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प्रणिपात -सूत्र
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देव-भक्ति के पवित्र क्षेत्र मे देवमूढता को हृदय सिंहासन पर बिठा लेता है । आज ससार मे जो अनेक प्रकार के कामी, क्रोधी, ग्रहकारी, रागी, द्वेपी, विलासी देवताओ का जाल बिछा हुआ है, काली और भैरव यादि देवताओ के समक्ष जो दीन, मूक पशुओ का हत्याकाड रचा जा रहा है, वह सब इसी अन्ध-भक्ति और देव मूढता का कुफल है । भक्ति के प्रवेश मे होने वाले इसी बौद्धिक पतन को लक्ष्य मे रख कर प्रस्तुत शक्रस्तव - सूत्र मे - 'नमोत्थुरण' मे तीर्थ कर भगवान् के विश्व- हितकर निर्मल ग्रादर्श गुणो का अत्यन्त सुन्दर परिचय दिया गया है । तीर्थ कर भगवान् की स्तुति भी हो, और साथ-साथ उनके महामहिम सद्गुणो का वर्णन भी हो, यही 'नमोत्थुरण- सूत्र' की विशेषता है । 'एका क्रिया द्वयर्थक प्रसिद्धा' की लोकोक्ति यहाँ पूर्णतया चरितार्थ हो जाती है । सूत्रकार ने 'नमोत्थुरण' मे भगवान् के जिन ग्रनुपम गुणो का मगलगान किया है, उन मे प्रत्येक गुण इतना विशिष्ट है, इतना प्रभावक है कि जिसका वर्णन वारणी द्वारा नही हो सकता । भक्त के सच्चे उत्फुल्ल हृदय से ग्राप प्रत्येक गुरण पर विचार कीजिए, चिन्तन कीजिए, मनन कीजिए, आप को एक-एक ग्रक्षर मे, एक-एक मात्रा मे अलौकिक चमत्कार भरा नजर आएगा । 'गुरणा पूजा-स्थान गुणिषु, नच लिंग न च वय' [ [ गुरण ही पूजा का कारण है, वेश या आयु नही ] - का महान् दार्शनिक घोष, यदि आप अक्षर-अक्षर मे सेमात्रा - मात्रा मे से ध्वनित होता हुआ सुनना चाहते है, तो अधिक नही, केवल 'नमोत्थुरण' का ही भावना भरे हृदय से पाठ कीजिए । आपको इसी मे सब कुछ मिल जाएगा ।
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अरिहन्त : स्वरूप और परिभाषा
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भगवान् - वीतराग देव ग्ररिहन्त होते है । अरिहन्त हुए बिना वीतरागता हो ही नही सकती। दोनो मे कार्य-कारण का अटूट सम्वन्ध है । अरिहन्तता कारण है, तो वीतरागता उसका कार्य है जैन-धर्म विजय का धर्म है, पराजय का नही । शत्रुओ को जड मूल से नष्ट करने वाला धर्म है, उसकी गुलामी करने वाला नही । यही कारण है कि सम्पूर्ण जैन साहित्य अरिहन्त और जिनके मगलाचरण से प्रारम्भ होता है, और अन्त मे इनसे ही समाप्त