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________________ प्रणिपात-सूत्र २५९ है। इसके पीछे एक विशिष्ट भाव-राशि रही हुई है ! 'भगवान्' शब्द 'भग' शब्द से बना है। अत भगवान् का शब्दार्थ है'भगवाला अात्मा।' आचार्य हरिभद्र ने भगवान् शब्द पर विवेचन करते हुए 'भग' शब्द के छ अर्थ बतलाये है-ऐश्वर्य प्रताप, वीर्य-शक्ति अथवा उत्साह, यश-कीर्ति, श्री शोभा, धर्म=सदाचार और प्रयत्न कर्तव्य की पूर्ति के लिए किया जाने वाला अदम्य पुरुषार्थ । वह श्लोक इस प्रकार है ऐश्वर्यस्य समग्रस्य, वीर्यस्य' यशस श्रियः । धर्मस्याऽथ प्रयत्नस्य, षण्णां भग इतीङ्गना ॥ -दशवैकालिक-सूत्र टीका, ४/१ __हाँ तो अब भगवान् शब्द पर विचार कीजिए। जिस महान् आत्मा मे पूर्ण ऐश्वर्य, पूर्ण वीर्य, पूर्ण यश, पूर्ण श्री, पूर्ण धर्म और पूर्ण प्रयत्न हो, वह भगवान कहलाता है। तीर्थकर महाप्रभु मे उक्त छहो गुण पूर्ण रूप से विद्यमान होते हैं, अत वे भगवान कहे जाते है। जैन-सस्कृति, मानव-सस्कृति है। यह मानव मे ही भगवत्स्वरूप की झाँकी देखती है। अत जो साधक, साधना करते हुए वीतराग-भाव के पूर्ण विकसित पद पर पहुँच जाता है, वही यहाँ भगवान् बन जाता है। जैन-धर्म यह नही -मानता कि मोक्ष लोक से भटक कर ईश्वर यहाँ अवतार लेता है, और वह ससार का भगवान् बनता है। जैन-धर्म का भगवान् भटका हुआ ईश्वर नही, परन्तु पूर्ण विकास पाया हुया मानव-आत्मा ही ईश्वर है, भगवान् है। उसी के चरणो मे स्वर्ग के इन्द्र अपना मस्तक झुकाते है, उसे अपना आराध्य देव स्वीकार करते है। तीन लोक का सम्पूर्ण ऐश्वर्य उसके चरणो मे उपस्थित रहता है। उसका प्रताप, वह प्रताप है, जिसके समक्ष कोटि-कोटि सूर्यों का प्रताप और प्रकाश भी फीका पड जाता है। १ आचार्य जिनदास ने दशवकालिक चूणि मे 'वीर्य' के स्थान मे 'रूप' । शब्द का प्रयोग किया है।
SR No.010073
Book TitleSamayik Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1969
Total Pages343
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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