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सामायिक्र-प्रवचन निविषय, विचारातीत एव भावातीत होकर शून्य मे लीन हो जायेगा और तब एक अनिर्वचनीय आनन्द की अनुभूति स्फुरित होगी, जो अब तक अनुभव नही की गई है।" __ जैन योग के 'रूपातीत' ध्यान का कुछ स्वरूप भावातीत ध्यान के साथ मेल खाता है, किन्तु मन को विचार शून्य करने की प्रक्रिया का जहाँ सवाल है, वहाँ अब तक के साधको की भाषा मे कोई बुद्धिगम्य प्रक्रिया प्रस्तुत नही की गई है, जिसे सर्व साधारण की बुद्धि मे उतारा जा सके। इसलिए वे ध्यान का प्रयोजन और फलश्रु ति बताने मे जितने सफल हुए हैं, उतने प्रक्रिया समझाने मे नही, और यही कारण है कि स्पष्टता के लिए अधिक चर्चा करने पर कभी-कभी वे इस प्रक्रिया को अनिर्वचनीय भी कह देते हैं।
मेरा अनुभव है कि भावातीत ध्यान की निर्विकल्प प्रक्रिया अवश्य है, और उसमे अपूर्व आनन्दानुभूति भी जग सकती है, किंतु प्राथमिक साधक के लिए इससे अधिक लाभ की सभावना नही है । उक्त अभावात्मक शब्दो से कभी-कभी साधक उलझन मे पड़ जाता है। ठीक तरह कुछ समझ नहीं पाता है । अत प्रारभ्भिक भूमिका मे साधक को क्रमश ही आगे बढ़ना चाहिए। पहले सदाचार, सयम
आदि की सरल एवं सहज साधना द्वारा मन को विशुद्ध करना चाहिए, फिर ध्यान की प्रक्रिया के द्वारा एकाग्र । झरने का बहता विशुद्ध जल तलैया के स्थिर, किन्तु गदे जल से अधिक उपादेय है, इस बात को भूल नही जाना है । जैन साधना-पद्धति इसीलिए ध्यान को समत्वयोग अर्थात् सामायिक के साथ जोडकर चलती है। इस प्रक्रिया मे पहले मन का शोधन किया जाता है और पश्चात् स्थिरीकरण । वस्तुत. शुद्ध मन की एकाग्रता ही ध्यान कहलाती है। प्राचार्य बुद्धघोप के शब्दो मे-'कुसलचित्त एकग्गता समाधि'' पवित्र (कुशल) चित्त का एकाग्र होना ही समाधि है । इसी दृष्टि से हमने सामायिक साधना मे ध्यान प्रक्रिया के कुछ रूप पाठको के समक्ष प्रस्तुत किये है । * *
१ विमुद्धिमग्गो २।३