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सामायिक-सूत्र
होता है। जैन-धर्म का मूल मन्त्र नवकार है, उसमे भी सर्व-प्रथम 'नमो-अरिहताण' है। जैन-धर्म की साधना का मूल सम्यग्दर्शन है, उसके प्रतिज्ञा-सूत्र मे भी सर्व-प्रथम 'अरिहन्तो मह देवो' है । अतएव प्रस्तुत 'नमोत्थुण' सूत्र का प्रारम्भ भी 'नमोत्थुरण अरिहताण' से ही हुआ है। जैन-सस्कृति और जैन विचार-धारा का मूल अरिहन्त ही है। जैन-धर्म को समझने के लिए अरिहन्त शब्द का समझना, अत्यावश्यक है।
अरिहन्त का अर्थ है-'शत्रुनो को हनन करने वाला।' आप प्रश्न कर सकते हैं कि यह भी कोई धार्मिक आदर्श है ? अपने शत्रुओ को नष्ट करने वाले हजारो क्षत्रिय है, हजारो राजा है, क्या वे वन्दनीय है ? गीता मे श्रीकृष्ण के लिए भी 'अरिसूदन' शब्द आता है, उसका अर्थ भी शत्रुओं का नाश करने वाला ही है। श्रीकृष्ण ने कस, शिशुपाल, जरासन्ध आदि शत्रुओ का नाश किया भी है। अत क्या वे भी अरिहन्त हुए, जैन सस्कृति के आदर्श देव हए ? उत्तर मे निवेदन है कि यहाँ अरिहन्त से अभिप्राय, बाह्य शत्रुओ को हनन करना नही है, प्रत्युत अन्तरग काम-क्रोधादि शत्रयो को हनन करना है। बाहर के शत्रुप्रो को हनन करने वाले हजारो वीर क्षत्रिय मिल सकते हैं भयङ्कर सिंहो और बाघो को मृत्यु के घाट उतारने वाले भी मिलते है, परन्तु अपने अन्दर मे ही रहे हुए कामादि शत्रुओ को हनन करने वाले सच्चे प्राध्यात्मक्षेत्र के क्षत्रिय विरले ही मिलते है। एक साथ करोड शत्रयो से जूझने वाले कोटि-भट वीर भी अपने मन की वासनाओ के आगे थर-थर कॉपने लगते है, उन के इशारे पर नाचने लगते है। हजारो वीर धन के लिए प्राण देते है, तो हजारो सुन्दर स्त्रियो पर मरते है। रावण-जैसा विश्व-विजेता वीर भी अपने अन्दर की कामवासना से मुक्ति नही प्राप्त कर सका। अतएव जैन-धर्म कहता है कि अपने-आप से लडो | अन्दर की वासनाओ से लडो । बाहर के शत्रु इन्ही के कारण जन्म लेते है। विष-वक्ष के पत्ते नोचने से काम नहीं चलेगा, जड उखाडिए, जड | जब अन्तरग हृदय मे कोई सासारिक वासना ही न होगी, काम, क्रोध, लोभ
आदि की छाया ही न रहेगी, तब विना कारण के बाह्य शत्र क्यो कर जन्म लेंगे? जैन-धर्म का युद्ध, धर्म-युद्ध है । इसमे वाहर से नहीं