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________________ २५८ सामायिक-सूत्र गुप्त वस्तु। जिनसे विश्व का कोई रहस्य छुपा हुआ नहीं है, अनन्तानन्त जडचैतन्य पदार्थो को हस्तामलक की भाँति स्पष्ट रूप से जानते देखते है, वे अरहोन्तर कहलाते हैं। अरथान्त का अर्थ है-परिग्रह और मृत्यु से रहित । 'रथ' शब्द उपलक्षण से परिग्रह-मात्र का वाचक है और अन्त शब्द विनाश एव मृत्यु का। अत जो सब प्रकार के परिग्रह से और जन्म-मरण से प्रतीत हो, वह अरथान्त कहलाता है। अरहन्त का अर्थ-पासक्ति-रहित है। रह का अर्थ आसक्ति है, अत जो मोहनीय कर्म को समूल नष्ट कर देने के कारण राग-भाव से सर्वथा रहित हो गए हो, वे अरहन्त कहलाते है। अरुहन्त का अर्थ है-कर्म-वीज को नष्ट कर देने वाले, फिर कभी जन्म न लेने वाले । 'मह' धातु का सस्कृत भाषा मे अर्थ हैसन्तान अर्थात् परपरा । वीज से वृक्ष, वृक्ष से वीज, फिर वीज से वृक्ष और वृक्ष से बीज-यह बीज और वृक्ष की परपरा अनादिकाल से चली आ रही है। यदि कोई वीज को जला कर नष्ट कर दे, तो फिर वृक्ष उत्पन्न नहीं होगा, वीज-वृक्ष की परम्परा समाप्त हो जायगी। इसी प्रकार कर्म से जन्म, और जन्म से कर्म की परम्परा भी अनादिकाल से चली आ रही है। यदि कोई साधक रत्नत्रय की साधना की अग्नि से कर्म-बीज को पूर्णतया जला डाले, तो वह सदा के लिए जन्म-मरण की परम्परा से मुक्त हो जाएगा, अरुहन्त बन जाएगा। अरुहन्त शब्द की इसी व्याख्या को ध्यान मे रख कर प्राचार्य उमास्वाति तत्त्वार्थ-सूत्र के अपने स्वोपज्ञ भाप्य मे कहते हैं दग्धेवीजे यथाऽत्यन्तं, प्रादुर्भवति नाऽड कुर । कर्म-वीजे तथा दग्धे, न रोहति भवाह कुरः ।। -अन्तिम उपसहारकारिका प्रकरण भगवान का स्वरूप भारतवर्ष के दार्शनिक एवं धार्मिक साहित्य मे भगवान् शब्द बडा ही उच्च कोटि का भावपूर्ण शब्द माना जाता
SR No.010073
Book TitleSamayik Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1969
Total Pages343
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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