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सामायिक की शुद्धि
उपर्युक्त प्रमाणो से स्पष्ट है कि हमारी प्राचीन परपरा, आज की नही, प्रत्युत हरिभद्र के समय से करीब बारह सौ वर्ष तो पुरानी है ही । हरिभद्र ने भी अपने समय मे चली आई प्राचीन परपरा का ही उल्लेख किया है, नवीन का नही। अतएव गृहस्थवेशोचित वस्त्र उतारना ही ठीक है। प्राचीनकाल मे केवल धोती और दुपट्टा, ये दो ही वस्त्र धारण किये जाते थे, अत अर्वाचीन पगडी, कोट, कुरता, पजामा आदि उतार कर सामायिक करने से हमारा ध्यान अपनी प्राचीन संस्कृति की ओर भी उन्मुख होता है।
यह वस्त्र और गहना आदि का त्याग पुरुष-वर्ग के लिए ही विहित है। स्त्री-जाति के लिए ऐसा कोई विधान नही है। स्त्री की मर्यादा वस्त्र उतारने की स्थिति मे नही है। अतएव वे वस्त्र पहने हुए ही सामायिक करे, तो कोई दोष नही है। जिन-शासन-का प्राण ही अनेकान्त है। प्रत्येक विधि-विधान द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव, व्यक्ति आदि को लक्ष्य मे रखकर अनेक रूप माना गया है।
हा, तो द्रव्य-शुद्धि पर अधिक बल देने का भाव यह है कि अच्छे-बुरे पुद्गलो का मन पर असर होता है। बाहर का वातावरण अन्दर के वातावरण को कुछ न कुछ प्रभाव मे लेता ही है। अत मन मे अच्छे विचार एव सात्विक भाव स्फुरित करने के लिए ऊपर की द्रव्य-शुद्धि साधारण साधक के लिए आवश्यक है। हालाकि निश्चय की दृष्टि से यह ऊपर का परिवर्तन कोई आवश्यक नही। निश्चय दृष्टि का साधक हर कही और हर किसी रूप मे अपनी साधना कर सकता है । बाह्य वातावरण, उसे जरा भी क्षुब्ध नही कर सकता। वह नरक-जैसे वातावरण मे भी स्वर्गीय वातावरण का अनुभव कर सकता है। उसका उच्च-जीवन किसी भी विधान के अथवा वातावरण के बन्धन मे ही नहीं रहता। परन्तु, जब साधक इतना दृढ एव स्थिर हो, तभी न ? जब तक साधक पर बाहर के वातावरण का कुछ भी असर पड़ता है, तब तक वह जैसे चाहे वैसे ही अपनी साधना नही चाल रख सकता। उसे शास्त्रीय विधि-विधानो के पथ पर चलना ही आवश्यक है।