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सामायिक सूत्र
आदिकर
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अरिहन्त भगवान् 'ग्रादिकर' भी कहलाते है । श्रादि कर का मूल अर्थ है, ग्रादि करने वाला । पाठक प्रश्न कर सकते है कि किस की आदि करने वाला ? धर्म तो अनादि है, उसकी श्रादि कैसी ? उत्तर है कि धर्म अवश्य अनादि है । जब से यह संसार है, ससार का बन्धन है, तभी से धर्म है, और उसका फल मोक्ष भी है। जब ससार अनादि है, तो धर्म भी अनादि ही हुआ । परन्तु यहाँ जो धर्म की आदि करने वाला कहा है, उसका अभिप्राय यह है कि अरिहन्त भगवान् धर्म का निर्माण नहीं करते, प्रत्युत धर्म की व्यवस्था का, धर्म की मर्यादा का निर्माण करते है। अपने-अपने युग मे धर्मं मे जो विकार आ जाते है, धर्म के नाम पर जो मिथ्या श्राचार फैल जाते है, उनकी शुद्धि करके नये सिरे से धर्म की मर्यादाओ का विधान करते है । अत अपने युग मे धर्म की आदि करने के कारण अरिहन्त भगवान् श्रादिकर' कहलाते हैं ।
हमारे विद्वान् जैनाचार्यो की एक परम्परा यह भी है कि अरिहन्त भगवान् श्रुत-धर्म की आदि करने वाले हैं, अर्थात् श्रुत धर्म का निर्माण करने वाले है । जैन साहित्य मे प्रचाराग आदि धर्म-सूत्रो को श्रुत धर्म कहा जाता है । भाव यह है कि तीर्थ कर भगवान् पुराने चले आये धर्मशास्त्रो के अनुसार अपनी साधना का मार्ग नही तैयार करते । उनका जीवन अनुभव का जीवन होता है । अपने आत्मानुभव के द्वरा ही वे अपना मार्ग तय करते है और फिर उसी को जनता के समक्ष रखते है । पुराने पोथी-पत्रो का भार लाद कर चलना, उन्हे अभीष्ट नही है । हर एक युग का द्रव्य, क्षेत्र, काल, और भाव के अनुसार अपना अलग शास्त्र होना चाहिए, अलग विधि-विधान होना चाहिए। तभी जनता का वास्तविक हित हो सकता है, अन्यथा नही । जो शास्त्र चालू युग की अपनी दुरूह गुत्थियो को नही सुलझा सकते, वर्तमान परिस्थितियो पर प्रकाश नही डाल सकते, वे शास्त्र मानवजाति के अपने वर्तमान युग के लिए अकिंचित्कर है, अन्यथा सिद्ध है । यही