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प्रणिपात-सूत्र
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स्वयसम्बुद्ध
तीर्थ कर भगवान् स्वयसम्बुद्ध कहलाते है । स्वयसम्बुद्ध का अर्थ है-अपने-आप प्रवुद्ध होने वाले, बोध पाने वाले, जगने वाले । हजारो लोग ऐसे हैं, जो जगाने पर भी नही जगते। उनकी अज्ञान निद्रा अत्यन्त गहरी होती है। कुछ लोग ऐसे होते है, जो स्वय तो नही जग सकते, परन्तु दूसरो के द्वारा जगाए जाने पर अवश्य जग उठते है। यह श्रेणी साधारण साधको की है। तीसरी श्रेणी उन पुरुषो की है, जो स्वयमेव समय पर जाग जाते है, मोहमाया की निद्रा त्याग देते है, और मोह-निद्रा मे प्रसुप्त विश्व को भी अपनी एक आवाज से जगा देते है। हमारे तीर्थ कर इसी श्रेणी के महापुरुष हैं। तीर्थ कर देव किसी के वताए हुए पूर्व निर्धारित पथ पर नही चलते । वे अपने और विश्व के उत्थान के लिए स्वय अपने-आप अपने पथ का निर्माण करते है। तीर्थ कर को पथ-प्रदर्शन करने के लिए न कोई गुरु होता है, और न कोई शास्त्र | वह स्वय ही अपना पथ-प्रदर्शक है, स्वय ही उस पथ का यात्री है। वह अपना पथ स्वय खोज निकालता है। स्वावलम्बन का यह महान् आदर्श, तीर्थ करो के जीवन मे कूट-कूट कर भरा होता है। तीर्थंकर देव सडी-गली और पुरानी व्यर्थ परम्पराओ को छिन्न-भिन्न कर जन-हित के लिए नई परम्पराएँ, नई योजनाएं स्थापित करते हैं। उनकी क्राति का पथ स्वय अपना होता है, वह कभी भी परमुखापेक्षी नही होते !
पुरुषोत्तम
तीर्थकर भगवान् पुरुषोत्तम होते है। पुरुषोत्तम, अर्थात् पुरुषो मे उत्तम-श्रेष्ठ । भगवान् के क्या बाह्य और क्या ग्राभ्यन्तर, दोनो ही प्रकार के गुण अलौकिक होते हैं, असाधारण होते है। भगवान् का रूप त्रिभुवन-मोहक ! भगवान् का तेज सूर्य को भी हतप्रभ बना देने वाला । भगवान् का मुखचन्द्र सुरनर-नाग नयन मनहर । भगवान् के दिव्य शरीर मे एक-से-एक उत्तम एक हजार आठ लक्षण होते हैं, जो हर किसी दर्शक को