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लोगस्स का ध्यान
सामायिक लेने से पहले जो कायोत्सर्ग किया जाता है, वह आत्म-विशुद्धि के लिए होता है । प्रश्न है कि कायोत्सर्ग मे क्या पढना चाहिए ? किस पाठ का चिन्तन करना चाहिए इस सम्बन्ध मे आजकल दो परपराएं चल रही है, एक परपरा कायोत्सर्ग मे 'ईर्यापथिक' सूत्र का ध्यान करने की पक्षपातिनी है, तो दूसरी परपरा 'लोगस्स' के ध्यान की । ईर्या-पथिक के ध्यान के सम्बन्ध मे प्रश्न यह है कि जब एक बार ध्यान करने से पहले ही ईर्ष्या - पथिक सूत्र पढ लिया गया, तब फिर उसे दुबारा ध्यान मे पढने की क्या आवश्यकता है ?
यदि कहा जाय कि यह आलोचना सूत्र है, अत गमनागमन की क्रिया का ध्यान मे चिन्तन आवश्यक है, तो इसके लिए निवेदन है कि तब तो पहले ध्यान मे ईर्या-पथिक का पाठ पढना चाहिए और फिर बाद मे खुले स्वर से । अतिचारो के चिन्तन मे हम देखते हैं कि पहले ध्यान मे चिन्तन होता है और फिर बाद मे खुले रूप से 'मिच्छामि दुक्कड' दिया जाता है । ध्यान मे 'मिच्छामि दुक्कड देने की न तो परपरा ही है और न औचित्य हो । जव पहले ही खुले रूप मे 'ईरिया वही' पढकर 'मिच्छामि दुक्कड' दे दिया है तो बाद मे पुन उसे ध्यान मे पढने से क्या लाभ ? और यदि पढ भी लो, तो फिर उसका 'मिच्छामि दुक्कड' कहाँ देते हो ? व्यान तो चिंतन के लिए ही है, 'मिच्छामि दुक्कड' के लिए नही । अत लोगस्स के चितनका पक्ष ही अधिक सगत प्रतीत होता है ।