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सामायिक पाठ
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समाधिगम्यः परमात्म-संज्ञ:,
स देवदेवो हृदये ममास्ताम् ॥१३॥ -जो अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन और अनन्त सुख का स्वभाव धारण करता है, जो ससार के समस्त विकारो से रहित है, जो निर्विकल्प समाधि (ध्यान की निश्चलता) के द्वारा ही अनुभव में आता है, वह परमात्मा देवाधिदेव मेरे हृदय में विराजमान होवे !
निषूदते यो भवदुःख-जाल,
निरीक्षते यो जगदन्तरालम् । योऽन्तर्गतो योगिनिरीक्षणीयः,
स देवदेवो हृदये ममास्ताम् ॥१४॥ -जो ससार के समस्त दुख-जाल को विध्वस्त करता है, जो त्रिभुवनवर्ती सब पदार्थो को देखता है, और जो अन्तर्हदय मे योगियो द्वारा निरीक्षण किया जाता है, वह देवाधिदेव मेरे हृदय में विराजमान होवे ।
विमुक्ति-मार्ग-प्रतिपादको यो,
यो जन्ममृत्यु-व्यसनाद् व्यतीतः । त्रिलोकलोको विकलोऽकलङ्कः,
स देवदेवो हृदये ममास्ताम् ॥ १५ ॥ -जो मोक्ष-मार्ग का प्रतिपादन करने वाला है, जो जन्म-मरणरूप आपत्तियो से दूर है, जो तीन लोक का द्रष्टा है, जो शरीर-रहित है और निष्कलक है, वह देवाधिदेव मेरे हृदय में विराजमान होवे ।
क्रोडीकृताशेष शरीरि-वर्गा ,
रागादयो यस्य न सन्ति दोषाः । निरिन्द्रियो ज्ञानमयोऽनपायः,
स देवदेवो हृदये ममास्ताम् ।।१६।। -समस्त ससारी जीवो को अपने नियत्रण मे रखने वाले रागादि दोष जिसमे नाममात्र को भी नही है, जो इन्द्रिय तथा मन से रहित है,