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सामायिक प्रवचन
ध्यान की प्राचीन परंपरा
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लोगस्स के ध्यान के लिए भी एक बात विचारणीय है, वह यह कि आजकल ध्यान मे सम्पूर्ण 'लोगस्स' पढा जाता है, जब कि हमारी प्राचीन परपरा इसकी साक्षी नही देती । प्राचीन परंपरा यह है है कि ध्यान मे 'लोगस्स' का पाठ 'चदेसु निम्मलयरा' तक ही पढना चाहिए । हाँ, बाद मे खुले रूप से पढते समय सम्पूर्ण पढना जरूर आवश्यक है ।
प्रतिक्रमण सूत्र के प्रसिद्ध टीकाकार प्राचार्य तिलक लिखते है" कायोत्सर्गे च चन्देसु निम्मलयरेत्यन्तश्चतुविशतिस्तवश्चिन्त्यः । पारिते च समस्तो भरिणतव्यः ।"
- प्रतिक्रमणसूत्र-वृत्ति
ग्राचार्य हेमचन्द्र जैन-समाज के एक प्रसिद्ध साहित्यकार एव महान् ज्योतिर्धर ग्राचार्य हुए है । आपने योग विषय पर सुप्रसिद्ध योग शास्त्र नामक ग्रन्थ लिखा है । उसकी स्वोपज्ञवृत्ति मे लोगस्स के ध्यान के सम्वन्ध मे ग्राप लिखते हैं
" पञ्चतिशत्युच्छवासाश्च चतुविशतिस्तवेन चन्देसु निम्मलयरा इत्यन्तेन चिन्तितेन पूर्यन्ते । " सम्पूर्ण कायोत्सर्गश्च 'नमो अरिहतारण' इति नमस्कारपूर्वकं पारथित्वा चतुर्विंशतिस्तवं सम्पूर्ण पठति "
- योग० ३।१२४ स्वोपज्ञवृत्ति
यह तो हुई प्राचीन प्रमाणो की चर्चा | अब जरा युक्तिवाद पर भी विचार कर ले । कायोत्सर्ग अन्तर्जगत् की वस्तु है । ब्राह्य इन्द्रियो का व्यापार हटाकर केवल मानस-लोक मे ही प्रवृत्ति करना इसका उद्देश्य है । अत कायोत्सर्ग एक प्रकार की प्राध्यात्मिक निद्रा है । निद्रा-जगत् का प्रतिनिधि चन्द्र है, सूर्य नही । सूर्य वाह्य प्रवृत्ति का, हलचल का प्रतीक है । इस दृष्टि से कायोत्सर्ग मे 'चदेसु निम्मलयरा' तक का पाठ ही अधिक उपयुक्त है । यह अध्यात्मिक लीनता एव स्वच्छता का सूचक है ।
'लोगस्स' के ध्यान के सम्बन्ध मे एक बात और स्पष्ट करना आवश्यक है । आजकल लोगस्स पढा तो जाता है, परन्तु वह सरसता