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लोगस्स का ध्यान
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नही रही, जो पहले थी। इसका कारण बिना लक्ष्य के यो ही अस्तव्यस्त दशा मे 'लोगस्स' का पाठ कर लेना है। आचार्य हरिभद्र आदि प्राचीन आचार्यों ने कायोत्सर्ग मे 'लोगस्स' का ध्यान करते हुए श्वासोच्छवास की ओर लक्ष्य रखने का विधान किया है। उनका कहना है कि "लोगस्स का एकेक पद एकेक श्वास मे पढना चाहिए। एक ी प्रवास मे कई पद पढ लेना, कथमपि उचित नहीं है। यह ध्यान नही, बेगार काटना है। यह दीर्घ श्वास प्राणायाम का एक महत्त्वपूर्ण अग है। और , प्राणायाम योगसाधना का, मन को निग्रह करने का बहुत अच्छा साधन है ।" हॉ, तो इस प्रकार नियम-बद्ध दीर्घ श्वास से ध्यान किया जायगा, तो प्राणायाम का अभ्यास होगा, शब्द के साथ अर्थ की त्वरित विचारणा का भी लाभ होगा। जीवन की पवित्रता केवल शब्द मात्र की आवृत्ति से नही होती है, वह तो शब्द के साथ अर्थ-भावना की गम्भीरता मे उतरने से ही प्राप्त हो सकती है। पाठक जल्दबाजी और आलस्य को छोडकर श्वास-गणना के नियमानुसार, यदि अर्थ का मनन करते हुए, प्रभु के चरणो मे भक्ति का प्रवाह बहाते हुए, एकाग्रचित्त से 'लोगस्स' का ध्यान करेगे, तो वे अवश्य ही भगवत्स्तुति मे प्रानन्द-विभोर होकर अपने जीवन को पवित्र बनाएँगे । यदि इतना लक्ष्य न हो सके, तो जैसा अब पढा जा रहा है, वह परम्परा ही ठीक है। परन्तु, शीघ्रता न करके धीरे-धीरे अर्थ की विचारणा अवश्य अपेक्षित है। * *