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सामायिक सूत्र
- हे भद्र | यदि वस्तुत देखा जाए तो समाधि का साधन न आसन है, न लोक - पूजा है, और न संध का मेल-जोल ही है । अतएव तू तो ससार की समस्त वासनाओ का परित्याग कर निरन्तर अध्यात्मभाव मे लीन रह ।
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न सन्ति बाह्याः मम केचनार्था,
भवामि तेषां न कदाचनाहम् ।
इत्थं विनिश्चित्य विमुच्य बाह्य,
स्वस्थः सदा त्वं भव भद्र ! मुक्त्यै ॥२४॥
- संसार मे जो भी बाह्य भौतिक पदार्थ है, वे मेरे नही हैं और न मैं ही कभी उनका हो सकता हूँ - इस प्रकार हृदय मे निश्चय ठान कर हे भद्र । तू वाह्य वस्तुओ का त्याग कर दे और मोक्ष की प्राप्ति के लिए सदा आत्म-भाव मे स्थिर रह ।
श्रात्मानमात्मन्यवलोक्यमानस्
त्वं दर्शन ज्ञानमयो विशुद्धः ।
एकाग्रचित्तः खलु यत्र-तत्र,
स्थितोऽपि साधुर्लभते समाधिम् ||२५||
- जब तू अपने को अपने ग्राप मे देखता है, तव तू दर्शन और ज्ञान रूप हो जाता है, पूर्णतया शुद्ध हो जाता है । जो साधक अपने चित्त को एकाग्र बना लेता है, वह जहाँ कही भी रहे, समाधि-भाव को प्राप्त कर लेता है ।
एकः सदा शाश्वतिको ममात्मा,
विनिर्मलः साधिगमस्वभावः । बहिर्भवाः सन्त्यपरे समस्ता,
न शाश्वता कर्मभवा स्वकीयाः ||२६||
- मेरी आत्मा सदैव एक है, अविनाशी है, निर्मल है और केवल ज्ञान-स्वभाव है । जो कुछ भी वाह्य पदार्थ है, सव आत्मा से भिन्न हैं । कर्मोदय से प्राप्त, व्यवहार दृष्टि से अपने कहे जाने वाले जो भी वाह्य-भाव है, सब अशाश्वत है, अनित्य है ।