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________________ प्रणिपात-सूत्र २५७ लडना है, अपने-आपसे लडना है। विश्व-शान्ति का मूल इसी भावना मे है। अरिहन्त बनने वाला, अरिहन्त बनने की साधना करने वाला, अरिहन्त की उपासना करने वाला ही, विश्व-शान्ति का सच्चा स्रष्टा हो सकता है, अन्य नही। हाँ तो, इसी अन्त शत्रुओ को हनन करने वाली भावना को लक्ष्य मे रख कर आचार्य भद्रबाहु ने कहा है कि 'ज्ञानावरणीय आदि आठ प्रकार के कर्म ही वस्तुतः ससार के सब जीवो के अरि है। अत जो महापुरुष उन कर्म शत्रुओ का नाश कर देता है, वह अरिहन्त कहलाता है। अट्ठ विह पि य कम्म, अरिभूय होइ सव्व-जीवाण । तं कम्मरि हता, अरिह ता तेण वुच्चति ॥ -आवश्यक नियुक्ति ६१४ प्राचीन मागधी, प्राकृत और सस्कृत आदि भाषाएँ, बडी गम्भीर एव अनेकार्थ-बोधक भाषाएं हैं। यहाँ एक शब्द, अपने अन्दर मे रहे हुए अनेकानेक गभीर भावो की सूचना देता है। अतएव प्राचीन आचार्यों ने अरिहन्त आदि शब्दो के भी अनेक अर्थ सूचित किए है। अधिक विस्तार मे जाना यहाँ अभीष्ट नही है, तथापि सक्षेप मे परिचय के नाते कुछ लिख देना आवश्यक है। ___ 'अरिहन्त' शब्द के स्थान मे कुछ प्राचीन आचार्यो ने अरहन्त और अरुहन्त पाठान्तर भी स्वीकार किए हैं। उनके विभिन्न सस्कृत रूपान्तर होते हैं-अर्हन्त, अरहोन्तर, अरथान्त, अरहन्त, और अरुहन्त आदि । 'अह-पूजायाम्' धातु से बनने वाले अर्हन्त शब्द का अर्थ पूज्य है । वीतराग तीर्थ कर-देव विश्वकल्याणकारी धर्म के प्रवर्तक हैं, अत असुर, सुर, नर आदि सभी के पूजनीय है। वीतराग की उपासना तीन लोक मे की जाती है, अतः वे त्रिलोक-पूज्य हैं, स्वर्ग के इन्द्र भी प्रभु के चरण कमलो की धूल मस्तक पर चढाते है, और अपने को धन्य-धन्य समझते है। अरहोन्तर का अर्थ—सर्वज्ञ है। रह का अर्थ है-रहस्यपूर्ण
SR No.010073
Book TitleSamayik Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1969
Total Pages343
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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