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सामायिक सूत्र
साधको की सुविधा के लिए धर्म का घाट वना दिया है, सदाचाररूपी विधि-विधानो की एक निश्चित योजना तैयार करदी है, जिस से हर कोई साधक सुविधा के साथ इस भीपण नदी को पार कर सकता है।
तीर्थ का अर्थ पुल भी है । विना पुल के नदी से पार होना वडे-से-बडे वलवान् के लिए भी अशक्य है; परन्तु पुल बन जाने पर साधारण दुर्बल, रोगी यात्री भी बड़े श्रानन्द से पार हो सकता है । और तो क्या, नन्ही-सी चीटी भी इधर से उधर पार हो सकती है । हमारे तीर्थ कर वस्तुत संसार की नदी को पार करने के लिए धर्म का तीर्थ बना गए हैं, पुल बना गए है । साधु साध्वी, श्रावक और श्राविका रूप चतुविध सघ की धर्म - साधना, ससार सागर से पार होने के लिए पुल है । अपने सामर्थ्य के अनुसार इनमे से किसी भी पुल पर चढिए, किसी भी धर्म-साधना को अपनाइए, आप पल्ली पार हो जाएँगे ।
आप प्रश्न कर सकते हैं कि इस प्रकार धर्म-तीर्थ की स्थापना करने वाले तो भारतवर्ष मे सर्वप्रथम श्री ऋषभदेव भगवान् हुए थे, श्रत वे ही तीर्थ कर कहलाने चाहिए । दूसरे तीर्थ करो को तीर्थ कर क्यो कहा जाता है ? उत्तर मे निवेदन है कि प्रत्येक तीर्थ कर अपने युग मे प्रचलित धर्म-परम्परा में समयानुसार परिवर्तन करता है, प्रत नये तीर्थ का निर्माण करता है । पुराने घाट जव खराव हो जाते है, तब नया घाट ढूढा जाता है न ? इसी प्रकार पुराने धार्मिक विधानो मे विकृति था जाने के वाद नये तीर्थकर, ससार के समक्ष नए धार्मिक विधानो की योजना उपस्थित करते है । धर्म का मूल प्रारण वही होता है, केवल क्रियाकाण्ड रूप शरीर बदल देते हैं । जैन-समाज प्रारम्भ से, केवल धर्म की मूल भावनाओ पर विश्वास करता आया है, न कि पुराने शब्दों और पुरानी पद्धतियों पर । जैन तीर्थ करो का शासन-भेद, उदाहरण के लिए भगवान् पार्श्वनाथ और भगवान् महावीर का शासन-भेद मेरी उपर्युक्त मान्यता के लिए ज्वलन्त प्रमाण है ।