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________________ समायिक पाठ यस्यास्ति नक्य वपुषाऽपि सार्द्ध, ___ तस्यास्ति किं पुत्र-कलत्र मित्र: ? पृथक्कृते चमरिण रोमकूपाः, कुतो हि तिष्ठन्ति शरीरमध्ये ॥२७।। -जिसकी अपने शरीर के साथ भी एकता नही है, भला उस आत्मा का पुत्र, स्त्री और मित्र आदि से तो सम्बन्ध ही क्या हो सकता है ? यदि शरीर के ऊपर से चमडा अलग कर दिया जाए, तो उसमे रोम-कूप कसे ठहर सकते हैं ? बिना आधार के प्राधेय कैसा? संयोगता दुःखमनेकभेद, यतोऽश्नुते जन्मवने शरीरी । ततस्त्रिधाऽसौ परिवर्जनीयो, यियासुना निर्वृतिमात्मनीनाम् ॥२८॥ -ससार रूपी वन मे प्राणियो को जो यह अनेक प्रकार का दुख भोगना पडता है, वह सब सयोग के कारण है, अतएव अपनी मुक्ति अभिलाषियो को यह सयोग मन, वचन एव शरीर तीनो ही प्रकार से छोड देना चाहिए। सर्व निराकृत्य विकल्पजाल, ससार-कान्तार-निपातहेतुम् । विविक्तमात्मानमवेक्ष्यमारणो, निलीयसे त्व परामात्म-तत्त्वे ॥२६॥ -ससार--रूपी वन मे भटकाने वाले सब दुर्विकल्पों का त्याग करके तू अपनी आत्मा को पूर्णतया जड से भिन्न रूप मे देख और परमात्मतत्त्व मे लीन हो। स्वयं कृतें कर्म यदात्मना पुरा, फलं तदीय लभते शुभाशुभम् । परेण दत्त यदि लभ्यते स्फुटं, __ स्वयं कृत कर्म निरर्थकं तदा ॥३०॥ -आत्मा ने पहले जो कुछ भी शुभाशुभ कर्म किया है, उसी का
SR No.010073
Book TitleSamayik Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1969
Total Pages343
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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