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समाप्ति-सूत्र
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पूर्ण होने से पहले ही सामायिक समाप्त कर ले, तो वह अनाचार नही, प्रत्युत अतिचार है।
शका-समाधान
प्रश्न-मन की गति बडी सूक्ष्म है। वह तो अपनी चचलता किए विना रहता ही नही। और, उधर सामायिक के लिए मन से भी सावद्य-व्यापार करने का त्याग किया है, अत प्रतिमा भग होजाने के कारण सामायिक तो भग हो ही जाती है। अस्तु, सामायिक करने की अपेक्षा सामायिक न करना ही ठीक है। प्रतिज्ञाभग करने का दोप तो नही लगेगा?
उत्तर--सामायिक की प्रतिज्ञा के लिए छह कोटि बताई गई है। अत यदि एक मन की कोटि टूटती है, तो बाकी पाँच कोटि तो बनी ही रहती है, सामायिक का सर्वथा भग या अभाव तो नही होता । मनोरूप अशत भग की शुद्धि के लिए शास्त्रकारो ने पश्चात्ताप-पूर्वक 'मिच्छा मि-दुक्कड' का कथन किया है। विघ्न के भय से काम ही प्रारम्भ न करना, मूर्खता है। सामायिक, शिक्षाव्रत है। शिक्षा का अर्थ है, निरन्तर अभ्यास के द्वारा प्रगति करना । अभ्यास चालू रखिए, एक दिन मन पर नियन्त्रण हो ही जाएगा। यह असन्दिग्ध है।