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प्रणिपात-सूत्र
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कारण है कि तीर्थकर भगवान् पुराने शास्त्रो के अनुसार हूबहू न स्वय चलते हैं, न जनता को चलाते है। स्वानुभव के बल पर नये शास्त्र और नये विधि-विधान निर्माण करके जनता का कल्याण करते है, अत वे आदिकर कहलाते है। उक्त विवेचन पर से उन सज्जनो का समाधान भी हो जाएगा, जो यह कहते है कि आज कल जो जैन-शास्त्र मिल रहे है, वे भगवान महावीर के उपदिष्ट ही मिल रहे है, भगवान् पार्श्वनाथ आदि के क्यो नही मिलते ?
तीर्थकर
अरिहन्त भगवान् तीर्थ कर कहलाते हैं। तीर्थकर का अर्थ है-तीर्थ का निर्माता। जिसके द्वारा ससाररूप मोहमाया का महानद सुविधा के साथ तिरा जाए, वह धर्म-तीर्थ कहलाता है। और, इस धर्म-तीर्थ की स्थापना करने के कारण भगवान् महावीर आदि तीर्थ कर कहे जाते हैं ।
पाठक जानते हैं कि उफनती नदी के प्रवाह को तैरना कितना कठिन कार्य है ? साधारण मनुष्य तो देखकर ही भयभीत हो जाते है, अन्दर घुसने का साहस ही नही कर पाते । परन्तु जो अनुभवी तैराक हैं, वे साहस करके अन्दर घुसते है, और मालूम करते है कि किस ओर पानी का वेग कम है, कहाँ पानी छिछला है, कहाँ जलचर जीव नही है, कहाँ भवर और गर्त आदि नही है, कौन-सा मार्ग सर्व साधारण जनता को नदी पार करने के लिए ठीक रहेगा? ये साहसी तैराक ही नदी के घाटो का निर्माण करते है । सस्कृत भापा मे घाट के लिए 'तीर्थ' शब्द प्रयुक्त होता है । अतः ये घाट के बनाने वाले तैराक, लोक मे तीर्थ कर कहलाते है। हमारे तीर्थ कर भगवान् भी इसी प्रकार घाट के निर्माता थे, अत तीर्थ कर कहलाते थे। आप जानते है, यह ससार-रूपी नदी कितनी भयकर है ? क्रोध, मान, माया, लोभ आदि के हजारो विकार-रूप मगरमच्छ, भँवर और गर्त है इसमे, जिन्हे पार करना सहज नही है। साधारण साधक इन विकारो के भवर मे फंस जाते हैं, और डूब जाते है। परन्तु, तीर्थ कर देवो ने सर्व-साधारण