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सामायिक-सूत्र
उनकी महत्ता की सूचना देते है। वर्षभनाराच सहनन और समचतुरस्र सस्थान का सौदर्य तो अत्यन्त ही अनूठा होता है । भगवान् के परमौदारिक शरीर के समक्ष देवताओ का दीप्तिमान वैक्रिय शरीर भी बहुत तुच्छ एव नगण्य मालूम देता है। यह तो है वाह्य ऐश्वर्य की वात | अब जरा अन्तरग ऐश्वर्य की बात भी मालूम कर लीजिए। तीर्थ कर देव अनन्त चतुष्टय के धर्ता होते है। उनके अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन आदि गुणो की समता भला दूसरे साधारण देवपद-वाच्य कहाँ कर सकते है ? तीर्थ कर देव के अपने युग मे कोई भी ससारी पुरुष उनका समकक्ष नही होता।
पुरुषसिंह
तीर्थकर भगवान् पुरुषो मे सिंह होते है। सिंह एक अज्ञानी 'पशु है, हिंसक जीव है। अत: कहाँ वह निर्दय एव क्रूर पशु
और कहाँ दया एव क्षमा के अपूर्व भडार भगवान् ? भगवान् को सिंह की उपमा देना, कुछ उचित नहीं मालूम देता | वात यह है कि यह मात्र एकदेशी उपमा है । यहाँ सिंह से अभिप्राय, सिंह की वीरता और पराक्रम से है। जिस प्रकार बन मे पशुओ का राजा सिंह अपने बल और पराक्रम के कारण निर्भय रहता है, कोई भी पशु वीरता मे उसकी बराबरी नही कर सकता है, उसी प्रकार तीर्थ कर देव भी ससार मे निर्भय रहते है, कोई भी ससारी व्यक्ति उनके आत्म-बल और तपस्त्याग सम्बन्धी वीरता की बराबरी नही कर सकता।
सिंह की उपमा देने का एक अभिप्राय और भी हो सकता है। वह यह कि ससार मे दो प्रकृति के मनुष्य होते है-एक कुत्ते की प्रकृति के और दूसरे सिंह की प्रकृति के। कुत्ते को जब कोई लाठी मारता है, तो वह लाठी को मुंह मे पकडता है और समझता है कि लाठी मुझे मार रही है। वह लाठी मारने वाले को नही काटने दौडता, लाठी को काटने दौडता है। इसी प्रकार जव कोई शत्रु किसी को सताता है तो वह सताया जाने वाला व्यक्ति सोचता है कि यह मेरा शत्रु है, यह मुझे तग करता है, मैं इसे