय दुष्परिणहाणे = वचन की अनुचित प्रवृत्ति
काय दुष्परिणहाणे = शरीर की अनुचित प्रवृत्ति सामाइयरस = सामायिक की तइ प्रकरणया = स्मृति न रखना सामाइयस्स = सामायक को अणवट्ठियस्स अव्यवस्थित
करणया करना
तस्स = उस प्रतिचार सम्बन्धी मि=मेरा
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दुक्कड = दुष्कृत मिच्छा - मिथ्या होवे
( २ )
सामाइयं = सामायिक को सम्म = सम्यक् रूप मे कारण - शरीर से – जीवन से न फासियं = स्पर्श न किया हो न पालिय = पालन न किया हो न तीरिय= पूर्ण न किया हो न फिट्टिय = कीर्तन न किया हो न सोहिय = शुद्ध न किया हो न आराहिय = प्राराधन न किया हो
आणाए = वीतराग देव की आज्ञा से अणुपालिय= ग्रनुपालित-स्वीकृत न भवइ = न हुआ हो तो तस्स मिच्छामि दुक्कड = वह मेरा पाप निष्फल हो
भावार्थ
( १ )
सामायिक व्रत के पाँच प्रतिचार - दोष है, जो मात्र जानने योग्य है, आचरण करने योग्य नही । वे पाँच दोप इस प्रकार है१ - मन को कुमार्ग मे लगाना २ – वचन को कुमार्ग मे लगाना, ३- शरीर को कुमार्ग मे लगाना, ४ – सामायिक को बीच में ही
पूर्ण दशा मे पार लेना अथवा सामायिक की स्मृति - खयाल न रखना तथा ५–सामायिक को अव्यवस्थित रूप से -- चचलता से करना । उक्त दोपो के कारण जो भी पाप लगा हो, वह आलोचना के द्वारा मिथ्या - निष्फल हो ।
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सामायिक-सूत्र
(२) सामायिक व्रत सम्यग्रूप से स्पर्श न किया हो, पालन न किया हो, पूर्ण न किया हो, कीर्तन न किया हो, शुद्ध न किया हो, अाराधन न किया हो एव वीतराग की आज्ञा के अनुसार पालन न हुआ हो, तो तत्सम्बन्धी समग्र पाप मिथ्या-निष्फल हो ।
विवेचन साधक, आखिर साधक ही है, चारो ओर अज्ञान और मोह का वातावरण है, अत वह अधिक-से-अधिक सावधानी रखता हुअा भी कभी-कभी भूले कर बैठता है। जव घर-गृहस्थी के अत्यन्त स्थूल कामो मे भी भूले हो जाना साधारण है; तब सूक्ष्म धर्म-क्रियाओं मे भूल होने के सम्बन्ध मे तो कहना ही क्या है ? वहाँ तो रागद्वेष की जरा-सी भी परिणति, विषय-वासना की जरा सी भी स्मृति, धर्म-क्रिया के प्रति जरा-सी भी अव्यवस्थिति, आत्मा को मलिन कर डालती है। यदि शीघ्र ही उसे ठीक न किया जाए, साफ न किया जाए, तो आगे चल कर वह अतीव भयकर रूप मे साधना का सर्वनाश कर देती है।
चार प्रकार के दोष
सामायिक बडी ही महत्त्व-पूर्ण धार्मिक क्रिया है। यदि यह ठीक रूप से जीवन में उतर जाए, तो ससार-सागर से बेडा पार है । परन्तु, अनादिकाल से प्रात्मा पर जो वासनाओ के सस्कार पड़े हुए है, वे धर्म-साधना को लक्ष्य की अोर ठीक प्रगति नही करने देते। साधक का अन्तर्मुहूर्त जितना छोटा-सा काल भी शान्ति से नही गुजरता है। इसमे भी ससार की उधेड-वून चल पडती है | अत. साधक का कर्तव्य है कि वह सामायिक के काल मे पापो से बचने की पूरी-पूरी सावधानी रक्खे, कोई भी दोष जानते या अजानते जीवन मे न उतरने दे। फिर भी, कुछ दोष लग ही जाते हैं। उनके लिए यह है कि सामायिक समाप्त करते समय शुद्ध हृदय से आलोचना कर ले । आलोचना अर्थात अपनी भूल को स्वीकार करना, अन्तर्ह दय से पश्चात्ताप करना, दोष-शुद्धि के लिए अचूक महौषध है।
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सामायिक-सूत्र
२८५
प्रत्येक व्रत चार प्रकार से दूषित होता है - प्रतिक्रम से, व्यतिक्रम से, प्रतिचार से और अनाचार से । मन की निर्मलता का नष्ट होना, मन मे प्रकृत्य कार्य करने का सकल्प करना, प्रतिक्रम है | योग्य कार्य करने के सकल्प को कार्य रूप में परिणत करने और व्रत का उल्लघन करने के लिए तैयार हो जाना, व्यतिक्रम है । व्यतिक्रम से आगे बढ कर त्रिषयो की ओर आकृष्ट होना, व्रत-भग करने के लिए सामग्री जुटा लेना, अतिचार है । और अन्त मे आसक्ति वश व्रत का भग कर देना, कहलाता है
अनाचार
"मन की विमलता नष्ट होने को अतिक्रम है कहा, और शीलचर्या के विलघन को व्यतिक्रम है कहा । हे नाथ ! विषयो में लिपटने को कहा अतिचार है, आसक्त अतिशय विषय में रहना महाऽनाचार है || "
प्रतिचार और अनाचार मे भेद
यहाँ पर हमे अतिचार और अनाचार का भेद भी समझ लेना चाहिए, अन्यथा, विपर्यय हो जाने की संभावना बनी रहती है । अतिचार का अर्थ है - ' व्रत का प्रशत भग' और अनाचार का अर्थ है- 'सर्वत भग' । अतिचार तक के दोष व्रत मे मलिनता लाते है, व्रत को नष्ट नही करते, अत इन की शुद्धि आलोचना एव प्रतिक्रमण आदि से हो जाती है । परन्तु, अनाचार मे तो व्रत का मूलत भग ही हो जाता है, अत व्रत नये सिरे से लेना पडता है । साधक का कर्तव्य है कि वह प्रथम तो 'अतिक्रम' आदि सभी दोषो से वचता रहे । सभव है, फिर भी भ्रान्ति वश कोई भूल शेष रह जाए. तो उसकी आलोचना कर ले । परन्तु, अनाचार की ओर तो बिल्कुल ही अग्रसर न होना चाहिए । इसके लिए विशेष जागरूकता की आवश्यकता है । जीवन मे जितना अधिक जागरण है, उतना ही अधिक सयम है ।
सामायिक व्रत मे भी 'श्रतिक्रम' आदि दोष लग जाते है । प्रत साधक को उनकी शुद्धि का विशेष लक्ष्य रखना चाहिए । यही कारण है कि सामायिक की समाप्ति के लिए सूत्रकार ने जो प्रस्तुत
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२८६
सामायिक-सूत्र
पाठ लिखा है, इसमे सामायिक मे लगने वाले अतिचारो की आलोचना की गई है । व्रत मे मलिनता पैदा करने वाले दोषो मे अतिचार ही मुख्य है, अत अतिचार की आलोचना के साथ-साथ अतिक्रम और व्यतिक्रम की आलोचना स्वय हो जाती है ।
पाँच अतिचार
__ सामायिक-व्रत के पाँच अतिचार है-मनोदुष्प्रणिधान, वचनदुष्प्रणिधान, कायदुष्प्रणिधान, सामायिक-स्मृति-भ्र श, और सामायिकअनवस्थित । सक्षेप मे अतिचारो की व्याख्या इस प्रकार है -
१-सामायिक के भावो से बाहर मन की प्रवृत्ति होना, मन को सासारिक-प्रपचो मे दौडाना, और सासारिक कार्य के लिए इधरउधर के सकल्प-विकल्प करना, मनो-दुष्प्रणिधान है।
२-सामायिक के समय विवेक-रहित कट, निष्ठुर एव अश्लील वचन बोलना, निरर्थक प्रलाप करना, कपाय बढाने वाले सावध वचन कहना, वचन-दुष्प्रणिधान है। .
३-सामायिक मे शारीरिक चपलता दिखाना, शरीर से कुचेष्टा करना, विना कारण शरीर को इधर-उधर फैलाना, असावधानी से विना देखे-भाले चलना, काय-दुष्प्ररिंगधान है।
४-मैंने सामायिक की है अथवा कितनी सामायिक ग्रहण की है, इस बात को ही भूल जाना, अथवा सामायिक ग्रहण करना ही भूल वैठना, सामायिक-स्मृति-भ्र श है । मूल-पाठ मे पाए 'सई' शब्द का सदा अर्थ भी होता है । अत इस दिशा मे प्रस्तुत अतिचार का रूप होगा, सामायिक सदाकाल-निरन्तर न करना। सामायिक की साधना नित्य-प्रति चालू रहनी चाहिए। कभी करना और कभी न करना, यह निरादर है।
५-सामायिक से ऊबना, सामायिक का समय पूरा हुआ या नही-इस बात का वार-वार विचार लाना, अथवा सामायिक का समय पूर्ण होने से पहले ही सामायिक समाप्त कर लेना, सामायिक का अनवस्थित दोप है ।
यदि सामायिक का समय पूर्ण होने से पहिले, जान वूझकर सामायिक समाप्त की जाती है, तब तो अनाचार है, परन्तु 'सामायिक का समय पूर्ण हो गया होगा' ऐसा विचार कर समय
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समाप्ति-सूत्र
२८७
पूर्ण होने से पहले ही सामायिक समाप्त कर ले, तो वह अनाचार नही, प्रत्युत अतिचार है।
शका-समाधान
प्रश्न-मन की गति बडी सूक्ष्म है। वह तो अपनी चचलता किए विना रहता ही नही। और, उधर सामायिक के लिए मन से भी सावद्य-व्यापार करने का त्याग किया है, अत प्रतिमा भग होजाने के कारण सामायिक तो भग हो ही जाती है। अस्तु, सामायिक करने की अपेक्षा सामायिक न करना ही ठीक है। प्रतिज्ञाभग करने का दोप तो नही लगेगा?
उत्तर--सामायिक की प्रतिज्ञा के लिए छह कोटि बताई गई है। अत यदि एक मन की कोटि टूटती है, तो बाकी पाँच कोटि तो बनी ही रहती है, सामायिक का सर्वथा भग या अभाव तो नही होता । मनोरूप अशत भग की शुद्धि के लिए शास्त्रकारो ने पश्चात्ताप-पूर्वक 'मिच्छा मि-दुक्कड' का कथन किया है। विघ्न के भय से काम ही प्रारम्भ न करना, मूर्खता है। सामायिक, शिक्षाव्रत है। शिक्षा का अर्थ है, निरन्तर अभ्यास के द्वारा प्रगति करना । अभ्यास चालू रखिए, एक दिन मन पर नियन्त्रण हो ही जाएगा। यह असन्दिग्ध है।
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परिशिष्ट
-
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१
(१) सामायिक लेने की विधि
शान्त तथा एकान्त स्थान, भूमि का अच्छी तरह प्रमार्जन,
श्वेत तथा शुद्ध श्रासन,
गृहस्थोचित पगडी तथा कोट आदि उतार कर शुद्ध वस्त्रो का
उपयोग,
विधि
मुखवस्त्रिका का उपयोग
पूर्व तथा उत्तर की ओर मुख,
[ पद्मासनादि से बैठकर या जिन-मुद्रा से खडे होकर ] नमस्कार-सूत्र— नवकार, तीन बार सम्यक्त्व - सूत्र = अरिहतो, तीनबार गुरुगुण स्मरण - सूत्र = पचिदिय, एक बार गुरुवन्दन - सूत्र = तिक्खुत्तो, तीन बार
[वन्दना करके आलोचना की आज्ञा लेना और जिभ - मुद्रा से आगे के पाठ पढना ]
आलोचना- सूत्र = ईरियावहिय, एक बार कायोत्सर्ग - सूत्र = तस्स उत्तरी, एक वार
आगार-सूत्र = अन्नत्थ, एक वार
[ पद्मासन आदि से बैठकर या जिन-मुद्रा से खडे होकर कायोत्सर्ग-ध्यान करना ]
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२९२
परिशिष्ट
कायोत्सर्ग में लोगस्स, 'चन्देसु निम्मलयरा' तक 'नमो अरिहताण' पढकर ध्यान खोलना, प्रकट रूप मे लोगस्स सम्पूर्ण एक बार गुरु-वन्दन-सूत्र-तिक्खुत्तो तीन बार
[गुरु से, यदि गुरु न हो तो भगवान् की साक्षी से
सामायिक की आज्ञा लेना] सामायिक प्रतिज्ञा सूत्र=करेमि भते, तीन बार
[दाहिना घुटना भूमि पर टेक कर, वाया खड़ा कर, उस पर अञ्जलि-बद्ध दोनो
हाथ रखकर प्रणिपात-सूत्र=नमोत्थुण, दो बार ।
[४८ मिनिट तक स्वाध्याय, धर्म-चर्चा, आत्म
ध्यान आदि दो नमोत्थुरण मे पहला सिद्धो का और दूसरा अरिहतों का है। अरिहन्तो के नमोत्थुरण मे 'ठाण संपत्ताण' के बदले 'ठाण सपाविउ-कामारण' पढना चाहिए। यह प्रचलित परम्परा है। हमारी अपनी धारणा के लिए 'प्रणिपात-सूत्र-नमोत्थुण' का विवेचन देखिए ।
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(२)
सामायिक पारने की विधि
नमस्कारसूत्र = तीन बार, सम्यक्त्वसूत्र - तीन बार,
गुरु-गुण स्मरण-सूत्र = एक बार, गुरु-वन्दन - सूत्र - तीन वार,
[वन्दना करके आलोचना की आज्ञा लेना, और जिन-मुद्रा से आगे के पाठ पढना ]
श्रालोचना -सूत्र = ईरियावहिय, एक बार, कायोत्सर्ग-सूत्र = तस्स उत्तरी,
एकबार,
आगार-सूत्र = अन्नत्थ, एक बार,
[ पद्मासन आदि से बैठकर, या जिन-मुद्रा से खड़े होकर कायोत्सर्ग - ध्यान करना ]
-
कायोत्सर्ग — ध्यान मे लोगस्स 'चन्देसु निम्मलयरा' तक, 'नमो अरिहतारण' पढकर ध्यान खोलना,
प्रकट रूप मे लोगस्स सम्पूर्ण एक बार,
[ दाहिना घुटना टेक कर, बायाँ खडा कर, उस पर जलबद्ध दोनो हाथ रखकर ]
प्रणिपात - सूत्र - नमोत्थुरण दो बार,
सामायिक - समाप्ति-सूत्र = एयस्स नवमस्स आदि, एक बार
नमस्कार-सूत्र == नवकार तीन बार
菜
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२
संस्कृत-च्छायानुवाद
[ १ ]
नमोक्कार - नमस्कार-सूत्र
नमोऽर्हद्द्भ्यः
नमः सिद्ध ेभ्य
नम श्राचार्येभ्य
नम उपाध्यायेभ्यः
नमो लोके सर्वसाधुभ्यः ।
एष पञ्चनमस्कारः,
सर्व पाप-प्रणाशन |
मंगलानां च सर्वेषां,
प्रथम भवति मगलम् ॥
[ २ ]
अरिहतो – सम्यक्त्व -सूत्र
अर्हन् मम देव,
यावज्जीव सुसाधवः गुरव ।
जिन - प्रज्ञप्त तत्त्वं,
इति सम्यक्त्व मया गृहीतम् ॥
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संस्कृत-च्छायानुवाद
[३] पचिंदिय-गुरुगुण-स्मरण-सूत्र पञ्चेन्द्रिय-सवरणः,
तथा नवविध-ब्रह्मचर्य-गुप्तिधरः । चतुर्विध-कषायमुक्तः,
इत्यष्टादशगुरणे सयुक्त ॥१॥ पञ्चमहाव्रत-युक्तः,
पञ्चविधाचार-पालनसमर्थः । पञ्चसमितः त्रिगुप्तः,
षत्रिंशद्गुणो गुरुर्मम ॥२॥
[४] तिक्खुत्तो—गुरुवन्दन-सूत्र त्रिकृत्वः पादक्षिण प्रदक्षिणां करोमि, वन्दे, नमस्यामि, सत्करोमि, सम्मानयामि, कल्याणम् ,
मगलम् , दैवतम् , चैत्यम् ,
पर्युपासे , मस्तकेन वन्दे।
[५] ईरियावहिय-आलोचना-सूत्र इच्छाकारेण सन्दिशत भगवन् ! ऐर्यापथिको प्रतिक्रमामि, इष्टम् ।
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२९६
परिशिष्ट
इच्छामि प्रतिक्रमितुम् , ईर्यापथिकायां विराधनायाम् , गमनागमने, प्रारणाक्रमणे बीजाक्रमणे, हरिताक्रमण, अवश्यायोत्तिग-पनकदकमृत्तिका-मर्कट-सन्तानसक्रमणे, ये मया जीवा विराधिताः एकेन्द्रियाः, द्वीन्द्रियाः, त्रीन्द्रियाः, चतुरिन्द्रियाः, पञ्चेन्द्रियाः, अभिहताः, वर्तिताः, श्लेषिताः, संघातिताः, सघट्टिताः, परितापिताः, क्लामिताः, अवद्राविताः, स्थानात् स्थान सक्रामिताः, जीविताद् व्यपरोपिताः, तस्य मिथ्या मे दुष्कृतम् ।
तस्स उत्तरी-कायोत्सर्ग-सूत्र तस्य उत्तरीकरणेन, प्रायश्चित्त-करणेन, विशोधी-करणेन, विशल्यी-करणेन, पापानां कर्मणां निर्घातनार्थाय, तिष्ठामि कायोत्सर्गम् ।
[७] अन्नत्थ ऊससिएणं-आकार-सूत्र अन्यत्र उच्छ वसितेन, निःश्वसितेन, कासितेन, क्ष तेन, जम्भितेन, उद्गारितेन,
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सस्कृतच्छायानुवाद
वातनिसर्गण, भ्रमर्या, पित्तमूर्छया, सूक्ष्मैः अगसचालैः, सूक्ष्मः श्लेष्मसवालः, सूक्ष्मः दृष्टि-संचालैः, एवमादिभिः प्राकारैः अभग्नः अविराधितः, भवतु मे कायोत्सर्गः। यावदर्हतां भगवतां नमस्कारेण न पारयामि, तावत्कायं, स्थानेन, मौनेन, ध्यानेन, आत्मानं व्युत्सृजामि !
[८] लोगस्स-चतुर्विंशतिस्तव-सूत्र लोकस्य उद्द्योतकरान्
धर्म-तीर्थकरान् जिनान् । अर्हतः कोर्तयिष्यामि,
चतुर्विंशतिमपि केवलिनः ॥१॥ ऋषभमजितं च वन्दे,
संभवमभिनदनं च सुमतिं च । पद्म प्रभं सुपार्श्व,
जिनं च चन्द्रप्रभं वन्दे ॥२॥ सुविधि च पुष्पदन्त,
शीतलं, श्रेयांसं, वासुपूज्यं च । विमलमनन्तं च जिनं,
धर्म शान्ति च वन्दे ॥३॥
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२९८
परिशिष्ट
कुन्थुमर च मल्लि,
वन्दे मुनिसुव्रत नमिजिन च । वन्दे अरिष्टनेमि,
पार्श्व तथा वर्द्धमान च ॥४॥ एव मया अभिष्टुताः,
. विधूतरजोमलाः प्रहीणजरामरणाः। चतुर्विशतिरपि जिनवराः,
तीर्थकराः मयि प्रसीदन्तु ॥५॥ कीर्तिताः, वन्दिताः, महिताः,
ये एते लोकस्य उत्तमाः सिद्धाः । आरोग्य-बोधि-लाभ,
समाधिवरमुत्तम ददतु ॥६॥ चन्द्रभ्यो निर्मलतराः,
आदित्येभ्योऽधिक प्रकाशकराः। सागरवर-गम्भीरा, सिद्धाः सिद्धि मम दिशन्तु ॥७॥
[६] करेमि भन्ते-सामायिक-सूत्र करोमि भदन्त ! सामायिकम्, सावध योग प्रत्याख्यामि, यावन्नियम पर्युपासे, द्विविध, त्रिविधेन, मनसा, वाचा, कायेन, न करोमि, न कारयामि, तस्य भदन्त ! प्रतिक्रमामि निन्दामि गहें, आत्मान व्युत्सृजामि।
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संस्कृत-च्छायानुवाद
[१०] नमोत्थुण-प्रणिपात-सूत्र
नमोऽस्तुअर्हद्भ्यः, भगवद्भ्यः, आदिकरेभ्य , तीर्थकरेभ्यः, स्वयसम्बुद्धेभ्यः, पुरुषोत्तमेभ्यः, पुरुषसिंहेभ्यः, पुरुषवरपुण्डरीकेभ्यः पुरुषवरगन्धहस्तिभ्यः, लोकोत्तमेभ्यः, लोकनाथेभ्यः, लोकहितेभ्यः, लोकप्रदीपेभ्यः, लोकप्रद्योतकरेभ्यः, अभयदेभ्यः, चक्ष र्देभ्यः, मार्गदेभ्यः, शरणदेभ्यः जीवदेभ्यः बोधिदेभ्यः धर्मदेभ्यः, धर्मदेशकेभ्यः, धर्मनायकेभ्यः, धर्मसारथिभ्यः, धर्मवर-चतुरन्त-चक्रवतिभ्यः, [ द्वीप-त्राण-शरण-गति-प्रतिष्ठेभ्यः, ] अप्रतिहत-वर-ज्ञान-दर्शन-धरेभ्यः, व्यावृत्त-छद्मभ्यः, जिनेभ्यः, जापकेभ्यः, तीर्णेभ्य., तारकेभ्यः, बुद्ध भ्यः, बोधकेभ्यः, मुक्तेभ्यः, मोचकेभ्यः, सर्वज्ञभ्यः सर्वदर्शिभ्यः, शिवमचलमरुजमनन्तमक्षयमव्याबाधम्अपुनरावृत्ति-सिद्धिगतिनामधेयं स्थान सप्राप्तेभ्यः, नमो जिनेभ्यः, जितभयेभ्यः ।
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परिशिष्ट
[ ११ ] सामायिक-सम्पन्न-सूत्र
: १: एतस्य नवमस्य सामायिकव्रतस्यपञ्च अतिचाराः ज्ञातव्याः, न समाचरितव्याः तद्यथा१-मनो-दुष्प्रणिधानम्, २–वचो-दुष्प्रणिधानम्, ३-काय-दुष्प्रणिधानम्, ४-सामायिकस्य स्मृत्यकरणता, ५-सामायिकस्य अनवस्थितस्य करणता, तस्य मिथ्या मम दुष्कृतम्,
सामायिक सम्यक्-कायेन न स्पृष्ट, न पालितम्, न तीरित, न कीर्तितम्, न शोधित, न आराधितम्, आज्ञया अनुपालितं न भवति, तस्य मिथ्या मम दुष्कृतम् ।
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३
सामायिक-सत्र:हिंदी पद्यानुवाद
-
नमस्कार सूत्र
[कुकुभ की ध्वनि नमस्कार हो अरिहन्तो को,
राग-द्वष - रिपु-सहारी । नमस्कार हो श्री सिद्धो को,
अजर अमर नित अविकारी । नमस्कार हो प्राचार्यो को,
सघ-शिरोमणि आचारी ! नमस्कार हो उवज्झायो को,
अक्षय श्रु त-निधि के धारी ! नमस्कार हो साधु सभी को,
जग मे जग-ममता मारी ! त्याग दिए वैराग्य-भाव से,
भोग-भाव सब ससारी । पाँच पदो को नमस्कार यह,
___ नष्ट करे कलि-मल भारी ! मगलमूल अखिल मगल मे
पापभीरु जनता तारी !
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३०२
: २
सम्यक्त्व-सूत्र [ पीयूषवर्ष की ध्वनि ]
देव मम अर्हन् विजेता कर्म के, साधुवर गुरुदेव धारक धर्म के ! जिन - प्रभाषित धर्म केवल तत्व है, ग्रहण की मैंने यही सम्यक्त्व है !
३ :
गुरुगुणस्मरण-सूत्र [ दिक्पाल की ध्वनि ] चंचल, चपल, हठीली नित पाँच इन्द्रियो का -
सवर - नियत्रणा से भव- विष उतारते हैं ! नव गुप्ति शील व्रत का सादर सदैव पाले,
कलुषित कषाय चारो दिन-रात टारते हैं ! पाँचो महाव्रतो के धारक सुधैर्य-शाली,
आचार पाँच पाले जीवन सुधारते हैं ! गुरुदेव पाँच समिती तीनो सुगुप्ति धारी, छत्तीस गुरण विमल हैं, शिव-पथ संवारते है !
: ४
गुरुवन्दन - सूत्र [ लावनी की ध्वनि ]
तीन वार गुरुवर ! प्रदक्षिणा,
श्रादक्षिण में करता हूँ ! वन्दन, नति, सत्कार और,
सम्मान हृदय से करता हूँ !
परिशिष्ट
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सामायिक-सूत्र : हिन्दी पद्यानुवाद
३०३
मगल-मय, कल्याण-रूप,
देवत्व-भाव के धारक हो ! ज्ञान-रूप हो, प्रबल अविद्या
अन्धकार - सहारक हो ! पर्युपासना श्री चरणो की,
एकमात्र जीवन-धन है ! हाथ जोडकर शीश झुका कर
बार बार अभिवन्दन है !
आलोचना-सूत्र
[चन्द्रमणि की ण्वनि ] आज्ञा दीजे हे प्रभो । प्रतिक्रमण की चाह है, ईर्यापथ-आलोचना, करने का उत्साह है । आज्ञा मिलने पर करूं प्रतिक्रमण प्रारंभ मै, आते पथ गन्तव्य मे, किया जीव प्रारभ मैं ! प्राणी, बीज तथा हरित, ओस, उतिंग, सेवाल का, किया विमर्दन मत्तिका, जल, मकडी के जाल का! एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय तथा त्रीन्द्रिय की सीमा नही, चतुरिन्द्रिय, पचेन्द्रिय नष्ट हुए हो यदि कही ! सम्मुख आते जो हने और ढके हो धूल से, मसले हो यदि भूमि पर, व्यथित हुए हो भूल से ।
आपस मे टकरा दिए, छ कर पहुंचाई व्यथा, पापो की गणना कहाँ, लम्बी है अब भी कथा ! दी हो कटु परितापना, ग्लानि, मरण सम भी किए, त्रास दिया, इक स्थान से अन्य स्थान हटा दिए । अधिक कहूँ क्या प्राण भी, नष्ट किए निर्दय वना, दुरस्कृत हो मिथ्या सकल, अमल सफल हो साधना।
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३०४
६ कायोत्सर्ग-सूत्र
[छप्पय को ध्वनि ]
पापमग्न निज आत्म-तत्त्व को विमल बनाने, प्रायश्चित्त ग्रहरण कर अन्तर ज्ञान ज्योति जगाने ।
ध्यान लगाने, द्वन्द्व मिटाने !
पूर्ण शुद्धि के हेतु समुज्ज्वल शल्य - रहित हो पाप कर्म का राग-द्वेष-सकल्प तज, कर समता - रस पान, स्थिर हो कायोत्सर्ग का करू पवित्र विधान !
७
आगार-सूत्र
[ रूपमाला की ध्वनि ]
नाथ | पामर जीव है यह, भ्रान्ति का भडार, अस्तु, कायोत्सर्ग मे कुछ, प्राप्त है आगार ! श्वास ऊँचा, श्वास नीचा, छीक अथवा काश, जृम्भरणा, उद्गार, वातोत्सर्ग, भ्रम मतिनाश | पित्तमूर्च्छा, और अरण भी अग का सचार; श्लेष्म का और दृष्टि का यदि सूक्ष्म हो प्रविचार ! अन्य भी कारण तथाविध है अनेक प्रकार, चचलाकृति देह जिनसे शीघ्र हो सविकार । भाव कायोत्सर्ग मम, हो, पर अखड श्रभेद्य, भावना - पथ है सुरक्षित देह ही है भेद्य 1 जाव कायोत्सर्ग, पढ नवकार ना लू पार, ताव स्थान, सुमौन से स्थित ध्यान की झनकार 1
ܦ
देह का सब भान भूलूं, साधना इक तार, आत्म-जीवन से हटाऊँ, पाप का व्यापार !
परिशिष्ट
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सामायिक-सूत्र : हिन्दी पद्यानुवाद
३०५
:८:
चतुर्विंशतिस्तव-सूत्र
[हरिगीतिका की ध्वनि ] ससार मे उद्द्योत-कर श्रीधर्म-तीर्थकर महा; चौबीस अर्हन् केवली बन्दू अखिल पापापहा ! श्री आदि नरपु गव ऋषभ जिनवर अजित इन्द्रियजयी ; सभव तथा अभिनन्द जी शोभा अमित महिमामयी। श्री सुमति, पद्म, सुपार्श्व, चन्द्रप्रभ, सुविधि जिनराज का ; शीतल तथा श्रेयास का तप तेज है दिनराज का! श्री वासुपूज्य, विमल, अनन्त, अनन्तज्ञानी धर्म जी; श्री शान्ति, कुन्थु तथैव अर, मल्ली, नशाए कर्म जी ! भगवान् मुनिसुव्रत, गुणी नमि, नेमि, पार्श्व जिनेश को; वर वन्दना है भक्ति से श्री वीर धर्म-दिनेश को! हो कर्ममल-विरहित जरा-मरणादि सब क्षय कर दिए ; चौबीस तीर्थ कर जिनेन्द्र कृपालु हो गुण-स्तुति किए ! कीर्तित, महित, वन्दित सदा ही सिद्ध जो हैं लोक में; आरोग्य, बोधि, समाधि, उत्तम दे, न आएं शोक मे ! राकेश से निर्मल अधिक उज्ज्वल अधिक दिवसेश से; व्यामोह कुछ भी है नही, गभीर सिन्धु जलेश से ! ससार की मधु-वासना अन्तर्ह दय मे कुछ नही , श्री सिद्ध तुम–सी सिद्धि मुझको भी मिले आशा यही !
सामायिक प्रतिज्ञा-सूत्र [ घनाक्षरी की ध्वनि ]
भगवन् । सामायिक करता हू समभाव,
पापरूप व्यापारो की कल्पना हटाता हूँ !
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३०६
यावत् नियम धर्म - ध्यान की उपासना है, युगल पापकारी कर्म मन, वच और तन द्वारा,
कररण तीन योग से निभाता
सामायिक सूत्र
करके प्रतिक्रमण, निन्दा तथा गर्हणा में,
स्वय नही करता हू और न कराता हूँ !
१०
प्रणिपात सूत्र [ रोला की ध्वनि ]
पापात्मा को वोसिरा के विशुद्ध बनाता हूँ !
नमस्कार हो आदि धर्म की कर्ता श्री स्वयबुद्ध हैं, भूतल के पुरुष - सिंह है, पुरुषो मे पुरुषो मे है श्रेष्ठ गन्धहस्ती से स्वामी, लोकोत्तम हैं, लोकनाथ है, जगहित - कामी ! लोक - प्रदीपक है, प्रति उज्ज्वल लोक-प्रकाशक अभयदान के दाता अन्तर चक्षु - विकाशक । मार्ग, शरण, सद्बोधि, धर्म, जीवन के दाता, सत्य धर्म के उपदेशक, अधिनायक त्राता । धर्म-प्रवर्तक, धर्म - चक्रवर्ती द्वीप - त्राण - गति-शरण-प्रतिष्ठामय
श्रेष्ठ तथा ग्रनिरुद्ध ज्ञान दर्शन के धारी, छद्मरहित, प्रज्ञान भ्रान्ति की सत्ता टारी । राग-द्वेप के जेता और जिताने वाले, भवसागर से तीर्णं तथैव तिराने वाले । स्वय बुद्ध हो, बोध भव्य जीवो को दीना,
Phco
वीतराग ग्रर्हन् भगवन् को,
तीर्थ कर जिन को । पुरुषो में उत्तम, अरविन्द महत्तम ।
!
जग-जेता,
शिवनेता !
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सामायिक-सूत्र · हिन्दी पद्यानुवाद
मुक्त और मोचक का पद भी उत्तम लीना !
लोकालोक - प्रकाशी
केवलदर्शी परम अहिंसक मगल-मय, अविचचल, शून्य
अविचल केवलज्ञानी; शुक्ल - ध्यानी ! सकल रोगो से,
अक्षय, और अनन्त रहित बाधा योगो से ! एक बार जा वहाँ, न फिर जग मे आए हैं; सर्वोत्तम वह स्थान मोक्ष का अपनाए हैं । ( 'एक बार जा वहाँ, न फिर जग मे आना है, सर्वोत्तम वह स्थान मोक्ष का अपनाना है | ) नमस्कार हो श्री जिन अन्तर- रिपु जयकारी, अखिल भयो को जीत पूर्ण निर्भयता धारी !
११
समाप्ति - सूत्र [ घनाक्षरी की ध्वनि ] ( १ ) सामायिक व्रत का समग्र काल पूरा हुआ,
भूल चूक जो भी हुई आलोचना करू में, । मन, वच, तन बुरे मार्ग मे प्रवृत्त हुए,
अन्तरग शुद्धि की विभग्नता से डरूँ मैं । ॥ स्मृतिभ्रश तथा व्यवस्थिति - हीनता के दोष,
पश्चात्ताप कर पाप-कलिमा से ट मैं, अखिल दुरित मम शीघ्र ही विफल होवे,
अतल असीम भवसागर से तरू में || ( २ ) सामायिक भली भाँति उतारी न अन्तर मे,
स्पर्शन, पालन, यथाविधि पूर्ण की नही, ।
१ - उक्त कोष्ठांकित पाठान्तर अरिहन्तों के लिए है ।
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३०८
सामायिक-सूत्र
वीतराग, वचनो के अनुसार कीर्तना की,
शुद्धि की, आराधना की दिव्य ज्योति ली नही !! ससार की ज्वालाओ से पिपासित हृदय ने,
शान्तिमूल समभावना की सुधा पी नही; । आलोचना, अनुताप करता हूं बार-बार,
साधना मे क्यो न सावधान वृत्ति की नही !!
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सामायिक पाठ
[प्राचार्य अमितगति ] सत्त्वेषु मैत्री गुणिषु प्रमोद,
क्लिष्टेषु जीवेषु कृपापरत्वम् । माध्यस्थ्य-भावं विपरीतवृत्तौ
सदा ममात्मा विदधातु देव ॥१॥ -हे जिनेन्द्र देव । मैं यह चाहता हूँ कि यह मेरी आत्मा सदैव प्राणिमात्र के प्रति मित्रता का भाव, गुणी-जनो के प्रति प्रमोद का भाव, दुखित जीवो के प्रति करुणा का भाव, और धर्म से विपरीत पाचरण करने वाले अधर्मी तथा विरोधी जीवो के प्रति राग-द्वेषरहित उदासीनता का भाव धारण करे। शरीरतः कर्तु मनन्त-शक्ति,
विभिन्नमात्मानमपास्तदोषम् । जिनेन्द्र | कोषादिव खगयष्टि,
तव प्रसादेन ममास्तु शक्ति : ॥२॥ -हे जिनेन्द्र आपकी स्वभाव-सिद्ध कृपा से मेरी आत्मा मे ऐसा आध्यात्मिक बल प्रकट हो कि मैं अपनी प्रात्मा को कार्मरण शरीर आदि से उसी प्रकार अलग कर सकूँ, जिस प्रकार म्यान से-तलवार अलग की जाती है। क्योकि, वस्तुत मेरी आत्मा अनन्त शक्ति से
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३१०
सामायिक-सूत्र
सम्पन्न है, और सम्पूर्ण दोषो से रहित होने के कारण निर्दोष वीतराग
दुःखे सुखे वैरिणि बन्धुवर्ग,
योगे वियोगे भवने वने वा। निराकृताशेष-ममत्व-बुद्ध,
सम मनो मेऽस्तु सदाऽपि नाथ ॥३॥ -हे नाथ । ससार की समस्त ममता-बुद्धि को दूर करके मेरा मन सदा काल दु ख मे, सुख मे, शो मे, बन्धुप्रो मे, सयोग मे, वियोग मे, घर मे, वन मे सर्वत्र राग-द्वेष की परिणति को छोडकर सम बन जाए! मुनीश ! लीनाविव कीलिताविव,
स्थिरौ निखाताविव बिम्विताविव । पादौ त्वदीयो मम तिष्ठतां सदा,
तमो धुनानौ हृदि दीपकाविव ॥४॥ -हे मुनीन्द्र । अज्ञान अन्धकार को दूर करने वाले आपके चरणकमल दीपक के समान है, अतएव मेरे हृदय मे इस प्रकार बसे रहे, मानो हृदय मे लीन होगए हो, कील की तरह गड गए हो, वैठ गए, हो, या प्रतिबिम्बित हो गए हो ।
एकेन्द्रियाद्या यदि देव ! देहिनः,
प्रमादतः सचरता इतस्ततः। क्षता विभिन्ना मिलिता निपीडितास्
तदस्तु मिथ्या दुरनुष्ठितं तदा ॥५॥ -हे जिनेन्द्र | इधर उधर प्रमादपूर्वक चलते-फिरते मेरे से यदि एकेन्द्रिय प्रादि प्राणी नष्ट हुए हो, टुकड़े किये गए हो, निर्दयतापूर्वक मिला दिए गए हो, कि बहुना, किसी भी प्रकार से दुखित किए हो, तो वह सव दुष्ट आचरण मिथ्या हो ।
विमुक्तिमार्ग-प्रतिकूल-वतिना,
मया कषायाक्षवशेन दुधिया।
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सामायिक पाठ
चारित्र शुद्ध र्यदकारि लोपनं, तदस्तु मिथ्या मम दुष्कृत प्रभो ! ॥६॥
- हे प्रभो । मैं दुर्बुद्धि हूँ, मोक्षमार्ग से प्रतिकूल चलने व हूँ, अतएव चार कषाय और पाँच इन्द्रियो के वश में होकर मैंने कुछ भी अपने चारित्र की शुद्धि का लोप किया हो, वह सब दुष्कृत मिथ्या हो !
विनिन्दनालोचन—गर्हरह, मनोवचः काय -- कषायनिमितम् ।
निहन्मि पाप भवदु.खकारणं,
भिषग् विष मंत्रगुणैरिवाखिलम् ॥७॥
- मन, वचन, शरीर एव कषायो के द्वारा जो कुछ भी ससार दुःख का कारणभूत पापाचरण किया गया हो, उस सब को नि आलोचना और गर्दा के द्वारा उसी प्रकार नष्ट करता हूँ, जिस प्रक कुशल वैद्य मत्र के द्वारा अग अग मे व्याप्त समस्त विष को दूर देता है !
अतिक्रम यं विमतेर्व्यतिक्रम, जिनातिचार सुचरित्रकर्मणः ।
व्यधामनाचारमपि प्रमादतः,
प्रतिक्रम तस्य करोमि शुद्धये ॥८॥
हे जिनेश्वर देव । मैंने विकार-बुद्धि से प्रेरित होकर शुद्ध चारित्र मे जो भी प्रमाद वश प्रतिक्रम, व्यतिक्रम, प्रतिचार अं प्रनाचार रूप दोष लगाए हो, उन सव की शुद्धि के लिए प्रतिक्रम करता हूँ
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क्षति मन. शुद्धिविधेरतिक्रम, व्यतिक्रमं शीलवृतेविलङ्घनम् । प्रभोऽतिचारं विषयेषु वर्तन, वदन्त्यनाचारमिहातिसक्तताम् ॥६॥
- हे प्रभो ! मन की शुद्धि मे क्षति होना प्रतिक्रम है, शील-वृ
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सामायिक-सूत्र
का अर्थात् स्वीकृत प्रतिज्ञा के उल्लघन का भाव व्यतिक्रम है, विषयों मे प्रवृत्ति करना अतिचार है, और विषयो मे अतीव आसक्त हो जाना-निरर्गल हो जाना-अनाचार है !
यदर्थमात्रापदवाक्य-हीन,
मया प्रमादाद्यदि किंचनोक्तम् । तन्मे क्षत्मिवा विदधातु देवी,
सरस्वती केवल-बोध-लब्धिम् ॥१०॥ -~-यदि मैंने प्रमाद-वश होकर अर्थ, मात्रा, पद और वाक्य से हीन या अधिक कोई भी वचन कहा हो, तो उसके लिए जिन-वाणी मुझे क्षमा करे और केवल ज्ञान का अमर प्रकाश प्रदान करे ।
बोधिः समाधिः परिणामशुद्धिः,
स्वात्मोपलब्धिः शिवसौख्यसिद्धिः । चिन्तामणि चिन्तितवस्तुदाने,
त्वां वन्द्यमानस्य ममास्तु देवि ! ॥११॥ हे जिनवाणी देवी ! मैं मुझे नमस्कार करता हूँ। तू अभीष्ट वस्तु के प्रदान करने मे चिन्तामणि-रत्न के समान है । तेरी कृपा से मुझे रत्नत्रय-रूप बोधि, आत्मलीनता-रूप समाधि, परिणामो की पवित्रता, आत्म-स्वरूप का लाभ और मोक्ष का सुख प्राप्त हो!
यः स्मर्यते सर्वमुनीन्द्र-वृन्दर्
यः स्तूयते सर्वनरामरेन्द्रः। यो गीयते वेद-पुराण-शास्त्र :
स देवदेवो हृदये ममास्ताम् ॥१२॥ -जिस परमात्मा को ससार के सव मुनीन्द्र स्मरण करते है, जिसकी नरेन्द्र और सुरेन्द्र तक भी स्तुति करते हैं, और जिसकी महिमा ससार के समस्त वेद, पुराण एव शास्त्र गाते है, वह देवो का भी आराध्य देव वीतराग भगवान् मेरे हृदय मे विराजमान होवे !
यो दर्शन-ज्ञान-सुख-स्वभावः,
समस्तसंसार-विकार-बाह्यः ।
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सामायिक पाठ
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समाधिगम्यः परमात्म-संज्ञ:,
स देवदेवो हृदये ममास्ताम् ॥१३॥ -जो अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन और अनन्त सुख का स्वभाव धारण करता है, जो ससार के समस्त विकारो से रहित है, जो निर्विकल्प समाधि (ध्यान की निश्चलता) के द्वारा ही अनुभव में आता है, वह परमात्मा देवाधिदेव मेरे हृदय में विराजमान होवे !
निषूदते यो भवदुःख-जाल,
निरीक्षते यो जगदन्तरालम् । योऽन्तर्गतो योगिनिरीक्षणीयः,
स देवदेवो हृदये ममास्ताम् ॥१४॥ -जो ससार के समस्त दुख-जाल को विध्वस्त करता है, जो त्रिभुवनवर्ती सब पदार्थो को देखता है, और जो अन्तर्हदय मे योगियो द्वारा निरीक्षण किया जाता है, वह देवाधिदेव मेरे हृदय में विराजमान होवे ।
विमुक्ति-मार्ग-प्रतिपादको यो,
यो जन्ममृत्यु-व्यसनाद् व्यतीतः । त्रिलोकलोको विकलोऽकलङ्कः,
स देवदेवो हृदये ममास्ताम् ॥ १५ ॥ -जो मोक्ष-मार्ग का प्रतिपादन करने वाला है, जो जन्म-मरणरूप आपत्तियो से दूर है, जो तीन लोक का द्रष्टा है, जो शरीर-रहित है और निष्कलक है, वह देवाधिदेव मेरे हृदय में विराजमान होवे ।
क्रोडीकृताशेष शरीरि-वर्गा ,
रागादयो यस्य न सन्ति दोषाः । निरिन्द्रियो ज्ञानमयोऽनपायः,
स देवदेवो हृदये ममास्ताम् ।।१६।। -समस्त ससारी जीवो को अपने नियत्रण मे रखने वाले रागादि दोष जिसमे नाममात्र को भी नही है, जो इन्द्रिय तथा मन से रहित है,
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सामायिक सूत्र
- हे भद्र | यदि वस्तुत देखा जाए तो समाधि का साधन न आसन है, न लोक - पूजा है, और न संध का मेल-जोल ही है । अतएव तू तो ससार की समस्त वासनाओ का परित्याग कर निरन्तर अध्यात्मभाव मे लीन रह ।
३१६
न सन्ति बाह्याः मम केचनार्था,
भवामि तेषां न कदाचनाहम् ।
इत्थं विनिश्चित्य विमुच्य बाह्य,
स्वस्थः सदा त्वं भव भद्र ! मुक्त्यै ॥२४॥
- संसार मे जो भी बाह्य भौतिक पदार्थ है, वे मेरे नही हैं और न मैं ही कभी उनका हो सकता हूँ - इस प्रकार हृदय मे निश्चय ठान कर हे भद्र । तू वाह्य वस्तुओ का त्याग कर दे और मोक्ष की प्राप्ति के लिए सदा आत्म-भाव मे स्थिर रह ।
श्रात्मानमात्मन्यवलोक्यमानस्
त्वं दर्शन ज्ञानमयो विशुद्धः ।
एकाग्रचित्तः खलु यत्र-तत्र,
स्थितोऽपि साधुर्लभते समाधिम् ||२५||
- जब तू अपने को अपने ग्राप मे देखता है, तव तू दर्शन और ज्ञान रूप हो जाता है, पूर्णतया शुद्ध हो जाता है । जो साधक अपने चित्त को एकाग्र बना लेता है, वह जहाँ कही भी रहे, समाधि-भाव को प्राप्त कर लेता है ।
एकः सदा शाश्वतिको ममात्मा,
विनिर्मलः साधिगमस्वभावः । बहिर्भवाः सन्त्यपरे समस्ता,
न शाश्वता कर्मभवा स्वकीयाः ||२६||
- मेरी आत्मा सदैव एक है, अविनाशी है, निर्मल है और केवल ज्ञान-स्वभाव है । जो कुछ भी वाह्य पदार्थ है, सव आत्मा से भिन्न हैं । कर्मोदय से प्राप्त, व्यवहार दृष्टि से अपने कहे जाने वाले जो भी वाह्य-भाव है, सब अशाश्वत है, अनित्य है ।
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समायिक पाठ
यस्यास्ति नक्य वपुषाऽपि सार्द्ध,
___ तस्यास्ति किं पुत्र-कलत्र मित्र: ? पृथक्कृते चमरिण रोमकूपाः,
कुतो हि तिष्ठन्ति शरीरमध्ये ॥२७।। -जिसकी अपने शरीर के साथ भी एकता नही है, भला उस आत्मा का पुत्र, स्त्री और मित्र आदि से तो सम्बन्ध ही क्या हो सकता है ? यदि शरीर के ऊपर से चमडा अलग कर दिया जाए, तो उसमे रोम-कूप कसे ठहर सकते हैं ? बिना आधार के प्राधेय कैसा?
संयोगता दुःखमनेकभेद,
यतोऽश्नुते जन्मवने शरीरी । ततस्त्रिधाऽसौ परिवर्जनीयो,
यियासुना निर्वृतिमात्मनीनाम् ॥२८॥ -ससार रूपी वन मे प्राणियो को जो यह अनेक प्रकार का दुख भोगना पडता है, वह सब सयोग के कारण है, अतएव अपनी मुक्ति अभिलाषियो को यह सयोग मन, वचन एव शरीर तीनो ही प्रकार से छोड देना चाहिए।
सर्व निराकृत्य विकल्पजाल,
ससार-कान्तार-निपातहेतुम् । विविक्तमात्मानमवेक्ष्यमारणो,
निलीयसे त्व परामात्म-तत्त्वे ॥२६॥ -ससार--रूपी वन मे भटकाने वाले सब दुर्विकल्पों का त्याग करके तू अपनी आत्मा को पूर्णतया जड से भिन्न रूप मे देख और परमात्मतत्त्व मे लीन हो।
स्वयं कृतें कर्म यदात्मना पुरा,
फलं तदीय लभते शुभाशुभम् । परेण दत्त यदि लभ्यते स्फुटं,
__ स्वयं कृत कर्म निरर्थकं तदा ॥३०॥ -आत्मा ने पहले जो कुछ भी शुभाशुभ कर्म किया है, उसी का
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सामायिक सूत्र
अथवा अतीन्द्रिय है, जो ज्ञानमय है और अविनाशी है, वह देवाधिदेव मेरे हृदय मे विराजमान होवे |
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,
यो व्यापको विश्वजनीनवृत्तिः सिद्धो विबुद्धो धुत - कर्मबन्धः । ध्यातो धुनीते सकल विकार,
स देवदेवो हृदये ममास्ताम् ॥ १७ ॥
- जो विश्व - ज्ञान की दृष्टि से अखिल विश्व मे व्याप्त है, जो विश्व-कल्याण की भावना से ओत-प्रोत होता है, सिद्ध है, बुद्ध है, कर्म - बन्धनो से रहित है, जिसका ध्यान करने पर समस्त विकार दूर हो जाते है, वह देवाधिदेव मेरे अन्तर्मन में विराजमान होवे |
न स्पृश्यते कर्मकलङ्कदोषैर्,
यो ध्वान्तसघैरिव तिग्मरश्मिः । निरञ्जनं नित्यमनेकमेक,
त देवमाप्त शरण प्रपद्ये ॥ १८ ॥
- जो कर्म-कलक-रूपी दोषो के स्पर्श से उसी प्रकार रहित है, जिस प्रकार प्रचण्ड सूर्य अन्धकार - समूह के स्पर्श से रहित होता है, जो निरजन है, नित्य है, तथा जो गुरणो की दृष्टि से अनेक है और द्रव्य की दृष्टि से एक है, उस परम सत्य - रूप प्राप्तदेव की शरण मै स्वीकार करता हूँ ।
.
विभासते यत्र मरीचिमालि
न्यविद्यमाने
बोध मयप्रकाशं,
तं देवमाप्त शरण प्रपद्ये ॥ १६ ॥
IN
- लौकिक सूर्य के न रहते हुए भी जिसमे तीन लोक को प्रकाशित करने वाला केवल ज्ञान का सूर्य प्रकाशमान हो रहा है, जो निश्चय नय की अपेक्षा से अपने आत्म-स्वरूप मे ही स्थित है, उस आप्त देव की शरण में स्वीकार करता हूँ ।
भुवनावभासि ।
स्वात्मस्थित
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समायिक पाठ
३१५
विलोक्यमाने सति यत्र विश्वं,
विलोक्यते स्पष्ट मिद विविक्तम् । शुद्ध शिव शान्तमनाद्यनन्तं,
तं देवमाप्तं शरणं प्रपद्य ॥२०॥ -जिसके ज्ञान मे सम्पूर्ण विश्व अलग-अलग रूप मे स्पष्टतया प्रतिभासित होता है, और जो शुद्ध है, शिव है, शान्त है, अनादि है, अनन्त है, उस प्राप्त देव की शरण मैं स्वीकार करता हूँ।
येन क्षता मन्मथ-मान-मूर्छा,
विषाद-निद्रा-भय-शोक-चिन्ता । क्षय्योऽनलेनेव तरू-प्रपञ्चस्
त देवमाप्त शरणं प्रपद्य ॥२१॥ -जिस प्रकार दावानल वृक्षो के समूह को भस्म कर डालता है, उसी प्रकार जिसने काम, मान, मूर्छा, विषाद, निद्रा, भय, शोक और चिन्ता को नष्ट कर डाला है, उस प्राप्त देव की शरण मैं स्वीकार करता हूँ।
न संस्तरोऽश्मा न तृरणं न मेदिनी,
विधानतो नो फलको विनिर्मितः । यतो निरस्ताक्षकषाय-विद्विषः,
सुधीभिरात्मैव सुनिर्मलो मतः॥२२॥ -सामायिक के लिए विधान के रूप मे न तो पत्थर की शिला को आसन माना है, और न तृण, पृथ्वी, काष्ठ आदि को । निश्चय दृष्टि के विद्वानो ने उस निर्मल प्रात्मा को ही सामायिक का आसन
आधार माना है, जिसने अपने इन्द्रिय और कषाय-रूपी शत्र प्रो को पराजित कर दिया है।
न संस्तरो भद्र ! समाधिसाधन,
न लोकपूजा न च संघमेलनम् । यतस्ततोऽध्यात्मरतो भवानिश,
विमुच्य सर्वामपि बाह्यवासनाम् ॥२३॥
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समायिक-सूत्र
शुभाशुभ फल वह प्राप्त करता है। यदि कभी दूसरे का दिया हुआ फल प्राप्त होने लगे, तो फिर निश्चय ही अपना किया हुअा कर्म निरर्थक हो जाए।
निजाजित कर्म विहाय देहिनो,
न कोऽपि कस्यापि ददाति किचन । विचारयन्नेवमनन्य—मानसः,
परो ददातीति विमु च शेमुषोम् ।।३१।। -ससारी जीव अपने ही कृत-कर्मों का फल पाते है, इसके अतिरिक्त दूसरा कोई किसी को कुछ भी नहीं देता। हे भद्र ! तुझे यही विचारना चाहिए। और अनन्यमन यानी अचचल चित्त होकर 'दूसरा कुछ देता है'--यह बुद्धि छोड देनी चाहिए।
यैः परमात्माऽमितगतिवन्धः,
सर्व-विविक्तो भृशमनवद्यः । शश्वदधीतो मनसि लभन्ते,
मुक्तिनिकेत विभववरं ते ॥३२॥ -जो भव्य प्राणी अपार ज्ञान के धर्ता अमितगति गणधरो से वन्दनीय, सब प्रकार की कर्मोपाधि से रहित, और अतीव प्रशस्य परमात्म-रूप का अपने मन मे निरन्तर ध्यान करते है, वे मोक्ष की सर्वश्रेष्ठ लक्ष्मी को प्राप्त करते है।
विशेष यह सामायिक-पाठ आचार्य अमितगति का रचा हुआ है। प्राचार्य ने आध्यात्मिक भावनायो का कितना सुन्दर चित्रण किया है, यह हरेक सहृदय पाठक भली भाँति जान सकता है ।
आजकल दिगम्बर जैन-परम्परा मे इसी पाठ के द्वारा सामायिक की जाती है। दिगम्वर-परम्परा मे सामायिक के लिए कोई विशेष विधान नही है । केवल इतना ही कहा जाता है कि एकान्त स्थान में पूर्व या उत्तर को मुख करके दोनो हाथो को लटका कर जिन-मुद्रा से खड़े हो जाना चाहिए। और मन मे यह नियम लेना चाहिए कि जब
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सामायिक पाठ
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तक ४८ मिनट सामायिक की क्रिया करूंगा, तब तक मुझे अन्य स्थान पर जाने का और हिंसा आदि का त्याग है।
तदनन्तर, नौ बार या तीन बार दोनो हाथ जोड कर तीन आवर्त और एक शिरोनति करे । आवर्त का अर्थ-बाई ओर से दाहिनी ओर हाथो को घुमाना है । इस प्रकार तीन आवर्त और एक शिरोनति की क्रिया को प्रत्येक दिशा मे तीन-तीन बार करना चाहिए। पुन पूर्व या उत्तर दिशा की ओर मुख करके पद्मासन से बैठ कर पहले प्रस्तुत सामायिक-पाठ पढ़ना चाहिए और बाद मे माला आदि से जप करना चाहिए।
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प्रयुक्त ग्रन्थों की सूची
१ रत्नकरण्ड श्रावकाचार - प्राचार्य समन्तभद्र २ प्रवचनसार - तात्पर्यवृत्ति - प्राचार्य जयसेन ३ सूत्रकृताङ्गसूत्र - टीका - आचार्य शीलाडू ४. आवश्यक - निर्युक्ति - आचार्य भद्रबाहु ५ दशवैकालिक - टीका - आचार्य हरिभद्र ६. पञ्चाशक – आचार्य हरिभद्र
७. शास्त्रवार्ता, समुच्चय - प्राचार्य हरिभद्र ८ अष्टक प्रकरण-आचार्य हरिभद्र ६ षोडशक - प्रकरण - प्राचार्य हरिभद्र १० व्यवहारभाष्य - टीका - प्राचार्य मलयगिरि ११ प्रतिक्रमणसूत्र - वृत्ति - प्राचार्य नमि १२. सामायिक - पाठ - श्राचार्य श्रमितगति १३ तत्त्वार्थ-सूत्र—प्राचार्य उमास्वाति १४ योग - शास्त्र – प्राचार्य हेमचन्द्र
१५. आवश्यक बृहद्वृत्ति - प्राचार्य हरिभद्र
१६. विषेशावश्यक भाष्य - जिनभद्र क्षमाश्रमण
१७ ग्रात्म प्रबोध --- जिनलाभसूरि
१८ तीन गुरणव्रत-पूज्य जवाहिराचार्य
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सामायिक पाठ
१६ तत्त्वार्थसूत्र - टीका - वाचक यशोविजय २०. द्वात्रिंशद्वात्रिंशिका - यशोविजय
२१ व्यवहार भाष्य - सघदासगणी २२ राजप्रश्नीयसूत्र टीका - मलयगिरि २३ स्थानाङ्गसूत्र- टीका - अभयदेव २४ सर्वार्थसिद्धि - पूज्यपाद
२५ धर्म - सग्रह - मानविजय
C
२६ सर्वार्थसिद्धि - कमलशील २७. तत्त्वार्थ राजवार्तिक- भट्टाकलङ्क २८ अष्टाध्यायी - व्याकरण - पाणिनि
२६ अमरकोषटीका - भानुजी दीक्षित ३० भगवती सूत्र - वृप्ति - अभयदेव ३१. सामायिक - सूत्र -- स० मोहनलाल देसाई ३२ वैदिक सन्ध्या - दामोदर सातवलेकर
३३ नैषधचरित --- श्रीहर्ष
३४ दशवैकालिक - सूत्र
३५ निशीथ - सूत्र
३६ प्रायश्चित - समुच्चयवृत्ति ३७ निरुक्त
३८ योगशास्त्र - स्वोपज्ञवृत्ति ३६ निशीथसूत्र - चूरिण
४० आचाराङ्ग सूत्र
४१. अन्तकृद्दशाग-सूत्र
४२ कल्प-सूत्र ४३ औपपातिक सूत्र
४४ उत्तराध्ययन सूत्र
४५ स्थानाङ्ग-सूत्र
४६ सूत्रकृताङ्गन्सूत्र
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३२२
सामायिक सूत्र
४७. जातासूत्र ४८ प्रश्नव्याकरण सूत्र ४६. भगवती-सूत्र ५० अमितगति-थावकाचार ५१ उपासकदशाग, सूत्र ५२. भगवद्गीता ५३ यजुर्वेद ५४ अथर्ववेद ५५ शतपथ ब्राह्मण
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