________________
सामायिक में ध्यान
१२३
यह अवस्था ही परमात्म-दशा अर्थात् सिद्ध अवस्था है । इसलिए आचार्यो ने सिद्ध स्वरूप का चिन्तन भी रूपातीत ध्यान मे गिना है ।
रुपातीत ध्यान की विशेषता यह है कि इसमे किसी प्रकार का बाह्य ससारी विकल्प नही होता । मन बाहर से लौटकर भीतर मे चला जाता है, अर्थात् ग्रात्मा के शुद्ध स्वरूप मे लीन-सा हो जाता है । यह स्वरूपलीनता एक प्रकार की विचारातीत अवस्था-सी है, परन्तु इसे सर्वथा विचार शून्य अवस्था भी नही कह सकते। वह तो ध्यान की अन्तिम अवस्था है, जिसमे मन का समूल विलय हो जाता है । लय और विलय मे बहुत अन्तर है । लय अवस्था मे मन अपना अस्तित्व रखते हुए किसी एक चिन्तन मे एकाकार होता है और विलय अवस्था मे उसका सर्वथा अवरोध हो जाता है, वह गतिशून्य हो जाता है । अस्तु यह चर्चा बहुत सूक्ष्म है । जिज्ञासुओ के लिए अभी इतना ही काफी है कि उन्हे मन को लय अर्थात् एकाग्र करने की साधना करनी है और उसका श्रेष्ठ साधन रूपातीत ध्यान है । भावातीत ध्यान
**
वर्तमान मे कुछ योगसाधको व चिन्तको ने ध्यान के निर्विकल्प रूप पर अधिक बल दिया है । वे मन को चिन्तन - शून्य स्थिति मे ले जाना चाहते है । उनके विचार मे "मन को इधर-उधर से रोककर किसी विषय पर स्थिर करने का मतलब है, मन की पकड को मजबूत बनाए रखना, उसे शिथिल न होने देना । इससे कभी-कभी मन के साथ सघर्ष भी होता है । मन को रोकना एक हठ है और हठ मे सघर्ष एव तनाब की सम्भावना रहती है, प्रत मन को बिल्कुल उन्मुक्त कर देना चाहिए। वह जैसा भी अच्छा-बुरा विकल्प करे, करने देना चाहिए, जहाँ भी वह दोडे दौडने देना चाहिए। आखिर वह कब तक दौडेगा ? अपने आप थक कर धीरे-धीरे शान्त हो जाएगा और फिर अन्तत वह क्षण आएगा, जवकि वह विचार से निर्विचार की ओर स्वत ही बढ जायेगा ।" यह है एक प्रक्रिया, जिसे वर्तमान के ध्यानसाधको ने विशेष महत्त्व दिया है । उनका कहना है कि "मन पर भार या दबाव मत डालो । मन को तप, जप, त्याग, सयम, यम-नियम आदि मे लगाए रखने की कोई अपेक्षा नही । उसे अपने अनन्त स्वरूप मे जाने दो, लय होने दो। वह स्वत ही